जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

मशहूर गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को पियूष प्रिय याद कर रहे हैं।पीयूष ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज, सांध्य में स्नातक तृतीय वर्ष के छात्र हैं। पीयूष जिन गीतों की चर्चा के रहे हैं वे विभिन्न समयों में विभिन्न मिज़ाज के हैं जो बहुत कुछ कहते हैं। उनमें सत्ता का विरोध भी है, निराशाओं के दौर का अंकन भी है और प्रेम तो है ही। आप भी पढ़ सकते हैं – अनुरंजनी

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                             लेखन, क्रांति, जेल, सिनेमा, सहगल से सलमान तक : मजरूह सुल्तानपुरी 

एक समय जब हमारे घर में डीवीडी होता था तब पापा एक गाना बहुत सुनते थे। गाना था ‘ऐ हवा मेरे संग संग चल’, लता मंगेशकर के गाने के बारे मुझे क्या पता कि इसको पिरोया किसने है? उस वक़्त बस इतना ही पता था कि ये गाना रति अग्निहोत्री गा रही है, न गायक का पता न लेखक का।

फिर एक कविता पढ़ी थी तीन साल पहले, कविता थी – 

‘मन में ज़हर डॉलर के बसा के, 

फिरती है भारत की अहिंसा,

खादी की केंचुल को पहनकर,

ये केंचुल लहराने न पाए।

ये भी है हिटलर का चेला,

मार लो साथी जाने न पाए।

कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू, 

मार लो साथी जाने न पाए।’ 

तब जाकर पता चला मजरूह सुल्तानपुरी के बारे में।

इस कविता के लिए मजरूह को जेल में डाल दिया गया और फिर माफ़ी मांगने का प्रस्ताव रखा गया कि अगर माफी मांग लेते है तो जेल से रिहा कर दिए जाएंगे मगर कविता से ही पता चलता है कि मजरूह को अपनी कलम से ऊपर किसी का कद मंजूर नहीं था, चाहे वो प्रधानमंत्री ही क्यों न हो। लिहाज़ा साफ-साफ इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। दो साल की जेल उनको मंजूर थी। आज़ाद भारत में एक शायर अपने आज़ाद बोल के लिए दो साल सलाखों के पीछे रहा।

वामपंथी आंदोलन उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता थी। अपनी कविता के लिए माफ़ी मांगने से इनकार करने पर उन्हें अभिनेता बलराज साहनी जैसे अन्य लोगों के साथ मुंबई में दो साल के लिए जेल में डाल दिया गया था। सलाखों के पीछे भी, वे आंदोलन और बॉलीवुड के लिए रचनाएँ करते रहे। 

हालाँकि राजनीति के प्रति उनका जुनून कभी खत्म नहीं हुआ। जब देश में कम्युनिस्ट आंदोलन कमजोर हुआ, तो उनके मोहभंग ने कुछ खूबसूरत कविताओं को जन्म दिया –

‘हम को जुनून क्या सिखाते हो, हम परेशान तुमसे ज्यादा हैं। 

चाक किये हैं हमने अज़ीज़ों चार गरीबों तुम से ज़्यादा’

1949 में जब मजरूह को नेहरू विरोधी लेखन के लिए जेल भेजा गया, तो राज कपूर ने कवि के आत्मसम्मान को समझते हुए उनसे मुलाकात की और उन्हें लिखने के लिए एक काल्पनिक गीत दिया। जब मजरूह ने ‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई’ लिखी तो कपूर ने उन्हें इसके लिए 1000 रुपये दिए, जबकि उस समय सबसे ज़्यादा पैसे पाने वाले गीतकारों को सिर्फ़ 250 रुपये मिलते थे।

बहुत कम लोग जानते हैं कि तुमसा नहीं देखा (1957) में साहिर लुधियानवी की जगह मजरूह सुल्तानपुरी ने ले ली थी। 

वामपंथी विचारधारा रखने वाले मजरूह सुलतानपुरी के गाने आज भी खूब सुने जाते हैं।कहा जाता है कि उन्होंने ए.के. सहगल का ‘जब दिल ही टूट गया’ से शुरुआत की तथा अंत सलमान और आमिर के फिल्मों में किया, जैसे ‘साथिया ये तूने क्या किया’, ‘पहला नशा पहला खुमार’, ‘पापा कहते है बड़ा नाम करेगा’।

उनके ज़्यादातर गाने उस जमाने में भी सबसे ज़्यादा सुना जाता था और आज भी हम जैसे युवा ‘नॉस्टैल्जिया’ में होते हैं तो जाने-अनजाने में भी अधिकतर गाने सुलतानपुरी के सुन जाते है।

उनके कुछ गाने जो उस समय के युवाओं के धड़कन में बंधी हुई थी और जिसकी आज भी कोई ‘एक्सपायरी डेट’ नहीं है, उनमे से कुछ यह रहे – 

1. तेरी बिंदिया रे

2. नज़र लागे राजा तोरे बंगले पर 

3. तुम बिन जाऊँ कहाँ

4. अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ न

5. आसमाँ के नीचे हम आज अपने पीछे

6. चला जाता हूँ किसी की धुन में 

7. है अपना दिन तो आवारा

मजरूह सुल्तानपुरी के मशहूर गीतों की लिस्ट बहुत लंबी है। हिन्दी सिनेमा के लगभग सभी प्रसिद्ध संगीतकार और गायकों के लिए मजरूह सुल्तानपुरी ने गीत लिखे। मजरूह सुल्तानपुरी ने हर रंग के गीत लिखे फिर चाहे वो गमगीन हों या तड़क-भड़क वाले, उन्होंने ‘इना-मीना-डीका’ और ‘मोनिका! ओ माई डार्लिंग’ जैसे जॉली गीत लिखे तो ‘हम हैं मता-ए-कूचा ओ बाज़ार की तरह’ और ‘रूठ के हमसे कहीं जब चले जाओगे तुम, ये न सोचा था कभी इतने याद आओगे तुम’ जैसे गमगीन गीतों की भी रचना की।

1993 में उन्हें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से भी नवाजा गया।

मजरूह एक ऐसे शायर हुए जिन्होंने हकीम का पेशा छोड़कर युवाओं के दिलों का ईलाज अपने कलम से किया।

हिंदी सिनेमा में लगभग चार दशकों तक अपने प्रशंसकों के दिलों पर राज करने वाले मजरूह सुल्तानपुरी लंबे समय तक फेफड़ों की बीमारी से परेशान रहे और 24 मई 2000 को 80 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। मजरूह आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं किन्तु अपने बेहतरीन गीतों और शेर-ओ-शायरियों के जरिए वे सदा हमारे बीच मौजूद रहेंगे।

“यूँ तो हम बहुत से गीतकार देखे पर “मजरूह” तुम सा नहीं देखा”

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