आज पढ़िए कुंदन यादव की कहानी ‘मुखाग्नि’। कुंदन यादव जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी रहे हैं, फुलब्राइट स्कॉलर के तौर पर इलिनॉय विश्वविद्यालय, शिकागो में हिन्दी और भारतीय संस्कृति का अध्यापन कर चुके हैं। भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी हैं। लेकिन हमारे लिए लेखक हैं और आप उनकी इस कहानी को पढ़िए-
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जून में कोई छुट्टी नहीं होती। यह सोचते हुए पंचांग देख ही रहा था कि पता चला कि आज गंगा दशहरा है। लेकिन क्या फायदा? न आरएच न ही कोई छुट्टी। इसी बीच बनारस में कॉलेज के दिनों में गंगा दशहरा के दिन हुए एक अंतिम संस्कार की याद आई। जब मोहल्ले के केदार बाबा को अंतिम विदाई देने के लिए हम लोग बनारस के मणिकर्णिका महाश्मशान में थे। केदार बब्बा लगभग 96 वर्ष की आयु पूरा करके गोलोक वासी हुए थे और उन को अंतिम प्रणाम करके विदा करने हमारे गांव के और अगल बगल से लगभग तीन चार सौ लोग श्मशान में जमा थे।
चिता जलने के बाद कुछ लोग वहीं रह गए और शेष सभी मुखाग्नि से पहले जल देकर ऊपर घाट की सीढ़ियों पर आकर बैठे ही थे कि कुछ देर में श्मशान में एक नया मुरदा आया। केदार बाबा के शव यात्रा में पहले से ही बहुत ज्यादा लोग थे और अब लाश काफी जल चुकी थी, साथ ही इस नए मुर्दे के साथ आने वालों के लिए वहां जगह कम पड़ रही थी। अतः श्मशान संचालकों ने आवाज लगाई कि भैया अब आप लोग चलते रहैं। इस बात पर गौर करके हमारे दल के किसी बड़े बुजुर्ग ने सभी लोगों को पानी पीने के लिए धीरे-धीरे कचौड़ी गली में किसी मिठाई की दुकान पर रुकने का आदेश देकर वहां से चलने के लिए कहा, और कुछ देर में ही लगभग तीन चौथाई लोग ऊपर मुख्य बाजार की तरफ चले गए। क्योंकि मैं पहाड़पुर से बनारसी दादा की हीरो होंडा से आया था अतः मैं वहीं रह गया क्योंकि बनारसी दादा एक हरा बांस लेकर कपाल क्रिया के लिए जलती हुई चिता के अगल-बगल ही घूम रहे थे। बनारसी दादा कई वर्षों से कम लकड़ी में मुर्दे को अलट-पलट कर के फूँकने में माहिर थे। लकड़ी वाले जैसे ही लाश देख कर बोलते छः कुंतल लकड़ी लगी। बनारसी दादा की आवाज़ गूँजती , नाही बे सवा चार कुंटल लिख बाद में देखल जाई। यदि लाश हल्की हुई तो बनारसी का तर्क था कि , “ शरीर एकदम झुरा गयल, जरावे बड़े बचल का हव? बस हड्डी आ तईं तुना मांस”। बल्कि साढ़े तीनय में हो जाई”। यदि मुर्दा मोटा या भारी हुआ तो बनारसी दादा का तर्क होता,” अबे रोज दू सेर दूध आ डेढ़ पाव मलाई खईले वाली शरीर हव। बिना लकड़ी जऊन फनफना के कुल चर्बी जरी कि देखतय रह जइबा। लकड़ी त बस सहारे बदे लगत हव”। चल अच्छा साढ़े चार कुंटल कर दे। बनारसी की इसी विशेषज्ञता के कारण हमारे गाँव के आसपास किसी भी मृत्यु पर उसके परिवार वाले बनारसी दादा को क्रियाकर्म के लिए एक अनुमानित राशि सौंप कर निश्चिंत हो जाते। और बनारसी भी पूरे जी जान से मृतक के दाह संस्कार से तेरहवीं तक इस तरह अंतिम विदाई देते कि घर वाले क्या देंगे। मणिकर्णिका श्मशान की दुकानों पर उनका क्रेडिट चलता था।
नए मुर्दे के साथ करीब पचास साठ लोग थे। बनारसी और उनलोगों की बातचीत में पता चला कि वह सभी बनारस के बड़ागांव तहसील से आए हैं। श्मशान रजिस्टर में मृतक का नाम राम पूजन पटेल दर्ज किया गया। इसके बाद लकड़ी आदि का चार्ज देकर के नीचे वे सबसे बाएँ चिता सजा ही रहे थे तब तक हल्की बारिश आ गई । सभी लोग उपर भाग आए। फिर मृतक के लड़के के बाल दाढ़ी मूँड़ने का काम शुरू हुआ। लड़का बहुत रो रहा था। लोग उसे बार-बार समझाते कि यह दुनिया की रीत है बेटा। सबको जाना है तब वह कुछ देर के लिए चुप होता लेकिन फिर अचानक अरे बाबू रे बाबू कह कर फूट-फूट कर रोने लगता।
मुंडन होते हुए भी पिता की याद में रूक रूककर लड़का रोने लग रहा था। बीच बीच में व्यवधान होने पर नाई ने झड़प कर कहा- मरदवा अब तू या त रो ला, अ नाही त बेल छिलवा ला? बीच बीच में दहड़बा त अस्तुरा लग जाई , हम नाहीं जानित।
नाई की फटकार से लगभग 40 वर्षीय लड़के की दहाड़ सुबकने में बदल गई। कुछ देर श्मशान के क्रिया व्यापार की आवाज़ आती रही। अब नापित कर्म लगभग पूरा हो ही चला था और लड़के का कोई रिश्तेदार दाह संस्कार हेतु लड़के को पहनने के लिए सफेद मालकिन की धोती और बनियान लिए हुए वहां खड़ा था कि उस दल में से एक व्यक्ति सीढ़ियों से चीखते हुए प्रकट हुआ।
“अरे मरदवा तू लोग इहाँ दतनिपोरी फनले हउवा, उहाँ पता नाहीं कउन भों……वाला चच्चा के आगी दे देलेस। “
यह खबर सुनकर लड़का समस्त शोक भूल कर करूण से वीर रस में जाकर, नाई को झटका देते हुए उठा और , कउन हव एकरी माँ की .. उद्घोष करते हुए, कुछ और धाराप्रवाह गालियाँ देते हुए सीढ़ियों से नीचे तट की तरफ भागा।
हम लोग भी नीचे की तरफ़ दौड़े
वहाँ पहुँच कर पता चला कि इनसे पहले जो पार्टी सबसे बायीं तरफ चिता सजाकर गई थी, वह सारा काम निपटा कर लौटी तो भूल से सबसे बाएँ को अपना वाला मानकर मुखाग्नि दे दी। दरअसल श्मशान घाट पर ऐसा आमतौर पर होता है कि लोग किनारे एक एक करके चिता सजाते जाते हैं क्योंकि जहां तुरंत दाह कर्म हुआ होता है वह पत्थर और मिट्टी बहुत गर्म होती है इसलिए एक के बाद एक क्रम चलता रहता है।
लड़के के साथ के लोग धारा प्रवाह गालियों के साथ जलती चिता को बुझाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन ढेर सारा घी चंदन कहाँ बुझ पाता। तब तक किसी ने कह दिया कि अगर आग बीच में बुझाई जाएगी तो उनको मुक्ति नहीं मिलेगी।
पहले तो जिस व्यक्ति ने गलती से नई वाली चिता में आग लगा दी थी उसने मोर्चा लेने की कोशिश की। उसने दलील दिया कि आपन मुर्दा अगोरे के चाही न ! कि उहां बैठ के तमाशा देखत रहला तू लोग? हमारी कौन गलती है? अरे भाई सबसे किनारे लकड़ी लगवा करके गए थे बाल बनवाने के लिए। इतने में आप लोग अपनी वाली चिता लगा दिए और हम आए तो हमें लगा कि यही वाली है तो हमारी क्या गलती? पता होता कि आप लोग चिता लगाकर गए हैं तो हम क्यों आग देते? और थोड़ा बारिश हो गया इसलिए सब लोग यहां से हट गए थे। खाली पंडित जी और जो लोग आए उनको भी भ्रम हो गया।
अब बताइए कफन में सब लास एक जैसी दिखती है तो हमारी क्या गलती है?
लेकिन इस सफाई से बात नहीं बनी। एक तो गलती से चिता जलाने वाले के साथ मुश्किल से बीस लोग थे और संख्या बल में नए वाले मुरदे के साथ लगभग तीन गुने लोग थे। फिर यह ऐसा मामला था जिस पर हर व्यक्ति गलती करने वाले को कोस रहा था कि कम से कम उनमें से किसी एक को वहां रहना चाहिए था। ऐसा कौन सा तूफान आ गया था जिसमें सभी लोग भीगने के डर से ऊपर भाग आए। अरे भला लाश को कोई अकेला छोड़ता है। यह सब सुनकर गलती करने वाले व्यक्ति की सफाई और प्रतिरोध धीरे धीरे कम होता चला गया और इसके मुकाबले उस लड़के के साथ वाले लोग उग्र होने लगे।
पिता को दूसरे द्वारा मुखाग्नि देने से गुस्से में दुखी लड़के ने किसी को आवाज़ दी- अबे डबलुआ निकाल राइफल। आज इ बुजरौ वाले के जिंदा न छोड़ब। इनकी माँ का..
अब माहौल गरमाता देख दूसरी पार्टी के ज्येष्ठ पुत्र ने हाथ जोड़कर कहा, भइया गलती हो गयल। ल तू हमरे बाऊ के जरा लऽ। दूनों जने उपर आपन हिसाब कय लीहैं।
अइसे कइसे कय लेइहैं बे? तै …ड़ी के धोबी आउर हमने पटेल। कहीं कौनों बराबरी हव जउन हिसाब कय लेइहैं? अउर हमार पितर रिन के उतारी बे? पूरा जिनगी समाज में का मुँह देखाइब कि बाऊ के आगी ना दे पउली। एकर सजा त तोहैं भोगहीं के पड़ी छिनरौ के।
फिर बहुत देर तक पंचायत होती रही और श्मशान में शोक का नामो निशान नहीं रह गया था। रह रहकर तिक्त-मधुर गालियों की ध्वनि गूँज रही थी। गलती करने वाला पक्ष सफाई दे देकर चुप हो गया था और प्रतिरोध भी करना बंद कर चुका था। उन दिनों अगर मोबाइल वगैरह होता तो शायद फोन करके अपने पक्ष में कुछ और संख्या बल बढ़ाने की कोशिश की जाती लेकिन सैकड़ों सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर जाना अपने आप में एक कठिन काम था इसलिए सब लोग वही आस पास बैठे हुए थे। इस बीच हमारे केदार बाबा की अस्थियां गंगा में प्रवाहित कर दी गई और हमने भी हाथ मुंह धो कर क्रिया कर्म संपन्न कर लिया लेकिन हमारे बनारसी दादा की रुचि यह जानने में थी कि फैसला क्या होता है? आखिर गलती से लाश जलाने की घटना देखने वाले चश्मदीद गवाहों में वह भी एक थे। गर्मा-गर्मी कुछ आगे बढ़ती तो बनारसी दादा बीच-बचाव कर देते। पहले तो यह तय नहीं हो रहा था कि वह किस पक्ष के साथ खड़े हैं लेकिन कुछ देर बाद यह स्पष्ट हो गया है कि वे भूल करने वाले व्यक्ति के साथ हैं। उनके हाथ में लंबा बांस देखकर भी शायद कोई उन्हें यह नहीं कह रहा था कि तुमसे मतलब।
इस बीच श्मशान में भारी कोलाहल देखकर डोमराजा उतरे। शायद गलती कर देने वाले पक्ष में से किसी ने उनके दरबार में जाकर शरण ली। त्राहिमाम की भावना देखकर उन्होंने हस्तक्षेप करना स्वीकार किया। अन्यथा घाट के अन्य कर्मियों ने बताया कि वे आमतौर पर किसी झगड़े में नहीं जाते।
दोनों पक्षों से पूरी बात जानने और बनारसी दादा की गवाही धैर्य से सुनने के बाद पर उन्होंने बगल में ठंडी हो रही चिता के अवशेष पर पान थूकते हुए स्थापना दी, “देखा, इहाँ आ गइला मतलब मरे वाला पुण्यात्मा रहल होइहैं जउन इहाँ से मुक्ति होत हव। रहल बात बड़े पुत्र से आगी देवे क, त बेटवन के हाथ में कउनो बिष्णू जी क कर कमल स्थापित भयल हव? जऊन बेटा के आगी लगउले से ही मुक्ति मिली। अरे यहां भोलेनाथ खुद मरने वाले के कान में तारक मंत्र देकर मुक्ति देते हैं। फिर बेटा-सेटा की क्या औकात? इ सब तो रीत है। अ जेकर बेटवा ना हउवन ओनके मुक्ति न मिली? और बाकी सब कुछ छोड़ा, इहाँ एतना लावारिस लाश रोज फुंकात हइन त का ओनहने के मुक्ति न मिली?”
डोम राजा की इस ललकार पर वहां पर कुछ सेकंड के लिए शांति छा गई। लड़के के किसी रिश्तेदार ने कुछ कहना चाहा लेकिन डोम राजा ने उसकी ओर ध्यान न देते हुए गलती करने वाले को अपने पास बुला कर धीरे से कहा, ” तू लोग डेरा मत। हम हइ न। कवने बात का मुकदमा करिहैं भों…. के ? अउर इ गलती पे कउन धारा लगी? इ हमार इलाका हव। ढेर उत्पात मचइहैं त बल भर हूर के खदेड़ देवल जाई। जियले पे बाप क सेवा न कइले होइहैं , अब मुखाग्नि क चिंता भयल हव।”
इसके बाद वे बुलंद आवाज़ में लड़के की तरफ देखकर बोले, “ अरे गलती से इ तोहरे बाऊ के जरा देलन। अगर जनतन त जरइतन?” फिर गलती करने वाले की तरफ देखा कर बोले- “कहो पता रहत त जरइता” ?
आऊर का , भइया हम का करे जराइत ओनके। बस गलती हो गयल माफ करअ।
अब डोम राजा लड़के से बोले- चला छोड़ा इ सब , देखा आँच गड़बड़ात हव , सेर भर घीउ ना दऽ ओप्पर । घी डालते ही जैसे ही आग पुनः तेज हुई, डोम राजा बोले , – देखा तोहरो तरफ से मुखाग्नि हो गयल । अबहीं पुत्र रिन से मुक्ति खातिर कई ठे काम तोहरे जिम्मे निभावे बदे हव। एके छोड़ा उ सब कअ चिंता करा।
फिर गलती से मुखाग्नि देने वाले को बोले- “जब माफ़ी माँग लेहला एनसे त गलती माफ। अब चला अपने असली बाऊ के आगी दा। बात खतम। सब जने किरियाकरम के बाद मसान बाबा क हाथ जोड़ लीहा अउर कउनो बहसबाजी अब न होए के चाही”।
इस वाक्य में आग्रह से अधिक आदेश शामिल था। आखिर हो भी क्यों ना ? डोम राजा की स्थापना, वह भी श्मशान में आदेश ही होती है।
फिर इधर-उधर ऊपर अपने सगे संबंधियों व कर्मचारियों को देखते हुए बोले- बस अब काम निपटावा सब जने। और कोई फालतू बहस नाहीं। इहाँ …..ड़ीवाले लगावे बझावे वाले बहुत हउवन। अउर हाँ लउटत के साथे बइठ के पानी पी लीहा सब जने। ठीक हव।
यह कहकर डोम राजा पुनः अपने घर की तरफ चले गए। मैं और बनारसी दादा भी चलने को ही थे कि उनमें से किसी वरिष्ठ व्यक्ति की आवाज आई। अरे भइया ! अब आप लोग हमने के साथै पानी पी के निकलत जा। बहुत मदद कइला आप लोग।
एक दो बार मनुहार कराने के बाद हमने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वैसे भी केदार बब्बा वाली पार्टी बहुत पहले जा चुकी थी।
वहाँ पानी पीना का मतलब – श्मशान में दाह संस्कार हेतु साथ आए हुए सभी लोगों को पेट भर कचौड़ी सब्ज़ी और मिठाई का भोग।
डॉ कुन्दन यादव
मो.- 8506889889