अज्ञेय की जन्मशताब्दी को ध्यान में रखकर उनका मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन ज़ारी है. सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन ने उनकी पांच दुर्लभ किताबों का प्रकाशन इस अवसर पर किया है. मुझे वे किताबें बहुत अच्छी लगीं. मैंने सोचा आपसे भी उन किताबों को साझा करूं- जानकी पुल.
अज्ञेय ने निबंध में साहित्यकार के बारे में लिखा है कि ‘साहित्यकार से हमारा अभिप्राय निरे लेखक से कुछ अधिक है- अर्थात वह व्यक्ति जो लेखन कार्य को धनसंचय के एक संभाव्य निमित्त से अधिक कुछ मानकर मनोयोगपूर्वक उसकी साधना करता है.’ अपने लेखन में साहित्यकार की अपनी इस परिभाषा के अनुरूप बनने का उन्होंने निरंतर प्रयास किया. उपन्यास, कविता, निबंध, संपादन जैसे सर्जना और चिंतन के अनेक ऐसे क्षेत्र पहचाने जा सकते हैं जिनमें उनके लेखन और प्रयोगों की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है, उनकी मूर्तिभंजकता की पहचान की जा सकती है. उनके इसी सम्पूर्ण साहित्यकार छवि को ध्यान में रखते हुए उनके जन्मशताब्दी वर्ष में सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन ने उनकी पांच पुस्तकों के सेट का प्रकाशन किया है. सेट में उनकी प्रतिनिधि कहानियों का संग्रह ‘नगा पर्वत की एक घटना’, संपादित पुस्तक ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य’, दो निबंध संचयन ‘साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया’ एवं ‘त्रिशंकु’ हैं. साथ ही, एक पुस्तक ‘पुष्करिणी’ है जिसमें उन्होंने मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरण गुप्त, दिनकर, प्रसाद, निराला, पन्त तथा महादेवी की अपनी पसंदीदा कविताओं का चयन प्रस्तुत किया है.
१९५३ में साहित्य सदन, चिरगांव, झाँसी से ‘पुष्करिणी’ का प्रकाशन हुआ. पुस्तक के तीन खण्डों को छापने की योजना थी. इसकी भूमिका में अज्ञेय ने लिखा, ‘यह संकलन मुख्यतया उस व्यक्ति को सामने रखकर प्रस्तुत किया गया है जो हिंदी के समूचे काव्य-कृतित्व का परिचय तो चाहता है, पर प्रत्येक कवि के अलग-अलग अनेक ग्रंथों का संग्रह और पारायण करने के साधन या समय जिसके पास नहीं है.’ वास्तव में, उस समय पाठ्यक्रमों को ध्यान में रखकर काव्य-संचयन तैयार किये जाते थे. ऐसे में पाठकों को ध्यान में रखकर काव्य-संचयन तैयार करना अच्छी कविता से पाठकों को जोड़ने का पहला प्रयास था. मेरे जानते मैथिलीशरण गुप्त तथा दिनकर की कविताओं का इतना अच्छा चयन अन्यत्र उपलब्ध भी नहीं है. दुर्भाग्य से यह योजना खड़ी बोली की कविता के पहले खंड के प्रकाशन से आगे नहीं बढ़ सकी. इस पुस्तक के पुनर्प्रकाशन से अज्ञेय की काव्याभिरुचि सम्बन्धी अनेक भ्रमों का निराकरण भी हो जाता है.
अज्ञेय की कहानियों का अपना ऐतिहासिक महत्व है. जिस दौर में साहित्य समाज का दर्पण होता है जैसे वाक्य लेखकों के आदर्श हुआ करते थे उस दौर में अज्ञेय की कहानियों ने मानव-मन को टटोलने का काम किया, उसे मध्यवर्गीय शहरी परिवेश दिया. इसी नई तरह की संवेदना की तरह कारण उनकी कहानी ‘रोज़’ को नई कहानी आंदोलन की आरंभिक कहानियों में शुमार किया जाता है. हेमिंग्वे की तरह उन्होंने शब्दों-बिम्बों के माध्यम से कथा कहने की एक ऐसी प्रविधि विकसित की जिसका कथानक छोटे-छोटे जीवनानुभवों के माध्यम से बुना होता. ‘जितना तुम्हारा सच है’ के इस लेखक ने ऐसे समय में अपनी कहानियों के माध्यम से व्यक्ति और उसके जीवन की महत्ता स्थापित करने का काम किया जब नितांत सार्वजनिकता का दबाव लेखन पर बहुत था. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने अज्ञेय की कहानियों को तीन तरह के वर्गों में बांटा है- एक, जिनमें क्रांति का चित्र प्रस्तुत किया गया है, दूसरे, वे जिनका संबंध युद्ध जीवन से है तथा तीसरी तरह की कुछ वे जो विभाजनोपरान्त शरणार्थी समस्या पर लिखी गई हैं.
‘नगा पर्वत की एक घटना’ की १२ कहानियों में इस वर्गीकरण के मुताबिक़ हर दौर की कहानी है. रूस की क्रान्ति की पृष्ठभूमि में लिखी गई कहानी ‘विपथगा’ है, तो दूसरी ओर ‘रमन्ते तत्र देवताः’ जैसी कहानी है जिसकी पृष्ठभूमि भारत विभाजन है. लेकिन जो बात महत्त्वपूर्ण है वह यह कि इन कहानियों में उन घटनाओं की पृष्ठभूमि भर है, कहानियाँ वास्तव में मानव मन की गुत्त्थियों से उलझती हैं. ‘विपथगा’ में एक ऐसी नारी है जो राष्ट्र के सामने अपने सतीत्व को तुच्छ समझती है, ‘रमन्ते तत्र देवताः’ में जब कौमी दंगों में एक हिन्दू स्त्री को बचाकर उसके घर पहुंचाया जाता है तो उसका शंकालु पति उससे पूछता है कि वह रात भर कहाँ रह कर आई है. ‘वे दूसरे’ और ‘रोज़’ जैसी कहानियों के माध्यम से आधुनिक जीवन की नीरसता और स्त्री-पुरुष संबंधों के तनावों को उन्होंने अभिव्यक्ति दी. इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘नगा पर्वत की एक घटना’ की कहानियों से कथाकार अज्ञेय को सम्पूर्णता में समझने में मदद मिलती है.
अज्ञेय के निबन्धों की चर्चा के बिना उनके लेखन की चर्चा अधूरी ही मानी जायेगी. समीक्ष्य पुस्तकों में अज्ञेय का एक निबंध संग्रह ‘त्रिशंकु’ भी है. १९४५ में पहली बार प्रकाशित इस संकलन के निबन्धों को आधार बनाकर संपादक कृष्णदत्त पालीवाल ने भूमिका में लिखा है, ‘उनके निबन्धों का उद्देश्य है पाठकों को नए के प्रति जागृत करना, रूचि परिष्कार करना, जड़ीभूत सौन्दर्यभिरुचियों को तोड़कर नया पाठक समाज तैयार करना ताकि कठिन कवि-कर्म की जटिल संवेदना को वह ग्रहण करने में समर्थ हो सके.’ वास्तव में वे साहित्य में नए मूल्यों की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे थे और उस दौर में उनके लिखे निबन्धों को उसी ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. साहित्य, समाज, संस्कृति, रूढ़ि, मौलिकता, राजनीति आदि के सन्दर्भों को आधार बनाकर लिखे गए उनके निबन्धों को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. साहित्य उनके लिए जीवन-मूल्य की तरह था. संस्कृति और परिस्थिति निबंध में वे लिखते हैं, ‘भाषा का चरम उत्कर्ष साहित्य में प्रकट होता है. अतः साहित्य का पतन संस्कृति का और अंततः जीवन का पतन है…’
‘साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया’ उनके निबन्धों का एक और संचयन है. इस पुस्तक में संकलित निबन्धों की चिंताएं भी वही हैं. इसमें अज्ञेय द्वारा संपादित चारों सप्तकों की भूमिकाएं भी संकलित की गई हैं. हालाँकि ‘तार सप्तक’ के प्रथम संस्करण की भूमिका इसमें नहीं दी गई है, उसके दूसरे संस्करण की भूमिका है दी गई है. इसी तरह ‘रूढ़ि और मौलिकता’ निबंध दोनों संकलनों में संकलित है. एक बात और है कि ये निबंध अज्ञेय ने उस दौर में लिखे थे जब आधुनिकता उनका सबसे बड़ा सरोकार था और जिस दौर के बारे में उनके विषय में कहा जाता है कि वे टी.एस. एलियट के प्रभाव में थे. उत्तरवर्ती दौर में लिखे उनके निबन्धों को संकलित नहीं किया गया है जब उनके चिंतन के केंद्र में परम्परा थी तथा जिनके आधार पर आरम्भ में विद्रोही माने गए इस लेखक को पुरातनपंथी ठहराया जाने लगा.
अज्ञेय ने सहृदय पाठकों के लिए केवल कविता संचयन ही तैयार नहीं किया, उन्होंने ‘आधुनिक हिंदी साहित्य’ जैसा संचयन तैयार किया जिसमें वत्सराज भनोत, जैनेन्द्र कुमार, हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रभाकर माचवे, शिवदान सिंह चौहान जैसे विद्वानों के लेख हैं. प्रकट तौर पर पुस्तक का उद्देश्य यही दिखता है कि साहित्य के पाठकों को साहित्य की पृष्ठभूमि से परिचित करवाया जाए. इसी कारण संकलन में कविता, समालोचना, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि विधाओं पर लेख शामिल किए गए हैं. डॉ. नगेंद्र का भी एक लेख है जिसमें उन्होंने हिन्दी कविता की नवीनतम प्रगतियों की चर्चा की है. इन पुस्तकों को एक साथ देखने पर यही लगता है कि वास्तव में अज्ञेय की दृष्टि केवल हिंदी के अकादमिक जगत पर नहीं होती थी, उनका उद्देश्य हिंदी में एक स्वतंत्र बौद्धिक परिसर का निर्माण करना था. पुस्तकों में संकलित निबन्धों को उसी दिशा में किए गए प्रयासों के तौर पर देखा जाना चाहिए.
इन पुस्तकों का एक साथ प्रकाशन स्वागतयोग्य घटना है. वैसे उनकी अपनी कविताओं का अगर कोई संचयन भी इस सेट का हिस्सा होता तो अज्ञेय को सम्पूर्ण साहित्यकार के रूप में समझने में अधिक मदद मिलती. इन पुस्तकों के संयोजक-संपादक कृष्णदत्त पालीवाल ने प्रत्येक पुस्तक की अलग से भूमिकाएं भी लिखी हैं जिससे इन पुस्तकों की पृष्ठभूमि को समझने में मदद मिलती है.