जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आर. चेतनक्रान्ति की कविताएँ किसी आशा, किसी विश्वास की कविताएँ नहीं हैं, न ही स्वीकार की.  वे नकार के कवि हैं, उस नकार के जो आज मध्यवर्ग की संवेदना का हिस्सा है. ‘भयानक खबर’ के इस कवि ने हिंदी कविता को नया स्वर दिया, नए मुहावरे दिए. भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित चेतन इस बार ३ दिसंबर को हैबिटैट सेंटर में ‘कवि के साथ’ कार्यक्रम में कविता पाठ करेंगे- जानकी पुल.

१.
मेरे सर में तुम्हारे नाम की एक नस 
नई आई 

ये सोती है न थकती 
न मौसम की नमी से ताप इसका मंद होता

है इसका काम तुमको याद रखना 
बस यही करती
और थोडा दर्द माथे में बराबर.
२.
 कहीं खामोश 
मैं रह जाना    
चाहता हूँ 
किसी घाटी में 
एक बड़ी सी झील के पास
                            अकेला
अपने दुःख के साथ 
इतने दिन 
कि वह मुझमें 
और मैं उसमें
घुल सकूँ.
मैं अब देखना तुम्हें
नहीं चाहता
न आखें तुम्हारी
किसी और दुनिया में झांकती हुईं    वो
न होंठ 
जो वापस
कली हो जाते हैं
जब मैं तुम्हारे    
गाल चूमता हूँ
न हथेलियाँ     
जिनकी छाप
मेरी ठुड्डी पर 
अभी तक रखी है
देखना 
तो अब मैं
कुछ भी नहीं चाहता
बस लेकर इन्हें
जाना चाहता   हूँ 
वहाँ झील के बीचोबीच 
जहाँ जाकर मुझे 
नहीं होगा    
वापस लौटना. 
३.
प्रोफेशनल
उसको एक चाकू दिया गया
और तनख़्वाह
कि जब मरते हुए आदमी को देखकर
तुम्हारी आत्मा काँपे
तुम पश्चाताप से बाज रहो।
तो जब वह घर में घुसा
उसके हाथ में सिर्फ आदेश था
उसने बैठकर मकतूल की पूरी बात सुनी
उसे दया आई, हमदर्दी हुई
आदत के तहत उसके दिल ने कहा कि छोड़ दो
पर वह माना नहीं
उसे पीछे रह जाने से डर लगा
चूक जाने की आशंका से वह सिहर उठा
अपनी सालाना रिपोर्ट में
एक खाली खाना उसे दिखा
जहाँ साहब कुछ भी लिख सकता था,
यह भी कि तुम फेल रहे
उसे अपनी तनख़ाह याद आई
जो सबसे ज्यादा थी
तब उसने मकतूल से कहा
कि देखो चिडि़या
और थोड़ी देर बाद
अपने काले थैले में
एक सिर ठूँसकर वह निकला
जिसकी आँखें खुली हुईं थीं।
४.
पैसे के सिपाही
सिपाही नहीं कहूँगा तो
बात इतनी सपाट हो जाएगी
कि कला नहीं रहेगी
और कला भी उनको न दी जाए
तो यह उनकी लगन का अपमान होगा
और उससे भी ज्यादा उनकी पीड़ा का
वे एक बंजर भूमिखंड पर जन्मे
कीड़े की तरह कुछ दूर चले
और फिर खड़े होकर
जो पहला फैसला उन्होंने किया
उसे उनका आखिरी फैसला होना था
इसके बाद उन्होंने
सीढि़याँ नहीं गिनीं
न मील और न लोग
एक दिन चिलचिलाती धूप में
वे दिल्ली में एक चौकोर छत पर खड़े दिखे
पैसे की पहली फसल
उन्होंने अपनी जन्मभूमि को रवाना कर दी थी
और अब उन्हें दिल्ली जीतनी थी।
वे खाकी वर्दी में नहीं थे
इसलिए वे हर कोने में खप गये
जहाँ भी उन्हें जगह दिखी
वे तैनात हो गए
और जब शहर के आदि-वासियों ने कहा त्राहिमाम्
वे अपनी पहली कार लेकर गली में निकले।
पैसा कमाने के लिए आए हुए पैसे के सिपाही
आह!
वे पत्थर नहीं बीनते
न काँटे
फूलों की भंगुरता उन्हें चकित नहीं करती
न भूखे का विलाप उनका ध्यान खींचता है
ये अतीत की चीजें हैं, उन्हें दिल्ली में नहीं होना चाहिए,
वे कहते हैं,
हमने गाँव में यह सब देखा है हन् के
अब नहीं!
५.
झल्ले खाँ
झल्ले खाँ पावर नहीं चीन्हते
हाथी से पूछते हैं कि आप हाथी हो
शेर से
कि आप ही वो शेर हुए
जिनसे सब काँपते!
झल्ले खाँ अपनी ही दुनिया में रहते हैं
किसी से कुछ नहीं कहते हैं
फिर भी
उनके दुश्मन हजारों
झल्ले खाँ अगर जानते
ताकतवरों को पहचानते
पद का उनको भान होता
ऊपर नीचे का ज्ञान होता
हाथी शेर से बचकर निकलते
एक चूहे को रोज कुचलते
तो वो भी सबके जैसे होते
उनके पास भी पैसे होते
पर झल्ले खाँ अभी शक के दायरे में हैं
आम लोग उन्हें देखकर सावधान हो जाते हैं
खास कुछ और परेशान हो जाते हैं।
झल्ले खाँ न खासों में खास हैं
न आमों के आम हैं
न किसी के मालिक हैं, न किसी के गुलाम हैं
और बस इसीलिए बदनाम हैं
कोई कहता अभिमानी हैं
कोई कहता अज्ञानी हैं
कोई कहता कि कुछ भी नहीं सर जी
बेमतलब की परेशानी हैं।
६.
तुम्हारी जय
तुम एक लालच निकालकर रख देते हो
और वे मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगते हैं
तुम एक ऊँची कुर्सी पर बैठकर
उन्हें देखते हो और गम्भीर स्वर में कहते हो
कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।
गुड़ जब कम पड़ने लगता है
और मक्खियाँ एक-दूसरे को खाने लगती हैं
तुम न्यायाधीश बन जाते हो
कि इंसाफ का बोलबाला हो
और ताकत का मुँह काला हो
पर हारते हो
एक के बाद एक मुकदमा तुम हारते चले जाते हो
मशीन जिसे मशीन की तरह चलना था
मशीन की तरह चल पड़ती है और चीजें तुम्हें
क्षुद्र लगने लगती हैं।
तब तुम सन्त हो जाते हो
और मनुष्यों को
लालच के जादू से बाज रहने की सीख बेचने लगते हो।
७.
अगर तुम हिंदी के साहित्यकार हो
तुम अगर हिंदी के साहित्यकार हो
तो प्रसन्नता का बज्जाजखाना खोलने से पहले
तुमको सोचना चाहिए।
प्रसन्नता एक वस्तु है
जिसका व्यापार इतना आसान है
कि अब अंतर्राष्ट्रीय हो चला है
दुख को हांका जा रहा है
किनारों पर अंधेरे में
कि वह शोध का विषय लगने लगे
एक द्वीप है जिस पर तुम बैठे हो एकाकी
और आसपास सस्ती खुशियों का समंदर ठाठे मार रहा है
सर्कस की फ्लडलाइटें कभी कभार तुम्हारे उपर से गुजर जातीं हैं
तुम उन्हें दिखते हो
अपनी कुडली में फंसे
पानी के विषहीन सांप की तरह
दिलचस्प और प्राचीन
तुम एक ऐसे देश में हो
जिसने अपने आराध्यों से काम लेना सीख लिया है
मूर्तियों को उसने भीतर से खुरचा, गणेश जी को गुल्लक कर दिया
और पोथियों को बटुआ
एक देश
पवित्रता के छिद्रहीन परकोटे में
जिसकी रातें इतनी गलत गुजरीं
कि उसने सब कुछ को पटक देना चाहा
पर पटके सिर्फ कूल्हे
और एक पूरी फौज खड़ी कर दी जो अगली एक सदी
सिर्फ नाचने वाली है
यह प्रतिशोध में खेलता हुआ नाच है
जिसका ग्रंथों और नसीहतों पर बहुत कुछ लेना निकलता है
और जहां तक तुम सफल थे वहां तक तुम पर भी
तुम अगर हिंदी में पड़े हो और साहित्यकार भी हो
तो तुम्हें अपने शत्रु को पहचान लेना होगा
हो सकता है वह तुम्हारे घर ही में हो
कोई बेटा तुम्हारा,बीवी या बेटी
पड़ौस में तो वे रहने ही आ गए हैं
शाम के झुटपुटे में छत पर तुम्हें
इतनी मनोरंजक हैरानी में भला और कौन देखेगा।
तुम अगर हिंदी के साहित्यकार हो
तो अब तुम्हें एक नाच का
और कुछ ऐसी नवोन्मेषकारी गालियों का आविष्कार करना होगा
जो उस त्वचा को भी चीर सकें जिसको सब तत्व उपलब्ध रहे
तुम्हें अंग्रेजी के साॅरी और थैंक्यू का जवाब ढूंढ़ना होगा
कि जो तुम्हारे क्रोध से बचकर जाते हुए आदमी को वापस आने पर मजबूर कर दे
और वह खड़ा होकर तुम्हें फिर से समझने की कोशिश करे
तुम्हें मालूम करना होगा
कि लाल किले में बंद खूंखार तलवारों से
अब उनके बच्चे भी क्यों नहीं डरते
तुम्हें उन डाकुओं और लुटेरों को वापस बुलाना होगा
जिन्होंने सदियों तक सुखियों के जोश को बाड़े भीतर रखा
उनकी तनमनरंजक हिंसा को नाथा
और दुनिया को बचाया
तुम्हें अच्छाई के लिहाफ को उधेड़कर देखना होगा
कि सींग वाले पिस्सुओं की यह फौज कहां पल रही है
तुमको इस लोभ से निकलना होगा
कि पुरस्कार समिति
तुम्हारे नमस्कार,नमोनम, कृप्या, कृपा करें, क्षमा चाहता हूं और
जीने दें बराय मेहरबानी को भी गिनेगी
जब गिनने बैठेगी तुम्हारी कामयाबियों को
तुम्हें अपनी कामयाबियों से छुटकारा पाना होगा
क्योंकि उनके बावजूद तुमको हास्यास्पद समझ लिया गया है
हालांकि कहा नहीं गया
क्योंकि संस्थापक की बीवी को भदेस नहीं जमता
वह नहीं चाहती कि आहतकारी कुछ सीधे कहा जाए
क्योंकि तुम्हारे अहंकार से ज्यादा
गरज उसे तुम्हारे अस्तित्व के खात्मे से है।
८.
सिर्फ इतना भी काफी औरत होना था
कुछ काम मैंने औरतों की तरह किए
कुछ नहीं,कई
और फिर धीरे-धीरे सारे
सबसे आखिर में जब मैं लिखने बैठा
मैंने कमर सीधी खड़ी करके
पंजों और ऐडि़यों को सीध में रखकर बैठना सीखा
इससे कूल्हों को जगह मिली
और पेट को आराम
उसने बाहर की तरफ जोर लगाना बन्द कर दिया
अब मैं अपने शफ़्फाफ नाखूनों को
आइने की तरह देख सकता था
और उँगलियों को
जो अब वनस्पति जगत का हिस्सा लग रही थीं
­ ­ ­
नहीं, मुझे फिर से शुरू करने दें
मैंने पहले औरतों को देखा
उनकी खुशबू को उनकी आभा को
जो उनके उठकर चले जाने के बाद कुछ देर
वहीं रह जाती थी
उनके कपड़ों को
जिनमें वे बिलकुल अलग दिखती थीं
मैंने बहुत सारी सुन्दर लड़कियों को देखा, और उनसे नहीं
उनके आसपास होते रहने को प्यार किया,
और फिर धीरे-धीरे नाखून पालिश को
लिपस्टिक को
पायल को
कंगन को
गलहार को
कमरबन्द को
और ऊँची ऐड़ी वाले सैंडिल को
उन तमाम चीजों को जो सिर्फ औरतों की थीं
और जो उन्हें मर्दों के अलावा बनाती थीं
मर्द जो मुझे नहीं पता किसलिए
बदसूरती को ताकत का बाना कहता था
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6 Comments

  1. आशुतोष जी नें लगभग वही बात कह डाली है, जो मेरे जेहन में भी कौंधी थी. Recitation for one more time वाली भावनाओं को ये कवि जगा जाता है.

  2. चेतन की ये कवितायें हमारी इस उलटी दुनिया को फिर से उलट कर देखती हैं . जिस से कि चीजों को उन की सीध में देखा जा सके .लेकिन हमें चीजों को उलटा देखने की आदत है .इस लिए हमें उन की कवितायें उलटी पलटी लगती हैं.एक प्रोफेशनल हत्यारे , एक पत्थरदिल सिपाही और एक औरताना मर्द से हम नफरत के सिवा क्या कर सकते हैं.लेकिन चेतन की कविता की आंख से देख कर ऐसा कर पाना मुश्किल हो जाता ही. क्योंकि तब हम बाहर ही नहीं ,उन्हें कहीं अपने भीतर भी देख रहे है.

  3. नहीं, मुझे फिर से शुरू करने दें
    मैंने पहले औरतों को देखा
    उनकी खुशबू को उनकी आभा को
    जो उनके उठकर चले जाने के बाद कुछ देर
    वहीं रह जाती थी
    उनके कपड़ों को
    जिनमें वे बिलकुल अलग दिखती थीं
    मैंने बहुत सारी सुन्दर लड़कियों को देखा, और उनसे नहीं
    उनके आसपास होते रहने को प्यार किया,
    cheten jee key paas ek gadhee huee bhasha hai aur apnee baat kahney ka adbhud shalee

  4. चेतन की कविताऍं पढ़ीं। प्रोफेशनल, पैसे के सिपाही, झल्‍ले खॉं, तुम्‍हारी जय और सिर्फ इतना भी काफी
    औरत होना था और अगर तुम हिंदी के साहित्‍यकार हो—सारी कविताऍं यथार्थ के नए उन्‍मादी परिदृश्‍य से
    बावस्‍ता हैं। झल्‍ले खॉं के भीतर की आयरनी भीतर कसकती है। प्रोफेशनल में निहित मंतव्‍य को
    देख जगूड़ी की मंदिर लेन वाली कविता की याद हो आयी। चेतन की क्‍या पंक्‍तियॉं हैं:
    उसको एक चाकू दिया गया
    और तनख़्वाह
    कि जब मरते हुए आदमी को देखकर
    तुम्हारी आत्मा काँपे
    तुम पश्चाताप से बाज रहो।

    तो जब वह घर में घुसा
    उसके हाथ में सिर्फ आदेश था
    सचमुच इन्‍हें पढ़ कर फौरी तौर पर इससे कुछ ज्‍यादा कहना इनके तापमान को कम करना है। चेतन का आज जन्‍मदिन है। 3 को न पढ़ कर चार को वे कविता पढ़ते तो मैं भी दिल्‍ली में उनकी कविताओं
    का लाभ उठा सकता। खैर बधाई चेतन। बधाई प्रभात ।

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