जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

भुवनेश्वर को सम्यक् रूप से समझने के लिए समीर कुमार पाठक का यह लेख अच्छा लगा। वे वाराणसी में प्राध्यापक हैं। लेख आपसे साझा कर रहा हूँ-

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 भुवनेश्वर उन बिरले सृजनकर्मियों में थे जिन्होंने अपने छोटे से जीवनकाल में लीक से हटकर अलग किस्म का साहित्य सृजित किया और एक तरफ अपने समकालीन वरिष्ठ रचनाकारों को प्रभावित किया तो दूसरी तरफ अपनी कुछ रचनाओं की बदौलत समूचे हिंदी जगत का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर लिया। संभवतः सबसे पहले प्रेमचंद ने जैनेन्द्र के अलावा उस दौर में जिस युवा प्रतिभा को भविष्य का रचनाकार बताया था, वे भुवनेश्वर थे।

     सन् 1933 के हंस में भुवनेश्वर की पहली एकांकी श्यामा: एक वैवाहिक विडम्बनाप्रकाशित हुई। यह अकारण नहीं है कि भुवनेश्वर ने अपना पहला एकांकी-संग्रह कारवाँप्रेमचंद को ही समर्पित किया। प्रेमचंद की मृत्यु पर प्रेमचंद जी का स्वर्गवासनामक टिप्पणी में भुवनेश्वर ने लिखा कि-

‘‘8 अक्टूबर 1936 को प्रेमचंद बहस-मुबाहसे, स्नेह और कटु आलोचनाओं से परे हो गए। यह हिंदी के सबसे महान् साहित्यिक का भाग्य है कि तुच्छ और खुदगर्ज मुबाहसों से परे होने के लिए 60 साल की उम्र में उसे मरना पड़ा… पत्रिकाओं में कहानियाँ छपवाते, सिनेमा से धन पैदा करते, पुस्तकों की बिक्री के लिए साधारण प्रयत्न करते 8 अक्टूबर 1936 को प्रेमचंद की मौत हो गई… प्रेमचंद हिंदी की एक शताब्दी थे। भविष्य का साहित्य-इतिहास इस युग से प्रेमचंद को लेकर बाकी इतमीनान से छोड़ देगा। इसके अनेक कारण हैं। यह नहीं कि उन्होंने 50 ऐसी कहानियाँ पैदा की जो विश्व-साहित्य में अपना स्थान बना सकती हैं। उन्होंने हिन्दी साहित्य में एक नए जीवन का आह्वान किया … वह एक लिखने का शौकीन था, बीच में एक कठिन संग्राम करता हुआ कलाकार और बाद में कैरेक्टर। … उसका कैरेक्टर उसकी अनेकता थी। ऐसी अनेकता, ऐसी variety की मिसाल विश्व साहित्य में भी नहीं है। वह मोपांसा की morbidity से भी ऊँचा उठ गया… जो अपनी कला के लिए कच्चा माल लेने बार-बार सीधा जीवन तक जाता था, जो समझता था, जो केवल विश्लेषक नहीं था।’’01

     वैसे यह बात स्वयं भुवनेश्वर के लिए उतनी ही सत्य है। यह संयोग ही है कि प्रेमचंद और हंस के माध्यम से आज से 88-90 साल पूर्व भुवनेश्वर एक रचनाकार के रूप में अचानक प्रकाश में आए, स्थापित हुए और अचानक ही भुला भी दिये गये। जरा सोचिए! लेखन में मौलिकता और क्रांतिकारी आक्रोश के साथ साहित्य में नए रंग भरने वाले भुवनेश्वर को याद करने वाले आज कितने हैं और कहाँ हैं? दरअसल हिन्दी समाज में किसी रचनाकार के महत्व निर्धारण की प्रक्रिया प्रतिमानीकरण की प्रक्रिया है। वह दाखिल ख़ारिज के सिद्धान्त पर खड़ी होती है। वह एक को स्थापित करती है तो दूसरे को खारिज भी करती है; वह जितना रचती है, उससे अधिक मटियामेट कर देती है। प्रतिमानीकरण की इस प्रक्रिया ने जाने-अनजाने बहुतेरी प्रतिभाओं को रचनात्मक सांस्कृतिक परिदृश्य से ओझल कर दिया। इस प्रक्रिया में भुवनेश्वर जैसे साहित्यकार का खारिज होना अवश्यंभावी है। इसके कई सारे कारण हैं लेकिन एक कारण खुद भुवनेश्वर भी हैं। अपने रचनात्मक वैशिष्ट्य और साहित्य-संघर्ष के बावजूद उनका व्यक्तित्व हमेशा विवाद का विषय बना रहा जिसका असर उनकी साहित्य-रचनाओं पर भी पड़ा। उनकी चारित्रिक विद्रूपताएँ भी उनके व्यक्तित्व के साथ जुड़ती चली गई और उनके साहित्य-चिंतन का मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन नहीं हुआ या हुआ भी तो संदर्भ बदल गया। उनके बारे में अनेक तरह की किवंदन्तियाँ, अफवाहें गढ़ी गईं, उन्हें अराजकतावादी, अर्धविक्षिप्त और आवारा किस्म का जीनियस कहकर प्रचारित-प्रसारित किया गया। उनकी जिंदगी पर धुआं-धुंध को और बढ़ाया गया और इस तरह उनके अभिशप्त जीवन की परिणति विक्षिप्त मृत्यु में हुई। सुधीर विद्यार्थी ने लिखा है:

‘‘जिंदगी को कला मानने वाले यही भुवनेश्वर जो उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जैसे छोटे से शहर में पैदा होने और इंटरमीडिएट तक शिक्षित होने के बावजूद इलाहाबाद जैसे शहर में एक इंटलेक्चुअल हौवाके रूप में छा गए थे, स्वयं अपनी जिंदगी को बिखरने-टूटने से रोक न पाये। वे हिंदी में एक धमाके की तरह आए और चुपचाप चले गए बिना कोई शिकवा, गिला किए। अपने समय में प्रगतिशील लेखक संघ के प्रचारक के रूप में भी बहुत बड़ा काम किया था। पर मैंने देखा कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर लखनऊ में उन्हें याद करने वाला कोई नहीं था।’’2

     प्रगतिशील लेखक संघ स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर उनकी याद न आना दुःखद है पर स्वयं उनके शहर शाहजहाँपुर में राजेश्वर सहाय बेदारऔर राजकुमार शर्मा ने भुवनेश्वर शोध संस्थानबनाया और भुवनेश्वर-सम्मानकी शुरूआत की3, पर इसके बावजूद भुवनेश्वर को सही में याद करने वाले कहाँ और कितने हैं? इस सन्दर्भ में यह दिलचस्प है कि भुवनेश्वर की जन्म शताब्दी भी यूँही निकल गई! हिन्दी समाज अपने-अपने ढंग से जन्म शताब्दियाँ मनाने और विशेषांक निकालने में व्यस्त था; शताब्दी उत्सवों की मैराथन शृंखला चलती रही- पर उसमें भुवनेश्वर नदारद थे! मौलिकता और सांस्कृतिक विवेक की दुहाई देने वाली मुख्य धारा की पत्रिकाओं में भुवनेश्वर की कितनी चर्चा हुई- इसकी पड़ताल अपने आप में बेहद दिलचस्प होगी। आजकलजैसी सरकारी पत्रिकाओं को छोड़ दिया जाय तो हिन्दी समाज में साहित्य और संस्कृति की बहुवचनात्मकता और रचनात्मक विशिष्टता के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली अधिकांश पत्रिकाओं की भुवनेश्वर सम्बन्धी चुप्पी हिन्दी समाज की चलताऊ समझ की प्रमाण हैं। हालाँकि यह अपवाद है पर हंस (फरवरी 2011) के माध्यम से आलोचक आशुतोष कुमार ने इस शताब्दी समय मेंशीर्षक से कुछ जरूरी सवाल उठाया और अपना असंतोष व्यक्त किया था। तब उन्होंने लिखा था कि

‘‘क्या शताब्दियाँ स्मृति से भी अधिक विस्मृति का वितान रचती हैं? क्या चंद चुने हुए लोगों को याद करना उन बाकियों को भुला देना है, जो चुने नहीं गए? यह चुनाव कौन तय करता है? कौन तय करता है कि स्मरण के शोर में किन आवाजों को बिना किसी आहट के डूब जाने देना है?’’

 

     इसलिए असल सवाल लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, दिल्ली या शाहजहाँपुर में भुवनेश्वर को याद करने या न करने का नहीं है? असल सवाल है कि अस्वीकार का साहस रखने वाले और जिन्दगी का एटीट्यूड बिल्कुल मुख़्तलिफ मानने वाले भुवनेश्वर पर चुप्पी का दरअसल इस चुप्पी का कारण है- हिन्दी समाज की यथास्थितिवादी प्रवृत्ति; खास किस्म की साहित्यिकता का आग्रह और एक लापरवाह किस्म की बौद्धिक जवाबदेही। बकौल भुवनेश्वर- ‘‘वे किताबों के अधकचरे असर से सिर्फ बगावत की बात करना चाहते हैं, बगावत करना नहीं।’’4 जबकि भुवनेश्वर में बगावत और अस्वीकार का जबर्दस्त साहस था। 1936 में लखनऊ मुशायरे में महादेवी वर्मा को सभा-पत्नी कहे जाने पर उन्होंने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी।

     भुवनेश्वर का पूरा नाम भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव था। उनके पूर्वज मलीहाबाद क्षेत्र से 1857 के विद्रोह के दौरान शाहजहाँपुर में आकर बस गये थे, जहाँ संभवतः 20 जून सन् 1912 को भुवनेश्वर पैदा हुए। बचपन में माता का स्वर्गवास हो जाने के कारण उनका बाल्यकाल अभाव और दैन्य में बीता। उनकी वास्तविक जन्मतिथि को लेकर काफी भ्रांतियाँ हैं। उपेन्द्रनाथ अश्कको लिखे पत्र में भुवनेश्वर ने स्वयं लिखा है, ‘जन्म 6 जून 1910, स्थान- लखनऊ, शिक्षा-गवर्नमेंट स्कूल, शाहजहाँपुर।डॉक्टर  विपिन कुमार अग्रवाल और कृष्ण नारायण कक्कड़ जैसे उनसे जुड़े लोगों ने 1910 का उल्लेख किया है। पर गवर्नमेंट स्कूल, शाहजहाँपुर के स्कालर्स रजिस्टर क्रमांक: 3031 पर अंकित विवरण के अनुसार भुवनेश्वर की जन्मतिथि 20 जून 1912 है। भुवनेश्वर बस डेढ़ साल के थे कि उनकी माता का देहान्त हो गया फिर पिता श्री ओंकार बख्श ने चमेली देवी से दूसरी शादी की। बाद में चमेली देवी और दूसरे सौतेले भाई बहनों के कारण परिवार में कलह का वातावरण बना और इसका नकारात्मक प्रभाव भुवनेश्वर के जीवन पर पड़ा। आर्थिक अभाव और व्यापारिक हानि के कारण पिता श्री ओंकार बख्श दूसरी पत्नी से उत्पन्न सन्तानों की परवरिश में अधिक रम गये और भुवनेश्वर अन्ततः अभावग्रस्तता में उपेक्षित होते गये। उनके जीवन की उदासी और अवसाद के पीछे पारिवारिक पृष्ठभूमि भी थी। परिवार की विषम परिस्थितियों से धीरे-धीरे निकलकर शाहजहाँपुर के मित्रों-द्वारिकानाथ कपूर, ओंकारनाथ सेठ, काशीनाथ कपूर उर्फ गप्पी बाबू जैसे लोगों से अपने दुःख दर्द साझा करते हुए भुवनेश्वर साहित्य के क्षेत्र में आगे बढ़े। वे बचपन से ही तीक्ष्ण बुद्धि, जीनियस थे। उन्होंने इब्सन, बर्नाड शॉ, आस्कर वाइल्ड, सिग्मंड फ्रायड, डी.एच. लारंस जैसे लेखकों की रचनाएँ कंठस्थ कर ली थीं। सन् 1931 के आसपास उन्होंने कामरेड रामलाल वैद्य के साथ मिलकर यूथ लीगका गठन किया था। सन् 1931-32 के दौर में खद्दर की अचकन पहनने वाले उसनाटे से व्यक्ति ने बरेली की साहित्यिक-राजनीतिक गतिविधियों में खलबली मचा दी थी। सन् 1932 में भुवनेश्वर के अधिकांश मित्र बरेली- शाहजहाँपुर से निकलकर लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद उच्च शिक्षा के लिए चले गये और फिर भुवनेश्वर अपने मित्रों के पास शहर-शहर जाने लगे। इसी क्रम में वे सन् 1933 में इलाहाबाद गये और रामेश्वर शुक्ल अंचल’, श्रीपत राय, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, नरेन्द्र शर्मा से जुड़े और उन्हें प्रभावित किया।

     1933-34 में शमशेर जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मालवीय छात्रावास में रहते थे, वहीं भुवनेश्वर से उनकी पहली भेंट हुई। उन दिनों नरेन्द्र शर्मा, वीरेश्वर सिंह और केदारनाथ अग्रवाल भी वहीं रहते थे। शमशेर जी ने उन दिनों को याद करते हुए लिखा है:

‘‘मैं संकोची भी रहा हूँ। ज्यादा घुलना-मिलना मेरे स्वभाव के विपरीत रहा है। किंतु जब घुलना-मिलता हूँ तो अच्छी तरह से और नहीं तो नहीं। भुवनेश्वर के समीप आने का कारण साहित्यिक भी था… मैं उर्दू का विद्यार्थी रहा। भुवनेश्वर धड़ल्ले से उर्दू-साहित्य पर बातें करते थे। वस्तुतः वे उर्दू कविता के रसिया थे और सुन्दर सच्ची कविताओं पर जान देते थे . . . अंग्रेजी कविता में भी उनकी अच्छी गति थी। वे अच्छी तरह से अंदरूनी तौर पर अंग्रेजी भाषा, उसके लालित्य और शिल्प को ग्रहण करते थे। उनकी यह क्षमता अनूठी थी . . . वे ख्वामख्वाह रोब तो गालिब करते ही थे, अंग्रेजी इतनी उम्दा बोलते थे कि उनकी मैं रिसर्च कर रहा हूँ’, ‘विदेश से एम.ए. किया हैआदि-आदि बातें विश्वसनीय लगती थीं, हालाँकि वे मात्र इंटर पास थे। अक्सर बड़ा-बड़ा वितण्डा खड़ा करने वाला यह व्यक्ति इतनी प्रतिभा रखता था कि चकित होना पड़ता था।’’05

     शमशेर और त्रिलोचन दोनों ने भुवनेश्वर की मौलिकता और साहित्यिक मेधा की चर्चा बहुत बारीकी से की है। सन् 54-55 के दौर में माया प्रेस में जब शमशेर जी सम्पादकीय विभाग में कार्यरत थे तब बहादुरगंज इलाके वाले घर में लगभग पाँच-सात महीने तक भुवनेश्वर उनके साथ रहे। शमशेर जी ने आगे लिखा कि

‘‘वे अपने में डूबे रहते थे . . . कभी मन आता, मेरी आलमारी में रखी अंग्रेजी पुस्तकें उठाकर कविताएँ लाजवाब ढंग से पढ़ते। सुनकर ऐसा लगता था कि अंग्रेजी कविता का वास्तविक रूप यही है . . . उन्होंने अंग्रेजी कविताएँ लिखी भी थीं, उनमें से कुछ मेरे पास बची हैं . . .  इलाहाबाद में अनेक लोगों ने प्रयास किया कि भुवनेश्वर उनके यहाँ रहें। किंतु वे अपनी निजी प्रवृत्तियों के कारण पारिवारिक माहौल में रह ही नहीं सकते थे।’’6

त्रिलोचन जी ने भी अपने संस्मरणात्मक आलेख में शमशेर बहादुर सिंह की भुवनेश्वर के प्रति अपार लगाव और आत्मीयता का जिक्र किया है। हिन्दी में बहुतों को शायद ज्ञात न हो पर यह सच है कि भुवनेश्वर की ड्राइंग बहुत अच्छी थी। हालाँकि इसकी उन्होंने कोई ट्रेनिंग नहीं ली थी पर उनकी ज्योमेट्रिकल ड्राइंग जबर्दस्त थी। उनकी बहुत सारी ड्राइंग जिस पर एम. भुवन के नाम से हस्ताक्षर है, मैंने शाहजहाँपुर में स्वयं देखी है। त्रिलोचन ने उनके जीवन के कारूणिक यथार्थ के साथ-साथ उनकी पैनी समझ और अध्ययन के विस्तार की भरपूर चर्चा की है:

‘‘भुवनेश्वर की समझ पैनी और गहरी थी और वे खूब पढ़ते थे। भुवनेश्वर जी, भइया जी बनारसी के पास जब पैसों के लिए जाते थे तो भइया जी उनसे आज के लिए कुछ लिखकर देने को कहते। लिखकर देने पर भइया जी भुवनेश्वर को पैसे दे देते थे। हिन्दी रिव्यू के संपादक रामअवध द्विवेदी ने भुवनेश्वर से कहा हम आपकी अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद हिन्दी में छापेंगे। आप अपनी अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद हिन्दी में करके खुद दीजिए … भुवनेश्वर की एक कविता का 25 रूपया देते थे।’’7

 प्रसंगवश यह ध्यान रखने योग्य है कि जब हिन्दी समाज में भुवनेश्वर के विरोध में बड़े-बड़े लोग खड़े थे तब इस तरह के आत्मीय संरक्षण और रचनात्मक प्रोत्साहन ने उन्हें कितना बल दिया होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है? त्रिलोचन ने आगे लिखा कि-

‘‘लखनऊ में लाइब्रेरी और यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी से अध्ययन करके भुवनेश्वर जी ने अपने अंग्रेजी ज्ञान को बढ़ा लिया था। वृंदावनलाल वर्मा पर 45-46 में एक पर कटु लेख हंस में छपने के लिए भुवनेश्वर जी ने अमृतराय को दिया, क्योंकि वे संपादक थे …. लेकिन वह छप नहीं पाया! छपता तो चार पेज में आता। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यास पर उनकी टिप्पणी थी कि उनके पात्र रियलनहीं हैं, काल्पनिक है। जबकि भुवनेश्वर रोमांटिक हैं। रोमांटिक न होना ही उन्हें माडर्नकरता है। सभी उनकी भाषा से प्रभावित होते थे। अंग्रेजी कविताओं की व्याख्या इतनी सटीक होती थी कि हमलोग हतप्रभ रह जाते थे। लीडर प्रेस के हिन्दी संस्करण दैनिक भारत और चेलापतिराव के सम्पादन में निकलने वाले नेशनल हेराल्ड में लिखते थे। एजरा पाउण्ड को समझने में हमलोग चूक जाते थे लेकिन भुवनेश्वर कभी नहीं चूकते थे। उनकी रचनाओं में लखनऊ की जुबान थी, उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओं का लहजा था।’’8 

यह वही दौर हैं जब शैतान’, ‘एक साम्यहीन साम्यवादीजैसी एकांकियों के द्वारा वे साहित्य में नये ढंग के सवाल उठा रहे थे। संभवतः प्रेमचंद ने उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर 1933 में हंस के अक्टूबर अंक में दो एकांकी श्यामा: एक वैवाहिक विडम्बनातथा प्रतिभा का विवाहएक साथ प्रकाशित किया। हंस में प्रकाशित होने के बाद भुवनेश्वर की राष्ट्रीय ख्याति बनी और उनके आत्मविश्वास को भी बल मिला। सन् 1935 में लीडर प्रेस प्रयाग से तब उनका एकांकी संग्रह कारवाँछपा तो उसकी न खूब चर्चा हुई बल्कि जून 1935 के हंस में प्रेमचंद ने लिखा कि-

‘‘कारवाँ हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक नई प्रगति का प्रवर्तक है, जिसमें शॉ और आस्कर वाइल्ड का सुन्दर समन्वय है … संभाषण में जगह जगह मनोभावों की ऐसी मार्मिक विवेचना की गई है कि लेखक की प्रखरता और बुद्धि की तीव्रता का कायल होना पड़ता है।’’

     यह ध्यान देने योग्य बात है कि सन् 1936 के प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्षीय भाषण में प्रेमचंद ने हिन्दी के संभावनाशील लेखकों का उल्लेख करते हुए कहा कि यदि जैनेन्द्र में दुरूहता और भुवनेश्वर में कटुता कम हो जाय तो इनका भविष्य उज्ज्वल है।भुवनेश्वर के भविष्य को समझने और समझाने की शुरूआत प्रेमचंद ने की पर भुवनेश्वर की रचनात्मक-कलात्मक विशिष्टता को समझने के लिए भवनेश्वर समग्रका अवगाहन आवश्यक है। भुवनेश्वर समग्रका सम्पादन करते हुए दूधनाथ सिंह कहते हैं कि भुवनेश्वर प्रेमंचद की खोज हैं। लेकिन ए ग़मे-दिल क्या करूँ’! शीर्षक भूमिका लिखते हुए दूधनाथ सिंह स्वयं न सिर्फ भुवनेश्वर को खोज रहे हैं बल्कि भुवनेश्वर को समझने और आत्मसात करने को व्यग्र से हैं।

     सितम्बर 1936 में उनकी मृत्युशीर्षक एकांकी हंस में छपी और नवम्बर 1936 में उनके दो लेख माधुरी में छपे, पहला प्रेमचंद पर और दूसरा निराला पर। निराला वाले लेख में भुवनेश्वर ने उनसे पहली मुलाकात का जिक्र करते हुए अपनी सम्मति जाहिर की

‘‘निराला बंगाली संस्कृति का कवि है। यह संस्कृति जो टैगोर के द्रुत mannerism से पैदा हुई है, जिसके अति विश्लेषण में कबीर, ब्लैक सभी आते हैं। पंत को उसने बार-बार टैगोर का प्रोंटेज बताया है। पर सत्य यह है कि निराला टैगोर को पचा न सका। वह मैनरिज्म का कवि है, वह उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं का कवि है, वह अपने सर्वोत्तम रूप में भी एक चतुर शिल्पी है। शायद महान भी पर महान कवि नहीं। निराला में टैगोर की शक्ति नहीं, ‘जुही की कली’, ‘तुम और मैंवगैरह में अर्थ की स्थूलता है। उसकी कविता में साधना है, अध्यवसाय है, कारीगरी है, कोमलता है, पौरुष है पर वही नहीं है, जिसके बगैर यह न ब्राउनिंग है, न बर्नस केवल निरालाहै। वह बना सकता है पर निर्माण नहीं कर सकता। वह जीवन को पचा नहीं सकता … पर वह हिंदी का अकेला विचारक कवि है।’’9

  भुवनेश्वर के इस लेख के अंत में माधुरी संपादक रूपनारायण पाण्डेय ने अलग से नोट लगाया कि हम कई बातों से लेखक से सहमत नहीं है। इस प्रसंग में डाॅ. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि:

‘‘भुवनेश्वर को हिंदी बहुत कम आती थी। निराला की कविताएँ बहुत कम पढ़ी थी, जो सुना था, उसे अपनी बिटके सहारे सजाकर पेश किया था। बंगला भी न आती थी। फिर भी उस समय अनेक हिंदी के पाठक टैगोर की द्रुत मैनरिज्म से उत्पन्न होने वाली बंगला-संस्कृति का विवेचन सुनकर चकित दृष्टि से उनकी दाद देते थे। … मैंने भुवनेश्वर से कहा ‘‘जब तुमने निराला की कविताएँ पढ़ी नहीं, तब यह सब क्यों लिखा?’’ भुवनेश्वर ने जवाब दिया- ‘‘पैसों की सख़्त जरूरत थी। माधुरी आफिस गया। वहीं बैठकर लेख लिखा हिंदी के संपादक इतने बेवकूफ हैं कि लेख छापने को तैयार हो गये तो मैं क्या करूँ।’’10

इसका विस्तार से विवरण निराला की साहित्य साधना पुस्तक में है। इस जवाब से भुवनेश्वर की गंभीरता का पता चलता है! लेकिन इस लेख की लखनऊ-इलाहाबाद-बनारस में काफी चर्चा हुई और निराला पर इसका गहरा असर हुआ, वे विचलित हो गए। उन्होंने माधुरी संपादक को पत्र लिखा मेरा उत्तर माधुरी में छपने पर भुवनेश्वर प्रसाद के लिए अहितकर प्रमाणित होगा, वे साहित्य के दागी होकर शायद ही फिर उभर सकें।11 भुवनेश्वर जैसे अपेक्षाकृत युवा साहित्यकार की टिप्पणी पर महाप्राण निराला का दहल जाना स्वयं भुवनेश्वर की ताकत और महत्त्व का प्रमाण है:

‘‘निराला ने भुवनेश्वर के लेख का उत्तर लिखा। निराला विचलित हुए और अपने साथ दो अन्य व्यक्तियों के लेख लेकर उत्तर देने आए, यह भुवनेश्वर की सफलता थी।’’12

निराला ने अपने पक्ष में जिन दो व्यक्ति की संस्तुतियाँ भेजीं, वे थे वाचस्पति पाठक और दैनिक भारत के सह-संपादक बलभद्र प्रसाद मिश्र। वाचस्पति पाठक ने लिखा कि

‘‘निराला के सम्बन्ध में इस लेखक ने जिस स्वर का उपयोग किया है, वह हिन्दी के भीतर से उनको बहुत ही अपमानित करने वाला है। फिर भी योग्य सम्पादक ने कुछ भी खयाल नहीं किया। साथ ही इस लेख की क्या उपयोगिता है, इससे साहित्य को क्या मिला, यह अलग प्रश्न है। हाँ, एक नौसिखिए लेखक को आचार्य के टोन में बोलते हुए देखने का लाभ इस लेख द्वारा अवश्य प्राप्त होता है।’’13

     दूसरे पैरवीकार बलभद्र प्रसाद मिश्र ने लिखा:

‘‘मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि आत्मविज्ञप्ति तथा अंग्रेजी और हिन्दी के प्रमुख साहित्यिकों के बारे में ऊटपाटंग बातें करने का उन्हें मर्ज़ है … कुल मिलाकर भुवनेश्वर जी के सम्बन्ध में मेरे मन में यही धारणा बंधी है कि वे काठ की हांडी हैं जो सत्य की आँच के सामने ठहर नहीं सकते।’’14

इस वाद-विवाद में महाकविको अपनी पैरवीकरवानी पड़ी। महत्त्वपूर्ण यह है कि निराला जी के दोनों पैरवीकारों ने अपनी संपुष्टि में भुवनेश्वर की आलोचना का सम्यक उत्तर नहीं दिया बल्कि उन पर वैयक्तिक आक्षेप लगाकर उन्हें तिरस्कृत करने का प्रयास किया। दोनों संपुष्टियों में न निराला की कविता से कोई उदाहरण था, न भुवनेश्वर की आलोचनात्मक टिप्पणियों का संतुलित जवाब बल्कि पैरवीकारों ने भुवनेश्वर की बातों को हवा में उड़ाकर उसे और वैयक्तिक बना दिया। हिंदी-साहित्य में व्यक्ति-पूजा की परम्परा बहुत पुरानी है। रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, निराला, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह तक व्यक्ति बदलते रहे हैं, पूजा करने वाले तो मिल ही जाते हैं! भुवनेश्वर की गलती यह थी कि उनकी टिप्पणी में कहीं भी प्रशस्ति गान का मिश्रण न था। वे आँखें बंद करके किसी की भी तारीफ नहीं कर सकते थे लेकिन इस योजनाबद्ध घेरेबंदी से आहत भुवनेश्वर ने एकतरफा विराम लगाने का प्रयास करते हुए लिखा कि

‘‘माधुरी में प्रकाशित निराला पर लिखे लेख का उत्तर पढ़ा, मय दो शहादतों के। इसे मैं किस रूप में स्वीकार करूँ, मैं नहीं जानता। अगर यह निराला जी का इंडिकेशनहै तो कुरूचिपूर्ण अगर रिवेंजहै तो बहुत सख्त’’।15 स्वयं को अपराधी प्ली करते हुए आहत होकर भुवनेश्वर ने आगे लिखा परिस्थितियाँ बलवती मनुष्य से इससे भी जघन्य काम करवाती हैं। मुझसे करवा चुकी हैं। इन्हें एक संग्राम करते हुए कलाकार पर दाग लगाने के लिए प्रयोग करना हल्कापन है। खैर अगर इस बात से जन्म भर के लिए मैं taboo किया जा सकता हँू तो मेरी बला से इसकी परवा करें। लेकिन नहीं, यह शायद मेरी आदत है। मेरा सबकुछ छल है, धोखा है, मक्कारी है। इनके दो शहीद हैं। उनकी असली bonafides यह है कि वह निराला के मित्र-प्रशंसक हैं।’’16

उन्हें अपने पक्ष में किसी के आने की उम्मीद न थी; वैसे भुवनेश्वर के पक्ष में माधुरी कार्यालय को अनेक पत्र लिखे गए थे लेकिन उनका प्रकाशन नहीं किया गया। मेरे गीत और कलाधारावाहिक लेखमाला में निराला द्वारा आत्मविज्ञप्ति प्रकाशन के विरोध स्वरूप ही भुवनेश्वर ने यह लेख लिखा था। इस विरोध की उन्हें सजा मिली और महाप्राण निराला विजयी हुए। कैसे? सुनिए, डा. रामविलास शर्मा के शब्दों में:

‘‘निराला अपने उद्देश्य में सफल हुए। भुवनेश्वर हमला करने के बदले बचाव की लड़ाई लड़ने लगे। पहले लेख में ओज की मात्रा जितनी थी, इस दूसरे लेख में उतनी न रही। वाचस्पति पाठक और बलभद्र प्रसाद मिश्र की चार्जशीटका उत्तर देते हुए भुवनेश्वर ने कुछ बातें स्वीकार कीं, कुछ अस्वीकार। …अंत में उन्होंने लिखा कि निराला ने पहले ही बता दिया था, किस तरह का जवाब छपकर आ रहा है। मैं इसके लिए तैयार था और अपनी ओर से इसे समाप्त ही करता हूँ। अगर मैं वाकई मर गया हूँ तो ग़ालिब का एक शेर निराला जी, मिश्र जी, पाठक जी और पेसपर्दा और सज्जन सुन लें – गर नहीं मेरे मरने से तसल्ली न सही। इम्तहाँ और भी बाकी हो तो यह भी न सही।भुवनेश्वर कलाकार थे। घिर जाने पर साफगोई से काम लेते थे। अपनी पूंजी बहुत कम थी। दूसरों से उधार लिए माल पर अपनी बिट से पालिश ही कर सकते थे। … अपना जवाब छप जाने के बाद भी निराला काफी दिन तक भुवनेश्वर की बातें बिसूरते  रहें।’’17

यहाँ मैं अपनी तरफ से यह नहीं कहना चाहता कि चार्जशीटतैयार करने के पीछे मुजरिम और कोतवाल की मानसिकता तो काम करती ही है। कोतवाल की पूरी तैयारी मुजरिम से प्रश्न करने और उसका उत्तर सुनने की नहीं होती बल्कि उसे फांस डालने की होती है। यह भुवनेश्वर की जीवनी-शक्ति थी कि सन् 1937 की इस तैयार चार्जशीटमें निकलकर वे 1955-56 तक संघर्षशील लेकिन सृजनशील बने रहे। निराला की इस उम्मीद कि मेरे उत्तर के बाद वे साहित्य में दागी होकर शायद ही फिर उतर सकेके बाद भी भुवनेश्वर निस्तेज नहीं हुए। आज हिंदी एकांकी का इतिहास भुवनेश्वर के बाद वहीं का वहीं खड़ा है। अपनी प्रयोगात्मक रचनाओं के द्वारा उन्होंने नाट्यकला को परिपक्वता प्रदान की। फोटोग्राफर के सामने’ (1945) और तांबे के कीड़े’ (1946.) के माध्यम से आधुनिक मनुष्य की बढ़ती हुई अर्थलोलुपता का जो उद्घाटन है, वह आज भी झकझोर सा देता है। अप्रैल 1938 के हंस में प्रकाशित कहानी भेड़िएऔर जुलाई 1939 में प्रकाशित एकांकी ऊसरके द्वारा भुवनेश्वर ने मध्यवर्गीय आत्मग्रस्तता और जिन्दगी की विपन्न स्थितियों को ही स्वर दिया।

     भुवनेश्वर हिंदी-साहित्य में एकांकी नाटककार के रूप में ख्यात है। श्यामा: एक वैवाहिक विडंबना’ (1933) से तांबे के कीड़े’ (1946) तक की एकांकी यात्रा में एक तरफ विषयवस्तु और समस्या के विश्लेषण में पश्चिमी नाटककारों का प्रभाव है, जीवन को कटु वास्तविकताओं के उद्घाटन का घोर यथार्थवादी मूल्यांकन है तो दूसरी तरफ मनुष्य के भीतर बढ़ती हुई अर्धलोलुपता का उद्घाटन भी है। आज मनुष्य चांद और मंगल पर जाने के लिए उतावला है लेकिन अपने आसपास के सामाजिक-मानवीय सवालों के प्रति चुप हैं बल्कि कई बार बहुत सधे ढंग से चुप है। आज संकट के इस दौर में मनुष्य की जिंदगी कमरे की सजावट की तरह होकर रह गई है, इस एकाकीपन और बिखराव को भुवनेश्वर बहुत पहले तांबे के कीड़ेऔर ऊसर’ (1938) में उजागर कर रहे थे। यह वही समय है जब दुनिया भर के नाट्य साहित्य में बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध की भयावहता के बाद व्यक्ति अत्यधिक संत्रस्त हो उठा था। इस भयावहता ने घोर अनास्था, निराशा, घुटन, निरर्थकता और जीवन के बेतुकेपन को एब्सर्ड नाटकों के रूप में अभिव्यक्त किया। एब्सर्ड नाटककारों के अनुसार व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक के कालखंड को जबर्दस्ती जी रहा है। मशीनी विकास ने मनुष्य के समूचे जीवन को पराधीन बना दिया है और विनाश के आतंक ने उसमें निराशा, कुंठा और संत्रास भर दिया है। उसके आंतरिक और बाह्य जीवन का यथार्थ परस्पर अलग-अलग है और दोनों की टकराहट से विसंगतियाँ बढ़ रही हैं, जिसके कारण एक तरफ अकेलापन बढ़ रहा है तो दूसरी तरफ पारिवारिक सम्बन्धों में बेतुकापन, अनर्गलता और अनाचारिकता बढ़ रही है। प्रसिद्ध फ्रेंच नाटककार यूजीन लानेस्को ने लिखा कि ‘‘Cut off from his religiousmetaphysical and transcendental rootsman is lostall his actions become senselessabsurduseless.”18 हिंदी में एब्सर्ड नाटकों की इस चेतना के प्रथम प्रयोक्ता भुवनेश्वर हैं। तांबे के कीड़ेहिंदी का पहला एब्सर्ड नाटक है। भुवनेश्वर पश्चिम के नए नाटकों की विकास परम्परा से भलीभाँति परिचित थे और द्वितीय विश्वयुद्ध के विश्वव्यापी प्रभाव को गहरायी से महसूस कर रहे थे। यही कारण है कि जिस समय पाश्चात्य देशों में एब्सर्ड नाटकों का प्रारम्भ हुआ, उसी समय भुवनेश्वर ने तांबे के कीडेलिखा। महत्वपूर्ण यह है कि एक तरफ अपनी एकांकियों के द्वारा उन्होंने नीरस, बनावटी, भावुक नाट्य-परंपरा में व्यापक तोड़फोड़ की तो दूसरी तरफ अपनी छह-सात कहानियों के माध्यम से कथा-साहित्य में भी खलबली मचा दी।

     सन् 1935-40 के आसपास लिखी उनकी कुछ कहानियों को देखकर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि नई कहानी और कहानी-नई कहानी के हो-हल्ले वाले समय में उनकी कहानियाँ सचमुच नई कहानी के दौर में नए अस्वाद की कहानियाँ हैं, जिसका ज्वलंत उदाहरण भेड़िएकहानी है, जो अपनी बनावट और बुनावट में आज भी उतनी ही तरोताजा है, जितनी तब। भुवनेश्वर मध्यवर्ग के आरोपित आदर्शों और मूल्यों के खोखलेपन को व्यक्त करने वाले कहानीकार हैं और अर्थहीन संस्कारों को तोड़ने वाले भी। परिस्थितियाँ किस प्रकार मनुष्य को हैवान बना देती हैं, इसका उदाहरण खारू और उसका बाप है। खारू के जीवन का भयावह यथार्थ कहानी की आत्मा है। भेड़िएअमानवीयता और वीभत्स पाशविकता के बीच भी जीजिविषा की नाटकीय कहानी है।

     भुवनेश्वर घटनाओं और संवेदनाओं के मुकाबले अनन्त संभावनाओं की कहानियाँ रचते हैं। यही उनकी विशेषता है। लेकिन उनके साहित्य की अनंत संभावनाएँ इंटेलेक्चुअल हौवे के बीच दब गयी, या दबा दी गयी वह निश्चयपूर्वक कहना मुश्किल है।

     सन् 50 का दशक भुवनेश्वर के साहित्यिक जीवन का महत्वपूर्ण समय है, तब वे आर्थिक मोर्चे पर लड़ते हुए मानसिक विक्षिप्तता के शिकार हो गये थे। उस दौर में भुवनेश्वर की महत्ता को समझने के लिए शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन शास्त्री, प्रभाकर माचवे और कृष्ण नारायण कक्कड़ के संस्मरणों को पढ़ना आवश्यक है। इन संस्मरणों में उनकी साहित्यिक श्रेष्ठता और जीवन की यंत्रणा दर्ज है। भुवनेश्वर प्रारम्भ से ही स्वतंत्र यायावरी वृत्ति और अराजक ढंग से जीवन जीने वाले व्यक्ति थे। साहित्य संसार में अपनी लगातार उपेक्षा और शराब की लत में डूबे रहने के कारण वे अंततः निराश और आत्मकेन्द्रित होते चले गये। शमशेर जी ने उन्हें संभालने की बहुत कोशिश की लेकिन भुवनेश्वर संभालने से संभलने वाले व्यक्ति न थे! वे लखनऊ-बनारस-इलाहाबाद के बीच भटकते हुए लगातार हताशा और निराशा के शिकार हो रहे थे और अंततः मानसिक विक्षिप्तता को प्राप्त हुए। उनके लेखन में प्रतिभा का विवाह’ (हंस, 1933); ‘लाटरी’ (हंस, 1935); ‘स्ट्राइक’ (हंस, 1938); ‘आदमखोर’ (रूपाभ, 1938); ‘रोशनी और आग’ (विश्ववाणी, 1941) तथा कठपुतलियाँ’ (1942) जैसी एकांकियों के माध्यम से एक तरफ आधुनिक समाज के प्रति तीव्र वितृष्णा, प्रबल आक्रोश और विद्रोह का भाव प्रकट हुआ तो दूसरी तरफ आजादी की नींव’ (1949); ‘जेरूसलम’ (1949), ‘सिकन्दर’ (1950), ‘अकबर’ (1950) तथा चंगेज खाँ’ (1950) जैसी रचनाओं से नये राष्ट्रीयता का स्वर भी उभरा। पर यह दुर्भाग्य है कि भुवनेश्वर सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर तिल-तिल कर मरते रहे, शहर-दर-शहर की ठोकरे खाते रहे पर संभल न सके। भुवनेश्वर जैसे जीनियस लेखक की यह तस्वीर बड़ी भयानक है; अपने को गूदड़ों में लपेटे, अरसे से बाल दाढ़ी बढाय़े, शायद बरसों से नहाए भी नहीं, टाट-बोरे को लपेटे-लपेटे भुवनेश्वर इसी बनारस में यहाँ-वहाँ भटकते रहें और अन्ततः नवम्बर सन् 1957 को बनारस में सोनारपुरा की सड़क पर एक लावारिस लाश पड़ी मिली, जिसे लोग भिखमंगे की लाश कह रहे थे …. समाजसेवी सालिगराम ने लाश का दाह संस्कार किया। वह लाश भुवनेश्वर की थी!

 

सन्दर्भ:

  1. भुवनेश्वर: व्यक्तित्व और कृतित्व; सं0 राजकुमार शर्मा; उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, (हिन्दी समिति प्रभाग); लखनऊ, संस्करण 1992; पृ. 273.
  2. मेरे हिस्से का शहर, प्रतिमान प्रकाशन; शाहजहाँपुर (2008); पृ. 198.
  3. वही; पृ. 199.
  4. भुवनेश्वर साहित्य; संपादक: राजश्वर सहाय बेदार’; भुवनेश्वर प्रसाद शोध संस्थान, शाहजहाँपुर, संस्करण-19.2; पृ. 127.
  5. भुवनेश्वर: शमशेर की नज़र में; आजकल (भुवनेश्वर विशेषांक); अंक: 04; वर्ष: 67; अगस्त 2011; प्रकाशन विभाग, दिल्ली, पृ. 21.
  6. वही; पृ. 21.
  7. वह पहले और श्रेष्ठ नाटककार हैं’- शीर्षक त्रिलोचन का लेख; भुवनेश्वर: व्यक्तित्व और कृतित्व; सं0 राजकुमार शर्मा; पृ.211.
  8. वही; पृ. 212.
  9. भुवनेश्वर साहित्य; संपादक: राजेश्वर सहाय बेदार’; पृ. 265-66.
  10. डाॅ. रामविलास शर्मा; निराला की साहित्य साधना; भाग- प् राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, दिल्ली (2009); पृ. 292.
  11. उद्धृत, निराला की साहित्य साधना भाग-प्; पृ. 293.
  12. वही; पृ. 293.
  13. वाचस्पति पाठक की संपुष्टि-प्; भुवनेश्वर साहित्य; पृ. 270.
  14. बलभद्र प्रसाद मिश्र की संपुष्टि-प्प्;भुवनेश्वर साहित्य; पृ. 271.
  15. भुवनेश्वर साहित्य; पृ. 272.
  16. भुवनेश्वर साहित्य; पृ. 272.
  17. निराला की साहित्य साधना; भाग-प्; पृ. 294.
  18. डाॅ. अमरनाथ, हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली- 2009; पृ. 144.

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 समीर कुमार पाठक

हिन्दी विभाग, डी.ए.वी.पी.जी. कालेज,

वाराणसी- 221001, मो. 945311419

 

 

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