आज पढ़िए टिकुली की कविताएँ। टिकुली मूलतः अंग्रेज़ी की कवि और कथाकार हैं। उनकी कई रचनाएँ राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं और पुस्तकों में प्रकाशित हुई हैं। अंग्रेज़ी में उनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं तथा लेखन के लिए उन्हें कई सम्मान भी प्राप्त हुए हैं। टिकुली एक चित्रकार, प्रकृति, इतिहास प्रेमी और घुम्मकड़ भी हैं। उनकी इन कविताओं में दिल्ली की स्मृतियाँ हैं। आप भी पढ़िए-
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1. हाशिये में शहर
कनॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क के बेंच पर
उंघती ज़िन्दगी, बेपरवाह, बेख़ौफ़,
खोने के लिए उसके पास अब
यादें भी नहीं रही, हाशिये में रहने वालों की
ज़िन्दगी और मौत दोनों ही थोड़ी सस्ती होती हैं
आम ज़िंदगी में भला किसको दिलचस्पी
इन्हें भूल जाने में ही सबकी भलाई है
ठीक उस बेउम्मीद समलैंगिक जोड़े के तरह
जो इंतज़ार में है एक क्रन्तिकारी बदलाव के
या वो कूड़ा बटोरता बचपन, ज़िन्दगी की महाभारत में
कर्ण के रथ की तरह फंसा – लाचार, अभिशप्त
या फिर फुटपाथ पे बैठे वो आंकड़े जो एक उम्र से
इस शहर में इंसान का दर्जा पाने की क़तार में हैं
या फिर पटरी पे बैठी वो अर्ध नग्न पगली
जो अपने बेतरतीब बालों सी उलझी
ज़िन्दगी की दुत्कार लिए ताकती रहती है
शहर के शोर भरे सन्नाटे को
या लाल बत्ती पर गाड़ियों की लम्बी क़तारों के बीच
हाथों में फूल, पेन और मैले चेहरों पर
दस रुपये की मुस्कान लिए दिन भर भागते छोटे छोटे पाँव
चलते रहना जिनकी मजबूरी है
या मेनहोल के ज़हरीले अंधेरों में दम तोड़ती
वो अदृश्य ज़िंदगियाँ जिनकी मौत किसी खाते में दर्ज नहीं होती
दिल्ली की चकाचोंध सतह को कुरेद कर देखो तो
शहर की बूढी हड्डियों में समाये सभी नए पुराने घाव
रिसने लगते हैं परत दर परत खून के जमे हुए थपके से काले
इन्हें न छेड़ना ही बेहतर है, हाशिये में बसा ये जुड़वाँ शहर बहुत भोंडा है
राजधानी की टीआरपी घट जाती है फिर कोई झट से एक जादुई लेप पोत देता है
और दिल्ली फिर नयी गाड़ी सी चकाचक सरपट दौड़ने लगती है
2. दरगाह हज़रत निज़ामुद्दीन
एक ख़ुशनुमा सुबह ख़ींच लायी मुझे
निज़ामुद्दीन बस्ती की तंग गलियों में
मन जा रुक गया महबूब–ए–इलाही की
महकती चौखट पे और ग़म सब घुल गए
खुसरो की मोहब्बत के मदवे में,
इत्र और गुलाब से महकते दरख्तों की शाखों से
छन कर आती रौशनी में डोलते खोये खोये से
कुछ अल्फ़ाज़ ढूढ़ते थे शायद मेरी तरह आशियाँ कोई,
कभी छज्जों, मेहराबों कभी दरीचों पे, फिर चुपचाप
आ बैठते किसी परिंदे के सूने पड़े घरौंदे में
या फिर सुफियाना हवाओं से लिपट उतर आते
इश्क़ से पाक आँगन में महफ़िल ऐ समाअ की खुशबू
से बे-ख़ुद दरवेशों की तरह
रूह में रूह, जिस्म में जिस्म घुलने लगा
जब तान क़व्वाली की बुलंदी चढ़ी
इश्क़ उड़ चला धूनी से बन रेहमत का धुआं
और लगा समाने दुआ ऐ सब्र बन
मज़ार की जाली से बंधे मन्नतों के धागों में
न फिर खुदी रही न बेखुदी,
फ़िज़ा, दरख़्त, परिंदे , धुप, छाँव
सब मुझमे, मैं उनमे
समय एक शमा सा जलता रहा
दुआ ए रौशनी के चरागों में
चश्मा ए दिलखुशा के सब्ज़ पानी
पर सुकूँ के गहराते साये और
लोबान से महकती शाम के दरमियाँ
हज़रत औलिया की धूल माथे लिए
बाँध आयी मैं फिर एक मन्नत का डोरा
3. रात आईना है
रात आईना है इस शहर की बेख्वाब आँखों का
शाम ढले जब धूप का आखिरी उजाला
पेड़ों की टहनियों में सिमट जाता हैं तो ये शहर
किसी पेंटिंग की तरह रहस्यमयी हो जाता है
बची खुची रौशनी लैम्पोस्ट के नीचे
सिमट जाती है और समय अँधेरे कोनों
या भूले-बिसरे हाशियों में छिप जाता है
सूखे ठूँठ सी खड़ी इमारतें अपनी थकी आँखें
बंद किये अँधेरा ओढ़ अचेत सी सो जाती हैं
और फिर उभरने लगते हैं अक्स उस दिल्ली के
जो दिन में अपनी तन्हाई समेटे ताकती रहती है
टुकड़ों में बंटे एक अजनबी से आसमान को
शहर की इन बिखरी सड़कों और सुनसान
चौराहों पे मैं भी इन्हीं अक्सों में ढूढ़ता हूँ अपना
खोया हुआ वो अक्स जो अपना सा तो है पर
है फिर भी बेगाना, ढिबरियों सी टिमटिमाती
रौशनी में आता है नज़र आता है स्लेटी खंडहरों के
खूँट पे टंगा तनहा सा इक शहर उतार फेंका था
कभी जिसे और आती है नज़र एक सांवली सी नदी
राह भूली बावरी सी, पेड़ तोड़ देते हैं क़तारें
स्याह सड़कों के किनारे, चहचहाते डोलते हैं
पंख सी बाहें पसारे, सप्तपर्णी सी महक
उठती है हवा, रात में ही सांस लेता है शहर
थकन की चादर बिछा कर, फ़िक्र ज़माने की छोड़
है कोई सो रहा वो देखो चाँदनी को ओढ़
कुछ ख्वाब औंधे हैं पड़े उस पुराने बरगद परे
गीत कोई गा रहा है याद के पनघट ख़ड़े
सड़क किनारे बैठ पी रहा है कोई ख्वाबों की चिलम,
उठ रहा है धुआं सुलगते अलाव से कहीं
लिए सोंधी सी महक एक गुज़रे वक़्त की
दिन की दमकती जिल्द में क़ैद सफहों से
झांकते हैं सूखे हुए लम्हे, कुछ भूले हुए
रुकए और मिटटी के सकोरों सी बिखरी
हुयी कुछ यादें, रात आईना है उन्हीं तवारीख़
के टुकड़ों का, तुम भी कभी खाँचो में बंटे उजालों से निकल
थाम लेना स्याह सा कोई इक छोर और फिर मिलना
उस दिल्ली से जो कभी हमारी थी
4. दिल्ली में बसंत
दिल्ली में बसंत तो हर साल आता है
पर इस बार बहुत सालों बाद
हमारे आँगन की अमराई महकी है
उसी रंग उसी गंध में सराबोर
वो सड़क जो तुम तक पहुँचती थी
नीम की बौर से ढकी है और कुछ दूर
चटख नारंगी सेमल धधक रहा है
तुम्हारे घर की दीवार से सटे टेसू ने यादें
फिर रंग दी हैं और मन फिर उन्ही
महुआ की रातों में घुल गया है
वहीँ लोदी गार्डन में जहाँ मेरा फेवरेट बेंच
कचनार की गुलाबी महक में डूबा हुआ है
वहीँ दबे पाँव न जाने कब उस गुलाबी बोगनविला ने
डक पोंड के पास वाले तुम्हारे पसंदीदा बेंच को
क्लाद मोने की पेंटिंग में बदल दिया है
दिल्ली में बसंत बिलकुल तुम्हारे प्यार जैसा है –
क्षणिक – अविस्मरणीय
5. हुमायूँ का मकबरा
सब्ज़ बुर्ज से कई बार हुमायूँ के मक़बरे तक
खामोश रास्तों पर हम कभी कभी यूँ ही
पैदल ही निकल जाते थे
निजामुद्दीन की हवा में एक खुमार सा है
जिसे लफ़्ज़ों में बयां करना मुश्किल है
एक अजीब सी कशिश, एक खुशबू
शायद उस नीली नदी की जो कभी
पास से गुज़रा करती थी
अमलतास के पेड़ के नीचे बैठ
हम घंटों दूब के क़ालीनों पर उभरते
शाम के सायों को मूक आँखों से ताका करते
और परिंदों के कोलाहल के बीच
तन्हाई में लिपटा हुआ संगेमरमर
और बुलिआ पत्थरों से बना हश्त–बहिश्त
बेबस सा ये मक़बरा अपनी रगों में
मुग़ल सल्तनत की महक समेटे
बगीचे की नहरों के पानी में
कुछ ढूँढता रहता
और इस बीच आहिस्ता से समय
यूँही कहीं किसी
मेहराब या गुम्बद पे आके थम जाता
जड़ पकड़ लेता दरख्तों की तरह
हम अपने ख्वाबों की परवान को थामे
किसी दर -ओ -दीवार की परछाईं
नापते और अतीत के झरोखों से
छन के आती सूरज की आख़री किरणों
में ज़िन्दगी के मायने खोजते
और फिर हाथों में हाथ दिए
बस्ती की तंग गलियों में निकल जाते
तुम कबाब और बिरयानी की खुशबु में खो जाते
और मैं महबूब ए इलाही के रंगों में रंग जाती
आज बारापुला फ्लाईओवर से
निजामुद्दीन बस्ती की छतों पे सूखते कपड़ों
के पीछे उन्ही रंगों की महक उजले
नीले आसमान में उड़ती नज़र आयी
और मन फिर जा कर अमलतास की उस डाल
से लिपट गया
6. महरौली
बचपन में दिल्ली रिज पे रत्ती बटोरा करते थे
कॉलेज में दोस्तों का हाथ थामे किसी टूटी मुंडेर पे बैठे
क़ुतुब मीनार को ताकते या आवारगी के आलम में
फिरा करते, कीकर, बबूल,बिलाङ्गड़ा, पिलखन
के दरख्तों और जंगली झाड़ियों के बीच
हज़ारों बरसों की यादों को सहेजे मेहरौली की
संकरी गलियाँ, दरगाह, बावड़ी, मस्जिदें और मक़बरे
हमें शहर के शोरशराबे से दूर सुकूं का अहसास दिलाते,
आज फिर सोहनलाल की खस्ता कचौरी खाने निकले तो मन
रबड़ी फालूदा, समोसे चाट पकोड़ी कबाब, नहारी,
कोरमा और खमीरी रोटी की खुशबुओं में खो गया,
अलाई मीनार के पास निगाहें चुड़ैल पापड़ी पर
सदियों से बसे जिन्नो को फिर ढूढ़ने लगी पर
नाग फूल पर जाकर अटक गयीं और फिर
बड़े पीलू की बूढ़ी हड्डियों से सरसराती हुई
बेर के पेड़ में उलझ गयीं, बस यूँही पेड़ों की
परछाईयों में लुकते छिपते तुम कागज़ पर
नामों की लिस्ट बनाने लगे- ढ़ाक, रोंझ,
करील, देसी पापड़ी और न जाने क्या क्या,
तुम्हें पेड़ों से लगाव था और मैं मेहराब, गुम्बद,
दर-ओ -दीवार, झरोखों और जमाली कमाली
के खंडहरों में खो जाना चाहती थी,
जहाज महल, ज़फर महल, औलिया मस्जिद
की रूह को छूना चाहती थी, सैरगाहों, इबादतखानो,
हवेलियों में बीते कल को ढूढ़ना चाहती थी,
मोहम्मद शाह रंगीले की रंगों में रंगना चाहती थी,
मैं इस शहर की नब्ज़ टटोलना चाहती थी,
मेहरौली की वक़्त से भी लम्बी दास्ताँ इन धुल भरे
पत्थरों में ज़िंदा हैं और उसी की नब्ज़ पर हाथ रखे
हम चल पड़े,आँखों में रेत सी चुभती भद्दी नयी इमारतों,
कूड़े के ढेर और झाड़ झंकाड़ के बीच आखरी सांसें लेती,
अतीत की उन अनछुई दस्तानो को परत दर परत खोलने
युहीं घूमते फिरते हम सूरज गुरुब होने से पहले
पहुंचे ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह पर,
सैर-ए-गुल फरोशां की यादों से मन महक उट्ठा ,
लोभान और गुलाब की खुशबू ,पेड़ों पे पंछियों का
कोलाहल, जाली में बंधे मन्नत के धागे, रौशनी की दुआ
के सजदे में झुके सर और क़व्वालों की गूँज से मुबारक
समां में बंधे हम मोहब्बत और अमन की शमा दिल में लिए
शाम के गहराते सायों में घुल गए और यूँ ख़तम हुआ
एक और दिन दिल्ली की गलियों में