जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

ईमेल में रोज़ाना रचनाएँ आती रहती हैं। लेकिन कभी कभी ऐसी रचना आ जाती है कि मेरे मन का संपादक प्रफुल्लित हो जाता है। प्रज्ञा विश्नोई की कहानियाँ जब मेल में आई तो उनको पढ़ते ही बहुत प्रभावित हुआ। आजकल कहानियों में प्रयोग कम होते हैं, समकालीन लेखन में सपाटबयानी बहुत बढ़ गई है। लेकिन इस कहानी की अंतर्पाठीयता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। प्रज्ञा पंजाब नेशनल बैंक में आईटी मैनेजर हैं और वनमाली समेत अनेक पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी है। आप यह कहानी पढ़िए- मॉडरेटर 

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कहानी :

 शीर्षक: जलती चींटियों का गीत

मैं एक नवोदित लेखक हूं। असल में, लेखक का पता नहीं, पर नवोदित एकमात्र लेबल है जिसका उपयोग मैं आलोचकों और प्रशंसकों से भरी साहित्य की गली में अदृश्य चोगे के रूप में करती हूं। चूंकि मैं नवोदित हूं, इस कहानी का कोई पात्र मेरी अपनी मौलिक कृति नहीं है, वरन उनके नाम से लेकर उनकी नियति तक किसी न किसी जीवित अथवा मृत लेखक से बिना उनकी अनुमति के उधार ली गई है।

भाग १

चंद्रपुर, पश्चिम बंगाल, १९६८

बिनोदिनी और माहिन 

डॉक्टर बाबू, 

याद है पिछली जुलाई जब जामुन का खट्टापन पकी मिठास में नहीं बदला था और चुरनी का पानी अभी तक चढ़ा नहीं था? उमस के कारण पक्षी, जानवर, मनुष्य सब बौरा रहे। वैसी ही एक डोलती सी दोपहर, मैंने अपने जीवन की पहली रतिक्रिया देखी। 

रसोईघर से पुरानी दुश्मनी होने के बावजूद न जाने उस सुबह मुझे क्या सूझी जो आपके लिए अपने हाथों से संदेश बनाने की ठान ली। सच पूछो तो, आप मेरे जीवन की सबसे बड़ी मूर्खता थे। मैं हमारे गांव के सबसे माने हुए कायस्थ ज़मींदार खानदान के मँझले भाई की बड़ी बेटी, जिसे तमाम रिश्तेदारों के ताने सुनने के बावजूद मां ने कभी रसोई में कदम नहीं रखने दिया। वहीं आप एक निर्धन ब्राह्मण परिवार की इकलौती संतान, उस पर भी अनाथ जिसकी पढ़ाई का पूरा खर्च मेरे पिताजी ने उठाया। मैंने जहां गणित से स्नातक किया, वहीं आपको लन्दन से डॉक्टरी की पढ़ाई करने की छात्रवृत्ति मिल गई। और इस प्रकार, मेरे गैर दुनियादार पिता की दानवीरता उनकी बड़ी बेटी के जीवन की सबसे बड़ी फांस बन गई।

जब संदेश की थाली लिए जैसे ही आपके कमरे के दरवाज़े को मैंने अपने बाएं नंगे पांव से हल्का सा धक्का दिया, आपकी नंगी पीठ मेरी ओर थी और डा॰ आशा का झुका हुआ सर आपके दाहिने कंधे पर ढुलका हुआ था। आपकी दाहिनी बांह पर नाखून का निशान बड़े दिन पर कलकत्ता के सेंट पॉल कैथेड्रल के सबसे ऊंचे बिंदु पर चमकते सितारे जैसे चमक रहा था। तभी जाने कहां से एक चींटी मेरे पांव पर चढ़ गई। एक चींटी, फिर दो चींटियां, फिर तीन…जाने कहां से इतनी सारी चींटियां मेरे पांवों से मेरे घुटनों तक, घुटनों से मेरे पेट, पेट से कंधे, ग्रीवा तक आ गईं पर आपकी रतिक्रिया अनवरत चलती जा रही थी, किसी दुःस्वप्न की भांति।

क्या डा॰ आशा भी कम्युनिस्ट थीं, तुम्हारी ही तरह? शुरुआत में मुझे तुम्हारा कम्युनिस्ट होना तुम्हारे आदर्शवाद की एक अभिव्यक्ति का एक अंग लगता था इसलिए तुम्हारा राजनैतिक रुझान मुझे तुमसे विरक्त करने के उलट, मुझे तुम्हारे और समीप खींचता था। ऐसा तो नहीं था कि मैं भावुक नहीं थी? गोर्की को मैंने तुमसे ज़्यादा ही पढ़ा है। पर मेरा आदर्शवाद गोर्की की कहानियों का आदर्शवाद था। याद है, उनकी कहानियों– एक पाठक और कवि को पढ़कर मैं कितना रोई थी और तब तुम मेरे रोने की नकल करके, मेरी चोटी खींचकर मुझे कितना चिढ़ाते थे? बचपन से लेकर आज तक भले ही तुमने कितनी ही बार मेरी चोटी खींची हो, मुझे तुमने कभी खुद को छूने भी नहीं दिया? जब भी मैंने स्वयं को तुम्हें सौंपना चाहा, तुम कहते रहे–”प्रेम अमीर जमींदारों की लग्ज़री है, और क्रांति आम जनमानस के अस्तित्व की प्रथम आवश्यकता। और जब तक यह मौलिक आवश्यकता समाज की हर कोशिका को बदल नहीं देती, मेरे जीवन में लग्ज़री का कोई स्थान नहीं है।”

क्रमशः

भाग २

प्राग, १९६८

टाॅमस और टेरेसा 

“क्या तुम कम्युनिस्ट हो?”

सब कुछ बीतने दो–सौंदर्य और भय–भय और सौंदर्य। इन दो भावों को तराज़ू के एक ही पलड़े में रखने वाली एक बेचैन आत्मा के शहर में इस समय रूसी टैंक चल रहे हैं, रौंद रहे हैं, गा रहे हैं, नाच रहे हैं, हंसते हंसते रो रहे हैं, रोते रोते, रौंदते रौंदते हंसते चले जा रहे हैं। वहीं एक अन्य बेचैन आत्मा, जिसका नाम उसके पिता की प्रथम प्रेमिका ने गिरजाघर से ओपेरा भागने की जल्दबाज़ी में मिलान (जो कि पूर्वी यूरोप में बड़ा ही साधारण नाम माना जाता था और जिसका अर्थ चेक भाषा में अत्यंत ही साधारण दयालु और अनुरागशील होता है) रख दिया था, वल्टावा नदी में एक के बाद एक प्राग शहर की सारी लाल बेंचों को बहते हुए देख रहा है। हालांकि कभी कभी एक आध पीली और नीली बेंच भी नदी में बह आती है और बहते बहते अदृश्य हो जाती है, पर मिलान कुंदेरा के मस्तिष्क उसकी उमर का उनतालीसवाँ अगस्त प्राग पर रूस के क़ब्जे से अधिक, प्राग शहर की सारी लाल बेचों के अंतिम संस्कार के रूप में स्थापित होना था।

पता नहीं, मिलान उस समय नास्तिक था या नहीं, पर मरते हुए समय के लिए उसके मन में दया उपजी या धिक्कार का भाव, उसके होंठ कुछ बुदबुदाने लगे ही थे कि एक लड़का अचानक उससे आ टकराया और जैसे वो यहां था ही नहीं, उसे नज़रअंदाज़ करते हुए आगे बढ़ता रहा। जिस शहर के लिए मिलान कुछ समय पहले लगभग हो ही गया था, उस शहर के लिए उसके मन में चिरकाल से धीरे धीरे रिसती घृणा फिर नींद से जाग उठी। 

तो चलिए मिलान कुंदेरा को पीछे छोड़, हम अब लड़के जिसका नाम टाॅमस है, उसके साथ चलते हैं क्योंकि यह कहानी टाॅमस की ही है।

आज किसी लड़की ने पहली बार टाॅमस को उसके होठों पर चूमा है। आज टेरेसा ने पहली बार टाॅमस को उसके होठों पर चूमा है। टेरेसा, जो हर रविवार चर्च के मास में सबसे मधुर ईसा के भजन गाती है। टेरेसा जो टाॅमस के स्कूल की सबसे सुंदर लड़की है। टेरेसा जो टाॅमस के मोहल्ले की सबसे सुंदर लड़की है। टेरेसा जो टाॅमस के जीवन में सबसे सुंदर लड़की है। 

टेरेसा ने टाॅमस को किसी सुनसान गली के आखिरी छोर पर नहीं चूमा, न ही टाॅमस उसे किसी खाली पुरुष प्रसाधन में छिपा कर ले गया था। (चेकोस्लोवाकिया अभी फ्रांस बनने से कोसों दूर था।) स्कूल बंद होने के बावजूद भी स्कूल की मैगज़ीन के लिए टेरेसा प्राग चौराहे पर फोटो खींच रही थी–कभी रूसी टैंकों की, कभी बंदूक ताने रूसी सैनिकों की जो ऐसे हतप्रभ होकर प्राग की बिना नाम वाली सड़कों को देख रहे थे जैसे कोई १ माह का शिशु अपने चारों ओर संसार के सर्कस की विचित्रता को घूरता रहता है। (क्योंकि रूसी आक्रमण का समाचार मिलते ही चेक नागरिकों ने सबसे पहले जो काम किया था, वो सड़कों, गलियों और स्थानों के नाम को इंगित करते साइनबोर्ड निकालने का था)

चूंकि टाॅमस स्कूल मैगज़ीन का संपादक था, वह भी टेरेसा के साथ था जब रूसी सैनिक उसके स्कर्ट के नीचे पतली, लंबी टांगों को घूर रहे थे। टाॅमस को समझ नहीं आ रहा था कि वह टेरेसा की दाहिनी ओर चले या बाईं ओर चले। उसका बस चलता तो टेरेसा की टांगों को घूरते रूसी सैनिकों की आंखों में जबरदस्ती ऐसा चश्मा लगवा देता जिससे वो चेकोस्लोवाकिया की किसी लड़की को देख ही नहीं पाते। इससे भी बेहतर, वो उनकी आंखों में ऐसा चश्मा लगवा देता जिससे वो चेकोस्लोवाकिया को ही नहीं देख पाते।

टाॅमस यही सब सोच रहा था, तभी अचानक टेरेसा उसकी ओर पलटी। टेरेसा के हल्की हरी आंखें जब भी उसे एकटक देखती थीं, तो टाॅमस के गले में उल्टी जैसा कुछ महसूस होने लगता था और टाॅमस अपने कमज़ोर, घृणास्पद शरीर के लिए लज्जा से भर उठता था। टाॅमस भले ही दुबला था, पर उसका कद कम से कम ६ फीट तो था ही। पर टेरेसा के आंखों में आंखें डालकर देखने से गले में उल्टी आ जाना, मोहल्ले में ज़ोर ज़ोर से लड़ाई होने पर बार बार लघुशंका की ओर भागना, सब टाॅमस को उसके शरीर के घिनौनेपन का स्मरण कराते थे।

“क्या तुम कम्युनिस्ट हो?” टेरेसा टाॅमस से पूछ रही थी।

टाॅमस हालांकि यहूदी होने के बावजूद भी आदम हव्वा, ओल्ड टेस्टामेंट के गुस्सैल, बदले की आग में जलते परमात्मा का कोई खास प्रशंसक नहीं था पर मोहल्ले के चर्च से आती टेरेसा की मधुर आवाज़ उसके लिए किसी विचारधारा, किसी स्टालिन, जर्मनी के नाज़ियों से बदले की तुलना में अधिक वज़न रखती थी।

“नहीं,” टाॅमस ने उत्तर दिया।

टेरेसा ने अपने जूते उतारकर उसकी टांगों को घूरते रूसी सैनिकों में से एक की ओर फेंके, और पंजों के बल टाॅमस के जूतों पर खड़ी होकर टाॅमस के होठों को चूम लिया। टेरेसा की स्कर्ट अब पूरी तरह ऊंची उठ चुकी थी, पर टेरेसा टाॅमस को पागलों की तरह चूमती रही। चूमती रही।

१० वर्षों पश्चात, जब टाॅमस जेल से रिहा हुआ, तब तक वह जान चुका था टेरेसा का उसे चूमना टाॅमस के प्रति उसके उद्दाम प्रेम की अभिव्यक्ति नहीं, उसकी अपनी देह और उसके देश की देह की संप्रभुता पर लार टपकाते अधिनायकों के प्रति प्रतिकार की अति सीमा थी। युद्ध और क्रांति द्वारा रक्तरंजित रूसी सैनिकों के जीवन में विकृत रूप से ही सही, वीरता का गौरव और विचारधारा के प्रति त्याग दोनों विद्यमान थे। कुछ नहीं था–तो प्रेम और देह के सौंदर्य का बोध जिसे उन्होंने स्वयं ही अन्ना अख्मातोवा, मारीना त्स्वेतायेवा, ओसिप मांदेलश्ताम की कविताओं के बक्से में बंद कर निष्कासित कर दिया था। १९६८ के रूसी सैनिक ने क्रांतिकारी गोर्की को तो स्वीकारा, परन्तु कथाकार गोर्की को नकार दिया। प्रेम और सौंदर्य के इसी नकार को उस अगस्त प्राग की अनेकों तरुणियों ने अपने प्रतिशोध का अस्त्र बना लिया। केवल टाॅमस ही अकेला चेक किशोर नहीं था जिसे अगस्त के उस महीने में पहली बार चूमा गया। १९६८ अगस्त के प्राग में अनेकों टाॅमस थे और अनेकों टेरेसा भी। पर टाॅमस अब भी इस बात का मूल्यांकन नहीं कर पाया था क्या वह टेरेसा के प्रतिशोध का अस्त्र मात्र था या यह प्रतिकार किया गया था? यह चेकोस्लोवाकिया का प्रतिशोध था आक्रमणकारी रूसी सेना के प्रति? या यह प्रतिकार हर उस स्त्री का था जिसे किसी पुरुष ने उसकी इच्छा के विरुद्ध भोगा था? क्या यह प्रतिशोध था या नकारने वालों के समक्ष अपने अस्तित्व की घोषणा करने का एक भोला हठ?

भाग ३:

चंद्रपुर, पश्चिम बंगाल, १९६८

बिनोदिनी और माहिन 

गतांक से आगे

प्रिय माहिन बाबू,

जो तुमने किया और नहीं किया, क्या यह प्रतिशोध था, माहिन? एक निर्धन कम्युनिस्ट का ज़मींदार की बेटी के प्रति? क्या मेरे पिता की दया तुम्हें भी अपमान लगती थी? क्या मेरा प्रेम तुम्हें और पतित अनुभव करवाता था? नक्सलबाड़ी की हिंसा फैलती जा रही है। बाबा के एक जानने वाले ज़मींदार काका के पूरे परिवार को नक्सलियों ने मार डाला। जिसने ज़मींदार काका को ५ गोलियों से भूना, वो उनके घर पर ही रहकर काम में थोड़ा बहुत हाथ बंटानेवाला उनकी ज़मीन पर खेती करने वाले एक मज़दूर का बेटा था। ज़मींदार काका की बेटी उसे राखी बांधती थी। उस लड़के ने परिवार को मारने से पहले काका की बेटी के साथ, जो उसे राखी बांधती थी, पूरे परिवार के सामने…क्या तुम भी हमसे, मुझसे इतनी ही घृणा करते हो कि चींटियां एक एक करके, एक साथ मुझे काटती रहीं, और तुम आशा के साथ चिर आनंद में डूबे रहे? क्या क्रांति के इस युग में प्रेम का प्रतिदान केवल प्रतिशोध है? एमिली ने विक्टोरियाई इंग्लैंड में कैथरीन–हीथक्लिफ़ की जो कहानी लिखी, उसमें भी बिना प्रतिशोध के प्रेम का कहां अस्तित्व है? और हीथक्लिफ़ के प्रतिशोध की नदी का जन्म ही प्रेम की जल जल कर बुझती, बुझ बुझ कर जलती अग्नि से हुआ था। अमेरिकी एप्पलाचिया हो, या नाज़ियों के क़ब्जे वाला पेरिस; क्रांति और बदले की आग में जलता आमार शोनार बांग्ला हो या चकमक दिल्ली का “नया दौर, नई दुनिया” वाला संसार, या रासपुतिन की अविश्वसनीय प्रेम कहानियां वुदरिंग हाइट्स से सदियों पहले और सदियों बाद तक कैथरीन–हीथक्लिफ़ के प्रेम/प्रतिशोध की कहानी अलग अलग रूप में खेली जाती रही है और खेली जाती रहेगी। जहां दमन नहीं, वहां क्रांति का क्या गौरव? और प्रेम के बिना क्रांति और दृष्टिहीन धनुर्धारी में क्या भेद? (लेखक की टिप्पणी: यहां पात्र शब्दभेदी विद्या से अनभिज्ञ है या पत्र लिखते समय उसे शब्दभेदी विद्या का विस्मरण हो आया, यह निर्णय लेने में लेखक असमर्थ है, तो आशा है लेखक की कम समझ और पात्र के इस स्वतंत्र शब्दों के चुनाव को पाठक क्षमा करेंगे)

कदाचित प्रतिशोध उद्दाम प्रेम का चरमोत्कर्ष है और प्रेम प्रतिशोध के अधोबिंदु का परमसत्य। माहिन, यह पत्र मैं तुम्हारी मृत्यु के पांचवें दिन लिख रही हूं। सेनाबाड़ी के जिस आंदोलन में भाग लेने के लिए तुम इतने उत्साहित थे कि गलती से तुमने उसका ज़िक्र मुझसे कर दिया था, उसकी सूचना देते हुए तुम्हारी लिखावट में तुम्हारे नाम से पार्टी दफ्तर को पत्र लिखना इतना कठिन भी नहीं था। फिर सेनबाड़ी में पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच गोलाबारी में तुम्हें नाम मात्र की चोट आना भी तुम्हारे विरुद्ध गया। फिर हिंसा के इस नंगे नाच में अपने और पराए–दोनों तबकों को–बस अपना विधातापन दूसरे पर थोपने के लिए लक्ष्य भर चाहिए। मैंने बस उस लक्ष्य की ओर अपनी तर्जनी दिखा दी। 

तुम्हारी लाश नहीं मिली। मिलती भी कैसे, चुरनी नदी इतनी भी कम गहरी नहीं। डा॰ आशा की पोस्टिंग वापिस बंबई हो गई। हमारी प्रेम कहानी की कैथरीन भी मैं थी, और हीथक्लिफ़ भी मैं हूं। फ़िर इस कहानी में तुम कौन हो, माहिन बाबू?

तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा में,

सदैव तुम्हारी बिनोद 

कहानी

शीर्षक: छुट्टियां खत्म हुईं

अपू 

नवम्बर २००८

दिन अब बुझ चुका था। अमा को बुझे हुए दो बरस बीत चुके थे। बीसवीं सदी का वो खोया हुआ समय मेरे जीवन की वासंती रुत थी और उसके बाद जो पतझड़ आई, वो आज तक बदस्तूर जारी है। अमा से मिले हुए मुझे बीस बरस हो या शायद उससे कुछ ज़्यादा ही हो गए थे। 

कुछ २० या २२ वर्ष पहले

सर्दी की छुट्टियां शुरू होने को थीं।

मेरे प्रथम प्रेम के असफल होने के कई कारण थे। 

पहला तो ये मेरी प्रेम कहानी पतझड़ से शुरू हुई थी। एक गोरखा की कटार सी तीखी हवा वाली पतझड़। जीभ में रवींद्र संगीत की मिठास से घुली तरुणाई के बीच एकाएक चोखेर बाली के किरचते कसैलेपन की पतझड़। रजनीगंधा के फूलों सी महकती दो रूमानी भाषाओं के बीच तलवारें खिंच जाने वाली पतझड़। अपनी मां को प्यार करने वाले एक परदेसी के प्रेम में पड़ जाने वाली पतझड़। 

न. पहाड़ पर बसे एक परियों के साम्राज्य से कलिमपोंग आया था। कद से लंबा था। बाकी चेहरा तो याद नहीं, पर उसकी आंखें मृगी की भांति तलहटी की सारी धूप अपने में सोख लेती थीं और जब उसकी लंबी पलकों की छाया उसके उठे हुए गालों पर पड़ती, तो किसे बाकी चेहरा और देह देखने की याद भी रहती। मैंने तो अपना सब कुछ न. की छाया का पीछा करने में ही पीछे छोड़ दिया। 

अमा यूनिवर्सिटी में गणित की प्रोफेसर थी। और बाबा और नौकरी का रिश्ता आज के शब्दों में कहें तो ‘फ्लिंग’ जैसा था। कभी दोनों मेड फॉर ईच अदर की प्रतिमूर्ति लगते, तो कभी बाबा की नौकरी उनसे ब्रेकअप कर लेती, तो कभी बाबा नौकरी से। कभी बाबा कम्युनिस्ट होते, कभी ह्यूमैनिस्ट, कभी हिप्पी तो कभी भद्रलोक के भद्रतम मानुष। जैसे दिन के हर घंटे धूप के सिक्के अपने रंग बदलती, बाबा अपने विचारों के मुखौटे उतारते और पहनाते जाते। पर इन सबके बावजूद भी बाबा बड़े सरल थे। जीवित रहने के लिए उन्हें हवा, पानी और भोजन के साथ, एक नायक की आवश्यकता थी और सौभाग्यवश अथवा दुर्भाग्यवश, बाबा एक अच्छे मनुष्य थे पर जिस कहानी को वो शिद्दत से जीना चाहते थे, उसके नायक वो नहीं थे। 

अमा बौद्धिक थीं, बुद्धिमान थीं, प्रैक्टिकल थीं, सुंदर थीं हालांकि उनकी सुंदरता हेमा मालिनी जैसी चंद्रमुखी और स्मिता पाटिल जैसी मांसल मादक न होकर वहीदा रहमान जैसी उदात्त थी। कुछ कुछ टैरो डेक के ‘द मून’ की तरह जो मेरी पेंटिंग्स की म्यूज़ तो हो सकती थीं, पर अपनी ही देह के भार से बिखरती ऐहिक तरुणी की मां नहीं। अमा संपूर्ण थीं, मैं देह–रूप–बुद्धि–चरित्र में निरी अपूर्ण। बंगालन होने के बावजूद भी दुनिया को किचमिची आंखों से देखने वाली मैं, कलिमपोंग की धरती में जन्म लेने के बावजूद तलहटी के रंग बिखेरते फूलों से दूर कमरे में बीटल्स बैंड का ‘हे जूड’ और ‘नार्वेजियन वुड’ सुनने वाली मैं। न मुझमें न. की तरह अनगढ़ पहाड़ी सुकुमारिता थी, न ही अमा जैसा परिष्कृत बंगाली लावण्य। अमा से मैं प्रेम करती थी, बाबा से भी अधिक प्रेम करती थी, पर अमा की पूर्णता का चंद्र मेरे अपूर्ण अस्तित्व की अमावस को और अंधेरा कर देता था। 

न. अमा के बचपन का मित्र था जिसने स्कूली पढ़ाई कलिमपोंग से और चित्रकारी की पढ़ाई पेरिस से की थी। विदेश में उसकी पेंटिंग्स हाथों हाथ बिकती थीं। उसके देश में नया आर्ट कॉलेज खुला था जिसमें उसे विजिटिंग फैकल्टी नियुक्त किया गया था। पर १५ वर्षों बाद पेरिस से सीधे अपने देश लौटने की जगह वह पहले कलिमपोंग आ गया।

“राजतंत्रों का यही लाभ है,” बाबा हाथ से चावल को दही में सानते हुए कहते जा रहे थे, “मजदूर के हाथ के फफोले जलते रहते हैं और उसी देश का अभिजात्य वर्ग अपने सुकोमल हाथों से किसी यूरोपीय नदी को कैनवास में उतार रहा होता है।”

न. के होंठ का एक कोना हल्के से उठा और उसकी आवाज़ मेरी रीढ़ पर किसी अकेले इंजन सी रेंग उठी। मैं खिड़की के बाहर देखने लगी हालांकि अब अंधेरा इतना हो चुका था कि बाहर की पहाड़ियों को देख पाना असंभव था।

“मजदूरों के नाम पर दूसरे देशों में टैंक भेजकर वहां के नागरिकों का दमन करने से नदियों और पहाड़ों का चित्र बनाना ही बेहतर है,” न. कहे जा रहा था।

“हां बाबा। अभी चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग पर…” तभी अमा जो अब तक धीरे धीरे मुझे, बाबा और न. को गरमागरम खाना परोसते हुए “फूले फूले ढोले ढोले…” गुनगुना रही थी, अब तेज़ आवाज़ में “आमारो पोरानो जहा” ऐसे गा रही थी जैसे पूरे घर और शाम में अकेले वही हो, और हम बस किसी वृद्ध जिसके बच्चे बाहर नौकरी कर रहे हों, उसके घर में बैकग्राउंड म्यूज़िक की तरह चलने वाला कोई कार्टून शो हों। 

न. का जो हाथ शाबाशी के तौर पर मेरे सर पर हाथ फेरने के लिए उठा था, वो उठा ही रह गया और उसकी दृष्टि अमा पर ऐसे टिक गई जैसे लोहे का कोई आवारा टुकड़ा चुंबक से चिपक जाता है। मेरे पेट की तली में जैसे कुछ भभका। अपने शैशवास्था में संसार को टुकुर टुकुर निहारते प्रेम के लिए पिता से वैचारिक घात के अपराधबोध को मैंने पतझड़ की आंधी में घर आई आवारा पत्तियों की भांति झाड़ दिया, पर अमा मुझे और बाबा को धोखा दे रही है, अपनी किशोर ईर्ष्या की लपटों को बचाने और हवा देने के लिए मुझे छद्म नैतिकता और पितृ निष्ठा की झूठी आड़ मिल गई।

प्रेम में पड़ी लड़की सबसे पहले अपनी मां से घात करती है। यह सत्य तो ग्रीक मिथक में डीमेटर–पर्सेफ़नी–हेडिज़ की कथा से भी पुरातन है। एक लड़की जन्म से पूर्व और जन्म के पश्चात सदैव धरती की दमघोंटू ममता और मृत्यु की मोहिनी वायलिन के गीत के बीच दो फाड़ होती रहती है जब तक उसका एक हिस्सा स्वयं मृत्युगीत और दूसरा हिस्सा धरती में नहीं बदल जाता। और यहां तो अमा स्वयं आकाश की तरह सबलाइम थी, तो उनकी तरफ खींचने वाले गुरुत्वाकर्षण बल को तो मेरी चाहना की उद्दामता से तो हारना ही था।

“तुमने आठवीं तक की पढ़ाई कलिमपोंग से की है,” बाबा ने खाने की मेज से उठकर अपने हाथ धोने के बाद तौलिया से उन्हें पोंछते पोंछते चुनौती भरे स्वर में न. से पूछा, “बंगाली तो तुम्हें आती ही होगी?”

न. ने एक ढीठ दृष्टि अमा पर डाली जो अभी भी गाए जा रहीं थीं, और बिना उन पर से नज़र हटाए कहा, “नहीं।”

अमा 

न. बचपन से मुझसे प्रेम करता था। और मैं उससे भी पहले से उसे प्रेम करती थी। स्कूली दिनों में चित्र बनाने से पहले शून्य में ताकते ताकते जब एक सिंगुलर भावना उसकी लंबी पलकों से नीचे उतरती, और उसका चेहरा जब हिंसा और सौंदर्य के उद्दाम से विकृत और मुग्धता का एक अकल्पनीय मेल हो जाता तो मेरे पेट की तली में जैसे जल से शुष्क धरती पर ला पटकी मत्स्य की तरह कुछ तड़फड़ाता। परन्तु त्रिगुणामति के प्रमेयों को सिद्ध करने की जुगत में लगे वर्षों की दौड़ धूप में प्रेम की अभिव्यक्ति और स्वीकारोक्ति दोनों किसी मोमबत्ती की तिर तिरकर जलती अधमरी लौ जितनी ही महत्वहीन होता है। सो बात आई गई हो गई। आठवीं कक्षा पूरी करते ही न. अपने देश वापिस लौट गया। मेरा भी विवाह अपू के बाबा के साथ हो गया। मेरा जीवन सपनों सा सुंदर नहीं था तो किसी दुःस्वप्न जैसा भी नहीं था। अपू के बाबा के जीवन में मेरा स्थान उनकी पत्नी अथवा प्रेयसी का  न होकर एक मां जैसा अधिक था जिसे उनकी हर नई विचारधारा, संसार और समाज को बदलने के सपने के लिए उतना ही उत्साह दिखाना होता जितना एक मां को अपने बच्चे के हर नए खिलौने और खेल के लिए दिखाना होता है। मेरे भीतर का खालीपन एक एक सीढ़ी ऊपर चढ़ता आ रहा था और मैं गणित के प्रश्नों, नौकरी और गृहस्थी की जिम्मेदारियों के बांध से भरसक अपनी गृहस्थी को अछूता रखने का प्रयास कर रही थी।

पर आखिरकार न. वापिस आया। इस बार मुझे अपने संग ले जाने के लिए। पर उसके प्रति प्रेम की स्वीकारोक्ति मुझसे पहले मेरी अपू ने की। करती भी कैसे नहीं, मेरी बेटी अपू और मैं, हमारे अस्तित्व की बुनाई तो एक ही धरती के सूत से हुई थी। गुणों में भले ही हम भिन्न थे, पर अपनी अपूर्णता में मैं अपू की धरा थी और अपू मेरा आकाश। 

न. का अपू के पावन प्रेम को दयापूर्वक ठुकराना और प्रतिदिन अपू का अपने भग्न हृदय की किरचों पर अपने मां के ही आंगन में चलना, अपू का आपे से बाहर होकर अपने बाबा के सामने मुझे लज्जाजनक विशेषणों से नवाजना: इस पूरे घटनाक्रम का वर्णन करना मेरी अपू की भावनाओं की गरिमा और उदात्तता के प्रति अपराध होगा पर अपनी बात कहूं तो मैंने न. के साथ पेरिस जाने का निर्णय किया। एक तरुणी की मां होकर अपने ही रचे कोकून में कैटरपिलर की भांति कैद रहकर मैं अपनी अपू के लिए सामाजिक ढांचों से भयभीत होकर अपने पंख कतरने की वसीयत नहीं छोड़कर जाना चाहती थी। पर अपू और उसके बाबा का सामना करके उनके घोंसले को उनके सामने ही तोड़ने का साहस भी मुझमें नहीं था।

तो तय हुआ, चार जोड़ी सूती साड़ी और अपनी डिग्री और बाकी सारे आवश्यक दस्तावेज़ लेकर मैं न. के साथ कलकत्ता जाने वाली चार बजे वाली बस में बैठूंगी। न. ने अपने दोस्त को, जिसके घर अपने कलिमपोंग प्रवास में वो ठहरा था, को रात दस बजे ही अलविदा कह दिया। मैंने जो एक्स्ट्रा पुड़ियाँ रास्ते के लिए बनाई थीं, उन्हें अखबार में लपेटकर अपने झोले में रख लिया। “गोरखालैंड की मांग के लिए प्रदर्शन हुए उग्र” अखबार की बंगाली में लिखी हेडलाइन झोले की खराब चेन से ऊपर झांक रही थी।

न. नियत समय पर मुझे बस स्टॉप में ही मिला, और मेरे बस पर चढ़ते ही वह बिना किसी नाटकीयता के बस में मेरे बगल वाली सीट पर बैठ गया। मैंने खिड़की का कांच बंद कर अपना सर चुपचाप न. के कंधों पर रख दिया। न. और मैं, दोनों ही अपनी भावनाओं को अपने भीतर रखकर, उन्हें धीमी आंच पर धीरे धीरे पकने देने वाली आत्माएं थे। शायद इसी लिए हम दोनों के बीच प्रीत का रंग इतना गहरा चढ़ा था। वहीं अपू और उसके बाबा घोर एक्सप्रेसिव। उनके ठहाके भी ऐसे जो सारे कमरे को गुंजित कर दें, उनके दुःख का वेग भी ऐसा जो सारी सृष्टि को बहा दे। अपू अभी अपने कमरे में सो रही होगी जैसे किसी धनवान आसामी को अपने सारे घोड़े बेच आई हो। मेरी अपू, जो सूर्य सी बेलाग सारे संसार को उजाले से भर दे। जब भी उसकी ईर्ष्याभरी दृष्टि मुझसे टकराती, मेरा हृदय बिसूर उठता, “मैं तो चांद हूं मेरी बच्ची जिसका सारा सौंदर्य और गरिमा तेरे ही अस्तित्व के प्रकाश से है।” कितनी निश्छल थी मेरी अपू। उसका क्रोध, उसकी कटुता भी इसलिए थी क्योंकि वो सब कुछ महसूसती थी। एक बार चार वर्ष की आयु में नदी किनारे मछुआरे के जाल में मछलियों को तड़पते देख उसने जो कभी मांसाहार न खाने का प्रण लिया, उसे वो आज तक निभा रही थी। जो कहते थे, अपू सुंदर नहीं, वो एक तय खांचे के परे देख ही नहीं पा रहे थे। क्या न. भी उनमें से एक था?

तभी अचानक ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। बस अब रुक चुकी थी। युवाओं का एक समूह बस के ऊपर चढ़ आया। मेरे हाथ पर शाखा पोल देखते ही एक चिल्लाया, “बंगाली” और मेरा हाथ पकड़ मुझे खींचने लगा।

न. ने उल्टे हाथ से ज़ोर का थप्पड़ उसके कान पर जड़ दिया। समूह के सारे युवा और अधेड़ अब हमारी ओर आने लगे थे। बस ड्राइवर बस छोड़ भाग चुका था। अब वे सारे ज़ोर ज़ोर से न. को उसी की मातृभाषा में कुछ समझाने का प्रयास कर रहे थे। न. भी उनसे बहस किए जा रहा था। तभी उनमें से एक मेरी ओर बढ़ा। उसने नहीं सोचा था जो वो कर रहा था वो उसके लिए इतनी बड़ी गलती साबित होगी।

इतने वर्षों में मैं भूल चुकी थी स्वभाव से न. जितना शांत और संयत था, जो उसे प्रिय हों उन पर खतरे का आभास होते ही वो उतना ही आक्रामक और मारक हो उठता था। इतिहास में भी कोई सफल–असफल कलाकार जब हिंस्त्र हो उठता है तो उसकी परिणति भयावह होती है।

पर तभी यात्रियों में किसी ने पुलिस तक सूचना पहुंचवा दी थी और कुछ बड़ा घटने से पूर्व, पुलिस भी बस पर चढ़ गई थी।

न. को हिरासत में ले लिया गया था गोरखालैंड आंदोलनकारियों के साथ केवल इसलिए क्योंकि उसकी शक्ल उनसे मिलती थी। इस बात से किसे लेना देना था कि वो पेरिस का एक विख्यात पेंटर था जो केवल अपने प्रेम के लिए एक परदेसी शहर लौटा था। मुझे सुरक्षा के लिए थाने के अंदर बैठा रखा था जब तक मेरे पति मुझे लेने नहीं आ जाते। थाने में एक पुलिसकर्मी मेरी क्लास के विद्यार्थी का पिता था जिसने मुझे पहचान लिया था। यदि यह दुर्योग न हुआ होता तो शायद…

खैर, अपू के बाबा अकेले नहीं आए। अपू के साथ आए। 

अपू मेरी ओर देख भी नहीं रही थी। यह क्या किया मैंने? विवाह की मर्यादा तो त्याग ही दी, जिस निष्ठुर ने मेरी मासूम अपू का हृदय और आत्मविश्वास अपनी एक न से भंग कर दिया, उसी को अपने अधूरे सपनों का आकाश बना बैठी? फिर मां बेटी के बीच प्रेम के ऊपर मृत्यु के सम्मोहन की विजय हुई। पर्सेफ़नी तो मासूम थी, पर पहली बार डीमेटर अपनी ही गोद में खिले जीवनपुष्प को दगा देने जा रही थी। पर अब कुछ नहीं हो सकता था…

“क्या आप इसे जानती हैं?” दारोगा न. की ओर इंगित कर मुझसे पूछ रहा था और उसकी खीज देखकर मैं समझ गई थी यह पहली बार नहीं है जब उसने मुझसे यह सवाल पूछा हो।

कोतवाली की सीलिंग से टंगा पंखा किसी शेक्सपियर के नाटक में अपशकुन की व्याख्या करने वाले भविष्यवक्ता की तरह ऊंघते हुए जाने क्या भविष्यवाणी किए जा रहा था। अपू के बाबा मुझे विस्फारित नेत्रों से घूरे जा रहे थे। न. की मुझ पर टिकी दृष्टि में अभी भी कभी न समाप्त होने वाली कोमलता थी। केवल अपू ही थी जो अपने जूतों पर नज़र टिकाए “आमारो पोरानो जहा” की धुन सीटी से बजा रही थी जो मेरे कानों में गरम सीसे की तरह पिघल रही थी।

मेरे भीतर की स्त्री जैन साध्वी की भांति अपने केश खींच खींच तोड़े जा रही थी। और मेरी देह पत्थर की भांति जड़ थी।

“नहीं,” मैंने बिना न. को देखे उत्तर दिया, “मैं इसे नहीं जानती.”

“फिर ये आपके साथ कैसे था?”

“ये गोरखालैंड आंदोलनकारियों के ही साथ था,” मैंने उत्तर दिया।

मैं प्रतीक्षा करती रही कब न. सच कहेगा और मेरे झूठ को संसार के सामने नग्न कर देगा। पर उसके प्रेम और घृणा दोनों में जो गरिमा थी वो मेरी पहुंच से बाहर थी।

एक माह के बाद जैसे ही न. को जमानत मिली, वह गायब हो गया या कर दिया गया। गोरखालैंड आंदोलनकारी होने के कारण और एक बंगालन के लिए गोरखालैंड आंदोलनकारी को अधमरा करने के कारण एक ही झटके में परदेसी न. कलिमपोंग में सबका अप्रिय बन चुका था। सर्दी की छुट्टियां खत्म हो चुकी थीं। मेरे स्कूल की क्लास फिर शुरू हो चुकी थीं और अमा की यूनिवर्सिटी की क्लास भी। बाबा फिर किसी संसार को पूरी तरह बदलने वाली नई विचारधारा की तलाश में थे। वसंत का सूर्य फिर चमकने लगा था और चांद फिर छिप गया था, सदैव के लिए।

अपू २००८

इसके पश्चात अमा की कहानी कई धाराओं में बंट सकती है।  एक यह कि अमा ने इस घटना के कुछ वर्षों बाद मेरी पढ़ाई पूरी होते ही बाबा से तलाक लेकर ज्यूरिख यूनिवर्सिटी को एक प्रोफेसर के तौर पर ज्वॉइन कर लिया और केवल गणित के प्रमेयों और मेरे और बाबा के लिए रसोई में लगे हुए रवींद्र संगीत गाती हुई मेरी कलिमपोंग की अमा गणित क्षेत्र में कई मेडल जीतकर और सोलो ट्रिप पर फ्रांस छोड़ सुदूर स्थान घूमकर और अपना जीवन किसी यूरोपीय हार्इ अचीविंग बोहेमियन की तरह खुलकर जीते हुए रिटायर हुईं। एक धारा यह भी हो सकती है कि अपनी मृत्यु के एक वर्ष पहले तक अमा एक हाथ में कलिमपोंग यूनिवर्सिटी के अपने विद्यार्थियों के गणित के पेपर और एक हाथ में बाबा के लिए दही भात की थाली का बैलेंस बिठाती रहीं। 

पर सारी धाराएं एक ही नदी पर आकर जुड़ती हैं कि मरने के आखिरी महीने अमा किसी से एक शब्द भी बोल बिना केवल अपने सामने के पीले वॉलपेपर वाली दीवार पर टकटकी लगाए केवल सीन नदी की पेंटिंग को ही ताकती रहीं और एकमात्र शब्द जो लगातार गुनगुनाती रहीं, वे थे:

আমারো পরানো যাহা চায়

তুমি তাই, তুমি তাই গো

कहानी :

शीर्षक: लौ

बालकनी पर कोहनियों को रेलिंग के सहारे टिकाकर मैंने अपनी सिगरेट सुलगाई ही थी कि मुझे जूनी के खांसने की आवाज़ सुनाई दी। हड़बड़ी में मैंने सिगरेट बालकनी में ही गिराकर उसकी मरती हुई नारंगी रोशनी को वहीं छोड़ दिया।

“ये क्या जूनी? तुम अभी तक अंधेरे में ही…” मैंने भरसक प्रयास किया कि मेरे स्वर में एक किरायेदार के अनुकूल ही चिंता की मात्रा हो, पर इस बार भी मेरी आवाज़ कांप उठी थी।

“लतिका जी कहां हैं?” मैं बार–बार दियासलाई से मोमबत्ती की बाती जलाने का प्रयास कर रहा था, पर कमबख्त जलती ही न थी। मेरी पीठ जूनी की ओर थी पर उसकी भारी सांसों के दबाव से मेरी रीढ़ में जैसे झुरझुरी इधर से उधर भाग रही थी।

अंततः मोमबत्ती जल गई।

“तुम कहां थे?” जूनी की आवाज़ ही थी जिसका भारीपन अभी भी बरकरार था।

“मैं।”

“तुम कहां थे?” जूनी मुझे एकटक देखे जा रही थी। पसीने से भीगा उसका तकिया, सफेद तकिए पर फैले उसके काले उलझे बाल, और उसके चारों ओर मोमबत्ती का मरता हुआ पीला प्रकाश–जूनी का चेहरा हर रोज़ बीते हुए कल से अलग दिखता था, फिर भी जूनी आज भी उतनी ही जूनी थी जितनी दो साल पहले वो जूनी थी जब मैंने इस पहाड़ी नगर पर उसकी मां के मकान का चौथी मंजिल का हिस्सा किराये पर लिया था।

मोमबत्ती की लौ में जूनी का चेहरा किसी रतिरत युगल के उठते–गिरते उन्मादी मौन की भांति झिपझिपझिप कर रहा था। भयानक था उसे मरते हुए देखना। भयानक था उसकी चाहना की मूक पुकार को हर क्षण सुनकर भी न सुनना। काले घेरों के कोटरों के बीच जूनी की पनीली आंखें अब मोमबत्ती पर टिकी हुई थीं। मैं मुड़ा और कमरे से बाहर निकल आया। पर चौथी मंजिल पर जाकर मेडिकल के तृतीय वर्ष की किताबें पढ़ने के बजाय मैं घर से बाहर निकल आया।

घर या हवेली, जिसमें लतिका और उसकी बेटी जूनी रहती थीं, मौत की गंध से भरा हुआ था। जूनी मर रही थी। और लतिका भी। पर जहां लतिका मौत की ओर चल रही थी, जूनी जाने किस परिंदे से पंख उधार लेकर उड़ गई और मौत के करीब–एकदम करीब पहुंच गई थी। लतिका मौत से अधिक दूर थी, और ज़िंदगी जिसे मैं जानता था उससे ज़्यादा करीब। शायद इसलिए मैं लतिका को चाहता था, जूनी को नहीं।

घर के बाहर शहर का मौसम नीला था। सबसे आंख बचाकर अपने प्रेमी से मिलने जाती किसी प्रौढ़ा के स्कर्ट की तरह नीली धुंध धरती को छूकर सर्रसर्र कर रही थी। मैंने पैंट की जेब को सिगरेट के पैकेट के लिए टटोला पर शायद वो बालकनी में ही छूट गया था। पर तलब तो उठ चुकी थी: मुंह के अंदर भर सांस को फंदे से जकड़ते अंतिम प्रेम से फिसलते धुएं और धू धूकर जलकर ठंडे पड़ चुके आकाश की राख की। यूं तो आकाश कितना असीम है, अपरिमित, पर हमारी मरती हुई इच्छाओं को दफन करने के लिए यह भी छोटा पड़ जाता है। तभी कहीं कोई कुत्ता चीखा और उस चीत्कार से उपजे भय से चांद जैसे कांप उठा। कांप तो मैं भी रहा था। जूनी के दिए याक के ऊन से बने लाल जैकेट पहनने के बावजूद। जूनी की बीमारी के बाद भी मुझे उससे करुणा जैसी भावना जन्म लेने के बजाय एक अजीब सी जलन ही होती। कितनी सरल थी उसकी अभिलाषा–मुझे पाना। वायलिन के चार तारों और एक बो–स्टिक के घर्षण से उत्पन्न एक एकांगी हूक। वहीं मैं खड़ा था: गली के इकलौते स्ट्रीट लैंप के नीचे: मेरे चारों ओर धुंध जैसे आकाश की हजारों नीली आंखें थीं जो हिकारत से मेरी एक एक कमज़ोरी गिनने में मशगूल थीं। ठंडी हवा जैसे मुझे झुलसा रही थी। मेरे चारों ओर तैरते हुए दर्पण मेरी आत्मा की नग्नता को भौंडे कोणों से प्रदर्शित कर रही थी, और मेरा शरीर पानी के बीहड़ में गोते लगा रहा था। लतिका को उसके प्रति मेरी चाह का आभास नहीं था, ऐसा नहीं था। पर वो भावुक नहीं थी, कम से कम जूनी की तरह भावुक तो नहीं। जूनी सुंदर थी, बुद्धिमती भी पर उसके हृदय में केवल कविता थी जिसमें केवल मन था, देह नहीं और न ही मादकता। लतिका की सघन मादकता, उसकी गंध उसके पास न होते हुए भी मेरी देह और मन पर तारी हो रही थी। उन दिनों मेरे लिए जीवन का विस्तार थी। लतिका की गंध: जो गर्दन के पिछले हिस्से पर ओस सी चमकते पसीने की बूंदों से सिगरेट के बासे धुएं की तरह शुरू होती और नाभि तक पहुंचते–पहुंचते प्लम ब्रांडी की खरछराहट में बदल जाती। जूनी से मैंने कभी प्रेम नहीं किया, यह कहना गलत होगा। मैंने जूनी का सदा भला चाहा। मेडिकल के दूसरे वर्ष की शुरुआत में मैं जब मैं एक साइकाइट्रिस्ट फैसिलिटी में एक माह के लिए भर्ती था, तब केवल जूनी के पत्र ही थे जो उस मैले समुद्र के तल में मेरे लिए पानी के ऊपर बिखरी धूप की धुन सुना जाते थे। उसके पत्रों में कभी तुर्गनेव के ग्रामीण डॉक्टर का एक भूला बिसरा रूमानी किस्सा होता, कभी गोगोल का सिस्टम की भूलभुलैया में एक ओवरकोट को अपना सखा मानने वाला एक दयनीय क्लर्क। कभी बीटल्स का नार्वेजियन वुड होता, कभी केट बुश के वदरिंग हाइट्स में तेज़ पवन सी निर्बाध कैथी की अकुलाहट। कभी कभी जूनी के बनाए कुछ स्केचेज भी होते। जूनी की एक खास विशेषता थी: उसके चित्र वैसे तो ब्लैक एंड व्हाइट होते पर उनमें से एक चीज़ वो हमेशा रंगीन बनाती। जैसे इस शहर की पेंटिंग में उसने नदी में नीला रंग बचा रखा था। शायद मेरा हृदय प्रेम लिखने पढ़ने की लिपि भूल चुका था, पर उसमें जो भी मुलामियत बची थी वो जूनी के लिए ही थी। पर झील सी छितरी उस मुलायम एहसास पर देह की ज़मीन के ठहरने से वो झील मर जाती।

ठंड मुझे अब और जलाने लगी थी। मैं वापिस घर की ओर बढ़ा। बाहर से ही मुझे मेरी मंजिल की बालकनी पर एक मोमबत्ती का घेरा दिखाई दिया और उस घेरे में जूनी का चेहरा। उसका बाकी शरीर जैसे पारदर्शी था। एड़ियों से बस थोड़ा ऊंचा उसका क्रीम कलर का गाउन रात की चांदनी में घुल गया था। उसके सारे शरीर में बस बाघिन से तीखे उसके नेत्र ही उसके जीवित होने का ठोस प्रमाण थे। उसे इस ठंड में यूं बाहर नहीं आना चाहिए था। 

मकान की छत पर काई जमने लगी थी। एक बार जूनी ठीक हो जाए फिर लतिका को इसके बारे में बताना होगा। सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते हुए मेरी दृष्टि दीवार पर टंगी तस्वीरों पर गई। तस्वीरें क्या पोर्ट्रेट पेंटिंग थीं सारी ब्लैक एंड व्हाइट: पंद्रहवीं शताब्दी से क्रमवार टंगी हुईं–सारी की सारी पुरुषों की–पता नहीं ये लतिका और जूनी के पूर्वजों की थीं या जिसने ये मकान बनवाया था उसके पितरों की। पर यह कैसी विरासत जिसमें स्त्री के नाम तक का अस्तित्व तक नहीं है: उसकी आकांक्षाओं, उसके सपनों, उसके दर्द को तो कौन ही याद रखे? पर इनमें से मैं कहां अलग था? मेरे लिए भी तो केवल मेरी आकांक्षा, मेरी ही प्यास का महत्व था,  जूनी का तन मन जो सपनों के घने जंगल से बीहड़ में मेरी ही आंखों के सामने बदलता जा रहा था, उसका क्या?

मैं चौथी मंजिल की बालकनी पर पहुंचा। बालकनी की रेलिंग में जमी हुई मोम पर वही मोमबत्ती रखी हुई थी जो मैं जूनी के कमरे में छोड़ आया था। मोमबत्ती अब केवल आधी ही रह गई थी।  जूनी दूर शहर पर टपकते चांद को देख रही थी। मैं जूनी को देख रहा था।

“जूनी?” 

जूनी मेरी ओर मुड़ी। इससे पहले मैं कुछ कर पाता, जूनी मुझे चूमने लगी। मैंने उसे बाहों से पकड़ा। उसकी देह ज्वर से तप रही थी पर उसके होंठ मृत्यु से सर्द नीले थे।

“बस एक बार! बस एक बार मुझे प्यार करो,” जूनी थरथरा रही थी–ठंड से, या भावनाओं के अतिरेक से, या शायद दोनों से। जूनी के होंठ मेरे मस्तक, मेरी पलकों, मेरी नाक की नोक से मेरे अधरों पर ठहरने ही वाले थे, कि मेरे कानों में जैसे कुछ भी सुनाई देना बंद हो गया। मैंने जूनी को देखा। उसका हाथ उसके दाहिने गाल पर था और मेरा हाथ बीच हवा में ठहरा हुआ जैसे किसी मोटी रस्सी को काटने के लिए उठी कैंची। मैंने बालकनी से नीचे देखा। मोमबत्ती की लौ हवा में उल्टी गिर रही थी।

“बेशरम कहीं की!” मेरी अपनी ही आवाज़ मुझे कहीं दूर से आती हुई सुनाई दी। 

जूनी मुझे ऐसे देख रही थी जैसे मुझे नहीं किसी प्रेत को देख रही हो। मुझे खुद लग रहा था जैसे मैं मैं नहीं कोई प्रेत था। या शायद यही मेरा सच था: मेरी सारी शिक्षा, मेरे सारे बनावटी समाज में स्वीकृत होने के लिए ओढ़े गए स्त्रीवादी होने के चोले के अंदर। शायद यही था मेरा नग्न सत्य जिसे मैं अपने मीठे शब्दों में छिपा कर रखता था। 

तभी जूनी ज़ोर ज़ोर से हंसने लगी, पर आंसुओं की धार उसके होठों तक आ गई थी। जूनी अंदर जाने के लिए पीछे मुड़ी, गई भी, पर बिजली की कौंध सी वापिस मेरे सामने आई और मुझे धक्का दे दिया। मैं बालकनी की रेलिंग पकड़ सकता था, बचा सकता था खुद को, पर बच भी जाता तो क्या?

नहीं ऊपर से नीचे गिरने में उतना समय भी नहीं लगता जिसमें अपना पूरा जीवन फ्लैशबैक की तरह रिवाइज किया जा सके। मैं धरती पर गिर गया। अब तक बर्फ भी नीचे गिरने लगी थी। मुझे दरवाज़े के खुलने की आहट हुई और जूनी की सांसों की आवाज़ भी मेरे पास, और पास आ रही थी। जूनी का चेहरा मेरे ऊपर झुका हुआ था, और वो मेरी पेशानी पर बिखरे बालों को सहेज रही थी।

तभी लतिका की गंध मेरे पास आई। मेरा कितना मन हुआ लतिका की गर्दन के पीछे उसकी कमर तक लंबी घनी चोटी से ढंके हल्के भूरे तिल को चूमने की पर मैं हिल भी नहीं सकता था। तभी लतिका की आवाज़ सुनाई दी, “ये क्या किया तुमने जूनी? अभी तक मरा नहीं है ये।”

जूनी चुप रही।

लतिका के होंठ मेरे गले को छूने लगे तभी मेरी श्वासनली पर हल्का हल्का दबाव आने लगा। और इस तरह मेरी मौत हुई।

मौत के एक घंटे बाद गिरती बर्फ में भी कुदाल पकड़े लतिका के तिल पर पसीने की एक बूंद चमक रही थी। मेरे मृत शरीर को मां बेटी ने लतिका द्वारा खोदे हुए गड्ढे में गिरा दिया। लतिका ने जैसे ही फिर कुदाल उठाई, जूनी बोली, “मां प्लीज। बस १५ मिनट।”

लतिका ने गहरी सांस ली और घर के अंदर चली गई।

गड्ढे में लेटे हुई मेरी देह पर रात सी जूनी उतर गई। उसका हाथ मेरे सीने पर था और होंठ मेरे बाएं कान को छू रहे थे। वो धीरे धीरे गा रही थी: “लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो, शायद फिर इस जनम में…” ऊपर से गिरती नीली बर्फ़ फिर इस दुनिया को रफ्ता रफ्ता दफना रही थी।

कहानी

शीर्षक: अंत

डीके सीनियर

मेरे नंगे सर पर यूं अचानक बर्फ का गिरना उतना ही औचक था जितना उस साल की पहली बर्फ को गिरते देखकर मेरा ठठाकर हंस पड़ना इस अनुभूति के साथ कि बयालीस की उम्र में भी कितना कुछ पहला अब भी शेष था मेरे जीवन में। अभी भी समय है–इतनी आशा तो मुझे थी ही वरना क्यों आता मैं फिर उस शहर में जिसका दरवाज़ा तो समय भी नहीं खटखटाता। सारी सड़कें वीरान पड़ीं थीं जबकि अभी तो केवल दोपहर के दो ही बजे थे। लड़कपन में जब बर्फ गिरती थी, तो मेरे जीवन में कुछ न कुछ अच्छा जरूर होता था। ये अच्छा बस उतना ही अच्छा होता कि छोटे से उस शहर के लड़के के मन में विश्वास तो नहीं ही पैदा कर पाते, पर एक बारीक सी सूती उम्मीद का धागा ज़रूर बांध देते कि जीवन चाहे कितना ही बेरंग क्यों न हो जाए, एक चुटकी नमक जैसी उजास तो उसमें हमेशा घुली रहती है। 

मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। जो शहर कभी मेरा घर था आज वहाँ दो पल सर ढँकने के लिए भी कोई छत नहीं। पर भूख को इन सब बातों से क्या लेना-देना ? ज़िन्दगी की परेशानियाँ तो यार-दोस्त होती हैं, कुछ पल बैठ लिए इनके साथ, थोड़ी अपनी कह ली, थोड़ी उनकी सुन ली। पर भूख तो जीवनसाथी होती है। उसकी बात कौन टाल सकता है भला? सो मैं निकल पड़ा शहर के उसी पुराने टीहॉउस की ओर- और जाता भी कहाँ अब?

टीहॉउस अब भी जस का तस था. घुसते ही उबलती चाय की तेज़ महक, बर्फबारी में बिजली गुल होने की वजह से पेट्रोमैक्स लैंप की रोशनी और उसके पीले–मद्धिम प्रकाश में चमकता खंडूरी का चेहरा जिसे देख मैंने काला चश्मा अपनी आंखों पर चढ़ा लिया और अपनी पुरानी टेबल पर बैठकर मोबाइल स्क्रीन पर व्यस्त होने का उपक्रम करने लगा। पर खंडूरी ने बस एक उचटी हुई नजर से मुझे देखा और काम करने वाले को जल्दी–जल्दी हाथ चलाने की हिदायत देने में व्यस्त हो गया। जाने क्यों ये बात मुझे चुभ गई। भारत आने वाली फ्लाइट में मैं बैठा यही सोच रहा था कि कैसे इस अतीत में अटके गांव में मैं अपनी प्राइवेसी बचा सकूंगा। कैसे जो लोग पहले मेरा मखौल उड़ाते थे, वो अब ये जानकर कि अब उनके उपहास के लट्ठों की मार खाया वही लड़का आज विदेश के अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित एक मशहूर कवि है जिसका स्वीडन में एक आलीशान घर है, मुझे ये याद दिलाने की कोशिश करेंगे कि मैं कितना प्रिय था उन्हें। इन वर्षों में मैं कल्पना करता था ऐसी स्थिति में मैं क्या करूंगा? एक्सेंट में–सॉरी आई कैन्नॉट प्लेस यू–कहकर आगे बढ़ जाऊंगा या फिर किल देम विद काइंडनेस का पालन करूंगा? पर यहां तो किसी को वह याद ही नहीं है। इस शहर का तिरस्कार तो मैं हमेशा ही झेलता आया था, पर अब शहर की मेरे प्रति उदासीनता मेरी ठंडी पड़ चुकी आत्मा को और भी सर्द कर दे रही थी।

खुद को संयत करते हुए मैंने खंडूरी के पास जाकर एक कप चाय का ऑर्डर दिया। ‘आपको कुछ और भी चाहिए था?’ खंडूरी के यह पूछते ही मेरी जैसे नींद सी टूटी। कितनी देर से खंडूरी को घूर रहा था मैं? और तब भी खंडूरी ने मुझे नहीं पहचाना? क्या सचमुच इतना बदल गया था मैं?

मैं वापिस अपनी टेबल पर बैठ गया। बाहर शहर जैसे धुंध की नीली चादर ताने सो रहा था और खिड़की से बाहर अब नीली पहाड़ियां भी नहीं दिख रही थीं। धत! यह टेबल मेरी पसंदीदा ही इसलिए थी क्योंकि यहां से बादलों से गलबहियां करती नीली पहाड़ियां का सबसे खूबसूरत व्यू मिलता। बाहर से ताज़ी बर्फ की हल्की सी महक हवा में तिर रही थी। क्या ये शहर भी असली था या धुंध और बर्फ की रची कोई जादुई ट्रिक? बस एक रेडियो पर बजता अरे हो! गोरिया कहां तेरा देस रे ही एहसास करा रहा था कि समय टीहॉउस की छत तले बर्फबारी के रुकने की प्रतीक्षा करने के बजाय अब भी दूर किसी पहाड़ की चोटी की ओर चढ़ता चला जा रहा था।

डीके जूनियर

उस रोज़ आसमान कांच सा टूटा था और बर्फ के फाहे बरसों तक पिंजरे में कैद बाद मुक्त हुए किसी पंछी की तरह चारों ओर उड़ रहे थे। पर मैं अब भी इस शहर से मुक्त नहीं हुआ था। या फिर मैं कभी मुक्त होना ही नहीं चाहता था? मैं बर्फ के फाहों की गर्माहट के सहारे जीवन काटना चाहता था, धूप से श्याम पड़ चुकी तितली को अपने सपनों का रंग उधार देना चाहता था, मैं एक मरती हुई कविता को जीवित रखने की जुगत में शनैः–शनैः स्वयं खर्च होता जा रहा था। 

डीके सीनियर

कृतिका जोशी अब इस दुनिया में नहीं रही–स्टॉकहोम में जब दिसंबर की एक स्लेटी शाम में जब मैंने उस हाथ से लिखे पत्र को पढ़ा जिसका मजमून बस यही था तब मैं न्यूयॉर्क से आए अपने प्रकाशक के स्वागत के लिए डिनर कीतैयारी कर रहा था। रसोई का सारा काम हो चुका था और मैं ड्रेसिंग टेबल में शीशे के सामने एक काले ब्लेजर और नेवी ब्लू ट्राउज़र्स में एक हाथ में वह पत्र और एक हाथ में फ्रांसीसी परफ्यूम की बॉटल लिए खड़ा था। 

पत्र पढ़ने के बाद मैंने अपने शरीर पर परफ्यूम छिड़का, अपनी कलाई पर उसे छिड़कने के पश्चात कलाई को अपनी नाक के पास लाकर कुछ देर यूं ही खड़ा रहा और घंटी बजते ही अपने अमेरिकी प्रकाशक का स्वागत करने चला गया। शाम यॉर्ग ट्रैकिल की कविताओं में सर्दी की शामों की आवश्यक उपस्थिति से शुरू होकर, होकुसाई की द ग्रेट वेव से गुजरने के बाद मेरे अगले कविता–संग्रह की मेनुस्क्रिप्ट पर कुछ समय ठहरकर स्टॉकहोम के सबसे क्लासी वेश्यालयों की चर्चा पर रुकी। इस पूरे समय मैं एक चार्मिंग पर रहस्यमयी, उस ज़माने के एक महत्त्वपूर्ण कवि के किरदार को बखूबी निभा रहा था।

प्रकाशक के जाने के बाद देर रात तक मैं स्टॉकहोम ईस्ट ट्रेन स्टेशन के प्लेटफॉर्म पांच पर लकड़ी की एक बेंच पर बैठा रहा। मैं घर से कब अपनी मोटरसाइकिल पर कब निकला और कैसे ट्रेन स्टेशन पहुंचा ये मुझे चाहकर भी याद नहीं आ पाया। बस स्टेशन पर आती भीड़, जाते हुए लोग, पीछे छूट गए लोग, किसी अंग्रेजी बैंड के गीतों को गिटार पर बजाते कृतिका के बाएं हाथ की मध्यमा में पहनी ऐक्वामरीन की अंगूठी जैसी चमकती हुई आंखों वाले अधेड़ावस्था और वृद्ध होने की दहलीज पर खड़े फटे कपड़ों वाले व्यक्ति को बीतते हुए देखता रहा। उस समय कितना कुछ बीत रहा था, कितना कुछ बीत चुका था। कृतिका की नग्न देह जिसे उसकी अंगूठी उतारने के बाद मैंने अपनी सांसों के नीचे सूखे पत्तों की तरह खुद में ही जलते हुए देखा था–वह भी बीत चुकी थी, कुछ नहीं बीता था तो ऐक्वामरीन की सर्द कठोरता जो मेरे हाथों में हमारे प्रणय के बाद अपने मखमली बिस्तर पर सोती कृतिका को अंगूठी वापिस पहनाते वक्त छूट गई थी। उन्नीस साल का ही तो था मैं तब जब मैंने कृतिका से प्रेम किया और अपनी पहली कविता लिखी थी:

बहुत कह चुके प्रेतों के बारे में. 

बहुत कर ली परलोक की चर्चा. 

कोणार्क के तट से टकराती लहर की भांति 

उजास लौटता है धरती के सिंदूरी बाहुपाश में. 

हम पर बीत चुका है सावन.

चलो छोड़ें भी अज्ञेय को 

और पढ़ें निरभ्र अम्बरों की उज्ज्वलता. 

गीत गाढ़े हुए जा रहे हैं सूर्य के संगीत से 

और काले बक्से में तिमिर ने फिर रख दिया है अपना सितार. 

पर निःशब्दता अब भी है—

मृत्यु की निर्दोष चंदेरी को ब्याही हुई. 

फरवरी के ये अंतिम दिन 

सबसे कठिन परीक्षा हैं 

कोयल के प्रणयगान के शिष्यों के लिए. 

आज भी गाँव में वह पुराना कुआँ है 

पर आज जिसकी भी मृत्यु होगी 

वह आँखें मूँदेगा सौंदर्य जानने के बाद. 

यदि सौंदर्य का खरापन नहीं 

तो पोखर के हरे हाथ. 

यदि वसंत का लावण्य नहीं,

तो बछड़े की अधखुली आँखें. 

तभी ट्रेन गुजरी और मेरे शरीर में एक कंपकंपी छोड़ गई। मैंने वह पत्र फिर देखा। उस लिखावट को मैं पहचानता नहीं था और पत्र के नीचे कोई नाम भी नहीं था। कौन था वह जिसने ये पत्र भेजा था? कृतिका की बहन की लिखावट तो मैं पहचानता था। तो फिर उसका पति या उसकी बेटी? नहीं, बेटा तो नहीं हो सकता। या फिर जिसने यह पत्र भेजा था वह उसका प्रेमी था? मेरे मन की तहों में फिर काई जमने लगी। क्या ज़रूरत थी यह पत्र यहां भेजने की? कृतिका को जब मैंने आखिरी बार देखा था तो मैं इक्कीस साल का था और वो बाइस की। उतना ही जीवन कृतिका को देखे बगैर बीत चुका है। तो अब इन सबका क्या मतलब था, वो भी तब जब कृतिका ही नहीं थी।

उस रात को याद करते हुए मैंने ध्यान ही नहीं दिया कब एक यही कोई १९–२० बरस का लड़का उसकी मेज के सामने खड़ा उसे देखे जा रहा था। उठे हुए गालों और चमकती सी नमी लिए आंखों के अलावा कुछ भी तो नहीं था दाईं आस्तीन पर उधड़ी हुई बुनाई वाला गुलाबी स्वेटर पहने उस लड़के में कुछ भी तो नहीं था जो उसे औरों से अलग करे।

‘डीके?’ प्रश्नवाचक दृष्टि और हैंडशेक के लिए आगे बढ़े हाथ। मैंने भी शिष्टाचार का पालन करते हुए हाथ मिलाया पर मुझे अब भी नहीं समझ आ रहा था कि पत्र भेजने वाले ने स्वयं न आकर इस छोकरे को क्यों भेजा है और वो भी ऐसा छोकरा जो मुझे ध्रुव कुकरेती जिस नाम से आज मुझे सब बुलाते थे की जगह डीके नाम से बुला रहा था।

‘मैंने ही आपको उसकी मौत की खबर दी थी,’ लड़के की आवाज़ क्या थी, वसंत की उदास कुनकुनी धूप थी जिसमें यौवन का सुहाना गीत भी एक आह के साथ शुरू होता था। पर ये लड़का था कौन? कृतिका की एक बहन भी तो थी। क्या ये उसका बेटा था? पर ये मुझे कैसे जानता था?

‘नाम क्या है तुम्हारा?’ सवाल तो कई थे मेरे मन में पर उस वक्त यही पूछना सबसे ज़रूरी लगा।

‘दिव्यकीर्ति नौटियाल,’ अपना नाम बताते हुए उस लड़के का स्वर ऐसा था जैसे वो केवल एक नाम नहीं, अजगर की तरह उस लड़के की आत्मा को जकड़ कर उसके स्व की हड्डियां टुकड़े–टुकड़े कर देने वाली नियति थी।

‘डीके,’ अपने नाम का चरपरा स्वाद डीके के मन को भेदने से पहले ही किसी भूले सपने की तरह टूट गया।

डीके जूनियर

हम कृतिका के घर की ओर जा रहे थे। बर्फ अब भी गिर रही थी–डीके के शरीर पर, मेरी आत्मा पर और उसके पीछे छोड़ी हुई रिक्तता पर। डीके के मन में कई सवाल थे। सवाल तो मेरे अंदर भी थे। अंतर केवल इतना था कि डीके के सवाल सूखे पत्तों पर लगी चिंगारी से दहकते थे, और मेरे सवाल कृतिका की कंघी करते हुए फर्श पर गिरे उसके बालों के गुच्छे की तरह थे जो फर्श पर बौराए से नाचते तो रहते थे पर जब उन्हें डस्टबिन के अंदर डालने के लिए हथेली पर उठाओ तो एकदम हल्के। मेरे हाथों से आज भी मुझे नारियल तेल की महक आ रही थी जो मैं कृतिका के रूखड़, घुंघराले बालों पर हर शाम लगाया करता था। खिड़की की सिल पर बैठी कृतिका और खिड़की के उस पार नीली पहाड़ियों के मुख में खुमानी सा गिरता सूरज जिसकी रोशनी कृतिका की बंद आंखों पर पड़ती। मेरी उंगलियों के पोर उसके बाल की लटों के बीच उलझे होते और वो अपनी खराशभरी आवाज़ में डीके की कविताएं किसी मंत्र की तरह बुदबुदाती। 

उन लंबी रातों में टीन की छत पर बारिश की टपटप के स्वर को अपने बगल में बिठा मैं बिना नागा कविताएं लिखा करता था। शब्द पेन की नोक से कागज़ के पन्ने पर बाद में आते, उससे पहले तो मैं उन्हें बजरी सी मेरे शरीर को खरोंचती हुई आवाज़ में अपने मन के तालाबंद कमरे के अंदर सुनता:

प्रेम

ज़रा कहो तो

किससे सबसे अधिक प्रेम है ईश्वर को:

क्या वो है कविताओं की पीली रोशनी के बीच

अपने तांबई बाल काढ़ती बीमार चेहरे वाली लड़की?

या फिर किसी पहाड़ी गांव के सिरे पर

कुएं के भीतर झांकते बच्चों के ललाई वाले चेहरे?

क्या वो है पागलखाने की खिड़की से बूढ़े चांद

को निहारता एक नवयुवक जिसे उसकी प्रेमिका ने

कभी दिया था केवल सत्य बोलने का श्राप?

या अपने ही बोझ से ढहता क्रांति

का एक बैंजनी पहाड़?

सच बोलो यदि नहीं होता ईश्वर के सीने में

एक प्रेमी का हृदय 

तो क्यों फूंक मारकर भरता सौंदर्य की आत्मा

किसी मलबे में पड़ी एक उदास गुड़िया की आंखों में।

डीके सीनियर

कृतिका का घर मुझे जो याद था उससे बहुत छोटा था। फिर भी उसके घर के अंदर कदम रखने के बाद न जाने क्यों मुझे एक कसैली विजय का एहसास हुआ। मैं आज से पहले कभी कृतिका जोशी के घर के अंदर नहीं आया था। आता भी कैसे? कहां हमारे शहर का सबसे नामचीन जोशी परिवार और कहां बिन मां–बाप का जोशियों जैसों की दया पर मिले खर्चे से पढ़ाई की फीस भरता डीके। उन गहनतम क्षणों में भी जब मेरी और कृतिका की सांसें अंग्रेजों की सिमेट्री में एक कब्र के पीछे एक लय में जल–बुझ रहीं थीं तब भी मैं जानता था कि यही हमारे प्रेम का अंतिम चरम है, यही वह परिधि है जहां डीके का अस्तित्व समाप्त होता है और कृतिका का संसार आरंभ। शुक्र तारे के नीचे उस शाम पीली पड़ चुकी घास पर अपने शरीरों को सलाई से ऊन की तरह एक दूसरे से उलझाए हमें लगा था अब कुछ रिक्त नहीं रहा। अब कुछ शेष नहीं बचा। वही हमारी सबसे बड़ी विजय थी और वही सबसे बुरी पराजय। 

घर में घुप अंधेरा था।

‘यहां लाइट को क्या हुआ?’ मेरे मुंह से निकला पर जूनियर ने कोई जवाब नहीं दिया।

तभी जाने किस दिशा से भागता आया प्रकाश का एक गोला मुझसे आ टकराया। पहले मोमबत्ती के तल पर काली पड़ चुकी मोम दिखी फिर कृतिका का चेहरा।

‘कृतिका!’ मैं कैसे भूल गया था कि कृतिका की एक जुड़वां बहन भी थी जो हूबहू उसकी तरह दिखती थी। चित्रा था उसका नाम। हमशक्ल होने के बाद भी हर कोई पहचान जाता था उनमें से कौन कृतिका है और कौन चित्रा। पर समय के अंतराल ने उन दोनों के अंतर को मेरी स्मृति में ब्लर सा कर दिया था। 

मोमबत्ती की रोशनी में मैंने चित्रा को देखा। ढीली सी चोटी में बंधे उसके बाल जो उसके बाएं कंधे से नीचे लटक रहे थे, उसके होठों पर जमी सफेद पपड़ी, आंखों के नीचे काले घेरे—इतने सालों बाद भी मैंने कृतिका को देखने से पहले चित्रा को देखा।

‘तुम आ गए?’ चित्रा विस्फारित आंखों से मुझे देखे जा रही थी। 

मेरे पास उसे एक फीकी हंसी देने के सिवाय कुछ नहीं था।

चित्रा

मेरी कहानी कृतिका और डीके की कहानी से अलग थी। मेरी कहानी में डीके को पहले मैंने चाहा था जब शहर के एकमात्र बुक स्टॉल पर ‘वुदरिंग हाइट्स’ की इलस्ट्रेटेड प्रति को लेते हुए हमारे हाथ आपस में टकराए थे। मैंने डीके को वो किताब ले जाने दी। बरसात सी अकेली गीली आंखों वाला वो लंबा, स्कूल में हमारे हाथों पर मारी जाने वाली छड़ी सा दुबला–पतला लड़का। उससे पहले कितना कठिन होता था मेरे लिए पहाड़ों की चुप्पी बरसात को अपनी कविताओं में उतार पाना। पर डीके से मिलने के बाद मैंने अपने मन के आंगन में धूप को बुनना सीख लिया था।

मैने ईश्वर से माँगा प्रेम

और मुझे मिला धरती का मौन

मैने ईश्वर से माँगे रंग

और मुझे मिला दो सितारों के बीच का रिक्त आकाश

मैंने ईश्वर से माँगा संगीत

और मुझे मिला धूप का एक गूँगा टुकड़ा

मैने ईश्वर से माँगी मृत्यु

और मुझे मिला फिर वही वसंत

मैं जानती थी कि डीके वुदरिंग हाइट्स की नायिका कैथरीन अर्नशॉ पर रीझ गया था जबकि मुझे तो इसाबेला लिंटन सबसे अधिक पसंद थी। जब डीके हमारे घर की लाइब्रेरी में कभी चेखोव तो कभी दोस्तोयेव्स्की उधार लेने आता, तो केवल मैं ही देख पाती थी कैसे कृतिका के कमरे से आती उसकी अकस्मात हंसी सुनते ही डीके के कान की लवें सुर्ख लाल हो जाती थीं। कृतिका के लिए डीके के प्रेम की परछाईं  सबसे पहले मुझ पर पड़ी थी पर डीके तो पहले से ही स्वार्थी था। और प्रेम में तो मनुष्य और स्वार्थी हो जाता है। डीके कृतिका के प्रेम में स्वार्थी था और मैं उसके प्रेम में। तभी जब डीके ने मुझसे पूछा कि कृतिका को सबसे अधिक क्या पसंद है तो मैंने कहा कविता यह जानते हुए भी कि कृतिका को कविताओं से सख्त नफ़रत थी।

डीके सीनियर

मैं कृतिका के कमरे में उसके बिस्तर पर लेटा हुआ था। कमरे में चारों ओर कृतिका की चिरपरिचित मुस्कान लापरवाह धूप से छिटकी हुई थी। सामने की दीवार पर लेह केवल पांच किलोमीटर की दूरी पर दिखाते माइलस्टोन के बगल में अपने एक पैर से बाइक को टिकाए हेलमेट लगाई कृतिका थी, वहीं बगल की दीवार पर अपनी दोस्त की मेंहदी के कार्यक्रम में काला चश्मा लगाए रोज़ गोल्ड लहंगे में कृतिका की हंसती हुई तस्वीर थी। मेरा सांस लेना भी मुश्किल होता जा रहा था। उस ठंडी रात में भी मैं पसीने से तरबतर था।

तभी दरवाज़े पर एक खटखटाहट हुई।

‘आ जाओ!’ मैंने कहा।

एक मोटा कंबल लिए बेबी ब्लू गाउन में खड़ी चित्रा किसी गोथिक उपन्यास की प्रेत की तरह लग रही थी। इस दुनिया से एकदम दूर, पर मेरे एकदम पास।

मोटा कंबल पलंग के सिरे पर रखकर चित्रा बोली–‘यहां ठंड बहुत है। अब तो तुम्हारी आदत छूट गई होगी।’

जैसे ही कंबल रखकर चित्रा जाने लगी, मैंने उसे आवाज़ दी–‘तुमने मुझसे झूठ क्यों बोला था कि कृतिका को कविता पसंद है?’

चित्रा ने बिना मुड़े जवाब दिया, ‘तुम यदि मुझसे एक बार भी कहते तो मैं सब कुछ छोड़कर तुम्हारे साथ चल पड़ती।’

‘पर…’ मैं चित्रा से आगे कुछ कह न सका। कहने को ऐसा कुछ था ही नहीं जो वो नहीं जानती थी। फिर भी आज रात मैं चित्रा को जाने नहीं दे सकता था।

‘चित्रा!’ मेरी आवाज़ कांप रही थी, ‘आज यहीं रह जाओ।’

चित्रा झटके से मेरी ओर मुड़ी। फिर बिना कुछ कहे अपनी स्लीपर्स बिस्तर के सिरहाने उतार मेरे बगल में बिस्तर पर लेट गई–मेरी ओर पीठ करके। मैंने कंबल चित्रा के शरीर पर डाल दिया और उसके बालों पर हाथ फेरने लगा। चित्रा से मैं प्यार नहीं करता था, कम से कम वैसा तो नहीं जैसा मैं कृतिका से करता था, पर पहाड़ की वो रात मुझे अपनी कंजी आंखों से घूरे जा रही थी और मैं अपने सारे पुरुषत्व के बावजूद सहम गया था। आज रात मुझे जीवित रहने के लिए एक स्त्री की एक मुट्ठी भर उदात्ता उधार चाहिए थी।

तभी चित्रा ने मेरी तरफ अपना चेहरा किया और मेरे माथे को चूमते हुए बोली–‘मैं जानती हूं तुम मुझे प्यार नहीं करते।’

फिर मेरे सीने से अपना चेहरा सटाकर फफक फफक कर रोने लगी। मैं एक हाथ से उसके बालों को थपथपाता और एक हाथ से अपने आंसू पोंछता जा रहा था।

डीके जूनियर

एक कमरे का आधा खुला दरवाज़ा —दरवाज़े से आती मोमबत्ती की रोशनी—उस रोशनी को अपने चारों ओर लपेटे एक स्त्री और पुरुष—स्त्री का चेहरा पुरुष के सीने में छिपा है और पुरुष की आंखें दूर किसी क्षितिज को टकटकी लगाए देख रही हैं।

टोक्यो फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जाने वाली मेरी फिल्म का ये आखिरी दृश्य है। इस दृश्य के बाद पांच मिनिट तक केवल चुप्पी रहती है और इसके बाद तालियों की गड़गड़ाहट जो समय के साथ तेज़ और तेज़ होती जा रही थी।

इस फिल्म का यही अंत था जिसमें मैंने कहीं यह नहीं बताया था कि जब उस पुरुष की आंखें अधखुले दरवाज़े से झांकते उस १९ वर्ष के लड़के से मिलीं और सर झुकाए वो लड़का उस घर से बाहर अपनी साइकिल से रात पर शहर के चक्कर काटता रहा, उसके डेढ़ घंटे बाद मोमबत्ती गिर जाने से उस हवेली में आग लग गई और वह स्त्री और पुरुष फिर कभी उस शहर में दिखाई नहीं दिए या फिर जो मैंने पहले कहा ऐसा कुछ नहीं हुआ था और आज उस पुरुष और स्त्री की एक प्यारी सी बेटी है जिसके जन्मदिन पर तीन महीने पहले मैंने उसे ‘वुदरिंग हाइट्स’ भेंट की है। या फिर यह कि अगली सुबह ही वह पुरुष वापिस स्वीडन चला गया और स्त्री फिर उन नीले पहाड़ों में पीछे छूट गई।

अंत के बाद का अंत कुछ भी हो सकता है और ज़िंदा रहने के लिए इतनी अनप्रेडिक़्टेबिलिटी तो जरूरी है ही।

स्क्रीन पर अब फिल्म के एंड क्रेडिट चल रहे हैं:

क्रिएशन–मिथक

एक बगीचा बनाने के लिए

नहीं होती एक स्त्री और एक पुरुष की आवश्यकता।

बगीचा खोलता है अपनी उनींदी आंखें

और माथे से एक स्वप्न खींचकर

उसे रोप देता है धरती के गर्भ में–

स्वप्न जो है किसी कृष्णमृग से भी पुरातन,

और किसी तितली के पंखों की लाल फड़फड़ाहट से भी संक्षिप्त।

पूर्व में पौ फटते ही एक मिथक उगता है,

और नीम के पेड़ की शाखाओं में

फंसाकर छोड़ जाता है किसी तपते हुए भरभरे सत्य को।

मई की सुबह पर विश्वास करना थोड़ा कठिन है—

उसके अश्लील सुनहरे प्रस्फुटन के साथ–

जब प्रकाश से अभी भी आती है बर्फ की ध्वनि

पर विश्वास निर्भर करता है समुचित दूरी

और चुटकी भर दिनों पर।

अभी ही तो सीखा है स्त्री और पुरुष ने देखना,

पर उन्होंने पढ़ लिया है शर्म का पाठ।

बगीचा उनके पहनने के लिए 

प्रकाश का एक मुलायम जाल बुनता है।

धरती आकाश से मुंह मोड़ लेती है

और स्त्री की अस्सी लाख आंखें उड़ जाती हैं

ऊपर–ऊपर–और ऊपर

चांदनी का बायां हाथ

कलछी से समेट लेता है वे सारी आंखें,

और छोड़ती है केवल दो नेत्र

स्त्री के चेहरे पर।

पुरुष पहली बार छूता है स्त्री को

पर असल में वह ढूंढ रहा है उन गुमशुदा आंखों को।

अपनी खोज को पुरुष नाम देता है

शब्द/सूर्य/गेहूं की बाली/आकाश/प्रेम का।

स्त्री उसे पुकारती है ध्वनि/जंगली घास/फूल/पानी/धरती के नाम से।

दिन अपने मस्तूल को नीचे रख देता है,

और स्त्री खोद निकालती है मिट्टी से आवाजें

और छिपा देती है—अपने नाखूनों के नीचे 

जहां से उनके चांद से चेहरे झांकते हैं।

बगीचा फिर बंद कर लेता है अपनी आंखें

और रचता है स्वप्न उन्हीं स्त्री और पुरुष का

एक दूसरे की परछाईं का पीछा करते

क्योंकि वह जानता है कि उनकी दृष्टि अभी बहुत धुंधली है

ये समझने के लिए कि हर अनुपस्थिति

अपने पीछे छोड़ जाती है सौंदर्य का एक सुराग।

कहानी

शीर्षकनिर्वासन

१.

अगस्त की इस शाम आसमान का रंग हल्का खट्टा है। मैं अपने चारों ओर देखता हूं। बार–बार धुलने से फीके पड़ चुके स्लेटी रंग के पर्दे, एक ठंडा बिस्तर, एक जिद्दी ट्रांजिस्टर जिससे एक अपरिचित भाषा में गीत मेरी मंद पड़ चुकी आत्मा का मखौल उड़ा रहे हैं। यही वह होटल का कमरा है जहां मेरी पत्नी ने फांसी पर झूलकर आत्महत्या की थी–दस वर्ष पहले।

२.

कमरे में मेरे सामने वाली दीवार पर बल्ब की पीली रोशनी एक मरते हुए पतंगे की तरह फड़फड़ा रही है। खिड़की की तरफ पीठ किए कमरे के कोने में रखी एक मेज पर इस शहर के ही एक कवि की कविताओं का एक अनुवादित संकलन पढ़ रहा हूं। यहां कोई इस कवि का जिक्र नहीं करता क्योंकि ५० वर्षों पहले इसने अपनी प्रेमिका के साथ लवर्स सुसाइड–पैक्ट का पालन करते हुए पहाड़ी से छलांग लगा दी थी। वह पहले कूदा। उसकी प्रेमिका ने उसके कूदने के बाद अपनी एक सैंडल पहाड़ी से नीचे फेंक दी और दूसरी सैंडल अपनी छाती से लगाए चुपचाप अपने घर वापिस आ गई। एक सप्ताह बाद उसने शहर के मेयर से विवाह कर लिया।

३.

कविताओं में झमाझम बारिश हो रही है। किताब के पन्नों पर एक साथ हजारों आंखें पानी की पंखुड़ियों की तरह खुल और बंद हो रही हैं। मैं पूरी तरह भीग गया हूं और मेरी आत्मा शनैः–शनैः मेरी खुरदुरी हथेली पर जमती जा रही है। मैं मरना चाहता हूं। मैं मर रहा हूं। मैं अभी मरना नहीं चाहता। मैं झटके से कुर्सी से उठा और दीवार पर खूंटे पे टंगा अपना मटमैला ओवरकोट उतारकर पहना और जूतों में लापरवाही से अपने पैर डालकर बाहर निकल गया।

४.

बाहर फ़िर वही बारिश। पर सारा शहर भीगा होने के बाद भी धरती के अधरों पर अब भी सूखी पपड़ी जमी हुई थी। बारिश के साथ तेज़ आंधी भी चल रही थी। मैंने अपना ओवरकोट कसकर पकड़ लिया। चलते–चलते मैं एक महिला से टकरा गया। मैं उससे क्षमा मांगना चाहता था पर उसकी भाषा से मैं अनजान था। मैंने अपनी कातर दृष्टि द्वारा उससे क्षमा मांगनी चाही पर उसके चेहरे पर न करुणा का भाव उत्पन्न हुआ न ही क्रोध का। अपने देश से दूर मैं यहां इस अंधड़ में पेड़ से अलग हुए एक पत्ते के समान था जिसका अस्तित्व न लगाव पैदा करता है न ही विराग।

५.

कहीं एक स्त्री कैनवास पर पेंटिंग कर रही है। वह कमर तक पानी में डूबी हुई है। अपना ब्रश वो अपने कमरे में भरे पानी में डुबोकर चित्र में रंग भर रही है। चित्र क्या है? पता नहीं। कमरे में बहुत अंधेरा है। तभी एक पुरुष हाथ में मोमबत्ती पकड़े कमरे के अंदर चलता–कमरे के अंदर तैरता हुआ आता है। मोमबत्ती की रोशनी में नहाया जो चेहरा पुरुष ने ओढ़ा हुआ है, वह मेरा है। और वह स्त्री मेरी पत्नी है। अब उस कमरे में हम नहीं हैं–केवल पानी है और वह पेंटिंग है। पेंटिंग में एक झील है जिसपर कब्रें तैर रही हैं–पानी की सतह से बस ज़रा सा ऊपर घुटनों को मोड़े एक स्त्री बैठी है जिसकी बस पीठ दिखाई दे रही है।

६.

बारिश में भीगते चेहरे हैं–उन चेहरों से भिन्न जिन्हें मैं जानता हूं, जिनसे मैं प्रेम करता हूं, जिनसे मुझे घृणा होती है। भीगती इमारतें हैं जिनमें से किसी की भी गंध मेरे मरते हुए घर सी नहीं है। ये बारिश भी मेरे लिए बिल्कुल अपरिचित है। पर मेरी पत्नी के लिए शायद यही एक परिचित थी तभी तो उसने अपना अंत यहां चुना। हमारे देश से हजारों मील दूर–मुझसे युगों जितनी दूर।

७.

मैं शहर के इकलौते कब्रिस्तान में हूं। यहां बारिश नहीं हो रही। कब्रिस्तान इतना बड़ा है कि अपने आप में एक शहर है। कब्रों के बीच पेड़ों से गिरी हुई खुबानियां हैं, कौओं के शोकगीत हैं और एक गंध है–ठीक वैसी ही जैसी मेरी पत्नी की देह से तब आती थी जब प्रेम करने के मैं थककर चूर अपना चेहरा तकिए में छिपाए अपनी मौन सिसकियां दबाता रहता था और वो इन सबसे निर्लिप्त उसी कवि की किताब उठाकर एक कविता पढ़ती थी। उसे सारी कविताएं मुंह–ज़बानी याद थीं पर यूं किताब उठाकर उसकी एक कविता पढ़ने की रस्म के बारे में वह अंधविश्वास की हद तक पार्टिकुलर थी। जिस दोपहर हमने आखिरी बार प्रेम किया, उसने यह कविता पढ़ी थी, पर इस बार मैं नहीं, मेरी पत्नी सिसक रही थी।

जुलाई शेष है अभी,

वर्षादेहों में कैद सपने चांद का सपना देखते हैं,

मेरी अंजुली में

चिरपरिचित पसीने और मटमैली लिप्सा से दमकते

घंटे किसी पतंगे से फड़फड़ा रहे हैं।

कोई भी कविता अब भरपाई नहीं कर सकती

उस बारिश की जो मैं खो चुका हूं।

सबने मुझसे सौंदर्य के बारे में झूठ बोला

पर मृत्यु के व्याकरण ने मुझे कभी रास्ता भटकने नहीं दिया।

इन दिनों मैं चांद की एक परछाईं मात्र हूं,

और चंद्रमा का अपना एक संगीत है।

एक कविता खुलती है,

सावन में मोर के पंखों की भांति,

और मेरा हृदय फिर सांस लेता है,

पर बारिश कभी इस कविता की अपनी नहीं थी।

मैं उस गंध का पीछा करता हूं। एक कब्र के आगे घुटनों तक की हल्की नीली ड्रेस में एक महिला घुटने मोड़े बैठी है। उसकी अंजुली में पानी है जिसे वह कब्र पर उड़ेल देती है। फिर उस कब्र पर एक जलती हुई मोमबत्ती रख देती है। वह अपनी भाषा में कुछ बुदबुदा रही है। मैं कब्र पर उस कवि का नाम देखता हूं। वह महिला मुझे एक मुड़ा हुआ कागज़ देती है। मोमबत्ती की रोशनी में उस महिला का चेहरा ठीक मेरी मां जैसा है जब वो युवा थी और मैं एक बच्चा। वह महिला इसी देश की थी और इसी देश के निवासियों को तरह उसका रंग–रूप और पहनावा था। पर फिर भी उसने मेरी मां का चेहरा ओढ़ रखा था यदि मेरी मां इस देश की निवासिनी होती।

मैंने कागज़ को खोला। उसमें शहर का एक नक्शा था और एक स्थान पर लगा हुआ एक क्रॉस।

तभी कहीं फ़ोन की घंटी बजी। वह महिला अब भी कब्र के सामने अपनी लगाई हुई मोमबत्ती की लौ पर टकटकी लगाए बुदबुदाए जा रही थी।

फ़ोन कब्रिस्तान में एक नींबू के पेड़ के तने के सहारे टंगा हुआ था। मैंने फ़ोन उठाया। उस पार मेरी मरी हुई पत्नी की आवाज़ थी। ‘बी के पास जाओ,’ उसने कहा और फ़ोन कट गया। बी उस मरे हुए कवि की प्रेमिका का नाम था। मुझे नहीं पता था वो अब भी जीवित थी।

मैं वापिस उस कवि की कब्र पर गया पर अब वहां वह महिला नहीं थी। हां, उसकी लगाई मोमबत्ती और मोमबत्ती के इर्द–गिर्द छिड़का पानी अब भी वहां था। मैंने उस महिला द्वारा दिया नक्शा फिर देखा–इस आशा के साथ कि यह सब मेरा भ्रम हो और मेरे हाथ में केवल एक खाली कागज़ ही हो, पर नक्शा अब भी वहीं का वहीं था।

अगली शाम–बी

अगस्त की इस शाम मैं सब कुछ लुटा देना चाहती हूं–बादलों की ओट से झांकते तारे, इस शाम का खट्टापन और अपनी आत्मा की भूख। अपनी देह को खाली कर देना चाहती हूं उसकी अनुपस्थिति से। ऐसा लगता है कि कल रात ही तो मैं मिली थी उससे, रात भर हमने पंद्रहवीं शताब्दी में आधे बने बिना छत के किले की दीवारों के अंदर, एक दूसरे को खूब प्यार किया और फिर सुबह वो चला गया बीती रात की तरह–मेरे अंदर मरते हुए तारों का खारा स्वाद छोड़कर और मैं फिर पीछे छूटी रह गई।

आज शाम वो फिर लौटा। अपने हाथों में मोमबत्ती लिए, एक कागज़ का टुकड़ा और मेरी दूसरी सैंडल अपनी कांख में दबाए। मेरे बिस्तर के चारों ओर पानी है और मैं उसकी सतह पर तैर रही हूं। और तैर रही हैं उसकी किताबें, कुछ खुले पन्ने जिनपर मैंने कविताएं लिखी थीं पर कभी प्रकाशित होने के लिए नहीं भेजीं, कुछ कब्रें, एक ट्रांजिस्टर, वह सैंडल जो पचास वर्ष पहले मैं अपने सीने से दबाए उस पहाड़ी से वापिस ले आई थी। वो मोमबत्ती को पानी की सतह पर तैरती मेज पर लगा देता है और अपने दोनों हाथों से मुझे मेरी सैंडल पहनाता है।

७.

मैं वापिस अपने देश में हूं, अपने घर पर, अपने बिस्तर में। मेरी पत्नी तकिए में अपना मुंह छिपाए सिसक रही है, और उसके दाहिने पैर का अंगूठा मेरी नंगी पीठ पर जाने क्या आकृति बना रहा है। मेरे हाथों में केवल एक बुझी मोमबत्ती है और मैं उसे एक कविता सुना रहा हूं।

कहानी ६

शीर्षक: भेड़िए

सुधा

रात २ बजे जब डैडी घर लौटे तो उनकी पर स्त्री की गंध थी। सुधा ने अपने निद्रा शिशु को चुप रहने का इशारा कर डैडी से पूछा: “आ गए आप डैडी?” सवाल बेमतलब था। डैडी का जवाब न देना जितना तार्किक था, उतना ही निष्ठुर भी। क्या पैंसठ की उम्र में भी देह किसी अन्य देह के आकर्षण में इतना बिंध सकती है? फिर भी डैडी को सुधा के मन के खालीपन से इतना अनभिज्ञ कैसे रह गए? यह अन्यमनस्कता एक पिता की पुत्री के रूमानी झुकाव की ओर थी अथवा एक पुरुष की स्त्री की अपनी नियति, अपना विष स्वयं चुनने के प्रति?

आज की रात भी रेगिस्तान की अन्य सर्द रातों की तरह ही डरावनी थी। बात बात पर पीढ़ियों को नर्क की आग में जलने का श्राप देने वाली पुरखिन के लटके, झुर्रीदार मुख जैसा मलिन चांद, लकड़बग्घों के हूहूहू का मनहूस गीत, और देर रात प्रेत और प्रेतों के घूमने की अफवाह। गली के अंतिम छोर के कुएं में कूदकर किसी मध्ययुगीन प्रेमी युगल के प्राण त्यागने की कहानी ही प्रचलित थी। पर सुधा जैसे उम्र का तीसरा दशक पार कर चुके इस गली के बाशिंदे जानते थे पंद्रह साल पहले इस गली के पढ़े लिखे परिवार ने अपनी बेटी के प्रेमी को धोखे से घर बुलाकर पानी से भरी बालटी में उसका मुंह तब तक डुबो कर रखा जब तक उसकी आंखों की पुतलियां स्थिर नहीं हो गईं। फिर उसे भी कुएं के द्वार से पाताल लोक निष्कासित कर दिया गया। अब रेगिस्तान की गलियों में किस कालखंड के सताए हुए, किसके प्रेत, किस आशा में फिरते हैं, इसका हिसाब कौन याद रखे? पर प्रेत फिरते हैं, यह याद रखना आवश्यक है।

सुधा जानती है प्रेत तो जीवित व्यक्तियों के भी भटकते हैं। जैसे सुधा के डैडी का प्रेत आज भी उस मायाविनी के वश में उसके पीछे पीछे भटक रहा है। जैसे सुधा का अंधा प्रेत कोपनहेगन में शरत बाबू की टोह में ठोकर खाता, गिरता पड़ता पागलों की तरह भाग रहा है।

शरत

सुधा का पत्र शरत की जेब में दहक रहा था। अंतरिक्ष जगत में विख्यात वैज्ञानिक वैज्ञानिक डॉक्टर शरतचंद्र बोरठाकुर के प्रिय प्रोफेसर जैन की बेटी सुधा जैन जो स्वयं जैसलमेर विश्वविद्यालय में भौतिकी की प्रोफेसर थी। पिछले सात वर्षों में बारम्बार ठुकराए जाने पर भी अपने प्रेम पर अटल सुधा जिसने आज तक बिना शरत का चेहरा देखे केवल उसके पत्रों को ही संबल मान कर अपना सब कुछ शरत जैसे कुपात्र पर हार दिया था। काश उस दिन CERN में अवार्ड मिलने पर शरत प्रोफेसर जैन को अपनी खुशी बांटने के लिए फोन लगाता ही नहीं। या उस दिन प्रोफेसर की जगह फोन सुधा ने उठाया ही नहीं होता। नौ महीनों बाद सुधा का उसके प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति करने से पहले ही शरत उसे अपने असफल विवाह, तलाक, और भी असफल प्रेम संबंधों के बारे में बता चुका था। साथ ही यह भी स्पष्ट कर चुका था उसके जीवन में अब प्रेम का कोई स्थान नहीं बचा। पर भूत प्रेत के किस्सों की दीवानी सुधा को एक प्रेत के चरणों में अपनी भक्ति अर्पित करने से नहीं रोक पाया। पर प्रेत कब किसी को उसके समर्पण का प्रतिदान दे पाया है? पांच तत्वों की मानुषी सुधा उसके तीन–तत्त्वी अस्तित्व पर हर मामले में भारी थी। पर शरत दे भी क्या दे सकता था सुधा को जब वह स्वयं ही भिक्षुक था? फुटपाथ पर सोने वाला किसी अभिजात कन्या को कैसे अपने आंगन में शरण दे जब न उसका अपना आंगन है न ही उसको दफनाने के लिए दो गज़ ज़मीन?

सुधा

डैडी के कमरे से कराहने का स्वर सुनकर सुधा दौड़ी दौड़ी उनके कमरे की ओर आई पर उसके कदम दहलीज़ पर ठिठक गए। डैडी ने अपने ऊपर ओढ़े हुए कम्बल को पलंग से नीचे फेंक दिया था। उनकी शर्ट के ऊपर के बटन खुले हुए थे, और उनके पूरे बदन पर पसीना छलछला रहा था। अपने दोनों हाथों से उन्होंने अपने गले पर सोने का नेकलेस जकड़ रखा था।

“मायाविनी, अब तो छोड़ दे मुझे। सुधी, सुधी। मेरा दम घुट रहा है! यह नेकलेस, यह नेकलेस, मेरा गला घोंट रहा है। वो मुझे मार डालेगी,” डैडी अब कराहने के साथ रोने लगे थे। सुधा के मन में अपने जन्मदाता के प्रति करुणा वितृष्णा में बदल रही थी, और वितृष्णा करुणा में। एक बेटी क्या कर सकती है जब उसका पिता किसी शिशु की भांति उसके सामने फूट फूटकर बिलख रहा हो? वो भी उसी की आयु की अपनी ही छात्रा की देह की कामना लिए? सुधा का मन हुआ कि वह अपने जन्मदाता के सामने ही अपने नाखूनों से नोंच नोंच कर अपनी देह को केंचुली के समान उतार फेंके और प्रेत बन अपने पितृऋण और उनकी विरासत से बच भागे।

पम्मी

पम्मी–डैडी की प्रिय छात्रा। शरत बाबू से भी प्रिय? जब सुधा ने यह प्रश्न डैडी से पूछा था, तो डैडी ने उसी से प्रश्न कर दिया, “तुमको शरत की इतनी चिंता क्यों है?” सुधा बाहर से चुप अवश्य रही, पर भीतर ही तिलमिला उठी। सुधा को जहां शरत बाबू के प्रति अपना लगाव जितना पवित्र लगता था, अपने पिता का पम्मी की ओर खिंचाव उतना ही फूहड़। सुधा जहां शरत बाबू से लगभग गिड़गिड़ा कर उनके हर असफल प्रेम, उनकी हर पीड़ा के घाव को दिखाने का निवेदन करती थी जिससे उनपर मलहम लगा सके, डैडी को पम्मी की विरह में तड़पता देखकर, अपने कमरे में उनकी आराम कुर्सी पर बैठकर खिड़की की ओर पीठ किए उन्हें दीवार पर शून्य को ताकते देखते ही सुधा अपना मुंह फेर लेती थी। एक बार तो सुधा का मन हुआ शहर के बदनाम इलाके में जाकर अपने पिता के लिए एक नगरवधु ले आए और ठेल दे उसे डैडी पर, “डैडी, शांत कर लो अपनी कामनाओं का ज्वार। बस उस पम्मी को भूल जाओ।”

पम्मी सुधा का एंटीथीसिस थी। जहां तीस की उम्र में भी १४ वर्ष के लड़के जैसे इकहरे बदन वाली सुधा का मन और देह, दोनों वायवीय थे। अपने ही कल्पना के आकाश में अदृश्य हो जाने वाले। पम्मी का अस्तित्व और देह, दोनों मांसल थे। बिल्कुल रेगिस्तान की धरती जैसे। ऊंचा पूरा कद, धरा सा गेहुंआ रंग, आंखें जैसे संपूर्ण जीवन को स्वयं में खिलने की अनुमति देखकर भूल गईं हों। सुधा समझती थी ऐसे बेलाग आकर्षण से कौन सा पुरुष बच पाता? ऐसा आकर्षण जो पुरुषों के लिए था ही नहीं, न ही किसी पुरुष के प्रेम से उपजा था। पम्मी में देह को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं था, पर उसका प्रेम अलभ्य था। उसका आत्म अलभ्य था। सुधा ने अपनी देह को तो सावधानी से अपने छोटे कद से कहीं लंबे और ढीले ढाले वस्त्रों में छिपाकर रखा, पर अपने प्रेम को लज्जाजनक असावधानी से पात्र को देखे बिना ही पूरा उड़ेल दिया, बिना ये जाने कि जिसे वह अपना सर्वस्व अर्पण किए बैठी है, वह तो ब्लैक होल है, जहां से उसका अपना प्रकाश भी प्रतिबिंबित नहीं होता। कौन जाने एक स्त्री के लिए कौन सी असावधानी अधिक अक्षम्य थी–पात्र को परखे बिना देह का समर्पण या मन का समर्पण? ठुकराए जाने के बाद भी जो स्त्री बार बार अपने प्रेमी के लिए मन में करुणा और क्षमा के मीठे फल बचा कर रखती है, उसके अपराधों के पीछे उसकी निर्बलता को जानने का प्रयास करती है, वही स्त्री अपने पिता की दुर्बलता के प्रति इतनी निर्मम क्यों हो उठती है? केवल इसी लिए क्योंकि एक उम्र के पश्चात देह केवल मूक ही अच्छी लगती है? जो पिता अपनी पुत्री के उम्र की लड़की की स्वच्छंदता को उसका आत्मिक साहस बता सराहता है, अपनी पुत्री द्वारा मनोदेह की एक स्वाभाविक इच्छा की अभिव्यक्ति की संभावना भी उसकी पुत्री को चारित्रिक दुर्बलता का अपराधी क्यों बना देती है?

जब सुधा अपने कमरे में ब्रदर्स कारामझोव पढ़ रही होती, उसे बाहर हॉल से डैडी और पम्मी के ठहाकों की आवाजें आतीं। मां के जाने के बाद डैडी उसके सामने हंसना तो दूर, कभी मुस्कुराते भी नहीं थे। भौतिकी की प्रोफेसर तो सुधा भी थी, उसने तो कभी अपने छात्रों को कभी इतना हंस हंसकर नहीं पढ़ाया। एक दिन गुस्से में पानी पीने के बहाने सुधा हॉल जा पहुंची। डैडी का हाथ पम्मी के कंधे पर लिपटा था, और पम्मी का हाथ डैडी की बाईं जांघ पर था। दोनों में से किसी ने भी सुधा को नहीं देखा। जब सुधा लौटकर अपने कमरे में आई, वो दोनों तब भी हंस रहे थे पर अब उन आवाज़ों में शरत बाबू की आवाज़ भी शामिल थी। पर शरत बाबू तो कोपेनहेगेन में थे फिर उनकी आवाज़ यहां कैसे? ये कैसी माया थी? या प्रेतछाया थी? सुधा के कानों में सीसा पिघल रहा था। सुधा फिर अंधेरों की ओर जा रही थी। और इस बार पीछे से आवाज़ देकर उसे वापिस बुलाने वाले ही उसे अंधेरों में निष्कासित कर रहे थे।

शरत

सुधा के शहर में अभी दिन है तो ये शरत के लिए एक लंबी सर्दी की रात है। शरत को सर्द मौसम, सर्द शहर, सर्द मन भाते हैं। बर्फ से जमे उसके जीवन और अस्तित्व के तट पर जाने कैसे सुधा आ लगी जैसे उन्नीसवीं शताब्दी की किसी रूसी कहानी में एक भगोड़े हत्यारे को नेवा नदी के किनारे अपने चारों ओर नृत्य करते विनाश से अनभिज्ञ एक सोते हुए शिशु की टोकरी मिल गई हो। जैसे मृत्युदंड पा चुके उस हत्यारे को कभी शिशु की चाह नहीं थी, शरत ने भी कभी सुधा को नहीं चाहा। पर न चाहते हुए भी जैसे शिशु हत्यारे की कमज़ोरी था, शरत भी सुधा की परवाह करता था। प्रेत योनि में भी, सारे संसार और जीवन के प्रति अपने ही रोष और प्रतिशोध की फुफकार से किसी भी तरह शरत सुधा को सुरक्षित रखना चाहता था। ऐसा नहीं था, शरत को प्रोफेसर जैन के विषय में कुछ नहीं पता था। हां ऊपर ऊपर से ही सही, इतना तो वह ज़रूर जानता था प्रोफेसर जैन के जीवन में सब कुछ ठीक नहीं है। शरत भली भांति जानता था भारतीय समाज में मानसिक रोगी होना किसी कलंक से कम नहीं था। वह स्वयं भी बाइपोलर डिसऑर्डर की दवाइयां लेता था। इसी लिए तो सुधा से पहली बार बात करते हुए ही उसने देख लिया था सुधा के मन को। पर सुधा को वो क्या दिखाए? जब उसका कुछ अब बचा ही नहीं है? बची है तो सिर्फ उन लोगों को बर्बाद करने की कामना जिन्होंने उसे प्रेत बना दिया। पर अब तो वो लौ भी बुझती जा रही है। शरत जानता था उसके प्रति सुधा का प्रेम सुधा को मार रहा था पर इसका क्या दंड दे वह खुद को जब वह खुद ही खत्म हो चुका था?

अचानक से इतनी गर्मी कैसे हो गई? शरत को लगा जैसे वह किसी जलते घर के भीतर हो। उसने अपने चारों ओर देखा। वह चौराहे के स्ट्रीटलैंप के ठीक नीचे खड़ा था और उसके चारों ओर किसी परिकथा से बर्फ के फाहे तैर रहे थे। पर वह क्यों जल रहा था? शरत ने पहले अपने बूट्स उतारे, पर उसे जलाने वाली आग तब भी नहीं बुझी। फिर उसने अपना जैकेट उतारा, थोड़ी देर बाद अपना पुलओवर, धीरे धीरे शरत ने अपने सारे वस्त्रों को कोपेनहेगेन की बर्फ को सौंप दिया, और रात की गोद में सर रखकर सो गया।

सुधा

डैडी को कम्बल ओढ़ाकर सुधा वापिस अपने कमरे में आ गई। वैसे तो प्रोफेसर जैन के घर में पिछले दो वर्षों से यह ज़ोर का घटनाक्रम था, पर आज सुधा की आंखों में नींद नहीं थी। रेगिस्तान की रातों का रंग वैसे भी नीला नहीं, लाल होता है। फिर आज तो चांद के मुंह से भी खून चू रहा था। सुधा को आज एक एक्स्ट्रा डिप्रेशन की गोली खानी पड़ी। सुधा के लिए रात की अपेक्षा सवेरे नींद और जागने के बीच का समय अधिक खतरनाक होता है। सुधा मन ही मन शरत से कहती थी: “रात को मैं तुम्हें लोरी गाकर सुलाऊंगी, सवेरे तुम मुझे लोरी गाकर जगाना। इस तरह हम दोनों एक दूसरे को बचा लेंगे।” अगले दिन ही जब शरत का पत्र आया तो उसमें लिखा था: “मरे हुओं को बचाने की कोशिशों में खुद को खत्म मत करो सुधी।” सुधा के सवाल लिखने से पहले ही शरत का जवाब उसे हमेशा मिल जाता। शरत सुधा को जानता था पर चाहता नहीं था। सुधा शरत को चाहती थी पर उसके मन को, उसके तन को, यहां तक उसके चेहरे तक को जानती नहीं थी।

सुधा खिड़की के किनारे बैठी चांद पर काले धब्बों को निहारने लगी। उन धब्बों में से एक काला धब्बा धीरे धीरे धरती पर रेत की ओर करीब आने लगा। सुधा ने अपनी आँखें मिचमिचाई। अब वह धब्बा काला बादल बनता जा रहा था। रेगिस्तान में रात के समय बारिश? बंजर भूमि पर अपशकुन वरदानों का ही रूप धरकर आते हैं। फिर यह काला बादल तो किसी डाकण के पहले कदम जैसा दिखता था। सुधा आँखें फाड़े देखे जा रही थी। और जो देख रही थी–वह किसी भी डाकण, या पिशाच से ज़्यादा खतरनाक था। वो भेड़िए थे। एक नहीं, दो नहीं, दस नहीं, शायद सौ भी नहीं, ऊपर आकाश पर टंगे तारों जितने। भेड़िए जैसे किसी कभी न मरने वाले हत्यारे की अपने शिकारों को ताकती लाखों आँखें। भेड़िए जैसे पम्मी और डैडी की आपस में लिपटी हँसी। भेड़िए जैसे एक नदी जिसमें केवल सुधा बह रही थी, और जिसके किनारे शरत खड़ा हुआ मुझे डूबते देख रहा था। भेड़िए जैसे घर की खुलती हुई चिटकनी की आवाज़। भेड़िए जैसे डैडी के बिना डैडी का कमरा। भेड़िए जैसे चिटकनी की आवाज़ सुनने के बाद भी खिड़की के किनारे मारे भय के दुबकी ३० वर्ष की सुधा, जो जितनी डरी हुई थी उतनी ही मंत्रमुग्ध भी। भेड़िए जैसे पुलिस स्टेशन में डैडी की मिसिंग रिपोर्ट लिखवाते समय सुधा के ऊपर पंखे की आवाज़। भेड़िए जैसे शरत की फिर कभी न आने वाली चिट्ठी। भेड़िया जैसे सुधा के बिस्तर पर उसकी गोद में लेता हुआ जीव, जिसके थूथन से लार और खून चू रहा है और जिसे सुधा लोरी गाकर सुला रही है।

कहानी ७:

 शीर्षक: एक कस्बाई किशोर की डायरी

१. वह दोपहर जब मैंने ड्रैकुला देखा

उस दोपहर मेरी आयु १२ वर्ष ४ महीने ५ दिन थी। उस दोपहर पागल को मरे हुए १२ दिन हुए थे। मैं अकेले बालकनी में रेलिंग पर अपनी बांहे टिकाए और अपनी बाहों पर अपना सर टिकाए संसार को ९० डिग्री पलटा कर देख रही थी। तब मैंने ड्रैकुला का सर देखा–अपने घर के सामने वाले घर के पास वाले मेनहोल से निकलते हुए। अच्छा था कि उसके सर का पिछला हिस्सा मेरी ओर था। उसकी गर्दन और गर्दन से नीचे का हिस्सा मेनहोल के नीचे ही था। उस दोपहर से पहले मैं भुतहा कहानियों को झूठा साबित करने का कोई मौका न छोड़ने वाली हेकड़ी से भरी घोर विज्ञानवादी थी। पर एक दुनिया के परे और भीतर कितनी दुनिया और बसती हैं, उसकी एक झलक मुझे मिल चुकी थी।

२. बच्चे मन के सच्चे और एयर स्ट्राइक्स

स्कूल के कॉरिडोर पार करते हुए जब मैं अपनी क्लास की ओर जा रही थी, तब मैंने एक्स्ट्रा करिकुलर रूम की खिड़की से अपने क्लास के लड़के और लड़कियों को स्कूल के वार्षिकोत्सव के लिए बच्चे मन के सच्चे गीत पर नृत्य पर प्रैक्टिस करते देखा। डांस टीचर जिन्होंने मुझे इस नृत्य से यह कहकर निकाल दिया था कि मुझे नृत्य करना नहीं आता, वन टू थ्री…वन टू थ्री कर रही थीं। मैंने नृत्य करते हुए लड़के लड़कियों को देखा। ये वही थे जो पागल को पागल कहकर चिढ़ाते थे, कई बार उसको मारते भी थे और एक बार पागल की पतलून भी…खैर यही लड़के लड़कियाँ इस समय बच्चे मन के सच्चे पर स्टेप्स कर रहे थे। मुझे एक हिनहिनाती सी हंसी सुनाई दी। मेरे बगल में पागल खड़ा था। “तुम ज़िंदा हो?” मैं बुदबुदाई। पागल जब ज़िंदा था, तब हमारी ही क्लास में पढ़ता था। फिर एक दिन वो स्कूल की ही छत से कूद गया। मुझे बोलता सुन नाचने वाले लड़के लड़कियां और डांस टीचर मेरी ओर देखने लगे। डर के मारे मैं वहां से दौड़ पड़ी। अपने पीछे मुझे ठहाके सुनाई दिए और ठहाकों में गूंजता एक शब्द–पागल।

तभी ठहाकों से सायरन की आवाज़ें आने लगीं। स्कूल के भैयाजी और आंटी लोग खिड़कियों पर ब्लैकआउट पर्दे दौड़ दौड़कर नीचे गिराने लगे। जब से शक्कर देश ने हमारे देश पर हमला किया था, यूं कभी भी, कहीं भी एयर स्ट्राइक्स हो जाना एकदम आम बात थी। सायरन और लड़ाकू विमानों की आवाज़ें एकदम करीब आ चुकी थीं। ऐसे समय में स्कूल की छत पर होना कैसा लगता होगा? पागल! कुछ दिन और रुक जाते। तुमने मरने का बहुत गलत समय चुना। मैंने अपने चारों ओर देखा। इस समय यदि मैं दौड़कर सीढ़ियों से ऊपर छत पर चली जाती, तो इतने सारे लड़ाकू विमानों को अपने ऊपर उड़ते देख कैसा लगता? कितना रोमांचक होता होगा यूं मौत को अपने करीब देखना और मन हुआ तो किसी पुराने प्रेमी की तरह गले लगा लेना! पर पागल पागल होते हुए भी मुझसे ज़्यादा साहसी था।

३. मुंहनुचवा और धरती का वीर योद्धा

घर पर पापा के ऑफिस के सहकर्मी और उनकी पत्नी आए हुए थे। साथ ही उनकी दो बेटियां। एक मुझसे उम्र में बड़ी, दूसरी मुझसे छोटी। यदि आप घर की इकलौती संतान हों, तो किसी बड़ी दीदी का सानिध्य पाना ठीक वैसे ही होता है जैसे किसी परम प्रशंसक का अपने प्रिय लेखक अथवा अभिनेता से मुलाकात हो जाना। अंकल–आंटी बता रहे थे कैसे अंकल के ऑफिस से लौटने के बाद अंकल और आंटी दोनों साथ में चाय पीते हैं। पता नहीं यह सुनकर मेरी पसलियों के नीचे कुछ गर्म शहद सा पिघला। अंकल आंटी के साथ चाय पीने की छवि मेरे मन में किसी ऐसे चित्र सी उभरी जो था तो सदैव वहीं पर जिस पर धूल, छिपकलियों और चूहों की विष्ठा और एक चिरंतन भुलावा जम गया हो। दीदी ने मुझसे पूछा: “छत पर चलोगी?” मैं उनके पीछे पीछे छत पर गई।

वह पूरे चांद की रात थी। पतझड़ का एक और मरता हुआ दिन अपनी उम्र पूरी कर चुका था। अंकल की दूसरी बेटी जो मुझसे उम्र में छोटी थी, उसने दीदी से पूछा: “दीदी! छत पर मुंहनुचवा तो नहीं आ जाएगा?” पतझड़ के मरते हुए दिनों को मुंहनुचवा ने अपने आतंक से पीला कर दिया था। कोई कहता था मुंहनुचवा एक कीड़ा था जो छत पर चटाई–खटिया पर सोते हुए लोगों को ऐसा काटता था जैसे किसी ने उनका मुंह नोंच लिया हो। कोई कहता था मुंहनुचवा किसी भूत/प्रेत/पिशाच की नई प्रजाति है जिसके इरादे भूतों के लक्ष्यों की भांति ही रहस्यमयी हैं। कोई कहता मुंहनुचवा शक्कर देश के द्वारा बनाया गया कोई उड़ने वाला अस्त्र है जिसका काम हमारे देश के लोगों का मुंह नोचकर उन्हें आतंकित करना है।

पर मैं नीचे नहीं जाना चाहती थी। उस रात चांद बहुत ही बड़ा और सुंदर था। और मुझे दीदी से पृथ्वीराज चौहान के बारे में बात भी करनी थी। उन दिनों टीवी पर धरती का वीर योद्धा पृथ्वीराज चौहान नाम का एक सीरियल आता था। उसमें जो अभिनेता किशोर पृथ्वी की भूमिका निभा रहा था, वो मुझे अच्छा लगता था। पर वो मुझे अभिनेता के रूप में नहीं, उसके द्वारा निभाया गया पृथ्वी का किरदार मुझे पसंद था। सारे समय मैं बारहवीं सदी की राजकुमारी संयोगिता होने की कल्पना करती रहती। हालांकि इक्कीसवीं सदी से बारहवीं सदी कैसे जाया जाए, यह प्रक्रिया मेरा दिमाग तय नहीं कर पाया था।

“नहीं, अभी केवल रात के नौ बजे हैं। मुंहनुचवा इतनी जल्दी नहीं निकलता और हम लोग कहां सो रहे हैं? हम सब यहां जागे हुए हैं,” दीदी ने अपनी बहन को समझाया।

“दीदी पृथ्वी कितना सुंदर है न?” मैं धीमे से फुसफुसाई। पर दीदी ने शायद सुना नहीं।

“दीदी मुंहनुचवा के बारे में और कुछ बताइए न? कैसे कैसे, किस किसका शिकार किया है उसने अभी तक?” इस बार मैंने ज़ोर से पूछा।

जब दीदी मुंहनुचवा के बारे में बता रही थीं, तब मुझे इस बात की अनुभूति हुई कभी कभी भूतों की कहानियां परियों की कहानियों से भी ज़्यादा सुकून दे जाती हैं। या शायद मुझे ही अब परीकथाओं की अच्छे बुरे की सफेद स्याह जंग से भला भूतों का सीमांत संसार लगने लगा था।

मैंने फिर चांद को देखा। चांद के गोलार्ध में मैंने पृथ्वी को देखना चाहा पर केवल चांद का मम्मी के चकले पर आटे की लोई सा गोल सफेद दिखा।

तभी अचानक धप्प की आवाज़ आई–हम छत पर जहां खड़े थे, उसके दूसरी ओर से। मैं छत के उसी तरफ भागने लगी। भागते भागते मेरी चप्पल पीछे रह गई। मेरे नंगे पैरों पर छत की पथरीली सतह। दूसरी ओर पहुंचकर मैंने छत से नीचे झांककर देखा। जो गिरा था, उसका मुंह नीचे धरती की ओर था, पर वो पागल ही था। तभी मेनहोल से फिर एक सर ऊपर आने लगा। वो ड्रैकुला का सर ही था। इस बार सर के बाद उसकी गर्दन, उसके कंधे, उसका पूरा शरीर, उसका काला चोगा, काली पतलून और काले जूते भी थे। इस बार ड्रैकुला ने सर ऊंचा कर सीधे मेरी ओर देखा। ड्रैकुला का चेहरा पागल का चेहरा था यदि पागल की उम्र ८०० वर्ष होती। ड्रैकुला ने पागल का मृत शरीर अपनी बाहों में उठाया। सड़क पर गोल परिधि में बिखरा पागल का रक्त ड्रैकुला के चोगे जैसे ही, ड्रैकुला के पीछे पीछे चलने लगा। ड्रैकुला पागल का शरीर लेकर वापिस मेनहोल में नीचे उतर गया।

अगले दिन मेरा शरीर बुखार से तप रहा था। किसी दूर बजते रेडियो जैसे मम्मी पापा और अंकल आंटी की बातें मुझे सुनाई दे रही थीं पर न मेरी आँखें खुल पा रही थीं और न ही मैं कुछ बोल पा रही थी।

तभी मेरी बांह पर एक स्पर्श हुआ। स्पर्श मम्मी का था या दीदी का मैं नहीं जान पाई क्योंकि मेरी आंखें अब भी नहीं खुल रही थीं। पर मैं केवल इतना फुसफुसा पाई–”पृथ्वी कितना सुंदर है न?”

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