जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

वनमाली कथा पत्रिका के फ़रवरी अंक में युवा लेखिका प्रियंका दुबे की कहानी प्रकाशित हुई थी। वह कहानी आज आपके पढ़ने-विचारने के लिए प्रस्तुत है। इसके लिए विशेष रूप से भूमिका लिखी है हिन्दी-अंग्रेज़ी की जानी-मानी लेखिका अनुकृति उपाध्याय ने- मॉडरेटर 

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प्रियंका दुबे का लेखन मुझे तब से प्रिय रहा है जब से मैंने उनकी स्त्रियों पर हिंसा विषयक कथेतर पुस्तक ‘No Nation For Women’ पढ़ी। फिर उनकी नए भाव-संवेदनों से भरी बेहद सुंदर कविताएँ पढ़ कर मुग्ध हुई।प्रियंका की पहली प्रकाशित हिंदी कहानी को पढ़ कर बेहद उत्साहित हूँ। साहित्य के सत्य शिव सुंदर वाले सौंदर्यबोध को चुनौती देता हुआ apocalypse वाला कथ्य और उसका गहन परिवेश-परक विन्यास हिंदी कहानी में ताज़ा प्रयोग है। कहानी अंत की वीभत्सता को रेखांकित करती है। उसका मूल तत्त्व विभीषिका है, हमारे किए कृत्यों का सदमा है, मनुष्य और मनुष्यत्व का अवसान है। लेकिन समय में अनायास आगे और पीछे घटती विश्व-ध्वंस की इस कहानी में विनाश की जुगुप्सा के पंक में धँसी मोती सी एक प्रेम-कथा भी है। मरते मनुष्य की अंतिम मंगल कामना सा प्रेम का यह कथा-सूत्र सर्वनाश की त्रासदी की सघनता को बढ़ाता है, घटाता नहीं। अंतिम मनुष्य की बची-खुची मानवता आत्म-घृणा में सनी यातना से तिल-तिल मरती है। मेरे डिस्टोपिया से मुँह चुराने वाले और बला के आशावादी पाठक-मन को भी कहानी का गहन निर्मम माहौल ग्रस गया, एक विकट सम्मोहन में कहानी पढ़ी और बहुत देर तक भाव-विमोहन में बूड़ी रही। अब आप भी पढ़िए और कहिए- अनुकृति उपाध्याय 

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आँख खुलते ही दायीं हथेली पर नज़र पड़ी। जो घिनौना लिसलिसापन उसे नींद में सता रहा था, वह अब नींद से निकल कर उसकी हथेली पर पसर आया था। गोंद की तरह चिपचिपाता हुआ एक चीकट धब्बा जो उस क्षण उसकी पूरी हथेली पर फैला हुआ था- और धब्बे के ऊपर सड़ रही थी उस कबूतर की टूटी हुई मुंडी।

धड़ अभी मुंडी से अलग नहीं हुआ था लेकिन कुछ खिसक कर उसकी हथेली से ज़रा नीचे पड़ा हुआ था। जो नींद में डूबी आँखें अब तक धीरे धीरे खुल ही रही थीं, वे माथे पर तेज़ धूप के पड़ने से अगले ही पल एकदम चौंधिया सी गयीं। लेकिन धूप से भी पहले वह चीटियों के काटने से कसमसा कर उठा था।

पहले तो उसे समझ नहीं आया कि क्या है जो उसकी हथेली का खून नीचे की ओर खींचे जा रहा है? ग्रैवेटी क्या अब हथेली में बहते खून पर भी काम करने लगी है? क्या उसकी हथेली पर फैले चीकट काले धब्बे के नीचे कोई फोड़ा पनपा है या कोई जोंक है जो चमड़ी के भीतर छिप कर खून उल्टी ओर उड़ेल रहा है? चुभन इतनी जोर मच रही थी जैसे कोई हथेली काट कर ही अलग कर रहा हो। दर्द से बेहाल वह उठकर उसी कीचड़ में बैठ गया, जिसमें गई रात थक कर गिर पड़ा था। नज़र भर के देखा तब समझ आया कि कबूतर के पंखों से रिसते ताज़ा खून की महक ने चीटियों के पूरे हुजूम को उसकी हथेली पर खींच लिया था।

वह हाथ झिड़कता हुआ खड़ा हो गया।
ठीक सामने कीचड़ में लिथड़ रही कबूतर कि देह उन सभी दुःस्वप्नों का द्योतक थी जो बीते दस दिनों में उसके जीवन में घटित हुए थे।

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मरने से कुछ पहले

विश्वास नहीं होता कि यह जीवन है! मेरा जीवन?!

आज दसवाँ दिन लग गया और ताज़े अन्न का दाना तो क्या, सड़ा, बदबू मारता, कीचड़ में लिपटा अन्न तक नसीब नहीं हुआ। सड़ी-गली गंदी रोटी भी हाथ आ जाती तो मैं उसे किसी गढ़हे के पानी से निकालकर खा लेता। लेकिन इतने दिन हुए, कुछ नहीं मिला। इस तबाही में मिलेगा भी क्या? कुछ भी तो नहीं बचा, जब कुछ नहीं बचेगा तो सिर्फ़ खाना कैसे बच जाएगा? इतना भूखा हूँ कि भूख की चेतना भी जैसे मुझसे खोती जा रही है। और मेरा पेट? पेट पीठ से इस कदर चिपक गया है जैसे अब सिर्फ़ पसलियों की हड्डी पर चमड़ी लटकी पड़ी हो। बाजुओं और जाँघों पर जो थोड़ा बहुत माँस मैंने बरसों वर्जिश कर कर के सजाया था, उसका तो अब चौथाई भी नहीं बचा है। मुझे लगता है जैसे उसी माँस को खाकर मेरे शरीर ने मुझे अब तक ज़िंदा रखा है। अपने ही शरीर के ‘कीटोसिस’ से चल रहा हूँ मैं। भूख से मरने वाला आदमी ऐसे ही मरता है…धीरे धीरे कंकाल में बदल कर। मैं भी मर ही जाऊँगा। लेकिन जब तक ज़िंदा हूँ, तब तक तो मुझे खाने की तलाश जारी रखनी होगी।

यह कबूतर जिसका मिट्टी में डूबा मृत शरीर इस क्षण मेरे पैरों के पास पड़ा है, अभी दस दिन पहले तक फ़ूजी के सीने पर इतने रौब से चलता था जैसे वह मेरा नहीं, इस परिंदे का प्रेम हो!

महज़ परिंदा तो यह कभी था भी नहीं। मेरी फ़ूजी का लाल आँखों वाला अरस्तू था। मैं चिढ़ता था बहुत इससे। कोई कबूतर का नाम अरस्तू रखता है भला? वह भी लाल आँखों वाले जंगली कबूतर का? लेकिन फ़ूजी थी ही ऐसी। यह जंगली कबूतर भी उसके प्यार में इतना पालतू हो गया था जैसे उसी का कोई बिसरा हुआ जुड़वाँ हो। जिस रोज़ क़स्बे में आग लगी, उस सुबह फ़ूजी इन साहब को ‘मेरा बिट्टू अरस्तू, मेरा मिट्ठू अरस्तू’ कहकर दुलार रही थीं।

सपने जैसी सुबह थी वो!
या क्या मैं अभी सपना देख रहा हूँ? काश यह सपना ही हो ! क्योंकि इतना विकट सर्वनाश तो किसी डरावने सपने में भी नहीं हो सकता जितना बुरा अब वास्तव में हो रहा है। मेरी इन दो आँखों से तो जैसे ठीक-ठीक थाह भी नहीं मिलती- कि क्या और कैसे नष्ट हो चुका है। या क्या बचा है, यह सोचना ज़्यादा मुफ़ीद होगा? कभी कभी लगता है भूख-प्यास कि वजह से ख़्वाब और हकीकत का अन्तर मेरे ज़ेहन में गड्ड-मड्ड होता जा रहा है।

इस कयामत के बीच खड़े होकर मुझे फ़ूजी के साथ गुज़ारी वह आख़िरी सुबह इतनी याद क्यों आ रही है? जैसे मेरा चारों तरफ़ सब ख़त्म हो गया, उसी तरह जल्द ही मैं भी ख़त्म हो जाऊँगा। इस प्रलय में दस दिनों तक मुझे बदसनीब के सिवा कौन ज़िंदा बच सकता था? कोई भी तो नहीं बचा! इतने दिनों से भटक रहा हूँ। न कोई आदमी ज़िंदा नज़र आता है, न आदमी की जात, न जानवर और न ही परिंदे।

सिर्फ़ चीटियाँ बचीं हैं और चीटियों से भी बत्तर, मैं।
अगर मुझे जल्द ही कुछ खाने को नहीं मिला तो मैं भी मर ही जाऊँगा।

बल्कि बहुत संभव है कि जानलेव दलदल में तब्दील हो चुकी इस धरती पर शायद आज यह मेरा आख़िरी दिन हो। आज ही प्राण निकल जाएँ तो मुझे भी मुक्ति मिले। कब तक भूखा भटकूँगा? इंसानों की लाशों को पीछे छोड़ना जैसे कम था जो अब इस परिंदे की लाश मेरी सामने आ पड़ी है। क्या करूँ इसका?
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पहली चिंगारी

धरती को सूरज का पास आना मार रहा था। लेकिन सूरज से भी पहले उस पर जीने वाले बाशिंदे खुद ही अपने सुंदर घर में तीली लगा रहे थे। उसका और फ़ूजी का घरौंदा जितना सूरज के ‘पास आने’ ने तोड़ा, उससे कहीं पहले उन लोगों ने– जो खुद को इंसान बताते लेकिन जिनके भीतर मनुष्यता का कोई कतरा बाकी न था। ऐसे में एक सवाल उठ सकता है कि इस हरे-भरे ग्रह पर पहली चिंगारी आख़िर लगायी किसने थी?

धर्म और कबीले नाम की कोई बला इंसानों ने बनाई थी- धर्म, जो सबको अपना ही सर्वश्रेष्ठ लगता था। उन दोनों में से कौन किस धर्म का था– यह ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता, लेकिन बताया जाता कि उसका धर्म फ़ूजी के धर्म से अलग था।

असल में शुरूआत उनके कबीलों के अलग-अलग होने से जुड़ी फ़ौरी गप्प से हुई। फिर अचानक एक दिन उनकी जाति जुदा होने की खुसफुसाहट घर-घर फैल गई। इससे पहले कि वह और फ़ूजी कुछ सम्भाल पाते, उनके धर्म मुक्तलिफ़ होने की बात कस्बे की हवा में जैसे ज़हर की तरह घुल चुकी थी। हालाँकि उन दोनों में से कौन किस कबीले, जाति या धर्म का था, ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता था। उन दोनों ने किसी को बताया नहीं और किसी ने उनसे पूछा भी नहीं। पूछने का सवाल ही नहीं था। क्योंकि यह वह समय था जब ‘पूछना’, ‘मालूम करना’ या ‘सच’ जैसे मूल्य इंसानी परवाह की परिधि के पार, हास्य की गर्त में गिरे जा रहा थे। गिरते ही जा रहे थे। ‘तथ्य’ पर आधारित ‘सत्य’ को तो कबका एस्केप वेलोसिटी से पृथ्वी के परे फेंका जा चुके थे।

जैसे कोई आँधी चली थी उन दिनों। जब पूरी धरती पर एक धर्म के लोग ख़ुद अपनी सत्ता सिद्ध करने के लिए दूसरे धर्म के लोगों के क़स्बे जलाने लगे थे। लेकिन बात सिर्फ़ धर्म पर ख़त्म भी नहीं होती थी। वह तो सिर्फ़ बँटवारे का शुरुआती बिंदु भर था। फिर बात जातियाँ और कबीलों से होते हुए ज़मीन-पत्थर, जंगल, नदी, पहाड़ और समंदर के हिस्सों के लिए होने वाली जानलेवा लड़ाइयों तक खिंच जाती थी। धरती के लोग सूरज से बेख़बर हो एक दूसरे के घर जलाने में डूबे हुए थे। तब उन्हें पुख़्ता अंदाज़ा नहीं था कि जिस गति से धरती पर बर्फ पिघल रही थी, उससे तो पास आता सूरज बहुत जल्द ही पूरी धरती को निगल जाने वाला था। पुख़्ता क्या, मामूली अंदाज़ा भी नहीं था।

धर्म की इस लड़ाई की शुरुआत फ़ूजी के कस्बे से हुई थी। वहीं लगी थी पहली चिंगारी।
वह फ़ूजी और अरस्तू के साथ अपने लकड़ी के मकान के छज्जे वाले कमरे में सारी रात सोता रहा था। दोनों प्रेमी सुबह अपने बिस्तर में नंगे पड़े थे जब अचानक किसी बड़ी चट्टान के गिरने की सी आवाज़ आयी। और उनके घर का दरवाज़ा तोड़ दिया गया। अगले ही पल धड़धड़ाती हुई भीड़ तेज़ी से सीढ़ियों चढ़ रही थी।

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धरती पर बचा आखिरी आदमी

क्या मुझे भूख की वजह से फ़ूजी की इतनी याद आ रही है? उसको याद करने से भूख से ध्यान हट जाता है। फिर सोने का मन करता है। उसकी बाहों में सोने का।

उस सुबह भी तो मैं फ़ूज़ी की बाहों में ही सो रहा था। हमने कितना प्रेम किया था सारी रात। सुबह तीन बजे जब मैंने एक बार फिर से उसे चूमना शुरू किया तब मुझे रत्ती भर भी इल्म नहीं था कि फ़ूजी की नाभि को मेरा यूँ चूमना अब आख़िरी बार होगा। उसकी नींद में डूबी उँगलियाँ मेरे बालों में जिस इच्छा से फिसल रही थीं, वासना की उस तीव्रता से मुझे विश्वास होता था कि वह मुझे उस क्षण भी उतना ही चाहती थी जितना तब जब हम पहली बार मिले थे।

हमारी सरगोशियों ने पलंग के उस पार सो रहे अरस्तू साहब की नींद में भी खलल कर दिया था। ठीक ही तो हुआ था। जब ‘इश्क खलल है दिमाग का’ तो फिर इस कबूतर की नींद भी क्यों न खुल जाती?

क्या हो रहा है मुझे?
भूख से मर रहा हूँ और शायर याद आ रहा है? वह भी उस दिल्ली का शायर जो अब कहाँ बिला गई, किसी को नहीं मालूम! वैसे, मालूम करने वाला भी कौन बचा है? सात बार उजड़ी-पर हर बार बर्बाद होकर भी आबाद होती रही थी दिल्ली। लेकिन इस बार? इस बर्बादी से तो कोई वापसी संभव नहीं। मेरे सामने मरा हुआ परिंदा पड़ा है, कीचड़ में डूबा हुआ। इसके मुलायम पखों को चीटियाँ चूस रही हैं। लेकिन मुझे उस आखिरी रात इसका नींद से उठाना याद आ रहा है? इश्क़ और उसमें पड़ने वाले खलल की बात कर रहा हूँ?

फ़ूजी को गालिब बहुत पसंद था। उस शायर को याद कर वह न सिर्फ़ उसके कलाम पढ़ती थी बल्कि आम भी खाती। हर बार जब गर्मियों आती तो ‘बाहर जा रहे हो तो गालिब के प्यारे आम लेते आना’ की पुकारें घर से दरवाज़े से ही मेरा पीछा करने लगतीं।

हाँ, अरस्तू ने कभी आम नहीं खाए। आम से ज़्यादा यह मेरी और फ़ूजी की जाना खाता था। दिन तो दिन, रात में भी अपनी लाल आँखों से हमें टकटकी बांधे ताका करता। जैसे उस रात देख रहा था…

हमारे साथ कभी कोई कुत्ता या बिल्ली नहीं रहा इसलिए मुझे नहीं मालूम कि इंसान पालतू जानवरों के सामने संभोग कैसे करते हैं। क्या जानवर हमें रातिरत देखकर समझ जाते हैं कि उनके साथ रहने वाले मनुष्य किस घने प्रेम में डूबे हुए हैं? क्या हमें प्रेम करता देख उन्हें भी अपने साथी की याद आती है? क्या कबूतरों को मनुष्य का प्रेम समझ में आता है? क्या अरस्तू को समझ में आता होगा कि मैं उसकी फ़ूजी को चूम रहा हूँ? या यह सिर्फ़ मेरी कस्बाई मानसिकता है जो इस कदर बेफिज़ूल बातें उन घंटों में सोच रही है जो शायद मेरी मौत के पहले के कुछ आख़िरी घंटे हो सकते हैं? मुझे इस वक़्त खाना ढूँढना चाहिए लेकिन मैं न जाने क्या क्या सोच रहा हूँ।

लेकिन इस तबाही में खाना मिलेगा कहाँ? शायद फ़ूजी के बारे में सोचने से मौत थोड़ी आसान हो जाए !

बहुत मुमकिन है कि अरस्तू बरसों हमारे साथ रहते हुए भी अपने भीतर के परिदें के पूर्ण आदिम स्व को बचाए हुए जीता रहा हो! आख़िर था तो वह एक जंगली कबूतर ही। हो सकता है, फ़ूजी को मुझसे यूँ रात-रात भर प्रेम करते देख उसे कुछ भी महसूस न होता हो – सिवाए उस खीझ के जो उसकी नींद में ख़लल पड़ने से उसके भीतर उठती होगी।

उस रोज़ भी वह बहुत सुबह उठ गया था और अपनी लाल-लाल आँखों से हमें देख रहा था। उसे होती हो या ना होती हो, लेकिन मुझे उसके हमारे यूँ आसपास मंडराने से बहुत उलझन होती थी।

मुझे लगता कि फ़ूजी और मुझे यूँ प्रेम करते हुए कोई ना देखे। “यह तेरा लाल आँखों वाला कबूतर नज़र लगा देगा हमें फ़ूजी” कहते हुए मैं अरस्तू को वहाँ से हटाने की गुहार भी लगाता। लेकिन फ़ूजी अपने लाड़ले के खिलाफ एक हर्फ़ तक कान पर न रखती। हम प्रेम करते और उसके बाद अरस्तू साहब सोती हुई फ़ूजी के सीने पर अपने छोटे छोटे काले पंजों से चलने लगते। उसके गालों पर अपनी चोंच रगड़ते। मुझे अरस्तू की इन आदाओं पर जितना प्यार आता, उससे उतनी ही गहरी जलन भी होती।

चिढ़कर कई बार मैं फ़ूजी के नंगे सीनों पर चादर डाल दिया करता था। इसपर फ़ूजी की जो हँसी फूटती वह देर तक हमारे घर में गूँजती रहती।

“तुम्हें एक परिंदे से जलन हो रही है? वह भी अरस्तू से? अरस्तू तो हमारे बच्चे जैसा है। अपने बच्चे से कैसी जलन?”, कहते हुए फ़ूजी हँसते-हँसते उल्टी हो जाया करती थी।

“वह तुम्हारे सीने पर चलता है फ़ूजी! तुम्हारी गर्दन अपने पंजे रख देता है। वह गर्दन सिर्फ़ मेरी है…उसे सिर्फ़ मैं ही उसे छू सकता हूँ” – मैं कह तो देता था लेकिन असल में तब भी खुद को तुम पर रीझने से रोक नहीं पाता था।

फ़ूजी तुमको कितना प्यार करती थी, यह तो तुम्हें अच्छी तरह मालूम था लेकिन मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ, यह तुम्हें कभी बता ही नहीं पाया। अरस्तू, असल में तो तुम मुझे इतने प्यारे हो कि मैं फ़ूजी तक तो तुमसे बाँट लेता था। फ़ूजी जो मुझे इस दुनिया में सबसे प्यारी थी, उस फ़ूजी को!

अब ना यह दुनिया रही, ना मेरी प्यारी फ़ूजी और ना फ़ूजी के प्यारे तुम।

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फजगा ‘फैनी’ ओरेनबुच आइजेनबर्ग

फ़ूजी के माँ-बाप ने जब दूसरे विश्वयुद्ध में नाज़ियों के आतंक के सामने घुटने न टेकने वाली बहादुर यहूदी औरत फजगा ‘फैनी’ ओरेनबुच आइजेनबर्ग के नाम पर अपनी बेटी का नाम ‘फैनी’ रक्खा था, तब शायद उन्हें इस बात का तिनके भर भी अंदाज़ा नहीं था कि फजगा ‘फैनी’ ओरेनबुच आइजेनबर्ग के ठीक उलट, उनकी बेटी फैनी भरी जवानी में एक दिन जाति-धर्म की वहशी हिंसा का ग्रास बन जाएगी।

मालूम चलता भी कैसे? क़स्बे में आग लगने के ठीक बाद जो पहाड़ फटा था, उस ज़लज़ले में सब कुछ बह गया। फ़ूजी के माँ-बाप भी। वे नींद में ही होंगे, जब उनके घर में अचानक पानी भरने लगा होगा। उनके यूँ अचानक मर जाने में सिर्फ़ एक ही बात भली थी – कि उन्हें कभी अपनी बेटी की जली हुई लाश नहीं देखनी पड़ी। उन्हें कभी मालूम नहीं चल पाया कि भूरी आँखों वाली अपनी जिस लड़की का नाम उन्होंने नाज़ियों के सामने भी हार न मामने वाली बहादुर यहूदी औरत फजगा ‘फैनी’ ओरेनबुच आइजेनबर्ग के नाम पर रखा था, उसे आख़िरकार उसी हिंसा ने मार डाला जिससे फजगा ‘फैनी’ ओरेनबुच आइजेनबर्ग खुद को बचा पाई थी।

लेकिन यूँ जल कर मरने से पहले फैनी को उससे प्रेम हुआ था। वह उसके जीवन के मख़मली दिन थे। प्यार के दिन थे। उससे प्रेम में आने के बाद फैनी, फैनी से फ़ूजी बन गई थी – उसकी फ़ूजी, जो सिर्फ़ प्यार में दिये गये उस एक नाम से ही पुकारा जाना पसंद करती थी।

अब, जब वह फ़ूजी के कबूतर की मृत देह अपनी हथेली में पकड़े-पकड़े आगे बढ़ रहा था तो उसे अचानक दिन में तारे दिखाई पड़ रहे थे। तनों से फट कर गिर पड़े पेड़ों को जैसे तैसे पार कर वह किसी पुरानी आबादी वाले इलाके में जा पहुँचा था। वहाँ की वीभत्सता ने उसकी रही सही हिम्मत भी तोड़ दी थी। जान पड़ता था जैसे इमारतों के बीच कोई बड़ा बम फोड़ा गया हो – सारी की सारी किसी औंधे कंकाल सी ज़मीन पर लुड़की पड़ी थीं। जहाँ कभी खिड़की-दरवाज़े रहे होंगे, वहाँ अब सिर्फ़ मलबे का ढेर था- और उस मलबे पर बिखरी पड़ी लाशें। मिट्टी का रंग इंसानी खून के रंग में मिलकर गाढ़ा लाल हो चुका था। यहाँ चार सौ मीटर का मामूली फ़ासला पूरा करते-करते ही उसने शायद हज़ार लाशें देख ली होंगी – या शायद दो हज़ार? तय रूप से कहा नहीं जा सकता था। लाशें गिनने का उसे कोई पुराना अनुभव नहीं था। नौ-दस दिनों से सड़ शरीरों से अब विकट दुर्गंध आ रही थी। उसके खाली पेट में पलटी करने के लिए कुछ नहीं था, लेकिन फिर भी उसे उल्टी आ गई। चीखते हुए वह दोनों हथेलियों से अपने कान नोचने लगा। आखों में जैसे खून उतर आया था। अगले ही क्षण उसने अपने मिट्टी में डूबे बाल इतनी ज़ोर से खींचे जैसे अपने कपाल की चमड़ी ख़ुद ही उखाड़ लेगा। गीला चेहरा जितना आँसुओं में डूबा था उतना ही उसकी लार में। जमीन पर झुका हुआ वह पागलों की तरह रो रहा था।

सामने पड़ा कबूतर उसने कब हाथ में लिया और किस ताक़त ने उसे वहाँ से उठाया, उसे नहीं पता। होश आया तो पसीने में डूबा किसी नदी के सामने औंधा पड़ा था। नदी क्या थी, सैलाब ने किसी रिहायशी इलाक़े के ऊपर से अपना रस्ता बना लिया था। इंसानों के साथ साथ पानी पर डूबे हुए जानवरों के शव तैर रहे थे- कुत्ते, गायें, बिल्लियाँ, बकरियाँ। पानी की आवाज़ से उसकी आँख खुली। कबूतर की टूटी मुंडी अब भी उसकी हथेली में बंद थी।

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अरस्तू की टूटी मुंडी

अरस्तू, तू कहाँ रहा बीते दस दिन? और फिर, कैसे आया पिछली रात मेरे पास? इस बर्बर तूफ़ान में तूने मुझे ढूँढा कैसे? और…और आख़िर सुबह मेरे उठने से पहले ही तू मर कैसे गया? अब यह पहाड़ जैसा दिन मेरे सामने है – तेरा क्या करूँ? तेरी इस टूटी गर्दन का क्या करूँ जो मेरी हथेली पर लगातार फिसल रही है? समझ नहीं आता कि यहीं इस दलदल में कहीं गाड़ दूँ तुझे या सामने बहते पानी में बहा दूँ? कहाँ छोड़ूँ तुझे?

छोड़ा भी तो नहीं जाता।

तुझे देखकर मुझे फ़ूजी की याद आती है। वह कहती थी कि तू उसके बच्चे के जैसा है। देख तू मर चुका है फिर भी मैं न जाने बीते कितने मिनटों से तुझसे बात किए जा रहा हूँ। पीछे फूटी इमारतों में फँसी लाशों के उस ढेर से भी शायद मुझे तेरा ही साथ बाहर खींच लाया हो! तेरा यह मरा हुआ मुख और टूटी मुंडी देखकर मेरा कलेजा मुँह को आता है। लेकिन यह भी नहीं भूल पाता कि पूरे दस मनहूस दिनों बाद किसी अपने को देख रहा हूँ…आज जब सुबह तुझे अपनी हथेली में पाया तो मुझे याद आया कि मैं इंसान हूँ …

….मैं एक आदमी हूँ जो दस दिन पहले तक क़स्बे के अपने छोटे से घर में अपनी फ़ूजी और अपने अरस्तू के साथ रहता था। दस दिन पहले हमारा क़स्बा जला दिया गया। उस रोज़ सिर्फ हमारा कस्बा ख़त्म नहीं हुआ था, बल्कि पूरी दुनिया ख़त्म होने की और मुड़ गई थी। लेकिन उस दिन से पहले तक जीवन था। सुंदर जीवन। मैं फ़ूजी का प्यार था और हमारे घर के खेलने वाले इस जंगली कबूतर अरस्तू का पिता भी।

अरस्तू का यह नष्ट होता शरीर ही मेरे लिए अपने उस जीवन की आख़िरी निशानी है जो अब लगभग ख़त्म होने के कगार पर है। यह मेरे मनुष्य होने की गरिमा का प्रतीक है – मेरा बंधु है। जब तक जीऊँगा तब तक इसे साथ रखूँगा- कि अगर आज रात ही मर जाऊँ तो कम से कम किसी ऐसे की मौजूदगी में जाऊँ जो मुझे जानता हो। फिर भले ही वह उपस्थिति एक परिंदे के मृत शरीर की क्यों न हो।

वैसे भी अरस्तू कभी ‘सिर्फ़ एक परिंदा’ नहीं था मेरे लिए।

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धरती के टुकड़े, टुकड़ों की धरती

उस रोज़ जब उसे फ़ूजी की झुलस चुके शरीर को छोड़ कर भागना पड़ा था, तबकी बदहवासी इतने लम्बे फाँके से पड़ी कमजोरी में भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी। होश अब उसे कितना रहता था और कितना नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता था। हर घंटे के साथ कदम बढ़ाने की हिम्मत कम पड़ने लगी थी। दिन में भी आँखों के आगे अंधेरा पसरा रहता। फटे हुए होंठ अब इतने नीले पड़ चुके थे कि यह यक़ीन करना मुश्किल जान पड़ता कि किसी और जीवनकाल में वे गुलाबी भी थे…उसके नर्म गुलाबी होंठ, जिन्हें अपने होठों में मिलाकर फ़ूजी सारी शाम बैठी रहती थी। उसका चेहरा और हाथ-पैर भी अब उसके अपने न रहे थे। दस दिन तक खून में लिथड़े रहने से उसके जवान चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ने लगीं थी। फाँका अलग शरीर गला रहा था। जबड़ों में धँस रहे उसके गाल ऐसे पिचक चुके थे, जैसे कभी फ़ूजी ने उन्हें ‘मेरे पर्सनल सेब’ पुकारकर चूमा ही न हो।

सामने बह रहे खून मिले पानी में अपना चेहरा देखते हुए वह एक बार फिर रो पड़ा- फ़ूजी, अरस्तू और उसका घर किसी और जनम की बात थी। अब तो बस मरने की प्रतीक्षा करता हुआ उसका ढाँचा बचा था- हर क्षण नष्ट होता हुआ।

भागते वक्त वह जूते पहनना भूल गया था। धड़ पर सिर्फ़ एक कमीज़ थी जो अब तार-तार हो चुकी थी। नीचे उसका काला पैजामा था जिसे वह सोते वक्त पहना करता था। लाल पानी में अपना मरता हुआ चेहरा देखते हुए उसने वह फट रही कमीज़ ऊपर उठाई और खुद अपनी पसलियाँ गिनने लगा। ठीक उसी क्षण उसे वट बाबा की बातें याद आयी।

वट वह आखिरी ज़िंदा आदमी था जिससे उसने भागते वक़्त दो पल बात की थी। उसके कस्बे का बूढ़ा- जो कितना बूढ़ा था, किसी को नहीं पता। वह जब से पैदा हुआ, तब से उसने उसे बूढ़ा ही देखा था। बरगद के उस पेड़ के नीचे अकेला रहता था। आसमान देख कर मौसम का हाल बताने वाला, योग से शक्ति का आवाहन करने वाला और ईश्वर के साथ-साथ विज्ञान की पूजा करने वाला रहस्यमयी फक़ीर था वट बाबा।

उससे उसे कुछ महीने पहले ही जता दिया था कि दुनिया खत्म होते वाली है।

“पैंजिया जानते हो?”, उस शाम बरगद के नीचे बैठे वट बाबा ने उससे यूँ ही पूछ लिया था।

“नहीं, यह किस बला का नाम है?”

“करोड़ों साल पहले दुनिया ऐसी नहीं थी जैसी आज है। यह सारे देश जो आज धरती के कोने कोने में फैले हैं, समंदर पर ज़मीन के टुकड़ों से तैरते हुए, यह सारे टुकड़े पहले एक साथ चिपके हुए थे। पृथ्वी पर मौजूद इकलौते विशाल महाद्वीप के रूप में- पैंजिया। फिर उसमें टूट-फूट हुई और ज़मीन के बड़े-बड़े टुकड़े समंदर में इधर उधर बह गये- इन टुकड़ों को आज तुम देश बताते हो। कुछ टुकड़े एक दूसरे से टकराए और वह भिड़ंत इतनी जोर थी कि उससे हिमालय बन खड़ा हुआ। यहाँ मुद्दे की बात यह है कि जैसे बना था, वैसे ही फिर टूटेगा यह हिमालय ।”

“मतलब?”

“जो करोड़ों साल पहले हुआ था, वह अब फिर होगा। हिमालय बीच से फटेगा। फिर से धरती के टुकड़े होंगे। हमने हिमालय को नंगा जो कर दिया है। धरती को पेड़ों से ख़ाली कर दिया है। नदियों को चूस लिया है। कुछ नहीं छोड़ा हमने। तो अब खुद को बचाने के लिए पृथ्वी हमें खत्म करेगी।”

“आप कुछ भी बोल रहे हैं वट बाबा”

“ऐसे पहले भी कई बार हुआ है। नई सृष्टि को जन्म देने के लिए प्रकृति पुराने को नष्ट करती ही है। वर्ना बताओ हमसे पहले आए इतने सारे प्राणी और जीवन कैसे खत्म हो गये? बड़ा वाला बर्फ़ीला हाथी, उड़ने वाली छिपकलियाँ, तमाम तरह के पक्षी, बंदरों की पुरानी जमातें- कितना कुछ विलुप्त हो गया। हम इंसानों में ऐसा क्या है जो हम बचे रह जाएँगे? और क्यों बचाना चाहिए हमें? हमसे ज्यादा हिंसक, क्रूर और निर्मम कौन हुआ है संसार में? हम जिस धरती का खा रहे हैं, उसी में गढ्ढा कर रहे हैं। जिन मनुष्यों के साथ रह रहे हैं, उन्हें ही चमड़ी और अलग देवता मानने के कारण ज़िंदा जला रहे हैं। क्यों बचना चाहिए हमें?”

वट बाबा के सवालों में डूबा, जब वो घर लौटा तो फ़ूजी के सीने में अपना सर छिपाकर धीमे से फुसफुसाया – “फ़ूजी, वट बाबा पूछ रहे थे कि हमें क्यों बचना चाहिए?”

***

क्या मरता हुआ बूढ़ा झूठ बोल सकता है?

अगर आज वह ज़िंदा होती तो मुझे यूँ इस अंजान जंगल में भूखा मरता हुआ देखती… मेरे हथेली पर बिखरा पड़ा तुम्हारा खून भी उसकी नज़र में आता। मुझे अपने प्यारे अरस्तू की मृत देह पर रोते हुए देखती। सब देखती और हर पल तिल तिल जल कर मरती। इससे तो अच्छा हुआ जो क़स्बे की वह आग ही उसे निगल गई। मेरी तरह रोज़ रोज़ जल कर मरने से तो बेहतर ही है कि एक बार में मामला खत्म हो।

लेकिन उसके बिना मैं भी कौन सा जी रहा हूँ? और अब यूँ जी भी कब तक पाऊँगा?

शायद सिर्फ़ आज रात? जब हर घंटा ख़ुद को ज़िंदा रख पाना एक संघर्ष हो तो एक पूरी रात का क्या भरोसा? शाम तक साँस भी चलेगी या नहीं, कौन कह सकता है?

दस दिनों से चल रहा हूँ लेकिन यह नर्क है कि ख़त्म ही नहीं होता। सब कुछ इतना अचानक हुआ कि भागते वक्त जूते भी नहीं पहन पाया। दूर दूर तक सड़ रही लाशों कि बदबू फैली है। मैं और फ़ूजी अक्सर सोचते थे कि अगर युद्ध और हिंसा से बच भी गई तब भी आसमान में जलते सूरज की गर्मी हमारी धरती को खा जाएगी। लेकिन हमें लगता था कि जो भी प्रलय आनी होगी वह हमारे मरने के बाद आएगी। कभी सोचा नहीं था कि खुली आँखों से क़यामत को अपना क़स्बा और देहात बर्बाद करते देखूँगा। आसमान को जो करना है वह तो उसने बाद में किया…मैं यह कैसे भूल सकता हूँ कि जिस आग में मेरी फ़ूजी जल रही थी, उसकी तीली इंसान के हाथ में थी !

फ़ूजी की लाश को जलता छोड़ कर भागा था। और दस दिन से रोज़ नई लाशों के बीच में उठ रहा हूँ। सुबह से रात तक चलता हूँ। कितने किलोमीटर हो जाते होंगे? पता नहीं। सिर्फ़ चलता हूँ। खाने की तलाश में रास्ते में पड़ने वाले टूटे-फूटे घरों में घुसता हूँ लेकिन हर जगह सिर्फ़ गलती हुई लाशें मिलती हैं। सड़ती, बदबू मारती लाशें।

पानी ढूँढता हूँ पर कहीं खून से सने मटके मिलते हैं तो कहीं टंकियों में घुलते मृत शरीर। सब कुछ ख़त्म हो गया! इंसान तो इंसान, कुत्ते, बिल्ली, मुर्ग़े – सब मर गये! जो घर जले नहीं, उनको जैसे कोई सैलाब बहा ले गया।

नदी तो सौ कोस दूर हुआ करती थी ….फिर यह कैसे हुआ कि जिस रात मेरे क़स्बे को वह वैहशी आग के हवाले कर रहे थे, उस रात पूरी दुनिया पानी में मिल गई? कैसे हुआ यह! बर्फ का कौन सा पहाड़ था जो फट गया?

क्या मरता हुए वट बाबा मुझसे सच बोल रहा था? क्या मरता हुआ आदमी झूठ बोल सकता है?

***

स्मृति में हाथी, हाथी में स्मृति

वट आख़िरी ज़िंदा आदमी था जिससे वह मिला था – दस रोज पहले, अपने जलते हुए क़स्बे से भागते वक़्त। ज़िंदा भी क्या, अपने जलते हुए शरीर में किसी तपड़ती मछली सा बंद था। उस क्षण मौत के दरवाज़े पर खड़ा था वट बाबा, जैसे आज वह खड़ा है।

“भाग जा यहाँ से, भाग जा !! जिन्होंने तेरी फ़ूजी को मारा, वो हमारे कस्बे में आग लगाकर खुद को विजेता समझ रहे हैं। उन मूर्खों को नहीं मालूम कि हिमायल बीच से फट चुका है !! वो अपने धर्म की जीत कि खुशी मनाने घर भी न पहुँच सकेंगे! रस्ते में ही मरेंगे, साले !! धरती सब लील जाएगी”- वट बाबा की काली पड़ चुकी देह उनके हर शब्द पर जैसे फुँफकारते हुए हिल रही थी। वह उनके राख हो रहे शरीर को उनको देखकर सुन्न पड़ ही रहा था कि वो फिर काँपते हुए बोले – “पहाड़ फटते हुए देखा है कभी?! धरती के टुकड़े हो चुके हैं। परलय तेरे आगे है, तेरे पीछे भी। लेकिन तू भाग! जहाँ तक भाग सकता है, वहाँ तक भाग ! डरना मत! तू अगर दुनिया में अकेला भी बचा, तब भी डरना मत ! ख़ुद को ज़िंदा रखना…”

चमड़ी के आख़िरी कतरे तक जल चुके भस्म नुमा चेहरे पर चमकती वट की बड़ी बड़ी काली आँखें अब मुँदने लगी थीं। फड़कता हुआ शरीर अब शांत पड़ चुका था। फ़ूजी के ठीक बाद वट बाबा की मौत उसके लिए ऐसा सदमा थी जिसने उसके पाँव पत्थर कर दिये थे। चला ही न जाता था। फिर बाबा की आख़िरी पुकार याद आयी – खुद को ज़िंदा रखना… खुद को ज़िंदा रखना !

तब से जो भागना शुरू किया तो आज दसवें दिन तक रुकना नहीं हो पाया। शरीर में न अब इतना माँस बचा है जो आने वाले दिनों में पिघलकर उसे ज़िंदा रक्खे, पानी का जो टोटा है, सो अलग। आठँवे रोज़ से ही उसे लगने लगा था कि वह ठीक ठीक कुछ भी सोच समझ नहीं पा रहा है। कब सरदर्द होता है, कब दिन में चलते हुए भी सोने लगता है, कब दिशाभ्रम होता है और कब डिल्यूज़न, कुछ कहा नहीं जा सकता था। पहले बहुत पसीना आता था, फिर एकदम से बंद हो गया। उसे लगातार लगता जैसे उसे दिन में सपने आ रहे हों।

कपाल के ऊपर सुलगता सूरज देखता तो सोचता कि पृथ्वी भी तो सूरज का ही एक सितारा है, सूरज का ही हिस्सा। फिर सूरज उसे क्यों जला रहा है? या कहीं ऐसा तो नहीं कि सूरज हमारे पास नहीं आ रहा हो बल्कि हम सूरज के पास सरक आएँ हों? दिमाग़ में सब गड्डमड्ड हो गया था। क्या मरने से पहले हर भूखे आदमी का दिमाग ऐसे ही गंदले पानी में तब्दील हो जाता है? बेसिरपैर के विचारों से अटा मटमैला पानी?

कभी कभी उसे लगता जैसे उसका फाँका दस दिन नहीं, बल्कि दस बरस पुराना हो। भूख जब बहुत लंबी खिंच जाती है तो इंसान उसका शुरुआती सिरा भूल जाता है। अरस्तू की देह को हथेली में दबाये हुए वह खाने के बारे में सोचता – उसके जीवन के वह सुख भरे दिन जब फ़ूजी उसके लिए नींबू वाली कढ़ी बनाती थी। और वह गर्मियों कि दुपहर में कढ़ी-भात खाकर सो जाया करता था। शाम को वह दोनों अदरक वाली चाय पीते। तब फ़ूजी अक्सर उसके लिए मुरमुरे की तीखी भेल भी बना दिया करती थी। वह लगातार तीखा खाता और फिर मुँह मीठा करने के लिए फ़ूजी के हाथ चूमता। भूखा आदमी जब मरने लगता है तब शायद सबसे ज़्यादा खाने के बारे ही सोचता है।

बीच बीच में उसे ख़्याल में फ़ूजी नज़र आती। कुछ बोलती हुई। तब कई बार वह बेहोशी और होश के दो टीलों पर खींचा, इस कदर बेख्याली में झूल रहा होता कि फ़ूजी के कुछ ही शब्द उसकी पकड़ में आते। उसका कहा बाकी कितना कुछ था जो बस यूँ ही उसके अवचेतन की खाई में जमा होता रहा था।

उस दसवीं दुपहर को फ़ूजी उसे फिर दिखाई पड़ी।

वही एक सपना जो बीते एक हफ़्ते से बार बार आ रहा था, वह एक बार फिर लौट आया था। “तुम्हें याद है जब अरस्तू हमें मिला था तब उसके पंजे में एक सफ़ेद पत्थर अटका था?” – वह बार बार उससे पूछती। “तुम्हें हमारी मैमथ वाली बातें याद हैं? वो कहानियाँ जो मैं हिम युग के उन विशाल हाथियों के बारे में तुम्हें सुनाया करती थी? करोड़ों साल पुराने इन प्राणियों के पृथ्वी पर आने और फिर जाने की कहानियाँ? कहते हैं, हाथी कभी कुछ नहीं भूलते। न इस जन्म की बात, न पिछले जन्मों का अपना जिया। उन्हें सब याद रहता है। अरस्तू भी हमारे जीवन में हिम युग के उन्हीं विशालकाय हाथियों की अमिट स्मृति का प्रतीक है। वह उन्हीं हाथियों का वंशज है क्योंकि वह कभी कुछ नहीं भूलता। मैं मर भी जाऊँ तब भी वह तुम्हारे पीछे पीछे आएगा। जब तक उसमें जान है, तब तक वह तुम्हें नहीं छोड़ेगा। शायद, मरने के बाद भी नहीं। वह तुम्हें और मुझे बहुत पहले से जानता है।”

एड़ी में उठे विकराल दर्द ने उसे फ़ूजी के ख्यालों से जैसे खींच कर बाहर निकाला। आँखें मल कर देखा तो तालू से खून रिस रहा था। ऊपर आसमान में अचानक तेज़ हलचल मच गई थी – एक पल को उसे लगा जैसे बादल फट गया हो। यूँ तो अब हर रात ही उसे गड़गड़ाते-बरसते आसमान के साथ जीने की आदत पड़ने लगी थी, लेकिन यह आवाजें तो बीते पखवाड़े की क़यामत से भी आगे की चीज़ थी। यह आवाज़ें तो कुछ और ही थीं- जैसे पुराने जंगली हाथियों के किसी झुंड की चिंघाड़ बादल से बरस रही हो।

पाँव का दर्द बर्दाश्त करना अब मुश्किल पड़ रहा था। बारिश इतनी जोर पड़ रही थी कि सामने बह रहा नाला, उसके देखते ही देखते फैलने लगा था। वह अपना रिसता हुआ पाँव घसीटता हुए पीछे हटने लगा। अरस्तू की देह भी उसके साथ घिसट रही थी। अब उसे विश्वास हो चला था कि उसका अंत उसे पकड़ चुका था।

मिट्टी के एक टीले पर बैठकर वह सामने बह रहे पानी की गर्जना सुनता रहा। वह नाला अब किसी चौड़ी पाट वाली नदी में तब्दील हो चुका था। पानी की आवाज़ इतनी तीखी थी कि उसे और कुछ सुनाई न पड़ता था।

घोर विषाद और निराशा के उन क्षणों में वह उकड़ू बैठा रोने लगा। धीरे धीरे सिसकियाँ ‘क्यों, क्यों?’ की बदहवास चीख़ों में बदल गई थीं। अरस्तू की देह को अपनी छाती से लगा वह मिट्टी खाने लगा था, लेकिन मुँह में कुछ जाता न था। आंसुओं में डूबे होंठ खुले थे और सारी मिट्टी उसकी लार में घुलकर वापस ठुड्डी से टपक रही थी।

उस पल वह जैसे पृथ्वी का सारा कष्ट अपने नाभि में समेटे बैठा सृष्टि का सबसे दुखी प्राणी था। उसे समझ नहीं आता था कि इस अपार दुख की सलीब संसार का आख़िरी आदमी होने की वजह से उसके कंधे पर आ पड़ी थी या यह दुख उसकी नियति में था। वह अपनी कराह पर उँगली रखना चाहता था, जानना चाह रहा था – कि शरीर का क्षय उसे ज़्यादा मार रहा है यह उसकी आत्मा में गहरे धँस चुका क्षोभ। चाह कितनी भी उठे, चाहने से जवाब कहाँ मिलते हैं?

उसके माथे पर जितनी त्योरियाँ खींच आयीं थीं, उन्हें देखकर कोई भी नहीं कह सकता था कि उसका माथा एक जवान आदमी था माथा है। चेहरे पर जो विकट अकेलापन था, वह उस आदमी के अकेलेपन जैसा था जिसे सामने खड़ी अपनी ही मौत का आना समझ तो आता हो, लेकिन जो उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा हो।

बिलखते हुए अचानक उसकी नज़र उसके सीने से चिपके अरस्तू की देह पर पड़ी।
अगले ही क्षण वह मिट्टी के साथ-साथ वह कबूतर को भी खाने लगा था।

***
कबूतर की टूटी मुंडी (खाता आदमी)

कितना अकेला हो गया हूँ मैं !
क्या इससे भी ज़्यादा अकेला होना संभव है?

मरने से पहले मैं इस मर चुके कबूतर को खा लेना चाहता हूँ – वह कबूतर जिसे मेरी फ़ूजी अरस्तू बुलाती थी।

अपने पालतू कबूतर को खा रहा हूँ – कोई गरिमा बची है क्या मेरे मनुष्य की? क्या किसी की भी गरिमा बची है? मेरे सामने बहते पानी में लगातार इंसानी लाशें तैरती हुई गुज़र रही हैं।

मैं अपनी पेशाब में बैठा हूँ, अपना पालतू कबूतर खा रहा हूँ ! उस अरस्तू को खा रहा हूँ जो मरने के लिए भी मेरी हथेली तक उड़ता चला आया था।

***

मरते हुए आदमी का अकेलापन, संसार के आख़िरी आदमी के खत्म होने के अकेलेपन से कैसे अलग हो सकता है?

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