जानकीपुल के हर्ष का विषय है कि आज हम प्रख्यात शिक्षाविद, लेखक, अनुवादक और वैज्ञानिक पद्मश्री अरविन्द गुप्ता से बाल साहित्य को लेकर की गयी बातचीत को प्रकाशित कर रहे हैँ। यह बातचीत उनसे ई-पत्रोँ के माध्यम से हुई है।
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प्रश्न : आपने बच्चोँ मेँ वैज्ञानिक शिक्षा के अतिरिक्त दुनिया भर के बच्चोँ के साहित्य के अनुवाद करने का अभूतपूर्व काम किया है। आपका संकलन और अनुवाद हम सभी के लिए मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत है। आज से तीस साल पहले तक हिन्दी मेँ बाल पत्रिकाओं का अपना स्थान था, जिनमेँ प्रमुख थे – पराग, नन्दन, चम्पक, बालभारती, बालहंस, नन्हेँ सम्राट, अच्छे भैया, सुमन सौरभ आदि। इसमेँ हिन्दुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इण्डिया, दिल्ली प्रेस जैसे मुख्य प्रकाशन समूह का बड़ा योगदान था। आज के समय मेँ एकतारा और एकलव्य जैसे छोटे प्रकाशन ही बाल साहित्य के लिए काम कर रहे हैँ। आजादी के बाद बालक, चुन्नू मुन्नू जैसे ढेरो पत्रिकाएँ थीँ। आपको बाल साहित्य के निरन्तर घटते प्रकाशन और प्रसार सङ्ख्या के क्या कारण लगते हैँ? आज के समय मेँ यदि हम बच्चोँ के लिए उत्कृष्ट साहित्य उपलब्ध कराना चाहेँ तो क्या करेँ?
अरविन्द गुप्ता : जैसा आपने कहा 1960, 70, 80 के दशकों में पराग, नंदन, चंपक, चंदामामा जैसी कई बाल पत्रिकाएं थीं। उदारीकरण के दौर में वे सभी बंद हो गईं। वही हाल 1962 में पहले बार छपी विज्ञान पत्रिका “साइंस टुडे” और बाद में “साइंस ऐज” का भी हुआ। अब मात्र “साइंस रिपोर्टर” ही बची है, जो सरकारी अनुदान के कारण ज़िंदा है। जब लोग बाल पत्रिकाएं कम खरीदते हैं तो उनको कम इश्तहार मिलते हैं, और फिर धीरे-धीरे करके वो बंद हो जाती हैं। इसका एक उदाहरण “टारगेट” नाम की अंग्रेजी बाल पत्रिका भी है। वो शायद देश में छपने वाली सबसे समृद्ध बाल पत्रिका थी। उसकी संपादिका रोज़लेंड विल्सन थीं। यह पत्रिका इंडिया-टुडे ग्रुप ने शुरू की थी। आज उसका कोई डिजिटल अंक तक नहीं मिलता है। यह बड़े शर्म की बात है। पराग, नंदन के भी कोई डिजिटल संस्करण नहीं मिलते। उन्हें पढ़कर आजके युवा लेखक बहुत कुछ सीख सकते थे।
इस सबको देखकर यही लगता है कि हमारा समाज बाल-साहित्य को अधिक महत्व नहीं देता है। अमेरिका में पिछले 100 सालों से उस वर्ष की सबसे सुंदर चित्रों वाली बाल-पुस्तक को “कैलडीकॉट” मेडल मिलता है – जिसे ALA (अमेरिकन लाइब्रेरी एसोसिएशन) प्रदान करती है। भारत में किसी भी सरकारी, गैर-सरकारी प्रकाशक या एनजीओ ने आजतक एक भी “कैलडीकॉट” मेडल पुस्तक का अनुवाद नहीं छापा है। चकमक, साइकिल और प्लूटो वाकई में सुंदर बाल-पत्रिकाएं हैं। 1982 में मैंने एकलव्य को “चकमक” नाम सुझाया था। इसलिए मेरा “चकमक” से एक भावनात्मक लगाव भी है।
हमें विश्व के सर्वश्रेष्ठ बाल-साहित्य को हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करना चाहिए। टाटा ट्रस्ट ने पराग के तहत इस काम की शुरुआत की है। पिछले साल पराग ने IBBY – इंटरनेशनल बोर्ड फॉर बुक्स फॉर द यंग के भारतीय चैप्टर की कमान संभाली है। उससे कुछ उम्मीद बंधी है।
एक चमकता तारा अभी भी बचा है – रूसी बाल साहित्य – जो भारत की तमाम भाषाओं में, सुंदर चित्रों के साथ कॉपीराइट-फ्री उपलब्ध है। 1990 में रूस के विखंडन के बाद रूसी किताबें छपना बंद हो गईं। लेकिन मेरे कुछ साथियों ने कई भारतीय भाषाओं में रूसी साहित्य को डिजिटाइज़ किया है। रूसी बाल-लेखक निकोलाई नोसोव, रादलोव और व्लादिमीर सुतीव की किताबें नायाब, बाल-केंद्रित हैं और मुफ़्त में अनलाईन उपलब्ध हैं।
प्रश्न : आप विश्व बाल साहित्य के अध्येता हैँ। आपका संकलन भी बृहद है। एक अध्येता की निरपेक्ष दृष्टि से आप हिन्दी मेँ किन्हेँ प्रमुख बाल साहित्यकार के रूप मेँ याद करना चाहेँगे? इसी के साथ जुड़ा हुआ प्रश्न यह भी है कि क्या आप हिन्दी मेँ लिखी गई कुछ पाँच प्रमुख बच्चों की कहानियाँ या कविताओं का नाम लेना चाहेँगे जो आपकी दृष्टि में अविस्मरणीय होँ?
अरविन्द गुप्ता : हिंदी में इतने लोगों ने लिखा है कि उसमें से कुछ को चुन पाना मुश्किल होगा। जिन लोगों ने मुझे प्रभावित किया है वे हैं प्रेमचंद, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, निरंकार देव सेवक, सफ़दर हाशमी आदि।
पाँच प्रमुख कहानियाँ और कविताएं
- ईदगाह – प्रेमचंद
- एक छींक आई नंदू को – रामनरेश त्रिपाठी
- इब्न बातूत पहन के जूता – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
- काकी – सियाराम शरण गुप्त
- रेलगाड़ी, नानी की नाव चली – हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय
प्रश्न : आपका कार्य फलक भी बहुत बड़ा है। आपने बहुत तरह के बच्चोँ के खिलौनोँ से जुड़ी गतिविधियोँ पर लिखा है, बाल साहित्य का भी काफी काम किया है। आप अपने लम्बे जीवन यात्रा मेँ अपने किस काम को महत्ता देते हेँ? यूँ तो हर काम ही सब के लिए महत्त्वपूर्ण होता है, फिर भी यदि आप अपने कुछ कृतियोँ या प्रोजेक्ट के बारे मेँ बताएँ जो आप एकदम से याद आ जाते होँ?
अरविन्द गुप्ता : मेरी वेबसाइट arvindguptatoys.com पर सिर्फ किताबों और खिलौनों का ही जिक्र है। सत्तर के दशक में मैं होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़ा, जिसने मुझे एक नई दृष्टि और दिशा दी। हमारे देश में अभी भी अधिकांश बच्चे विज्ञान की पढ़ाई की पढ़ाई रटकर करते हैं। जबकि सस्ती, स्थानीय, रोजमर्रा इस्तेमाल की जाने वाली चीजों द्वारा की गई गतिविधियों से विज्ञान को बेहद रोचक बनाया जा सकता है। IUCAA के विज्ञान केंद्र में हमने 15 भारतीय भाषों मे 8700 (2-मिनट लंबे) विडिओ बनाए, जो आज YOUTUBE पर हैं और जिन्हें 11 करोड़ से ज्यादा बच्चे देख चुके हैं।
archive.org पर मेरा एक पेज है https://archive.org/details/@arvind_gupta। उसपर 19,600 किताबें हैं – शिक्षा, पर्यावरण, बालसाहित्य, प्रेरक जीवनियां तमाम भाषाओं में। वहां से रोजाना 8,000 किताबें डाउनलोड होती हैं। अभी तक तकरीबन 2 करोड़ किताबें डाउनलोड हो चुकी हैं। यह हमें दिखाता है कि हमारे लोगों में अच्छे ज्ञान की कितनी जबरदस्त भूख है।
हमारे देश में सार्वजनिक लाइब्रेरी बहुत कम हैं, और ज्यादातर स्कूली पुस्तकालयों में किताबें अलमारियों में बंद रहती हैं, वहाँ इस प्रकार के ओपन-सोर्स के प्रयास जरूरी हैं।
प्रश्न : आपका बाल शिक्षा से लगाव कैसे हुआ? क्या यह बचपन से ही था या किसी अविस्मरणीय घटना ने आपको ऐसा प्रेरित किया? इसमेँ आपके बचपन के शहर/गाँव या शिक्षकोँ का कैसा योगदान रहा?
अरविंद गुप्ता: मेरे माता-पिता कभी स्कूल नहीं गए। पर मेरे दो मामाओं ने उच्च शिक्षा प्राप्त कर अच्छी सफलता प्राप्त की। इसलिए माँ ने हम सभी भाई-बहनों को हमारे शहर बरेली के अच्छे स्कूल में भेजा। वो एक कान्वेन्ट स्कूल था। मेरी गणित की टीचर मिसेज फ्रे थीं। सीनियर कैंब्रिज में एडवांस्ड गणित केवल तीन ही छात्रों ने ली थी। मिसेज फ्रे ने देखा कि मैँ गणित में बहुत तेज था पर मेरी अंग्रेजी बहुत कमजोर थी (क्योंकि हम घर में सिर्फ हिंदी ही बोलते थे)। उसके बाद मिसेज फ्रे ने मुझ से घंटों अंग्रेजी में बातचीत की। उसका नतीजे यह हुआ कि मेरी अंग्रेजी सुधर गई और मैं अंग्रेजी में डिस्टिंगक्शन से पास हुआ। उससे मेरे आत्मविश्वास और आत्मसम्मान में बहुत इजाफा हुआ। आई आई टी कानपुर में भारत रत्न प्रोफ़ेसर सी. एन. आर. राव ने हमें दो कोर्स पढ़ाए। आई आई टी कानपुर में एक गरीब बच्चों के लिए स्कूल था – ऑपर्च्युनिटी स्कूल, जहां मैंने कई साल पढ़ाया। शायद उसे से पढ़ाने का असली अनुभव मिला और शिक्षा में रुचि बढ़ी। बाद में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम में डॉ अनिल सदगोपाल और अन्य साथियों से भी बहुत कुछ सीखने का मौका मिला।
अपने बचपन में मुझे बालसाहित्य पढ़ने का बहुत कम मौका मिला। बड़े होकर ही मुझे उसकी महत्ता समझ में आई और फिर उसमें रुचि और गहरी होती गई।
प्रश्न : बतौर शिक्षाविद और बालसाहित्यकार के दृष्टि से हमारे समाज की प्रमुख चुनौतियाँ कौन-सी हैँ? हम उनका सामना किस तरह से कर सकते हैँ?
अरविन्द गुप्ता : चालीस साल पहले मैंने देखा कि अच्छे शिक्षा के अनुभवों पर हमारे देश में बहुत कम किताबें थीं। इक्का-दुक्का मोंटेससोरी की किताबों को छोड़कर सिर्फ मेड-ईज़ी और गाइड थीं। हमने बेहद कोशिश की जिससे गिजूभाई बधेका की ‘दिवास्वप्न’, ‘तोतोचान’, नील की ‘समरहिल’, जॉन हॉल्ट की ‘बच्चे असफल कैसे होते हैं’, सिल्विया ऐशटन वॉर्नर की ‘टीचर’, पाउलो फ्रेरे की ‘खतरा स्कूल’ जैसी पुस्तकें आईं। हाल ही में नैशनल बुक ट्रस्ट ने मराठी में ‘तोतोचान’ का तीसवाँ संस्करण छापा है। शिक्षा की इन बेहतरीन किताबों ने शिक्षा की कुछ मिट्टी जरूर बनाई है।
हमने दुनिया के सबसे उम्दा बालसाहित्य को हिंदी और मराठी में अनुवाद भी किया है। मराठी में यह काम ज्यादा सरल था हिंदी की अपेक्षा। हमारे तमाम हिंदी भाषी राज्य “बीमारू” राज्य हैं और वहाँ HDI हयुमन डेवलपमेंट इंडेक्स बहुत निम्न स्तर पर है। विश्व-स्तरीय, मुफ़्त ऑनलाईन किताबें भी बहुत कम लोग ही पढ़ते हैं। पर मैं उससे कभी निराश नहीं होता। मुझे लगता है इसीलिए हिंदी भाषी राज्यों को दुनिया की सबसे अच्छी किताबें उपलब्ध करानी चाहिए। हमारा टारगेट प्रतिदिन बच्चों की एक सुंदर किताब को हिंदी में अनुवाद करना है। कुछ दिनों को छोड़कर हम वो कर भी पाए हैं।
प्रश्न : आज के डिजिटल युग मेँ बाल साहित्य का भविष्य क्या एनिमेशन फिल्मोँ तक सिमट जाएगा? आप आने वाले समय के विषय मेँ बच्चोँ से जुड़ी शिक्षा तकनीक के विषय मेँ क्या सोचते हेँ? जिस तरह आजकल स्कूलोँ मेँ डिजिटल क्लास रूम हुए हैँ, क्या तकनीक ने वैज्ञानिक शिक्षा को आसान किया है?
अरविन्द गुप्ता : डिजिटल फिल्में, ऑनलाईन लेक्चर बच्चों को पैसिव बनाते हैं। बच्चों को अपने हाथ से चीजें, मॉडेल, खिलौने बनाने चाहिए। हर स्कूल “ऐक्टिविटी” स्कूल होना चाहिए जहां बचपन से ही बच्चे अपने हाथ से छोटे-छोटे, सस्ती चीजों से मॉडेल बनाएं। सौ साल पहले गिजूभाई ने अपने स्कूल में बच्चों से उस साल पाठ्यपुस्तकें नहीं खरीदने को कहा। उन पैसों से गिजूभाई ने हर बच्चे के लिए तीन अलग-अलग चित्रों वाली कहानी की किताबें खरीदीं। गिजूभाई का सपना था कि हमारे बच्चे 3 पाठ्यपुस्तकों की जगह 150 सुंदर किताबें पढ़ें। गिजूभाई के इस सपने को साकार करने की हमें अवश्य कोशिश करनी चाहिए।
प्रश्न : आप अकर्मण्य (पैसिव) होने के विरुद्ध जान पड़ते हैँ। लेकिन बहुत से खिलौने बनाने के लिए, बल्कि अकर्मण्यता (क्रियात्मक सर्जनधर्मिता के विपरीत) के लिए होते हैँ, जैसे कि ‘गुड़िया’। क्या उनका कोई उपयोग नहीँ? दूसरे शब्दोँ मेँ खिलौनो के ले कर आपके मूलभूत विचार क्या हैँ?
अरविन्द गुप्ता : मैं होशंगाबाद विज्ञान कार्यक्रम के अनुभव के बाद ही खिलौनों के साथ जुड़ा। विज्ञान में “ऐक्टिव” यानि गतिविधियों वाली क्लास होना जरूरी है। सिर्फ लेक्चर सुनकर काम नहीं बनेगा। परिभाषा रटकर अच्छे नंबर जरूर मिलेंगे पर कुछ समझ में नहीं आएगा। एक पुरानी कहावत के अनुसार
जब मैं सुनता हूं – तो मैं भूल जाता हूं।
जब में देखता हूं – तो मुझे ध्यान रहता है।
पर जब मैं करता हूं – तो मुझे समझ में आता है।
इसका यह मतलब नहीं कि बचपन के खेलों में गुड़िया और अन्य खेलों का कोई रोल नहीं हैं। बच्चों के समाजीकरण के लिए सब प्रकार के मुक्त खेल बेहद जरूरी हैं।
प्रश्न : बाल साहित्य मेँ चित्रकला का ह्रास को आप कैसे देखते हैँ? पराग और चन्दामामा जैसी पत्रिकाओँ मेँ प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट और चित्रकार काम करते थे। आपकी नज़र मेँ अभी भारत मेँ बच्चोँ के लिए सबसे अच्छा काम किस चित्रकार का है? हम उनके काम कैसे प्रमुखता मेँ ला सकते हैँ?
अरविन्द गुप्ता : भारत में बहुत सारे कुशल चित्रकार हैं जिन्होंने बाल पुस्तकों के लिए उत्कृष्ट चित्र उकेरे हैं। मेरे सबसे प्रिय हैं ‘पुलक बिस्वास’ जिन्होंने चिल्ड्रनस् बुक ट्रस्ट की पुस्तक “महागिरी” के लिए अनूठे चित्र बनाए थे। कुछ अन्य हैं जगदीश जोशी, मिकी पटेल। यह तीनों ही अब हमारे बीच नहीं हैं। वर्तमान में प्रिया कुरियन, शुद्धासत्व बसु, अतनु रॉय, एलेन शॉ सुंदर चित्रकार हैं। टाटा ट्रस्ट की पराग संस्थान ने पिछले पाँच सालों में बालसाहित्य के उत्कृष्ट चित्रकारों को हर वर्ष पुरस्कृत किया है।
प्रश्न : आजकल के नए अभिभावक बच्चोँ के लिए लोरियोँ के लिए यूट्यूब का सहारा लेते हैँ। आप प्रचिलत लोरियोँ के बारे मेँ क्या विचार रखते हैँ – “वाह टमाटर बड़े मज़ेदार”, “दो चूहे थे” आदि। हालाँकि यह २ से ५ साल के बच्चोँ के लिए है। इसके लिए आप कोई मानक सुझा सकते हैँ?
अरविन्द गुप्ता : मैंने यूट्यूब पर कभी लॉरियाँ नहीं सुनीं, इसलिए मैं इसका उत्तर देने में असमर्थ हूं। अच्छे बालगीत और लोरियां वही होते हैं जो एक बार सुनने के बाद बच्चों को याद हो जाएँ।
प्रश्न : अन्तिम प्रश्न, पिछले कुछ साल में आपकी दृष्टि में कौन से बाल साहित्यकार आएँ हैँ जिनके काम पर हमेँ ध्यान देना चाहिए और जिनके प्रति हम आशान्वित हो सकते हैं?
अरविन्द गुप्ता : सुशील शुक्ल हैं, जिन्होंने कई वर्ष चकमक का सम्पादन किया और अब साइकिल और प्लूटो संपादित कर रहे हैं।
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श्री अरविन्द गुप्ता (जन्म १९५३) भारत के अग्रणी शिक्षाविदोँ मेँ गिने जाते हेँ। इन्होने सन् १९७५ आइआइटी कानपुर से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग मेँ बी.टेक. किया था। विज्ञान शिक्षण व प्रयोग, टूटी-फूटी सामग्री से खिलौने बनाने को ले कर और गणित आदि विषयों को लेकर २७ पुस्तकेँ लिखी हैँ। बालशिक्षा पर टीवी पर उन्होँने १२७ से अधिक प्रोग्राम को प्रस्तुत किया हैँ। विदेशी भाषाओँ से हिन्दी मेँ उन्होँने १००० से अधिक पुस्तकोँ का अनुवाद किया है। इनकी वेबसाइट https://www.arvindguptatoys.com पर ७,५०० से अधिक बच्चोँ की किताबेँ निशुल्क डाउनलोड की जा सकती हैँ। श्री अरविन्द गुप्ता के महती योगदान के कारण उन्हेँ सन् २०१८ मेँ भारत सरकार ने पद्मश्री से अलङ्कृत किया।