जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

महान लेखक चिनुआ अचीबे को श्रद्धांजलि देते हुए यह लेख मैंने यह लेख लिखा था, जो कल ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित हुआ था. आप लोगों से साझा कर रहा हूँ- प्रभात रंजन 
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चिनुआ अचीबे के उपन्यास ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ का नायक पर ओकोनक्वो पूछता है- क्या गोरा आदमी ज़मीन के बारे में हमारे रिवाज़ जानता है? जवाब मिलता है- कैसे जान सकता है जब वह हमारी भाषा भी नहीं बोलता? लेकिन वह कहता है हमारे रिवाज़ खराब हैं, और हमारे अपने भाई भी, जिन्होंने उसका धर्म अपना लिया, यही कहते हैं कि हमारे रिवाज़ बुरे हैं. 1958 में प्रकाशित चिनुआ अचीबे के इस उपन्यास ने सभ्यताओं के संघर्ष का एक ऐसा पाठ प्रस्तुत किया कि उसके बाद उनको अफ्रीकी साहित्य का पिता कहा जाने लगा. मूलतः अंग्रेजी में लिखे गए उपन्यास थिंग्स फाल अपार्ट के बारे में कहा जाता है कि उसने अफ्रीका के बारे में पश्चिमी समाज के नजरिये को सिर के बल खड़ा कर दिया. कहा जाता है कि जिस तरह से अफ्रीकी समाज की कथा इस उपन्यास में आई है इससे पहले कभी कही नहीं गई थी. जिस तरह गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ के उपन्यास वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सालिटयुड के प्रकाशन के बाद लैटिन अमेरिकी समाज के बारे में लोगों की धारणा बदल गई उसी तरह का काम इस उपन्यास ने अफ़्रीकी समाज के बारे में किया. इस एक उपन्यास के कारण उनको अफ्रीका के महानतम लेखकों में गिना जाता है. 1958 में प्रकाशित इस उपन्यास के अब तक 50 भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं. हाल में ही चीज़ें बिखरती हैं नाम से उसका हिंदी अनुवाद हार्पर कॉलिन्स ने प्रकाशित किया है. 
1950 के दशक में लेखन शुरु करने वाले अचीबे की लेखक के रूप में प्रतिष्ठा का कारण केवल यही एक उपन्यास नहीं है, बल्कि वह दृष्टि है जिसने उपनिवेशवाद की भाषा अंग्रेजी में पूरे बल के साथ यह स्थापित किया कि हम इस भाषा की यशस्वी लेखन परंपरा का पूरा सम्मान करते हुए उसमें उस ढंग से, उस शैली में उपन्यास-कथा साहित्य लिख सकते हैं जिसके ऊपर पश्चिमी दृष्टि की छाया भी न हो. अकारण नहीं है कि उन्होंने अपने आरंभिक उपन्यासों के शीर्षक अपने प्रिय अंग्रेजी लेखकों से लिए, ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ यीट्स से तो ‘नो लौंगर ऐट इज’ का शीर्षक टी.एस.इलियट को श्रद्धांजलि है. एक बार पूछे जाने पर उन्होंने कहा था कि अंग्रेजी उनकी अफ़्रीकी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए माकूल भाषा साबित होगी, लेकिन वह अंग्रेजी एक ऐसी अंग्रेजी होगी जो अपने पूर्वजों के साथ पूरा तादात्मय स्थापित करते हुए समकालीन अफ्रीका के अनुकूल हो. वह समकालीन अफ्रीका जो औपनिवेशिक दासता के मुक्त है, जो अपनी अलग पहचान बनाने के लिए कृतसंकल्प है, जो गृहयुद्धों में उलझा हुआ है. लेकिन इन सबके बावजूद जो पुरानी जमी हुई गर्द को झाड़कर उठ खड़ा होना जानता है. उनका सारा लेखन पश्चिम की उस साजिश का लगातार विरोध करता है जो अफ्रीका का लगातार अमानवीयकरण करता रहा है.

चिनुआ अचीबे को जातीय उपन्यासकार कहा जा सकता है. तर्काधारित आधुनिकता ने पारंपरिक समाजों को जो शिक्षा दी उसने उनको अपनी सभ्यता से शर्म करना सिखाया, यह सिखाया कि जो भी पश्चिमी ढंग की शिक्षा से महरूम है वह पिछड़ा है. अचानक से इस नई आधुनिकता के सामने पारंपरिक समाज बौने नज़र आने लगे. पश्चिमी आधुनिकता ने तीसरी दुनिया के देशों को यह बताना शुरू किया कि असल में आप कितने जाहिल रहे हैं, कितने पोंगापंथी रहे हैं. हर देश में ऐसे पश्चिम समर्थक पैदा हो गए जिन्होंने अपनी सभ्यता की कमियां गिनाने को ही अपना पेशा बना लिया. प्रसंगवश, चिनुआ अचीबे का दूसरा उपन्यास ‘नो लौंगर ऐट इज’ यही बताता है कि किस तरह पारंपरिक समाज का एक व्यक्ति अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद, सिविल सेवा में आने के बाद अपने समाज से कटता चला जाता है. औपनिवेशिक शासन ने किस तरह आधुनिकता के नाम पर लोगों को अपने समाज से काट दिया, उनके दूसरे उपन्यास में इसी दर्द की अभिव्यक्ति है. असल में चिनुआ अचीबे के उपन्यासों ने औपनिवेशिक समाजों को अपनी परम्पराओं के ऊपर गर्व करना सिखया. अगर हम पिछड़े हैं तो भी वह हमारा है और हमें उसके ऊपर गर्व है. असल में उनके आरंभिक दोनों उपन्यास यूरोपीय आधुनिकता का एक क्रिटिक पेश करते हैं और कहीं न कहीं यह भी बताते लगते हैं कि आधुनिकता को विकास का एकमात्र वाहक समझना वास्तव में बहुत बड़ा छल था. आधुनिकता के सीमान्तों को दिखने वाले उपन्यास उन्होंने लिखे और एक तरह से उत्तर-आधुनिक उपन्यास का आधार तैयार करने का काम भी किया.

इसमें कोई शक नहीं कि उनके बाद के अफ़्रीकी लेखकों ने उनके लेखन में अपनी आवाज पाई, उनको लेखन की एक दृष्टि चिनुआ अचीबे से मिली. हाल के दिनों की एक प्रसिद्ध नाइजीरियाई लेखिका चिमामंदा न्गोजी अदीची ने लिखा है कि अचीबे को पढकर यह महसूस हुआ कि हम जैसी लड़कियां जिनकी त्वचा का रंग चॉकलेट-जैसा है, जिनके उलझे-उलझे बालों से पोनी टेल नहीं बनाया जा सकता है, उनके लिए भी साहित्य में स्थान है. अफ़्रीकी लेखकों में उन्होंने यही आत्मविश्वास पैदा किया. हालांकि ईनाम-इकराम के मामले में वे उतने भाग्यशाली नहीं रहे. अंग्रेजी में प्रकाशित उपन्यास के लिए दिया जाने वाला मैं बुकर प्राइज़ के लिए वे पहली बार 1987 में अपने उपन्यास ‘एन्टहिल्स ऑफ सवान्ना’ के आखिरी दौर तक नामांकित रहे लेकिन मैं बुकर इंटरनेशनल प्राइज़ उनको मिला 2007 में, जो अंग्रेजी साहित्य लेखन परंपरा की चूलें हिला देने वाले एक लेखक के लिए स्वाभाविक ही कहा जाएगा. वैसे पाठकों का भरपूर प्यार उनको मिला और उनके पहले उपन्यास ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ की करीब पांच करोड़ प्रतियाँ दुनिया भर में बिक चुकी हैं.

वैसे इसे भी विडम्बना ही कहा जाएगा कि अफ़्रीकी अस्मिता के इस महान लेखक को अपने जीवन का आखिरी चौथाई अमेरिका में बिताना पड़ा. 1990 में एक दुर्घटना के बाद शरीर के निचले हिस्से में लकवे के शिकार हो जाने के बाद वे अमेरिका में रहने के लिए चले गए. वहीं उनका निधन हुआ. औपनिवेशिक समाज की विडंबनाओं को उद्घाटित करने वाला यह लेखक मानवीय विडंबनाओं में जीता रहा. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि चिनुआ अचीबे ने औपनिवेशिक गुलामी के शिकार समाजों को उठकर खड़ा होना सिखाया, अपने ऊपर गर्व करना सिखाया और उस आधुनिकता के ऊपर प्रश्नचिन्ह लगाना सिखाया जिसे पश्चिमी सभ्यता मनुष्य की मुक्ति का सबसे बड़ा मंत्र मानती आई थी. उसका जाना एक ऐसे लेखक का जाना है जिसने प्रेम की भाषा में नफरत का पाठ पढाया, जिसने औपनिवेशिक भाषा को उसके औपनिवेशिक अहंकार से मुक्त करवाया.  
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  1. चिनुआ अचीबे ने औपनिवेशिक गुलामी के शिकार समाज को उठकर खड़ा होना सिखाया, अपने ऊपर गर्व करना सिखाया और उस आधुनिकता के ऊपर प्रश्नचिन्ह लगाना सिखाया जिसे पश्चिमी सभ्यता मनुष्य की मुक्ति का सबसे बड़ा मंत्र मानती आई थी. उसका जाना एक ऐसे लेखक का जाना है जिसने प्रेम की भाषा में नफरत का पाठ पढाया, जिसने औपनिवेशिक भाषा को उसके औपनिवेशिक अहंकार से मुक्त करवाया.

  2. चिनुआ अचीबी के नाम से परिचय हुआ हजी था कि उनके रचनाकर्म पर विराम लगने की जानकारी मिली. उसके बाद उनका यह समृद्ध परिचय पढ़ने को मिला. इसके लिए धन्यवाद प्रभात जी.

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