जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

इस साल एक महत्वपूर्ण किताब आई यतींद्र मिश्र की लिखी ‘गुलज़ार साब: हज़ार राहें मुड़ के देखीं‘। गुलज़ार साहब पर ऐसी विस्तृत किताब दूसरी मेरी निगाह में नहीं है।  आज विशेष माँग पर वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब का एक अंश पढ़िए-

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अतीत की बहुत सारी तस्वीरें गुलज़ार के यहाँ जमा हैं। बदलते मौसम के लिए पुराने कपड़े और रज़ाईयाँ सँभालकर बड़े-बड़े टं्रकों में जिस तरह रखी जाती हैं, ठीक उसी तर्ज़ पर न जाने कितनी यादों के इन्दराज़ खुद के भीतर संजोए बैठे हैं गुलज़ार। जहाँ जीवन से जुड़ा हुआ मामला है, जिसमें रिश्तेदार और घर-परिवार के लोग शामिल हैं, उन पर बात अकसर नहीं होती। वे पार्टीशन पर खुलकर बोलने में थोड़े संजीदा हो जाते हैं, इसलिए नहीं कि उन्हें अपने माज़ी को छुपाना है, बल्कि इस कारण कि वो यादें शरीर पर सूखकर उन घावों की पपड़ियों की तरह हो गयी हैं, जिन्हें कुरेदने या छूने पर ख़ून निकल आता है।
दस-बारह साल की कच्ची उम्र में जब गुलज़ार के स्कूल जाने के दिन थे, तब उनके परिवार की व्यवस्था ऐसी थी कि उन्हें घर से अलग दुकान के स्टोर रूम में जाकर सोना होता था। उस स्टोर रूम में बिजली नहीं थी और अन्धेरी रातों को फिर वे लालटेन की मद्धिम रोशनी के सहारे काटते थे। अकसर गर्मी, अन्धेरे और उमस के कारण नींद देर से आती थी, तो रात काटने के लिए कुछ ऐसा चाहिए था, जो किशोर होते गुलज़ार को राहत दे पाता। इसकी एक नायाब तरकीब उन्होंने निकाल रखी थी, जिसके सहारे तारों भरी रात भी सुकून से गुज़र जाती।
उन्हें पढ़ने का चाव था और पड़ोस में एक लाईब्रेरी थी। पाकिस्तान से आया हुआ एक रिफ़्यूजी उसे चलाता था और चन्द पैसों की एवज़ में किताबें पढ़ने को मिल जाया करती थीं। गुलज़ार उससे कुछ किताबें ले आते थे, जिनमें अधिकतर सस्ते मनोरंजक क्राइम थ्रिलर और जासूसी उपन्यास होते थे। वो रिफ़्यूजी चार आने पैसे पर हफ़्ते भर के लिए किताबें किराए पर देता था, अलबत्ता किताबों की संख्या कुछ भी हो सकती थी, जितनी आप गिनकर ले जाना और पढ़ना चाहें। गुलज़ार बताते हैं कि उन्हें पढ़ने का ऐसा चस्का था कि हर रात एक किताब ख़त्म हो जाती थी और दूसरे ही दिन उसे बदलकर वे नयी किताब ले आते थे। एक बार लाईब्रेरी चलाने वाला उन पर बुरी तरह झल्ला गया- ‘चार आने में तुम्हें मैं एक हफ़्ते में आख़िर कितनी किताबें दूँ?’ और कुछ सोचकर उसने दूसरी आलमारी से निकालकर एक भारी-भरकम किताब दी और बोला- ‘इसे ले जा पढ़ने के वास्ते।’
बेमन से मिली किताब का उस दिन गज़ब किस्सा हुआ। उसने गुलज़ार को गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं की किताब ‘द गार्डनर’ का उर्दू तर्जुमा पढ़ने के लिए दिया था। हाथ में लेते ही उन्हें यह बात महसूस होने लगी कि यह कुछ अलग है या शायद ऐसी बोझिल किताब हो, जिसे पढ़ने में मुझे कुछ ज़्यादा दिन लगें। वो आदमी अपना पीछा छुड़ाने और हर दिन एक नयी किताब देने से आजिज़ आकर किशोर गुलज़ार को टैगोर की गम्भीर कृति पकड़ा गया था।
इस किताब ने हमेशा के लिए गुलज़ार के पाठक मन का ज़ायक़ा बदल दिया। वह किताब ऐसी दिल को छू गयी कि उनके लिए एक नयी दुनिया और नये ढंग के सपनों ने अपने दरवाज़े खोल दिए। एक नया सबेरा था और गुरुदेव की कविताएँ किशोर मन को बारिश की रस भरी फुहार की तरह भिगो गयीं थीं। गुलज़ार बताते हैं-
‘मैं इसके प्रेम में पड़ गया। मेरा किताबों को पढ़ने का ढंग बदल गया और मैं अब किताबों के चयन में भी बदलाव महसूस करने लगा। किताब खोलते ही इसकी पहली कविता ‘माली’ आज भी याद है। ये संग्रह मुझे इतना भाया कि मैं दूसरी किताब की एवज में हमेशा इसे अपने पास रखता रहा और हफ़्ते-दर-हफ़्ते तब तक यह सिलसिला चला, जब तक कि वो आदमी, जो मुझे किराए पर किताबें देता था, इसे भूल ही गया।’
‘द गार्डनर’ ने उस अन्धेरे स्टोर रूम में भी जीवन के लिए कुछ आशाएँ और विश्वास लालटेन की लौ में गुलज़ार के भीतर पनपने दिए थे। यह एक असाधारण घटना थी, जिसने उनके किशोर मन को एक नये ढंग की सकारात्मकता से भर दिया। जीवन ऐसे ही आगे बढ़ता गया और उनकी स्मृतियों में ‘द गार्डनर’ की भूमिका हमेशा ही बनी रही।
बरसों बाद गुलज़ार इस किताब के प्रेम में बँधे हुए नायाब तरीक़े से दुनिया के सामने आए- हिन्दी तर्जुमा ‘बाग़बान’ लेकर। अनुवाद की हुई हर कविता में जैसे वह किशोर गुलज़ार मौजूद हैं, जिन्होंने पहली बार कभी बचपन में हसरत से इस किताब को हाथों में लिया था। स्टोर रूम के उस छोटे से कमरे में इसे पढ़ते हुए सुकून-भरा उजाला महसूस करने वाले शायर के अनुवाद की एक बानगी-भर पढ़ना यहाँ प्रासंगिक है, जिसमें बचपन में प्रेरित हुआ मन गुरुदेव के प्रति आदर से भरकर कृतज्ञ दिखाई देता है। एक कविता की कुछ पंक्तियाँ इसी आशय के तहत यहाँ प्रस्तुत हैं-
न कोई ख़ौफ़ है तुमको,
न कोई उन्स का बंधन
न है उम्मीद कोई,
और न सर्गोशी, न रोना
न कोई घर,
न कोई सेज बिछी है
तुम्हारे पास बस दो पर हैं,
और इक आसमां है
दिशा कोई नज़र आती नहीं
प्रभात की स्याही मले इस आसमां पर,
पंछी, सुनो मेरे पंछी,
तुम अपने पंख न बन्द करना! (पंछी)

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