जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

प्रियंका दुबे की पत्रकारिता से हम सब परिचित हैं. यहाँ आज आपके लिए उनकी एक छोटी सी कहानी, जिसके बारे में लेखिका का कहना है कि यह ‘शार्ट स्टोरी और स्टोरी के बीच का है कुछ शायद’. बहरहाल, यह एक मार्मिक कहानी है. एक फिल्म से अतीत के पन्ने जुड़ते चले जाते हैं. जीवन और सिनेमा के बीच की दूरी मिटती चली जाती है. पढ़ कर बताइयेगा- मॉडरेटर.
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उस दोपहर जब पानी बरसना शुरू हुआ तब वह क्रिस्टी ब्राउन के जीवन पर बनी फिल्म ‘माय लेफ्ट फुट’ देख रही थी. मन के रंग में शायद बरसात का पानी सबसे तेज़ गति से खुद को रंग लेता है. शायद इसलिए मार्च की उस बारिश ने उसके उदासी के रंग को और गहरा कर दिया था.
 
क्रिस्टी को देखते ही उसे वह याद आ गयीं और पांच मिनट बाद ही उसने फिल्म को पॉज़ कर दिया. वीकीपीडीया पर फिल्म, क्रिस्टी और ‘माय लेफ्ट फुट’ के बारे में पढ़ने लगी. शायद खुद को जज करने की एक बुझी सी कोशिश में…यह जानने पाने के लिए की वह सच में इस फिल्म को सह सकती है?
 
एक विकलांग बच्चे का पैदा होना, उसका खुद से जूझना, उसके परिवार का उसके साथ जूझना और फिर बच्चे का चले जाना. यह सब सोचते ही लड़की को पसीना आने लगा और उसने तय किया की वो यह फिल्म नहीं देखेगी. क्योंकि इसका नतीजा उसके लिए घातक हो सकता था.
फिल्म उसे यातना भरे अतीत के उस अँधेरे कुएं में धकेल सकती थी…जहाँ फंसी हुई वह कितने दिन अकेली भटकती रहती, कोई नहीं कह सकता था.
फिर उसके अन्दर इतना साहस भी नहीं था की एक आवाज़ लगाकर मदद मांग सके. उसे हमेशा डर लगा रहता था की शायद कोई उसकी आवाज़ नहीं सुनेगा. और अगर आवाज़ सुन भी ली तो भाषा समझ नहीं पाएगा. अगर ऐसा हुआ तो उसके कई भ्रम टूट जाएंगे और उसे आखिरकार यह मानना ही पड़ेगा की उसकी भाषा में आवाज़ लगाने से कोई जवाब नहीं देता. आप आवाज़ लगाएं और कोई पलटकर जवाब दे, इससे ज़्यादा सुखी करने वाली बात शायद ही कोई हो सकती है. लेकिन सुनने और जवाब देने के लिए भाषा के साथ साथ संवेदना भी चाहिए थी. जबकि वह और उसके आस पास की दुनिया अपने कई हिस्सों में भाषा और संवेदना दोनों से ही खाली थे.
 
मगर फिर भी अपने को कुरेदने की पुरानी आदत से मजबूर लड़की ने कुछ देर बाद फिल्म देखना शुरू किया. क्रिस्टी और उसकी माँ को देखते ही उसे अपनी माँ याद आई. फिल्म में छोटे क्रिस्टी को अपने कंधे पर टांगकर सीढ़ियों से ऊपर ले जाती माँ, सारे बच्चों को खाना खिलाने के बाद क्रिस्टी को अपने हांथों से खिलाती माँ, एक लकड़ी के कार्ट में बैठाकर क्रिस्टी को चर्च ले जाती हुई माँ और अपने बेजान शरीर को चुनौती देते हुए अपने सजीव बाएँ पंजे से घिसटकर लिखने की कोशिश करते हुए क्रिस्टी से ‘कम ऑन क्रिस्टी, मेक योर मार्क’ कहती हुई माँ.
 
लड़की फिल्म देखती रही और रोती रही. और फिर जब नन्हा क्रिस्टी अपनी पूरी ताक़त लगाकर पीली चाक से  फर्श पर अपना पहला अक्षर ‘मदर’ लिखता है तब लड़की के सब्र का बाँध टूट जाता है. लैपटॉप बिस्तर पर पटक कर वह उस अकेले अँधेरे कमरे में चीखने लगती है. जबकि दोपहर की उस घडी में उसके कमरे वाली बिल्डिंग लगभग खाली थी. बाहर बारिश गिर रही थी. थोड़ी सांस लेने के बाद वो फिर से चीखने लगी.
 
उसे अपने गालों पर उसकी क्रिस्टी का 17 साल पुराना स्पर्श महसूस हुआ. उसने बचपन से माँ को उन्हें कंधे पर उठाए घर में घूमते देखा था. कभी उन्हें पेशाब करवाने, कभी नहलाने, कभी सुलाने. माँ और वह एक ही थाली में खाते थे. एक कौर दीदी फिर एक कौर माँ. उनकी आँखें बड़ी और गेहरी थी. बाल बहुत रेशमी और काले. वह भी क्रिस्टी की तरह ही तुतालाते हुए टूटे बिखरे शब्दों में बोलती थीं लेकिन वह उनके कहे-अनकहे सारे शब्द समझती थी.
 
स्कूल से आते ही बस्ता फेक कर वह उनसे खूब सारी बातें किया करती. उनके माथे, बालों, गालों, पलकों और होठों को चूमती. गले लगाती और खूब दुलार करती. जब कभी माँ और बाबा को एक साथ बाज़ार जाना पड़ता तो वही उनकी देखभाल करती. उन्हें धीरे धीरे पानी पिलाती, चाय फूंक फूंक कर उनके मुहं में डालती और खाने के हर कौर से पहले पूछती, ‘गर्म तो नहीं है, और ठंडा करूं क्या?’ . और कभी कभी तो अपनी फ्रॉक को अपनी निक्कर में बांधकर तैयार हो जाती, उन्हें बाथरूम ले जाने के लिए. दोनों साथ ही सोते थे. उसे पन्नी पर सोना कभी पसंद नहीं था पर दीदी रात में बिस्तर गीला कर देती थी इसलिए उन दोनों को पन्नी वाले बिछौने पर सोना पड़ता. लेकिन रात को कहानियां सुनते सुनाते दोनों सो जाते. उसे उनके टेढ़े मेढ़े पैरों में अपने पैर फंसा कर सोने की आदत थी. सर्दियों में वह पैर धो कर आती और ‘ठंडी-ठंडी’ चिल्लाती हुई रजाई में पड़े उनके पैरों में अपने पैर फंसाकर खूब हंसती. अचानक ठन्डे पैरों की छुवन से वह कसमसा तो जातीं लेकिन नीली निक्कर और पीली टी-शर्ट में अपने आस पास मंडराती रहने वाली अपनी छुटकी से नाराज़ नहीं होती. होती तो भी शायद बता नहीं पातीं.
 
उस साल 7 मई को उनका तेरवां जन्मदिन था पर 18 अप्रैल को ही वह चली गयीं. उनके जाने से दो दिन पहले लड़की ने घर के बगीचे से चलेमी के दो फूल तोड़कर उनके बालों में लगाए थे और जन्मदिन पर पूरी माला बना के देने का वादा भी दिया था. मगर अगली ही रात उन्हें अस्पताल ले जाया गया. फिर अगली सुबह जब लड़की उठी तो देखा बिस्तर पर उनकी पीली पन्नी खाली पड़ी थी और माँ-बाबा रो रहे थे.
 
आज सत्रह साल बाद भी लड़की को ट्रक से उतरता हुआ उनका सफ़ेद कपड़ों में लिपटा शरीर और बिस्तर पर पड़ी खाली पन्नी खुली आँखों से दिखाई देते हैं. उसकी साँसों में अभी भी उनके बालों और चेहरे की खुशबू है.
 
लड़की ने प्रेम के अर्थ को अपनी उस माँ के ज़रिये ही जाना था जिसका एक बच्चा चल फिर नहीं सकता था. उसने माँ को पूरे जीवन भारत के सुदूर कोनों में मौजूद अलग अलग अस्पतालों और मंदिर में एक साथ जाते देखा था. उसने देखा था की कैसे एक चल फिर न सकने वाले बच्चे का पूरा परिवार उसके साथ अपना पूरा प्रेम और ताक़त लगा देता है मगर फिर भी न तो उस बच्चे के हिस्से में लिखा जीवन खुद जी पाता है और न ही उसे जिंदा रख पाता है.
 
नौ साल की उम्र में वह उनके मृत शरीर से लिपट कर पागलों की तरह रो रही थी. हर रोज़ की तरह स्कूल से आने के बाद आज भी उनकी आँखों, बालों और गालों को चूम रही थी. इस विचार ने की आप जिनके बिना मर सकते हैं, उन्हें अपनी पूरी ताक़त लागने के बाद भी जिंदा नहीं रख सकते, उसे बचपन में ही जैसे तोड़ दिया था. उस दिन उसकी दिल की जिन शिराओं में खून काला पड़कर जम गया था, वह आज भी उतना की काला है. उसने जान लिया था की वह किसी से कितन भी प्रेम क्यों न कर ले, वह उस इंसान को उसकी अपनी नियति से नहीं बचा सकती. और यह भी की कुछ क्षणों में प्रेम कितना असहाय होता है.
 
और फिर, अच्छी स्मृति का होना भी तो बारूद के ढेर बैठकर पर जीना  है!
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