बहुत लंबे समय बाद कथाकार प्रभात रंजन ने एक कहानी लिखी है। विषय प्रेम, विरह, डिजिटल दुनिया है। प्रसंगवश, जानकीपुल के लिए उन्होंने पहली बार कोई कहानी लिखी है। आज आप सबके सामने प्रस्तुत है। पढ़कर राय दीजियेगा- अनुरंजनी
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तुझ से जुदा होने के बाद का पहला हफ़्ता एक तरफ़
मेरे नाना बहुत बड़े ज़मींदार थे। मेरे ननिहाल में पुरुषों में एक शौक़ आम था। शाम होते ही अक्सर सब शिकार पर चले जाते। चिड़िया, जंगली जानवर जो मिल जाता उसी का शिकार हो जाता। मैं सबसे बड़ा नाती था नाना का इसलिए यह ज़रूरी समझा गया कि शिकार के कुछ गुर मुझे भी सिखाए जायें। मुझे खेतों में फसलों की झाड़ियों में छिपकर रहने वाले ख़रगोशों के शिकार का अवसर दिया गया ताकि मैं शिकार करना सीख सकूँ।
मुझे याद है केवल एक बार मैंने गन्ने के खेत में ख़रगोश का शिकार किया था। सच बताऊँ तो उसके मरते समय भी उसकी आँखों में जो निष्कलुषता थी उसको मैं कभी भूल नहीं पाया। दशकों बीत गये इस बात के, आज भी कभी-कभी उसकी आँखें याद आ जाती हैं। मरते वक्त उस ख़रगोश की आँखों में छटपटाहट तो दिखाई दे रही थी लेकिन उसके साथ वही मासूमियत भी थी, वही निष्कलुषता- मुझे क्यों मारा!
कई बार सपने में वही दृश्य आता है और मैं नींद से चौंककर उठ जाता हूँ, सोचने लगता हूँ कि आख़िर मैंने उस ख़रगोश को क्यों मारा!
उसकी आँखें भी तो वैसी ही निष्पाप थीं जैसे वह किसी का बुरा सोच भी नहीं सकती हों। क्या मैंने फिर से ख़रगोश को मार दिया। उस दिन सबसे ज्यादा उसकी आँखों की याद आई।
वैसे यह कोई ज़रूरी नहीं कि जिसकी आँखें निष्पाप हों उसने कभी कोई पाप न किया हो!
वह पहली रात थी। मुझे इस बात को समझना था कि अब वह नहीं थी। मेरी ज़िंदगी में अब वह शायद कभी नहीं आएगी। यह बात एक दिन में समझ में नहीं आती कि कोई आपकी ज़िंदगी से ऐसे जा चुका होता है कि उसके वापस आ पाने की कोई सूरत नहीं रह जाती है।
जो कभी वापस नहीं आते वे कहीं जाते नहीं हैं। हमारे वास्तविक, आभासी जीवन में लगातार बने रहते हैं लेकिन हम उनके लिए ‘की-बोर्ड’ दबाना छोड़ देते हैं। ‘की-बोर्ड’ तो खटखटा रहा होता है लेकिन उसके लिए नहीं। किसी और के लिये, पता नहीं।
लेकिन यह सब एक दिन में कहाँ समझ में आता है! जिस रिश्ते को हम 256 दिनों से जोड़ते रहे वह एक दिन में ऐसे ख़त्म हो जाता है कि फिर कभी आपसे जुड़े ही नहीं।
क्या सचमुच नहीं जुड़ेगा! पहले दिन बार-बार यह ख़याल आता रहा।
पहले ही दिन ऐसा कौन सोच सकता था। पहली रात हुआ यह कि सपने में उस ख़रगोश की कातर आँखें नहीं, बल्कि मुझे उसकी ख़रगोश जैसी मासूम आँखें दिखाई दीं। जिस सपने को मैं बरसों से अपना मानता आया था उस सपने की जगह उसकी मासूम आँखें दिखाई दीं। उसके बाद न जाने कितनी बार दिखाई दीं। न जाने कितनी बार उनको दिखाई देना था। अजीब बात थी। सपने में उसकी दिखने वाली आँखों में कुछ भी दिखाई नहीं दिया। बस एकटक देखे जा रही थीं। यह गुमसुम एकटक देखे जाना।
जब आख़िरी बार उससे फ़ोन पर बात हुई थी वह इसी तरह चुप हो गई थी। चुप हो जाना उसका स्वभाव था। बहुत कम बोलती थी। इसी बात से मुझे प्यार था।
वैसे वह तो इस प्यार पर भी कुछ नहीं बोलती थी।
मेरी आवाज़ को न सुनना भी शायद उसका स्वभाव रहा होगा!
दूसरा दिन यही सोचने में बीता। क्या बात करनी चाहिए? हो सकता है यह प्रेम नहीं आदत रही हो और आदत से निकल पाना मुश्किल लग रहा हो।
हो सकता था, हम जीवन भर कितनी तरह की आदतों को ढोते रहते हुए, जीने का ढोंग करते हुए रहते हैं।
लेकिन क्या था जिसको बचाना था? वैसे इस तरह से कौन ख़त्म करता है? कैसा हो जाता है न एक दिन आप अपना फ़ोन, फ़ेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्विटर सब पर किसी को ब्लॉक कर देते हैं और सब ख़त्म। हमारे लिखे हज़ारों-लाखों शब्द एक बार डिलीट करने से बेमानी हो जाते हैं। प्यार अब शब्दों के अपव्यय के सिवा कुछ नहीं रह गया है। एक दिन सब डिलीट हो जाता है और बस…
मेरे शहर में रामनवमी का मेला लगता था। मुझे याद है कि बचपन में अपनी माँ के साथ मेला घूमने गया था। माँ की उँगली पकड़े हाथी, ऊँट, बैल, घोड़ा, बंदर, विलायती चूहा देखते हुए चल रहा था। भीड़-भाड़ में न जाने कब अचानक माँ की उँगली मेरे हाथ से छूट गई। छोटा-सा ही था लेकिन आज भी याद आ जाता है आसपास सब मुझे घूमता हुआ लग रहा था। सब कुछ था लेकिन जैसे कुछ भी दिखाई न दे रहा हो। जैसे बहुत तेज रफ़्तार में कोई फ़िल्म चल रही हो।
आज भी कभी आँखों के सामने वह फ़िल्म चलने लगती है और मैं कहीं भी होता हूँ, किसी भी मौसम में होता हूँ वही फ़िल्म चलने लगती है और मैं पसीने-पसीने होने लगता हूँ।
तीसरे दिन ऐसा ही महसूस हो रहा था।
चौथे दिन मैंने यूट्यूब की शरण ली। उसके साथ यूट्यूब पर शायरी के वीडियो सुनता। पाकिस्तान के नये से नये शायरों को सुनना, उनके शेरों को एक दूसरे को सुनाना- हमारे प्यार का बहुत सारा वक्त इसी में ज़ाया हुआ।
वैसे सयाने कहते हैं कि प्यार भी वक्त को ज़ाया करना ही होता है।
शायद इसी तरह से प्यार शुरू हुआ था। शुरू जो हुआ उसे ठीक-ठीक हमने कब प्यार समझना शुरू किया यह ठीक-ठीक याद नहीं। शायद एक दूसरे को शेर सुनाने के इस खेल में हम इतना खो चुके थे कि बस इसी धुन में लगे रहते, दिन-रात एक से एक शायर।
शायर जौन एलिया के वीडियो यूट्यूब पर एक के बाद एक आ रहे थे। उनके वीडियो आ रहे थे, रील आ रहे थे- मोहब्बत में बग़ावत वाली शायरी, घर में बेघरी की शायरी। जौन एलिया के मरने के एक दशक के बाद हमारे जैसे न जाने कितने थे जो यूट्यूब पर उनके वीडियो देख-देख कर दीवाने हो रहे थे। उनके शेर एक दूसरे को सुना-सुना कर हम मोहब्बत कर रहे थे। हम उनके शेरों से मोहब्बत करते-करते कब एक दूसरे के इस खेल को मोहब्बत कहने लगे यह तो ठीक से याद नहीं लेकिन उस समय हमारा सबसे बड़ा शग़ल था।
बड़े दिनों बाद जब अमेरिका में रहने वाले एक दोस्त से भेंट हुई तो उसने बताया कि इधर हिंदुस्तान में जौन एलिया ज़रूर देर से आये लेकिन अमेरिका के यूनिवर्सिटी में उनके वीडियो सीडी किराए पर लेकर देखे जाने का चलन जौन साहब के मरने के कुछ समय पहले से ही था। उसने आँख मारते हुए कहा- “जिस तरह से हिंदुस्तान में सब अमेरिका से आयातित है उसी तरह जौन एलिया भी बरास्ते अमेरिका ही हिंदुस्तान आया!”
चौथे दिन सोचते-सोचते मुझे ध्यान आया कि 256 दिनों में हमने जौन के न जाने कितने वीडियो देखे, न वीडियो देख-देखकर सैकड़ों शेर एक दूसरे को भेजे बल्कि रेख़्ता से कितनी बार शेर कॉपी किए। लेकिन उसे कुछ भी याद नहीं रहता था। वह कहती सब कुछ हमारे एक क्लिक पर सुनने के लिए, सुनाने के लिए उपलब्ध है तो क्या याद रखना।
मेरी मुश्किल यह थी कि मुझे सब कुछ याद रह जाता था।
मेरी मुश्किल यह है कि मुझे सब कुछ याद रह जाता है।
यह भी एक तरह की बीमारी ही है- आपको सब कुछ याद रह जाये!
याद से याद आया कि आख़िरी बार उसने उमैर नजमी का शेर भेजा था-
“बिछड़ गए तो ये दिल उम्र भर लगेगा नहीं
लगेगा लगने लगा है मगर लगेगा नहीं”
“नहीं लगेगा उसे देख कर मगर ख़ुश है
मैं ख़ुश नहीं हूँ मगर देख कर लगेगा नहीं”
वह रात मैंने उमैर नजमी को सुनते हुए बिताई।
पाँचवें दिन मैंने उन जगहों के बारे में सोचा जिन जगहों के बारे में साथ जाने के बारे में हम सोचते। हम साथ-साथ कुमाऊँ के बिनसर जाने के बारे में सोचते। वहाँ की अंधेरी रात में एक दूसरे को खोजने की कल्पना करते, कभी दिल्ली के कनाट प्लेस में ‘क्वालिटी’ में बैठकर कॉफी पीने के बारे में सोचते। उसने किसी उपन्यास में उस रेस्तराँ का इतना अच्छा वर्णन पढ़ा था कि उसकी बड़ी ख्वाहिश थी कि ‘क्वालिटी रेस्तराँ’ में बैठकर हम साथ कॉफ़ी पीते हुए एक दूसरे को शेर सुनाएँ।
हमारे सारे ख़्वाब सुनने-सुनाने को लेकर होते थे। सोचता हूँ कि जब जीवन में कुछ है से था हो जाता है तो क्या ख़्वाब भी थे हो जाते हैं? उन वादों का क्या होता है? और उन क़समों का? जो हमने फ़ोन या लैपटॉप के ‘की-बोर्ड’ दबाकर किए थे। 256 दिन तक हमने न जाने कितनी बार एक-दूसरे के लिए ‘की-बोर्ड’ दबाये। अजीब हाल था। चलते-फिरते, उठते-बैठते, बाज़ार में, मॉल में कहीं भी ‘की-बोर्ड’ दबाते हुए एक-दूसरे के लिए दिल बनाते रहते थे।
हमारा प्यार इतना आभासी था कि वास्तविक लगाने लगा था।
शायद यह सब आभासी ही रहा होता तो कुछ भी नहीं टूटा होता, कोई ब्लॉक नहीं हुआ होता, काल का कलुष हमारे रिश्तों के बीच नहीं आया होता। अगर हम न मिले होते तो हमारा प्यार शाश्वत रहा होता।
शाश्वतता मिलने से ही ख़त्म हो जाती है शायद।
‘की-बोर्ड’ दबाते-दबाते न जाने कब हम लोगों ने तय किया कि हम दोनों एक दिन सुबह-सुबह आगरा पहुँच जाएँगे। सुबह से शाम तक ताजमहल देखेंगे। ‘की-बोर्ड’ के प्यार को वास्तविक करेंगे। ताजमहल के सामने फ़ोटो खिंचवायेंगे। होटल के कमरे में एक दूसरे को छू कर देखेंगे अपने वास्तविक होने को महसूस करेंगे। हम सचमुच में प्यार करेंगे।
लेकिन कुछ चीजें छूने से मैली हो जाती हैं। लेकिन मिलना ही शायद खो देना होता है…
वही हुआ…
सातवें दिन मैं सिर्फ़ तहज़ीब हाफ़ी को सुनता रहा और अपने ‘उस’ को याद करता रहा। “जानते हो, जौन एलिया की शायरी में ऐसी कौन-सी बात है कि उनके मरने के बाद हम लोगों की पीढ़ी उसकी दीवानी हो गई? वह यही तो कहता है कि सब कुछ का अंत हो जाता है। कुछ भी अनंत नहीं होता है। लेकिन जौन को ज़्यादा सुन लो तो यह समझ में आने लगता है कि इस अनंत के अंत पर विलाप कर रहा है। एक समय के बाद उसकी शायरी मर्सिया लगने लगती है।”
फिर कुछ रुककर उसने लिखा- “आज मेरा ध्यान तहज़ीब हाफ़ी की तरफ़ गया। मतलब उसकी शायरी की तरफ़। यह लड़का कमाल का शायर है। तुम भी सुनना। इसकी शायरी आजकल पाकिस्तान में बहुत लोकप्रिय है और जौन के बाद जिस शायर की शायरी हिंदुस्तान में बहुत पसंद की जा रही है। और उसकी शायरी जैसे शाश्वतता, अनंत जैसे किसी भी तरह के होने से पूरी तरह मुक्त है। वह अपने शेरों में बार-बार यही कहता है कि हम जो समय जी रहे हैं उसी को अच्छे से जी लें यही सार्थकता है। न कुछ पीछे रह जाता है न आगे जाता है। प्यार एक ऐसा आज है जिसका कोई कल नहीं होता…”
मैंने हँसी का ईमोजी बनाकर लिखा था, “मतलब जब तक हम की बोर्ड खटखटाते रहें तभी तक प्यार रह जायेगा। एक दिन आएगा जब हम एक दूसरे के लिए की बोर्ड खटखटाना बंद कर देंगे।”
आगरा में मिलने के बाद जब मैं लौट रहा तो बस स्टैण्ड कर मैंने सबसे पहले उसको फ़ेसबुक, मैसेंजर पर ब्लॉक किया। बस में चढ़ते-चढ़ते हर जगह वह ब्लॉक थी। न उसके लिए मैं फ़ोन के ‘की-बोर्ड’ पर उसके नंबर को डायल करने वाला था न ही कभी किसी और जगह पर ‘की-बोर्ड’ खटखटाने वाला था।
मुझे उसको ब्लॉक क्यों करना चाहिये था? जब एक-एक दिन उसके बिना काटना मुश्किल हो रहा था तो मैं ब्लॉक हटाकर उससे बात क्यों नहीं कर रहा था? हम बस एक ब्लॉक की दूरी पर ही तो थे। लेकिन…
आगरा में हम गये। हम पहले होटल गये। एक दूसरे को छूने की, टटोलने की ख्वाहिश ऐसी थी कि हम कहीं और क्या जाते, बातें करते-करते कब हम एक-दूसरे के सबसे पास आ गये पता भी नहीं चला। और इतने पास आते ही दूर जाने का क्षण आ गया। जब हम एक दूसरे में लिपटे हुए थे तो उसके मुँह से एक नाम बार-बार निकलने लगा जो मेरा नहीं था। ऐसा ठंडापन मेरे ऊपर तारी हुआ कि मैं उठा और कपड़े पहनकर बाहर निकलने लगा।
वह रोकती रह गई। मैंने उसको खड़े होने का मौक़ा भी नहीं दिया। वह कॉल करती रही मैं जैसे किसी और ही दुनिया में जा चुका था। उसका फ़ोन उठाया ज़रूर लेकिन कहने को कुछ नहीं रह गया था, न सुनने को…
मैं किसी और ही ख़याल में था। प्यार में ख़याल ही तो बदलना होता है। एक बार बदल जाता है तो बदल जाता है।
वह कहती थी कि ज़िंदगी को तहज़ीब के शेरों की तरह जीना चाहिए। याद रखने से नहीं भूलने से दुनिया चलती है।
मैं क्या करता- मुझे सब कुछ याद जो रह जाता था। है।
उस रात मैंने सबसे आख़िर में तहज़ीब का यह शेर सुना-
“यूँ तो आज भी तेरा दुख दिल दहला देता है लेकिन
तुझ से जुदा होने के बाद का पहला हफ़्ता एक तरफ़”
यह सोचते सोचते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला-
मुझे उसको ब्लॉक क्यों करना चाहिये था?
मुझे उसको ब्लॉक क्यों नहीं करना चाहिए था?