जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज आशुतोष भारद्वाज की कहानी. उनकी कहानी का अलग मिजाज़ है. जीवन की तत्वमीमांसा के रचनाकार हैं वे. वे शब्दों को लिखते नहीं हैं उसे जीते हैं, उनकी कहनियों में जीवन की धड़कनों को सुना जा सकता है. कश्मीर के परिवेश को लेकर एक अलग तरह की कहानी है ‘मिथ्या’, होने न होने का भ्रम लिए.
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मृत्यु से पहले मृत्यु की आंखें आती होंगी। तुम्हें घूरेंगी, तुम्हारी बाह झकझोरने लगेंगी। तुम भीगा चेहरा, नामालूम भय या पसीने से, तीन रजाई की तहों से बाहर निकालोगे — हरी लकड़ी का हिलता दरवाजा, रात भर सुलगते रहने के बाद बुझी बुखारी, सफेद ठोस झील पर ठहरी नाव, कांच पर औंधे गिरे कोहरे से परे बर्फ से चुआते पहाड़ … और मेज पर जलते चिनार की लकड़ी के लैंप तले बिखरे ढेर सारे कागज। तुम रोज की तरह लैंप बंद किये बगैर रजाई में कुकड़ गये थे कि पाच मिनट बाद फिर से बैठ जाओगे।

अपना भीगा बदन संभालते तुम उठोगे। तुम्हें सर्दियों में भी बहुत पसीना आता होगा। लातें पिंडलियों में बिलखती होंगी, हाथ उंगलियों को टटोलेंगे, पीठ सिमट कर जांघों में समाने लगेगी — क्या यह बांह तुम्हारी ही है? और आखें? वही जो बिस्तर में जाने से पहले थीं या पिछले चार घंटों में तुम्हारे अंग एक नयी काया में अपने को कहने की जुबान सीख गये हैं? फर्ज करो अचानक से तुम्हें एहसास कुलबुलाये यह देह तुम्हारी नहीं तुम महज इसके चौकीदार हो? यह हाथ कहीं से आ अचानक धड़ से अटक गया है और टांगे जो रोज तुम्हें ढोती हैं दरअसल इस शरीर में किरायेदार सी रह रहीं हैं?

साल की इन अखीरी-अशरीरी सुबहों में तुम्हारे शरीर को खुद पर ही भरोसा नहीं।

भरोसा तो तुम्हें अपने शब्द पर भी नहीं। इस पर भी नहीं कि वह बूढ़ा जिसके लिये, जिससे भागकर, तुम यहां आये होगे जो यहां से चैबीस घंटे दूर इस वक्त सो या अपनी डैस्क पर उॅंकड़ू बैठा कागज सुर्ख कर रहा होगा, वह वाकई अपने अखीरी दिनों में होगा भी या नहीं। लेकिन फिर भी तुम मानना चाहोगे मान भी लोगे वह अपनी मौत की ओर उसी गति से सरक रहा होगा, जिस रफ्तार से तुम्हारे शब्द। कौन पहले पहुंचेगा वहा — वह बेलौस बेखौफ बूढ़ा या तुम्हारे अचकचाते असमय अक्षर? बर्फीली झील पर टिकी इस लकड़ी के नाव के घर में समूचा संघर्ष महज इतने से बित्ते पर सिमट आयेगा — तुम्हारे शब्द उस बूढ़े की मौत से मुखातिब, मुंतजिर होंगे।

तुम अब उठ रहे होगे, उनी मोजे और मोटा फिरन पहनोगे जो दानिश भाई ने तुम्हें दिये होंगे, तुम्हारे गर्म कपड़े इस शहर में आ बेकार हो गये होंगे। तुम बुखारी का ढक्कन हटा बुझी लकड़ियों को फूंक मारोगे, गर्म हवा छत तक जाते लोहे के पाइप से होती बाहर फुड़फुड़ायेगी, काले चकत्ते पूरे में बिखर जायेंगे — रत्ती भर आंच नहीं। सभी लकड़ियां दो घंटा पहले ही खाक हो चुकी होंगी।

थर्मस में रात का बचा गर्म कहवा कप में डाल तुम हाउसबोट के डैक पर आ जाओगे, मेज पर बिखरे कागजों पर पिछली रात की लिखावट निगाहों से छुलाते हुये।

रोशनी नहीं उतरी होगी बाहर अभी। लेकिन अंधेरे में भी कांच की झील पर बर्फ की बारीक परत चमकती रहेगी। तुम्हें पानी पर ठहरी हाउसबोट लकड़ी की रेलगाड़ियों सी लगेगी जो झील की पटरियों पर आ ठहर गयीं हैं किसी ने इनकी चैन खींच इन्हें यहां हमेशा को रोक दिया होगा इस झील पर समय की जुंबिष को थाम लिया होगा। इन घरों की रंगीन बत्तियों पर टंगी बर्फ की गीली सफेदी में समय कैद हो चुका होगा।

तुम्हें अचानक लगेगा इन रेलगाड़ियों से घिर चुके हो, विशाल डायनासोर की तरह वे तुम्हें कुचलने आ रही हैं…. तुम जमी हुई झील पर बचते-फिरते भाग रहे होगे लेकिन कोई कहीं से बचाने नहीं आयेगा — यहां है ही कौन जो तुम्हारी चीख सुनेगा। ये डायनासोर अपनी सूंड़ में तुम्हें लपेट घुमा कर जोर से दूर फेंकेगे, तुम वहीं जा गिरोगे जहां वह बूढ़ा मर रहा होगा।

क्या वह वाकई मर रहा होगा, वह बूढ़ा? अगर हां भी तो क्या वैसे ही जैसे तुम लिख रहे हो? पिछले पंद्रह दिनों में तुम उसकी देह पर दर्जनों खूनी घाव भौंक चुके होगे, न जाने कितनी जगहों पर घेर कर अपने फंदे में फंसाया-मारा होगा उसे, कई कई तरह से उसे अपने पन्नों में लड़खड़ाता, लुढ़कता, कराहता, मरता हासिल कर चुके होगे — कई ड्राफ्ट तैयार तुम्हारे पास। जिस तरह तुम अपनी कहानियों और उनके किरदारों की संभावनाओं से जूझते हो, उस बूढ़े का अनेक मुद्राओं में गला घोंट रहे होगे। सोते से नहीं उठ पाया, लंबी बीमारी ;हांलांकि तुम्हें उसकी बीमारी के बारे में कुछ नहीं पता, उसकी अंतिम प्रकाशित डायरियों में उसने अपनी अच्छी सेहत का जिक्र किया है. अस्पताल में अंत, अपने अखीरी उपन्यास से लड़ते हुये डैस्क पर ही कुछ देर पलक ठहराने को सिर झुकाया और अपने ही शब्दों की कुंआरी कराहती कब्र में सरक गया, महीने भर से कुछ न लिख पाने की जलालत न झेल पाने से अपना बूढ़ा सिर गुसलखाने के नल में दे मारा, सुबह पार्क में टहलने गया पेड़ पर रस्सी डाल लटक गया…

बहुत संभव है लेकिन वह अपनी मौत में भी तुम्हें मात दे जायेगा। उसकी आखिरी हरकत भी तुम्हें हैरान छोड़ जायेगी।

तुम जमी हुई झील के बीच उभरे सफेद चिनार को ताकते रहोगे जो सर्दियों से पहले ही अपनी पत्तियां झरा आया होगा। विचित्र झील है यह कितनी वनस्पति, वृक्ष इसकी सतह पर पलते हैं। कई साल पहले जब तुम पहली बार यहां आये थे, गर्मियों में, पानी पर हिलते हुमकते पौधों को देख चैंक गये थे। लकड़ी के घर इस झील पर तैरते थे लंबे रंगीन चोगे पहने गुलाबी गालों वाली गुलगुली लड़कियां छोटी नावों को नन्हे चप्पुओं से खेती अपने बड़ी नाव वाले घर तक आती थीं, घर के पिछले कमरे से आगे आंगन तक आने के लिये फिर नाव लेती थीं। इन सर्दियों में लेकिन नाव चुप खड़ी रहेंगी हैं थूथन झुकाये कई मवेशी कतार में बांध दिये गये हों। लोग नीचे मैदानी इलाकों में चले गये होंगे सिवाय एक अकेला लंगड़ा बूढ़ा होगा यहां जिसके एक दांत पर सोने की परत चमकती रहेगी जो अपने नाव के घर की दहलीज पर खड़ा इंतजार कर रहा होगा अपने उस बेटे का जो गर्मियों से गायब होगा जिसकी खुष्क प्रतीक्षा पर यह बर्फ ठंडी परतें छोड़ती जायेगी।

क्या यह बूढ़ा भी उस हजार मील दूर रहते बूढ़े की तरह अकेला मर रहा होगा? या यह बूढ़ा महज तुम्हारा भ्रम है, कोई बूढ़ा नहीं बचा है इन सर्दियों में इस झील पर; जिस बूढ़े से तुम हफ्ता भर पहले जलते अलाव के किनारे एक शाम मिले होगे, जिसकी हाउसबोट में तुम देर रात बैठे षहद मिले तंबाखू का हुक्का पीते रहे होगे जिसने तुम्हें अपने खोये बेटे की सोयी कहानी सुनाई होगी, जिसने बताया था कि इस साल घाटी में सिर्फ लहू उतरा कोई सैलानी नहीं, उसकी हाउसबोट खाली रही आयी, वह महज तुम्हारी कल्पना होगी तुम दरअसल किसी से नहीं मिले होगे तुम इस उजाड़ में अपने भीतर के डर से उबरने के लिये किसी को गढ़ना चाहते होगे और तुमने इस बूढ़े और उसके बेटे को गढ़ दिया होगा जैसे अपनी कहानियों के किरदार रचते होगे।

कुछ भी हो सकता है यहां। इस झील पर कुछ भी संभव। लेकिन वह बूढ़ा फितूर नहीं, वह वाकई मर रहा होगा, कम अस कम तुम्हारी कल्पना में तो मर ही रहा होगा। तुम हाउसबोट की बालकनी से अंदर कमरे में आ जाओगे। मेज पर बिखरे पन्ने, मेज के उपर बूढ़े की बड़ी सी तस्वीर जिसे तुमने उसकी ही किसी किताब के पिछले पन्ने से काट गत्ते पर चुपका लिया होगा।

‘आपने जीते में तो मुझे चैन से रहने नहीं दिया, अब मर तो आराम से जाओ।‘

तस्वीर में उसके होंठ बंद होंगे, वह अपनी ठोड़ी हथेली में थामे बैठा होगा। उसे नहीं, किसी को भी नहीं, मालूम तुम उसकी मौत को लिख रहे होगे कि तुम इस मौत को लिखने अपने शहर से चैबीस घंटे दूर इस बर्फीली घाटी में आ गये होगे, जहां इस झील पर कोई नहीं। सिवाय तुम्हारे और बूढ़े नाविक दानिश के जो तुम्हें दिन में दो बार खाना और कहवा देने लाल चैक से आये करेगा, चला जाया करेगा। और अपने बेटे की प्रतीक्षा करता वह बूढ़ा जिसके बारे में तुम्हें अभी भी नहीं मालूम वह तुम्हारा फितूर तो नहीं।

तुम अपनी डायरी खोलोगे, टेबिल लैंप के नीचे। चार महीने पहले दर्ज इबारत —

23 अगस्त 2010। दिल्ली। रात 1.43। और कहां, अखबार का खाली दफ्तर।

परसों कार से आगरा जाते में एक एंबुलैंस साथ चल रही थी। नहीं, मैं ही अपनी गति उसके साथ रख रहा था। आगरा के ही नंबर की गाड़ी थी। पीछे बैठा आदमी रोती औरत को संभालता था। पोल पर टॅंगी ग्लूकोज की बोतल से निकली नलियां लहराती थीं। मेरी कार बहुत नजदीक आती तो कोई चादर ओढ़े भी दीख जाता था। औरत के बिलखने और ढकी सफेद चादर से लगता कोई मुर्दा है। लेकिन फिर नलियां क्यों लटक रहीं थीं?

अगर अस्पताल से मुर्दे को ला रहे होंगे तो बोतल क्यों लटकी होंगी? लेकिन हो सकता है आगरा से दिल्ली इमरजैंसी में ले जा रहे हों और वह रास्ते में ही खत्म हो गया हो और अब उसे लौटा ले जा रहे हों।

अगर मैं किसी की देह, अपने की देह, कार की पिछली सीट पर लेकर अपने शहर इसी तरह लौट रहा हॅूं तो? कितना तेज चलाउॅंगा — नहीं, बहुत धीमे कि पीछे लेटा वह लुढ़क न जाये। शायद पहले उसे सीट से बांध दूंगा। लेकिन क्या इस आखिरी यात्रा पर उसे पिछली सीट पर रहने दूंगा, हो सकता है उसे अपने बगल की सीट पर बिठा कर लाउॅं, बार-बार उसकी देह को संभालता। कई सौ किलोमीटर की यात्रा — मैं स्टेयरिंग पर, मेरे बाजू एक देह।

मुझे डर भी लगेगा उसके अंग सिकुड़ने न लगें, बर्फ की सिल्ली बिछा दूंगा।

बगल चलती गाड़ियों को पता चलेगा क्या? आंखों पर चश्मा पहना दूंगा, मुर्दे की शायद आंखें ही सबसे पहले बदलती हैं। लेकिन चेहरा? क्या मृत व्यक्ति के अनुभावों में कुछ ऐसा होता है कि उसका भेद जीवित इंसान से किया जा सके? नकाब तो पहना नहीं सकता। उसके बगल की सीट पर तौलिया टांग दूंगा। टोल टैक्स पर लेकिन? अपनी ओर का शीशा थोड़ा सा खोलूंगा बस, छुट्टे पैसे पहले ही रखूंगा।

रास्ते में हो सकता है कोई शवयात्रा गुजर रही हो, तो क्या उन सबसे कहूंगा मुझे और मेरे मुर्दे को भी साथ ले चलो।

अगर रास्ते में मेरा एक्सीडैंट हो गया, कार चकनाचूर हो गयी, मैं मारा गया तो? मुर्दा थोड़े मरेगा लेकिन। लोगों को, राहत को आई हाईवे पुलिस को लेकिन यही लगेगा कि दो लोग मारे गये एक्सीडैंट में। यानी वह दो बार मारा जायेगा। नहीं मरेगा तो एक ही दफा, दूसरी मर्तबा तो महज मरा हुआ समझा जायेगा।

और अगर यह पूरा दृश्य दिन के बजाय रात में हुआ तो?

तुम डायरी खुली छोड़ दोगे। गर्म टोपी उतार बाल उंगलियों में जकड़ खींचने लगोगे। चार बाल उखड़ हाथ में आ भी जायेंगे। गिटार के तार से इन लच्छों को तुम टेबिल लैंप के नीचे ले जाओगे। सामने बिखरे पन्ने बौखलाये बौराये बदहवास तुम्हें देख रहे होंगे। तुम पिछले कई सालों से लैपटाॅप पर लिख रहे हो लेकिन यहां कोरे कागज ही लाये हो कि तुम्हें उस बूढ़े पर, नहीं बूढ़े पर नहीं उसके काम पर तो तुम्हारी कभी कुछ लिख पाने की हस्ती या हैसियत या औकात ही नहीं थी तुम तो महज उसकी मौत पर लिख रहे हो, लिखना है जो लिखता मिटाता कागजों के ढेर अपने कमरे में बिखेरता रहा होगा।

क्या यह आसान रास्ता? न तो तुम उसके काम पर लिख पाये न ही कोई ऐसी कहानी जिसे तुम उसे दिखला सको तो तुमने तिकड़म भिड़ाई कि उसकी संभावित मौत पर पहले ही एक मृत्युगीत तैयार कर रख लो जिसे उसकी मौत के तुरंत बाद कहीं प्रकाशित होने भेज सको और भले ही तुम्हारा अब तक का काम कचरे की पोटली हो लेकिन उस बूढ़े पर तुम्हारी यह पंक्तियां दुनिया का महानतम बिदाई गीत मानी जा सकें।

तुम दुनिया भर की भाषाओं में लिखे गये ढेर सारे शोकगीत और शोकगद्य भी इस बीच पढ़ते रहे होगे कि किसी के मरने के बाद उसे कैसे याद किया जाता होगा लेकिन क्या कोई तुम्हारी तरह भी रहा होगा जिसने किसी की मौत से पहले ही लिख दिया होगा।

क्या यह कुत्सित क्रूरता? तुम्हारे ही शहर में रहते जिस बूढ़े से मिलने की तुम्हारी कभी हिम्मत हौसला और हैसियत नहीं हुई उसकी काल्पनिक मृत्यु पर तुम लिख रहे हो। भले ही तुम उससे कई दशक उम्र में कम लेकिन यह भी तो हो सकता है तुम ही पहले मर जाओ, यानी अगर तुमने वह मृत्युगीत लिख भी लिया तो भी वह कभी सामने नहीं आ पायेगा तुम्हारी अनेक अनलिखी-अधलिखी कहानियों की तरह लैपटाॅप में ही रहा आयेगा जिनका कोई बैकअप तुम वैसे भी नहीं रखते हो जो कभी भी वायरस से उड़ जाने की धंसकती कगार पर ठहरी रहती हैं।

तुम लैदर का भूरा ओवरकोट और स्नो बूट्स पहन, कमरे का ताला लगा निकल आओगे। हवा अभी भी स्याह बाहर। शर्लक होम्स की तरह उठे तुम्हारे काॅलर। रंगीन मफलर गले में लपेटे झील की बर्फ पर आहिस्ते से कदम बढ़ाते जाओगे। पहले तुम्हें डर लगता था पैर रखते ही बर्फ की उपरी परत धंसक जायेगी, तुम ठिुठरते पानी में नीचे तक गिरते जाओगे नुकीली बर्फ देह छीलती जायेगी।

लेकिन जल्दी ही तुम्हें मालूम चल जायेगा बर्फ की परत तकरीबन नौ इंच मोटी है, उसके बाद ही पानी शुरु होता होगा। इतनी पारदर्शी होगी बर्फ कि तुम इसमें दबी कई चीजें गहरे तक देख सकते होगे — चार इंच नीचे पड़ा कोल्ड ड्रिंक की बोतल का ढक्कन, एक रंगीन पैंसिल, सात इंच नीचे दबा किसी बच्ची का लाल रिबन, गली हुई अधपिबी सिगरेट।

तुम झील पर पैर रखते बढ़ते जाओगे। गुनगुनी गुदगुदी कि तुम पानी पर चल रहे हो। जब तुम यहां आये होगे पंद्रह दिन पहले बीच दिसंबर में तब झील नहीं जमी होगी महज एक चाकू सी लकीर पानी पर लहर जाया करती होगी। तुम उंगली छुलाओगे बर्फ चिटख कर पानी बन जाया करेगी। कुछ दिन बाद बर्फ गहराने लगी थी, तुम अपना नंगा पंजा जरा सा टिकाते, तालू ठंड में सुन्न पड़ने लगता, बर्फ धंसकती, तुम पानी में भीतर समाने लगते, सुर्ख हो चुके पैर लिये तेजी से बाहर आ जाते। तुम अपनी छोटी नाव निकालते, चप्पू से बर्फ की महीन लकीर चटकती जाती और तुम हाउसबोट और वनस्पतियों के बीच नाव खेते जाते।

तुम रोज सुबह उठ डैक पर आ देखते — उंगली के पोर बराबर लकीर फैलती हुई पानी पर तिरती जाती, पारदर्शी कांच चमकने लगता और एक दिन समय ठहर गया था, झील की सतह ठोस हो गयी थी ठीक वैसी जिस पर बच्चे कुछ साल पहले विकेट गाढ़ कर क्रिकेट खेला करते थे, यह तुम्हें नाविक ने बतलाया होगा।

बर्फ के उस पार मैरिन ड्राइव होगी, पहाड़, पहाड़ी के उपर किसी प्राचीन देवता का मंदिर भी और कई बाग। गर्मियों में यहां सैलानियों की भीड़ होती होगी लेकिन इस मौसम में घनघोर उजाड़। झील की चारदीवारी फांद खाली सड़क पर आ तुम ठिठक जाओगे — हर सौ मीटर पर जाली वाला हैलमेट पहने बंदूक-खाकीधारी खड़े होंगे। क्या तुम्हें इसी शहर में आना होगा जहां इन गर्मियों और उसके बाद गिरती बरसात में एक सौ बारह इंसान मारे जा चुके होंगे, यहां के वाषिंदे अपने घर खाली कर निचले इलाकों में चले गये हांेगे? क्या तुम मृत्युगीत लिखने किसी कब्रिस्तान में आ गये होगे?

पहाड़ों से घिरा यह षहर तुम्हें कब्रिस्तान सा भी लगा करेगा है। पहाड़ियों पर ढलुआ कब्र हैं यहां। एक के बाद कब्रें उतरते पहाड़ों की सीढ़ियों पर ढलती जाया करेंगी। तुम्हारे भीतर कुछ डुबडुबाने लगेगा। तुम्हें कब्रिस्तान बहुत लुभाते होंगे। तुम्हारे स्कूल के सामने अंग्रेजों के जमाने का एक कब्रिस्तान हुआ करेगा। तुम उसकी दीवार फांद अंदर चले जाया करोगे। सौ से भी अधिक साल पुरानी कब्रों पर लिखी बाइबिल की पंक्तियां अपनी डायरी में दर्ज किया करते। तभी तुम्हें यह ख्याल आता होगा जब तुम मरोगे तो तुम्हारी कब्र पर कौन क्या लिखेगा। या शायद कोई भी कुछ नहीं लिखेगा, तुम गुमनाम ही मरोगे। तुम पूरा दिन उन गुलाबी-सफेद कब्रों के बीच उग आयी जंगली घास पर बैठे बिता दिया करते होगा। तुम्हें नहीं मालूम होगा कई सर्दियों बाद तुम खुद किसी की कब्र पर कहानी लिखने अपने षहर से दूर यहां आ जाओगे।

इस पहाड़ी शहर से घंटा भर दूर कालारूस कब्रिस्तान भी है जिसमें षुरु गर्मियों की एक बरसती रात पूरा गांव छतरी लिये इकठ्ठा हुआ होगा। रात भर तीन ताजी कब्रें खोदी जाती रहीं होंगी — उन गल चुकी लाषों के कपड़े, कलाई घड़ी का टूटा षीषा, कुंआरी कमर का तिल सब कुछ गाॅव वालों ने पहचान लिये होंगे।

दो रात पहले इन तीनों को खाकी-चितकबरी वर्दीधारियों ने सीमा पार के अज्ञात आतंकवादी बता गाढ़ दिया होगा। इनमें से एक षायद उस नाव वाले बूढ़े का बेटा होगा जो गुलेल से चिनार पर बैठे परिंदो को ताका करता होगा। लेकिन रोज रात अपने नाव के घर की दहलीज पर कांगड़ी जला देर तक बैठा रहता बूढ़ा अभी भी अपने बेटे की प्रतीक्षा में होगा।

तुम यह सभी मौत चौबीस घंटे दूर अपने अखबार के दफ्तर की खिड़की से देखते रहे होगे, अपनी कई हैडलाइंस अभी भी याद हैं तुम्हें — वैली क्राइज़ फार होप। पीस अवेट्स द वैली।

तुम्हें तो वह हैडलाइन भी याद होगी जो बूढ़े लेखक की मौत पर लिखे अपने संपादकीय पर अखबार में दोगे — अ साॅलिटरी रीपर फेड्स इन सनसैट।

हाउसबोट और नावों के बीच से हो बर्फ पर चल झील पार कर तुम मैरिन ड्र्इव पर आ जाओगे। नावों के नीचे जलमुर्गियां सो रही होंगी। गर्मियों में यह कुकड़ाती डोलती होंगी लेकिन इस बर्फ में चुप पड़ जायेंगी। कुछ दिन पहले तुम्हें यह अजीब ख्याल आया होगा कि जिस पहली रात अचानक से पानी बर्फ बना होगा सतह पर सोते ये परिंदे कांच के भीतर जम जाते तो? जिस तरह पैंसिल, बोतल का ढक्कन पारदर्षी बर्फ के भीतर झांकते हैं जलमुर्गियां भी बर्फ की सिल्ली के अंदर पसरी ताकती रहतीं।

तुम्हें यह भी लगा अगर इसी तरह तुम भी बर्फ के भीतर किसी रात कैद हो गये तो? रत्ती भर नहीं हिल पाओेगे तुम। जिस मुद्रा में फंसे होगे पूरी सर्दियां उसी तरह बितानी पड़ेंगी। अगर तुम उस समय लिख रहे हुये या अपना अंग सहला-खुजला रहे हुये तो?

बर्फ का कैदी।

तुम्हें अचानक लगेगा कब्रों की इस घाटी में यह मृत्युगीत लिखने आने का मतलब ही बर्फ का बंदी हो जाना है। तुम कांच की कई सतहों के भीतर फंस चुके होगे, चार इंच नीचे उस ढक्कन की तरह। तुम्हारी खाल चीमड़ हो चुकी होगी। सभी, दोनो बूढ़े और वह लौंग वाली लड़की भी, तुम्हें फंसा हुआ देख हॅंस रहे होंगे कि जब तक बर्फ नहीं पिघलेगी गर्मियों तक तुम यहीं अटके रहोगे। तुम्हारे सामने कागज, कलम बिखरे रहेंगे लेकिन तुम कुछ भी लिख नहीं पाओगे।

तुम सिर झटकोगे। आगे बढ़ जाओगे।

सड़क के दूसरी ओर मंदिर को जाती चढ़ाई होगी। पांच-छः किलोमीटर उपर चढ़ मंदिर के दरवाजे से सौ से अधिक सीढ़ियां पुराने काले पत्थर की। कई जगह दरार आ गयी होंगी इन पत्थरों में। सांप सी दरारें रेंगती होंगी। अगर वे सभी जो पिछले महीनों में इस घाटी में मरे हैं इन सीढ़ियों पर बिछा दिये जायें तो मंदिर के उपर तलक मुर्दों की एक लकीर बन जायेगी।

और बूढ़ा— वह शिखर पर बैठा होगा इस मुर्दों की बस्ती पर।

मंदिर की चोटी पर ठहरा त्रिशूल बर्फ में डुबडुबा रहा होगा, इस त्रिशूलधारी ने सृष्टि का जहर हलक में अपने थाम रखा होगा। क्या हर लेखक ऐसा ही नहीं होता होगा — अपने किरदारों का जहर भीतर साधे रहेगा कि वे जी सकें भले ही वह खुद प्रतिपल मरता जाये।

तुम झील के किनारे बनी दीवारी पर ठहरी बर्फ उंगलियों से साफ कर बैठ जाओगे, ठंडी चट्टान की सिहरन तुम्हारी जींस से गुजर जिस्म में उतरती जायेगी। पंद्रह दिन पहले जब तुम पहली सुबह यहां घूमने निकले होगे यह सड़क मैरिन ड्र्ाइव सी लगी होगी। वही लंबा सा घुमाव, गहरे पानी के सहारे दूर तक चलता जाता रास्ता। तुम्हारा मन हुआ होगा जहां बोलवार्ड रोड लिखा हुआ है उसे मिटा मैरिन ड््राइव कर दिया जाये। स्मृति भी विचित्र क्रीड़ा रचती होगी। नये कतरे को भी उसी आइने से देखना चाहती होगी जिससे कभी बीते हुये को समेटा था। शायद हम कभी कुछ नया अनुभूत करते ही नहीं या करना ही नहीं चाहते, बस स्मृति को ही एक अलग फ्रेम में टटोल, हासिल कर पाते होंगे। इस पहाड़ी शहर, जो समुद्र तल से कई हजार मीटर की उॅंचाई पर है, आकर भी अगर तुम अपनी रूह को कई बरस बीते अरब सागर के किनारे बसे उस शहर और उसकी रोशनियों तले कसमसाता पाते होगे तो जाहिर है न तुम कहीं आगे बढ़े होगे, वह पानी और न ही घुमावदार सड़क।

यह स्मृति और पानी की ही माया होगी कि पानी के किनारे बसे एक शहर ने अगर तुम्हें आरंभिक शब्द दिये होंगे तो इस दूसरे शहर में तुम उस बूढ़े के खामोश खौफ से मारक मुक्ति पाने के लिये आ गये होगे जिसने तुम्हें शब्द के तर्जुमे और तहजीब सिखलाई होगी। फर्क फकत इतना कि वह पानी पछाड़ मारता होगा जबकि यह ठोस सफेद हो चुका होगा। एक विषाल चट्टान।

दूर खड़ा बंदूकधारी तुम्हें देखता होगा, तुम मुस्कुरा कर हाथ हिला देते होगे। पहले दिन जब तुम यहां आये होगे और इस सुबह की सड़क पर टहलते होगे वह बंदूक ताने तुम्हारी तलाशी लेने आ गया होगा। लेकिन अब वह तुम्हें पहचानने लगेगा। उसे लगेगा तुम कोई पगलाये लड़के हो, किसी के प्रेम का गम करने यहां आ गये होगे। तुम भी उसकी बात नहीं काटते होगे, उससे ऐसा ही अभिनय करोगे कि वाकई तुम किसी मुद्दतों के विछोह से उबरने इस उजाड़ में इन सर्दियों में आये होगे।

तुम एक दूसरे से बहुत बात नहीं कर पाते होगे, वह तुम्हारी भाषा बहुत अधिक नहीं समझ पाता होगा, तुम्हारे शहर से छत्तीस घंटे दूर नीचे दक्षिण में है घर उसका। विचित्र है यह देश। तुम्हारी लिखी कहानियां तुम्हारे ही देश में न जाने कितने नहीं पढ़ पायेंगे।

लेकिन कोई तुम्हें पढ़े ही क्यों? मरियल, पिटे पिटाये शब्द। लगभग दस साल हुये जब तुमने कालेज के दिनों में शब्द से कुश्ती लड़ना अपनी नियति मान लिया था, लेकिन अभी भी तुम्हारी व्याकरण कहीं नहीं पहुंची होगी, शब्द पहली सीढ़ी पर ही अटके पड़े हैं, अक्षर तलछट पर तड़प रहे हैं। तुम सुबह से लैपटाप खोल बैठ जाते होगे, दोपहर तक भी स्क्रीन साफ रही आती होगी। दसियों गिलास पानी खुश्क हलक में उड़ेलते रहोगे, कमरे में कूद फांद, त्रस्त और पस्त हो अपने जिस्मानी शरारों को छेड़ते होगे, कुछ हाथ नहीं लेकिन। तुम्हारे हाथ में सिर्फ तुम्हारा हाथ बचा रहा करेगा।

म्यूजिकल चेयर्स के खेल की तरह एक अधूरी कहानी से दूसरी की ओर भागते-घिसटते, स्खलित होते रहा करोगे। कोई किरदार तुम्हारे गुमनाम गुनाहों की पतित पोटली थामने नहीं आयेगा। अपने शब्दों से रिसते तुम्हारे पापों के लहू में सिर्फ तुम्हारी देह ही लिथड़ती, गंदली होती जायेगी।

कितने स्वार्थी हो तुम। यहां भी उस बूढ़े को कुछ अर्पित नहीं करना चाहते, मूल आकांक्षा तुम्हारी खुद को बचाने, सदियों से ढोते आये पापों की पोटली उतार फेंकने की ही होगी। तुम यह मृत्युगीत लिखना ही क्यों चाहते हो? क्या तुम्हें यकीन है इसे लिख तुम उन अज्ञात-अनजाने गुनाह, पाप से उबर जाआगे जो तुम्हारी न लिख पाने की नपुंसकता से उबरते हैं, तुम्हारी गरदन दबोच दम घौंटते है? क्या इस बूढ़े की धधकती चिता तुम्हारे लिये किसी यज्ञ सी होगी जिसकी लपटों में अपनी रूह, उसकी स्मृति में कहे अपने शब्द, अर्पित कर तुम मुक्त हो सकोगे? और अगर इसे नहीं लिख सके तो? तुम्हारी बाकी लिखे की तरह यह शब्द भी निरे नपुंसक रहे आये तो?

तुम झटके से उठ खड़े होगे। अपने गलीज़ स्वार्थ की अरगनी पर लटके अपने गुनाह कब तक सुखाते रहोगे। अब तक तुम जीवित मनुष्यों के जख्मों से अपनी कहानी के तंतु बुनते आये होगे, लेकिन इन सर्दियों में उस बूढ़े की कपाल क्रिया करने आ गये होगे। उसकी राख से अपने कागज रंग, इबारत रच देना चाहते होगे।

तुम हांफते हुये गुफा की चढ़ाई चढ़ने लगोगे जहां सदियों पहले एक संत ने धूनी रमाई थी। बिछी कब्रों के बीच तुम ठहरते-ठिठकते चलते जाओगे। हवा अभी भी स्याह होगी लेकिन बर्फ पर चांद आ ठहरेगा, पगडंडी चलती चमकती चलेगा। तुम पैर बचाओगे कहीं कब्र पर न पड़ जाये। कुछ कदम चल बजाय गुफा जाने के जंगल की ओर मुड़ जाओगे, जहां उस बूढ़े की शवयात्रा गुजर रही होगे।

तुम उसकी चिता के सामने खड़े होगे। एकदम अकेले। उसकी शवयात्रा में अनेक लोग होंगे लेकिन धीरे धीरे सभी गायब होते जायेंगे और अब सिर्फ तुम बचे होगे। एक उजाड़ जंगल होगा। बर्फीला, बीहड़, बियावान। तुम अकेले उसकी काठी कंधों पर थामे चल रहे होगे। प्राचीन वृक्षों की झूलती हवाई जड़ों के बीच उसे आहिस्ते से हवा में ही टांग दोगे। पेड़ों से काटकर जमीन पर लकड़ियां बिछाओगे। बीच बीच में उसे भी देखते जाओगे कि उसकी बूढ़ी काया को भस्म होने के लिये कितनी लकड़ियों की जरूरत होगी। अखीर में उसे लकड़ियों पर लिटा दोगे।

तुम्हें यह गुनाह कतई नहीं कौंचेगा-कचोटेगा कि तुम उसकी अंतिम यात्रा पर उसे सबसे दूर ले आये होगे। तुम कोई अघोरी होगे। वह सफेदी लपेटे लेटा होगा।

तुम उसका चेहरा उघाड़ोगे। वह हॅंस रहा होगा। धीमे से आंख मिचकायेगा।

— तुम फिर आ गये?

तुम चुप रहोगे

–तुम नहीं मानोगे?

तुम चुप रहोगे

–तुम इसी तरह घुटते हुये मरोगे?

तुम चुप रहोगे

–तुम हमेशा चुप ही रहोगे?

तुम चुप रहोगे

वह अट्टाहस करने लगेगा। तुम भागोगे। वह अपनी चिता से उठ तुम्हारे पीछे चलता आयेगा। उसका एक कदम तुम्हारे साढ़े बारह कदम। वह अपने कपड़े फाड़ने लगेगा — उन चिंदियों से शब्द उड़ कर बिखर जायेंगे, उसकी आंखों से अक्षर टपक रहे होंगे, आकाश में नयी कहानी लिखते जायेंगे।

तुम जंगल को पीछे छोड़ हांफते भागने लगोगे। मंदिर की बुर्जी धुंधलाने लगेगी। तुम्हारे खुले मुंह से बाहर निकलती जीभ से पसीना टपक रहा होगा। तुम पक्की सड़क पर आओगे। पहाड़ों की बर्फ नारंगी होने लगेगी।

यह पंद्रहवां दिन है।

तुम्हारा।

इस षहर में।

तुम रोज पहाड़ी चढ़ोगे, उतरोगे। उस मौसम को याद करते हुये जब तुम बूढ़े के मायालोक में दाखिल हुये होगे, उसके तिलिस्म के फंदी होते गये होगे। वे खब्ती किरदार, एक खब्त फकत पर जिंदगी लुटा देने को बेचैन। सुर्ख स्याह रस्ते जहां जितना आगे बढ़ो उतना ही वापस लौटना महसूस होता चलता था। कुछ कथायें ऐसी भी होतीं होंगी जिनसे गुजर आप अखीर में पीछे बहुत पीछे ही लौटते थे। ये कथायें आपको कहीं ले पहुंचाने का दावा या वायदा नहीं करतीं होंगी, इनके पास सपने नहीं होंगे, आकांक्षा न महत्वाकांक्षा। फकत आदिम तड़प होगी इनके लफ्जों की रूह में बजती हुई जिसके सहारे चल कहीं पहुचने की ख्वाहिष रखना बेमानी होगा। यह कसक अनिवार्य, अपरिहार्य, अनुद्धार्य होती होगी।

ऐसी ही किसी मायावी रात तुम्हें लगा होगा यह शायद, नहीं शायद नहीं वाकई, इसलिये ही घटित हो रहा होगा कि तुम इसकी कथा कह सको। कहानी तुम्हारी उंगली या शायद तुम उसकी बांह थामे चल रहे होगे कि दोनो ही किसी सम्मिलित मुकाम पर पहुंच सकें। तुम कथा के वाहक हो या कथा तुम्हारी सारथी इसका जवाब बेमानी होगा। मारके की बात फकत यह कि तुम इस मायावी कथा में होगे जिसके दो किरदार होंगे — तुम और बूढ़ा। कौन किसे रच रहा होगा लेकिन — तुम बूढ़े को लिख रहे होगे या वह तुम्हें कह रहा होगा?

यह बूढ़े की अंतिम कथा होगी जो तुम्हारा पहला कलाम होने वाली होगी। यह तुम्हारी पहली कथा होगी जो बूढ़े का अखीरी दस्तावेज बन जाती होगी। तुम दोनो ही एक दूसरे को लिख रहे होगे शायद। तुम उसकी मृत्यु, वह तुम्हारा जन्माक्षर रच रहा होगा।

यह तुम बर्फ की एक रात मैरिन ड्राइव पर टहलते महसूस करोगे। तुम उसकी मौत का सबसे निणार्यक पाठ कह देना चाहते होगे, लेकिन तुम्हें मालूम भी न चलेगा उसकी रूह चैबीस घंटे दूर से भी तुम्हारे पीछे चली आयेगी, तुम्हारे अनजाने ही तुम्हें लिख जायेगी। तुम उसकी मौत नहीं खुद अपना पुनर्जन्म लिखने लगोगे। उसकी हांफती सांसें पीछे रह जायेंगी और उसकी डूबती स्याह परछांई की आड़ में तुम अपने भावी उजालों का सपना देखने लगोगे।

तुम कुछ नहीं लिख पाओगे, कभी भी नहीं, कुछ भी नहीं।

चैबीस जनवरी, दो हजार ग्यारह। श्रीनगर। रात साढ़े बारह। कल सुबह निकलना है। हाउसबोट के डैक पर खड़ा हॅूं। आज कम सर्दी है झील नहीं जमेगी षायद। कुछ दिनों से ठंड उतर रही है। नीचे मैदानों में गये लोग वापस लौटने लगे हैं। मेरे जाने के दिन नजदीक आने की वजह से षायद। अभी बाहर आया तो देर तक बिजली का स्विच नहीं मिला। अंधेरे में लकड़ी की दीवार टटोलता, कांच के दरवाजे से पर्दा हटा बाहर

झांकता रहा। सफेद पानी में लकड़ी की मालगाड़ी के चमकते डिब्बे। सामने पहाड़ी पर षंकराचार्य की गुफा, सीआरपीफ कैंप, प्रसार भारती केंद्र, पीछे हजरतबल दरगाह और बीच में पानी। किसी मिथक की गोद में रहा था मैं चालीस दिन। फोन बंद कर, बिना ईमेल की फिक्र किये।

सिर्फ मैं और दो बूढ़े थे यहां। लेकिन नहीं। सिर्फ मैं ही था। पहले मुझे संदेह होता था सामने की हाउसबोट में रहता बूढ़ा क्या मेरा फितूर ही तो नहीं लेकिन कुछ दिन हुये अब आष्वस्त होने लगा हॅूं कोई है ही नहीं कहीं। चैबीस घंटे दूर रहता डैस्क पर झुका वह बूढ़ा भी षायद मेरी ही निर्मिति है। सिर्फ मैं हॅूं और मेरे फितूर यहां। हर शै में किरदार टोहने-टटोलने का मेरा शगल ही था कि मैंने एक मरता, बूढ़ा लेखक गढ़ दिया था जिस पर मृत्युगीत लिख मैं अपनी प्रेत मुक्ति चाहता था जिस तरह यह बूढ़ा मैंने रचा था जिसका बेटा गर्मियों में चार गोलियां अपनी छाती पर खा गया था, कब्रिस्तान में दफन हो गया था लेकिन वह बूढ़ा इसे मानने को तैयार नहीं था। डैथ आन द मूनलैस नाइट के बूढ़े पिता की तरह जो युद्ध में षहीद हुये अपने बेटे की मौत को नहीं स्वीकारता है, तब भी नहीं जब लकड़ी के ताबूत में बंद उसकी देह को सेना के अधिकारी पूरे सम्मान से गांव के खेत में गाढ़ देते हैं। कई रात बाद, एक बिना चांद की रात वह अंधा पिता अपने बेटे की कब्र खोदने निकलता है, हाथ से जमीन टटोलता मिट्टी हटाता है, लकड़ी का ताबूत बौराती बिफरती उंगलियों से खोलता है — उसकी उंगलियों से महज खुरदुरी चट्टानें टकराती हैं।

अपने रूहानी फितूरों का ताबूत खोलूं तो मुझे भी षायद पत्थर ही मिलेंगे कोई चेहरा नहीं बनेगा।

आईपौड पर होटल कैलिफार्निया चलता रहा। मैं देर तक बाहर डैक पर खड़ा रहा। आज नहीं समझ पा रहा हूं लेकिन एक दिन मुझे याद आयेगा। आज इस पानी, बर्फ, मंदिर की बुर्जी को एहसास नहीं लेकिन एक दिन, बरसों बाद ही सही, इन्हें भी याद आयेगा — कोई आया था एक सौ बारह मौतों के बाद की इन सर्दियों में, जब घाटी से खौफ उतरने लगा था, बर्फ पिघलने लगी थी, समय फिर से बहने लगा था, रंगीन स्कार्फ वाली लकड़ियां सुबह सुबह षिकारे चलाती मदरसे जाने लगीं थीं, उनके चप्पू की टकार से बर्फ की परत चटक जाया करती थी, बत्तख और जलमुर्गियां झिझकती ही सही लेकिन पानी को छूने आ जाया करती थीं, दरगाह का हरा रंग फिर से खिलने लगा था — उन सर्दियों में एक लड़का अपने जीवन की सबसे निर्णायक कथा यहां कहने आया था और इस पूरे चांद की रात जो पिछली कई रातों सी ठंडी नहीं थी, अपने लकड़ी के घर की बालकनी में आया था कमरे में सुलगती बुखारी को पीछे छोड़…. देर रात ठंडे पानी के सामने बांहें फैलाये खड़ा रहा था।

हाउसबोट से सटी एक छोटी सी नाव के नीचे दो बत्तख और तीन जलमुर्गियां चुपचाप सोती रहीं थीं।

दस बरस हुये तुम बूढ़े से रूबरू हुये थे पहली मर्तबा। लेकिन तुम्हें बूढ़े ही क्यों लुभाते हैं? झील की दीवारी पर बैठे तुम सड़क के किनारे दूर तक चलते गये यूकेलिप्टस पर टंगी बर्फ के झर जाने का अनुमान लगाओगे कि बूढ़ी नंगी टहनियां कैसी लगेंगी। बूढ़े वृक्ष, बूढ़े जानवर, बूढ़ी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें, बूढ़ी किताबें — लंबी फेहरिस्त है। सड़क पर किसी बूढ़ी गाय को देख उसकी गरदन के नीचे लटकता गुलगुला मांस तुम देर तक सहलाते रहते हो। तुम तो सालों बूढ़े अखबार भी घोट कर पढ़ते होगे। पुराने अखबार पढ़ना तो तुम्हें प्रिय किताबों से गुजरने से भी रोमांचक लगता होगा। हर बार ऐसा होता होगा कपड़ों की अलमारी साफ करते में नीचे बिछे कई साल पुराने अखबार तुम लेकर बैठ जाते होगे, बिखरी अलमारी से कपड़े झांकते रहा करेंगे। खेल और सिनेमा की वो खबरें जो तुम्हारी उम्र के बीते मौसम में हुईं थीं, तुम घंटों उन पीले पन्नों को पलटते रहते होगे।

क्या तुम इस बूढ़े में अपना बुढ़ापा देखते होगे?

विचित्र खेल है यह -कौन किसके पीछे पड़ा होगा? बूढ़े के साथ तुम्हारा यह खेल बहुत पुराना होगा। षुरुआती दिनों में तुम उसकी, उसके किरदारों की हरकतों की नकल किया करते होगे। मेज पर चढ़ कुर्सी पर लिखते होगे, कमोड पर बैठ कागज छीलते रहोगे, काले कौए की तरह आइने पर चैंच मारोगे पलट कर भूरा उल्लू तुम्हें घूरता रहेगा। तुम्हें लगेगा, कितना बेवकूफ ख्याल होगा यह, इन हरामी हरकतों की पूंछ पकड़ तुम बूढ़े के उपर चढ़ जाओगे लेकिन बूढ़ा दुलत्ती मारेगा तुम लुढ़क जाओगे।

कभी तुम्हें लगेगा तुम और वह बूढ़ा सियामीज जुड़वां हो, तुम दोनो ने भले ही कलैंडर की दो अलग तारीखों से षुरुआत की होगी लेकिन तुम्हारी देह के खोल के भीतर उसकी रूह का आलाप गूॅंजता होगा, तुम्हारी रूह के दाने को उसकी देह का छिलका समेटे रहता होगा। वह बूढ़ा जो तुमसे कभी नहीं मिला भी तुम्हें भी अपने भीतर बजता हुआ पाता होगा। तुम कई रातों में छटपटाते उठ जाओगे, अनगिनत सांप तुम्हारे भीतर रेंगने लगते होंगे, तुम इसे अपनी डायरी में दर्ज करोगे और कुछ बरस बाद उसकी प्रकाषित डायरी पढ़ तुम्हें मालूम चलेगा यह वही रात होगी जब वह बूढ़ा अपने अधूरे उपन्यास की खाल खींच रहा होगा। हांलांकि तुम्हें ठीक तारीख नहीं मालूम लेकिन उसने अपना महानतम उपन्यास उसी साल पूरा किया होगा जब तुम्हारा जन्म हुआ होगा। तुम दावे से कह सकते होगे उसका अंतिम ड्राफ्ट उसी आधी रात पूरा हुआ होगा जब तुम अपनी मां की कोख से आ चिल्लाये होगा, जिस लम्हे किसी दूसरे षहर में रहता वह बूढ़ा अट्टाहस करता अपने कागजों को ले अपने कमरे से बालकनी में आ कूदने लगा होगे।

तुम अक्सर अपनी और उसकी जन्मतिथियों से गणित के खेल खेलते रहते होगे। दोनो का जोड़ समान है, आपस में गुणा या भाग करने पर एक ही संख्या आती है, उसकी तारीख उल्टाने पर तुम्हारा जन्म हो जाता है, तुम्हारी तिथियां उलट देने पर वह पैदा होने लगता है।

इसलिये तुम्हें यह भी लगता होगा उसकी मौत पर तुम्हारी सांस बुझ जायेगी कि मृत्युगीत आखिरकार निस्सार निरर्थक ही रह जायेगा। तुम्हारे कागजों का ही कैदी।

जब पहली बार अलाव के सहारे बैठे उस नाव के बूढ़े ने तुम्हें अपने खोये बेटे के बारे में बताया होगा तो तुम्हें लगेगा तुम भी चैबीस घंटे दूर रहते उस बूढ़े की संतान ही हो वह भी तुम्हारी इसी तरह प्रतीक्षा कर रहा होगा रोज रम का गिलास ले अपनी बालकनी पर बैठा रहता होगा लेकिन तुम उससे मिलने से अभी तक बचते रहे होगे कि अपने पिता का सामना करना तुम्हारे लिये कभी आसान नहीं होगा कि दरअसल तुम उस बूढ़े पर नहीं अपने पिता पर मृत्युगीत लिखने, उनका श्राद्ध करने यहां आ गये होगे जबकि तुम्हारे पिता इस वक्त दूर घर में अखबार पढ़ रहे होंगे।

लेकिन यह सब फालतू और फिजूल के फितूर हैं। मुर्दा लिपि के मुहावरे हैं, भुतैली भाषा के भाव हैं, बीते व्याकरण की बातें हैं। जल्दी ही तुम्हें मालूम हो जायेगा कोई बूढ़ा कहीं होगा ही नहीं। आत्म छलावे के तिलिस्म में सोये खोये रहते तुमने फिर से एक मायावी क्रीड़ा को रचा होगा। तुम एक लीलामयी कथा में होगा, लीलारत कथा को कहना चाहते थे। तुम इन सर्दियों में अपने षहर से कहीं दूर नहीं गये होगे, कोई झील ठंड में नहीं जमी होगी कहीं, न ही तुम चप्पू से बर्फ तोड़ते झील पर नाव को खेते गये होगे। तुम दरअसल पूरी सर्दियां छुट्टी ले अपने कमरे में बंद रहे होगे। वह बूढ़ा जिसका बेटा गायब हो गया होगा, वह सीआरपीफ का जवान जो सर्दी बीत जाने की प्रतीक्षा कर रहा होगा कि अपनी पत्नी के पास छुट्टियों में जा सके, बुखारी में जलती लकड़ियां जो रात भर तुम्हें गर्म रखतीं होंगी और वह बूढ़ा जिससे भाग तुम यहां आ गये होगे — यह महज कथा की ही भूख होगी। कथा का ही आहार सब जो धूप तीखी होने तक कहीं नहीं होगा। तुम्हारी हथेली पर ठहरा बर्फ का गोला जिसे तुम कोई जादुई दर्पण मान उसकी पारदर्षी चमक में अपनी नियति टटोलने लगोगे लेकिन जो आकाष पीला होने पर पिघल जाया करेगा।

बर्फ तो मायावी हो ही सकती होगी खैर, कुछ बूढ़े भी तिलिस्मी हुआ करते होंगे। तुम खुद भी तो बूढ़े ही होगे, अकेले मरते अरूप बहुरूपिये बूढ़े, जो किसी लड़के के भेस में अपने को ही केंद्रित इस मृत्युगीत को, इस कथा को, लिखना चाहते होगे।

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4 Comments

  1. ek behatreen kahani jisamen dwnd aur ghutan sakkar
    ho rahen hain .. trasadi ki ladiyon men piroye hue bhaaw hain .

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