आज आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की पुण्यतिथि है. उनका ज़िक्र होते ही हमें इस अमर कबीर शोधार्थी के निबन्ध, उपन्यास ही याद आते हैं पर द्विवेदी जी एक अच्छे कवि भी थे। द्विवेदी जी भी चाहते थे कि उनका कवि रूप भी लोगों के सामने आए पर शायद उनकी प्रकांड विद्ववत्ता ही इस आड़े आ गयी और किसी ने उनकी कविताओं को गंभीरता से नहीं लिया। इनके निबन्धों की तरह उनकी कविताओं में भी वाग्विदग्धता और विनोद तो मिलता ही है पर कबीर के फक्कड़ाना स्वभाव का उन पर कितना असर था ये भी पता चलता है। रीतिकालीन ब्रज के वैभव, खड़ी बोली की खड़खड़ाहट, और तो और संस्कृत की पद्यशैली में भी आचार्य श्री कितने सिद्धहस्त थे इसी का वर्णन विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने हजारीप्रसाद द्विवेदी के पुण्य स्मरण ‘व्योमकेश दरवेश‘ में किया है। प्रस्तुत हैं उसी के कुछ अंश — दिव्या विजय
गुरूवर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कवि रूप अपेक्षाकृत अल्पज्ञात है। उनकी कोई कविता किसी पत्रिका में प्रकाशित मैंने नहीं देखी है। ‘कवि‘ (संपादक : विष्णुचंद्र शर्मा) में उन्होंने भवानीप्रसाद मिश्र की कविताओं पर अपने विचार कविता के रूप में प्रकट किए थे। वह कविता में लिखी हुई आलोचना है। हल्के मूड में कभी–कभी वे अपनी कवितायें सुनाते थे। उनके शिष्यों ने भी उनकी कविताओं को गंभीरता से नहीं लिया। डॉ. नामवर सिंह ने ‘आलोचना‘ का सम्पादन शुरू किया तो द्विवेदी उनसे मज़ाक में कहते – “मैंने भी कवितायें लिखी हैं। मुझसे क्यों नहीं माँगते?” एक बार डॉ. नित्यानंद तिवारी और हम साथ–साथ बैठे थे। पंडित जी ने नामवर जी से कहा – “मेरी कवितायें ‘आलोचना‘ में क्यों नहीं छापते?” मैंने कहा – “नामवर जी, इतनी ख़राब कवितायें आप छापते हैं, पंडित जी कवितायें भी छाप दीजिए।” आचार्यश्री ने अट्टहास किया। वत्सल एवम् कृत्रिम क्रोध में कहा – “मेरी कवितायें अच्छी हैं, उनकी बुराई मत करो।” नामवर जी ने उनकी कवितायें नहीं छापीं लेकिन एक बार भोपाल में इप्टा के एक युवक गायक से पंडितजी की एक कविता सुनकर मैं चकित रह गया। कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं —
रजनी–दिन नित्य चला ही किया मैं अनंत की गोद में खेला हुआ
चिरकाल न वास कहीं भी किया किसी आँधी से नित्य धकेला हुआ
न थका न रुका न हटा न झुका किसी फक्कड़ बाबा का चेला हुआ
मद चूता रहा तन मस्त बना अलबेला मैं ऐसा अकेला हुआ
छन्द सवैया है, सवैये में ‘फक्कड़ बाबा का चेला हुआ‘ और ‘किसी आँधी से नित्य धकेला हुआ‘ बिल्कुल नया स्वर है। यह विनोद का नहीं, अनुभव की तीव्रता का अदमित स्वर है जो सिर्फ़ पुरानी रीति को तोड़ ही नहीं रहा, एक नयी लय का प्रवर्तन कर रहा है। किन्तु कवि हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस रौ में कवितायें नहीं लिखीं। लिखीं तो भी यह अनगढ़पन एकाध विनोदपरक कविताओं में ही दिखलाई पड़ा— उनका विनोद प्रायः आत्म–व्यंग्य के रूप में आता था—
जोरि जोरि अच्छर निचोरि चोरि औरन सों सरस कबित्त नवराग को गढ़ैया हौं,
पंडित प्रसिद्ध पंडिताई बिना जानै कछू तीसकम बत्तीसेक वेद को पढ़ैया हौं।
टाँय टाँय जानौं, कूकि कूकि पहिचानौं तत्त्व चिकिर चिकिर करि सर को चढ़ैया हौं,
भाइयो भगिनीयो बताइये विचारि आजु शुक बनौं पिक बनौं या कि गौरैया हौं।।
तीसकम बत्तिसेक — तीस कम बत्तीस में (32-30=2) दो वेद पढ़ने वाला यानी द्विवेदी। कविता में रीतिकालीन विदग्धता मौजूद है सिर्फ़ आत्म–हास और उसकी खड़खड़ाहट नयी है।
ब्रजभाषा की कवितायें बहुत कुछ रीतिमुक्त कवियों के ढर्रे की हैं, विषय राधारानी और मनमोहन हैं किन्तु प्रेम का यह दृष्टिकोण वही है जो आगे चलकर ‘बाणभट्ट की आत्मकथा‘ और अन्य उपन्यासों में मिलता है— ऐसा प्रेम जो मानव जीवन को सार्थक कर देता है, मनुष्य को जड़ता से मुक्त करके उच्च भूमि पर स्थित कर देता है।
आगे खरौ लखि नंद कौ लाल हमने सखि पैंड तजे री
कुंजन ओट चली सकुचाइ उपाइ लगाइ तहौं तिन घेरी
मैं निदरे सखि रूप अनूपन कान्हर हू पर आँखि तरेरी
पै परी फास अरी मुसुकानि की प्रान बचाइ न लाख बचे री
द्विवेदी जी द्वारा ब्रजभाषा में रचित शृंगारी कवितायें ज़्यादातर इसी तरह की हैं। द्विवेदी जी की कविताओं में उनके निबन्धों की ही भाँति सर्वत्र एक विनोद–भाव मिलता है। गम्भीर चिन्तन और व्यापक अध्ययन को सहज तौर पर हल्के–फुल्के ढंग से पाठक श्रोता पर बोझ डाले बिना प्रकट करना उनकी विशेषता और क्षमता है। अनौपचारिक वार्तालाप यानी बतरस का मज़ा देती हुई इस कविता का कथ्य क्या है—
चटकीले बहुत से पड़े विज्ञापनों के ठाट,
मैनेजरों ने दिए हैं पन्ने सभी ही पाट।
देख इश्तिहार चूर्ण का मोदक वरास्व (?) का,
दिलख़ुश का, सेंट–सोप का और कोकशास्त्र का।
यह झीन–सीन गेंद का आश्चर्य मलहम का,
सब चूर–चूर हो गया अभिमान कलम का।
साहित्य पत्रिका या पुस्तक में ‘चटकीले बहुत से पड़े विज्ञापनों के ठाट, मैनेजरों ने दिए हैं पन्ने सभी ही पाट‘। आजकल हम जिस उपभोक्ता–संस्कृति की बात करते हैं, उसकी शुरूआत हो चुकी थी और पंडित जी ने उस पर कविता भी लिख दी थी। विज्ञापनी संस्कृति के कारण साहित्य की दुर्दशा को चित्रित करने वाली खड़ीबोली हिन्दी की यह पहली कविता है।
द्विवेदी जी ने संस्कृत और अपभ्रंश में भी कविता की है। कविता क्या की है, हाथ आज़माया है। पन्त जी की या मंडन की कविताओं का ऐसा अनुवाद किया है कि वे अनुवाद नहीं लगतीं, पन्त की प्रसिद्ध पंक्तियों –
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल–जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन।
का संस्कृत अनुवाद यों किया है–
त्यक्तवा द्रुमाणमिह मंजुलाम्नां विहाय मायांप्रकृतेरुदाराम्
बाले सुजाले तवकुंतलानां कथं प्रबध्नामिविलोचने मे
द्विवेदी जी की बिखरी लुप्तप्राय छोटी बड़ी रचनाओं की खोज की जानी चाहिए। उन्हें संकलन में शामिल किया जाना चाहिए।