जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

प्रयागवासी और मुंबई प्रवासी कवि बोधिसत्व की कविताओं पर अलग से टिप्पणी करने की कोई आवश्यकता मुझे नहीं लगती. पिछले करीब २५ सालों से बोधिसत्व की कविताओं का अपना अलग मुकाम है. हाल में ही उनको फिराक गोरखपुरी सम्मान मिला है. उनको एक बार और बधाई देते हुए उनकी कुछ नई कविताएँ आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ- जानकी पुल.
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कमजोर कविता
वह एक कमजोर कविता थी
कवि उसे छिपाता फिरता था
कुछ बहुत कमजोर विचार थे उसमें
कहने के लिए कुछ थोड़े शब्द थे घिसे पिटे
न अलंकार था न छंद न समास 
नीरस सी जहाँ-तहाँ रूखे भाव उफनाए से दिखते थे उसमें।
उस कविता में न थे गंभीर तत्व 
ऐसे ही थी जैसे बेस्वाद पापड़-चटनी-अंचार।
वह बहुत कमजोर कविता थी
जैसे असुंदर बीमार बेटी
जैसे कुरूप कर्कशा पत्नी
जैसे अपाहिज औलाद
जैसे मंद बुद्धि बैठोल पति
जैसे धूल धूसर जर्जर घर
जैसे फूटी ढिबरी
जैसे खेत ऊसर बंजर अनुर्वर
उस कमजोर कविता में कोई लालित्य, कोई तरलता सुघड़ता न थी
उस कमजोर कविता से अर्थ छटाएँ लुप्त थीं
उस कमजोर कविता में ऐसा कुछ न था
जिसके लिए उसे कहीं सभा में पढ़ा जाता
किसी स्वर्ण पट्टिका पर अंकित होने की बात दूर रही
कहीं कोई और उद्धृत करता ऐसा भी कुछ न था उसमें
वह अकाल में गिरे पत्ते की तरह थी
वह यौवन में झड़े बाल की तरह थी
वह चिट्ठी निकाल लिए जाने के बाद खुक्ख लिफाफे की तरह थी
अक्सर कवि उसे लिख कर पछताते थे
बाकी सुंदर कविताओं के बीच उसका नाम तक लेते लजाते थे।
उसे कभी कहीं सुना-पढ़ा नहीं गया
उसे कभी सम्राटों के माथे जड़ा-मढ़ा नहीं गया
वह निर्बल कमजोर कविता
बीमार माँ की तरह थी
गरीब भाई की तरह थी
विक्षिप्त बहन की तरह थी
निपत्र-खंखड़ पिता की तरह थी 
टूटी उखड़ी सड़क की तरह थी
सूखी गंदी नदी की तरह थी
अमृत और रस वर्षा का कोई सोता नहीं फूटता था उसमें
सुगंधि और आकर्षण से हीन
किसी का सहारा बनने 
किसी जो जीवन का संदेश सुनाने की शक्ति उसमें न थी।
वह इतनी कमजोर थी कि उसमें
कालजयी होने
अमरता के अमिट शिलालेख पर खुदवाए जाने की कोई संभावना न थी
उसका नाम भी ठीक से तय नहीं था
वह कमजोर थी
और बेहद कमजोर थकी सी कुछ आवाजें थीं उसमें 
बेहद भोथरी और विपन्न स्थितियाँ वहाँ अंकित थीं
कमजोर आदमी और मरियल पौधे की तरह
उसे अकाल मरना झुराना था
कमजोर विचार की तरह
उसे ऐसे ही मिट जाना था
कमजोर नाते और संबंध की तरह
उसे चुपचाप छूट ही जाना था
उसकी याद आते ही कवि को अपने रचयिता होने पर संशय होता था
उसके पढ़े जाने पर कैसा छा जाएगा सन्नाटा
या तो सब चुप रहेंगे देंगे गालियाँ
कोई न बजाएगा तालियाँ
सोच कर कवि ने उसका नाम कभी न लिया
कवि ने एक तरह से ठीक ही किया
जो कमजोर है
उसका कहाँ ठाँव ठौर है
गाँव गली और राजधानी में
सर्वत्र ही शक्तिशाली के शीश मौर है
कमजोर को 
हर जगह थू-थू है धिक्कार है
शक्तिशाली की हर जगह जै जैकार है
सच ही है
अकारथ था अकारथ है कमजोर का होना
अब छोड़ो भाई उस कमजोर कविता को 
उसका क्या रोना।

हम और तुम
एक
यदि हम एक दूसरे के बर्तन होते 
तो हम लिखवाते शायद एक दूसरे पर अपने नाम
यदि हम एक दूसरे के लिए किताब होते तो उस पर लिखते अपने नाम
कितनी जगहों पर रेखाएँ खींच कर दर्ज करते कुछ न कुछ 
हजार बर्तनों और हजार किताबों के बीच
खोज लेते पा लेते एक दूसरे को। 
दो
हमने यही तो किया 
देह का दीपक जला कर 
एक दूसरे को पढ़ा
एक दूसरे पर लिखा जो मन में आया
हमने तन की मिट्टी गूँथ कर 
एक दूसरे को गढ़ा
जैसा चाहा बनाया।
हमने एक दूसरे को कैसे-कैसे पाया
हमने एक दूसरे को कैसे-कैसे भास्वर गाया।
तीन
जैसे अंधकार ढाल बनता है अंधकार की 
जैसे प्रकाश मुक्त करता है प्रकाश को
वैसे ही हमने किसी क्षण अंधकार की तरह 
ढाल बन कर ढंका एक दूसरे को
और किसी क्षण प्रकाश बन कर एक दूसरे मुक्त किया।
इसी सब में 
हमने जाना कि पत्ते के गिरने से पेड़ ही नहीं
धरती भी विचलित होती है
हमने पाया कि छोटी मेघ-बूंद भी कच्चे घड़े पर चिह्न छोड़ जाती है
हमने देखा कि तप्त तवा ही सेंक सकता है रोटी
वैसे ही 
वैसे ही
हमने एक दूसरे के तन पर
अपने चिह्न अंकित किए
सेंक कर सज्जित किया एक दूसरे को
जब-जब मन तरु के पत्ते गिरे तो हम विलखते रहे
सोचते रहे उस पत्ते के विछुड़ने को।
चार
हमने नासिका से नासिका पर 
ललाट से ललाट पर 
पुतलियों से पुतलियों पर
बरौनियों से बरौनियों पर
भौहों से भौहों पर
रोमावलि से रोमावली पर 
पीठ से पीठ पर
हथेलियों से हथेलियों पर
जिह्वा से जिह्वा पर
अंगुलियों से अंगुलियों पर
दांतों से गिन-गिन कर सघन तीक्ष्ण दंत पंक्तियों पर अंकित किए 
अपने नाम और चिह्न
पसीने से पसीने की बूंदों पर लिखा अपना होना
प्राण वायु पर लिखा प्राण वायु से
और उसको लौटा कर रख दिया एक दूसरे के हृदय के सकोरे में
इसी सब में 
हमने जाना कि छूने से नहीं मिटते तन पर पड़े चोट के चिह्न
हमने पाया कि चूमने से भी नहीं मिटते मन पर पड़े चोट के चिह्न
हमने पाया कि कैसे भी खींची गई हो स्नेह रेखा
उसको महाकाल भी नहीं मिटा पाता
पाँच
तो आओ 
तन और मन के जिस हिस्से पर न हों हमारा अंकन 
अभी इसी क्षण उस पर अंकित करो 
कुछ लकीरें बना दो उस पर
कुछ रेखाएँ खींच दो
जैसे नए बर्तनों पर खुदवाए थे हमने अपने-अपने नाम
ठठेरा बाजार में
ताकि हम उन्हें असंख्य बर्तनों में खोज पाएँ
हमने एक दूसरे के शरीर पर अंकित किए अदृश्य लेख और रेख
जैसे कि असंख्य शरीरों के बीच 
जब देह का दीपक न जल पाए तब भी 
एक दूसरे को खोज पाएँ
छ:
यदि हमने न लिखा होगा सर्वत्र एक दूसरे पर तो
कैसे कहोगी कि यह जो मेरी काया है वह काया सर्वांग तेरी है
और मैं भी अंधकार के सात आवर्तों के बीच कैसे कभी पहचानूँगा कि 
यह जो तेरी काया है वह तो सर्वांग मेरी है
देखो इस पर यह यहाँ लिखा है मैंने कुछ
ये देखो ये 
हमारे चिह्न यहाँ अंकित हैं
तो आओ अंकित करें एक दूसरे पर
हम तुम अपने नाम अपने चिह्न।
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