जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

अभी इतवार को प्रियदर्शन का लेख आया था, जिसमें गौरव-ज्ञानपीठ प्रकरण को अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने का आग्रह किया गया था. वरिष्ठ लेखक बटरोही ने उसकी प्रतिक्रिया में कुछ सवाल उठाये हैं. सवाल गौरव सोलंकी या ज्ञानपीठ का ही नहीं है उस मनोवृत्ति का है जिसका शिकार हिंदी का बेचारा लेखक होता है- जानकी पुल.
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प्रियदर्शन के लेख को पढ़कर मैं हतप्रभ हूँ। क्या यह मामला गौरव सोलंकी, रवींद्र कालिया, और आलोक जैन के बीच फौजदारी मुकदमे का है? कि प्रियदर्शन ने फैसला सुना दिया इसलिए सबको मानना ही पड़ेगा। हिंदी के गौरव के सवाल क्या उसकी गिनी-चुनी पत्रिकाओं और ब्लागों में उठते निजी सवाल और उनके जवाब हैं? प्रियदर्शन लिखते हैं, ‘ज्यादा दिन नहीं हुए, जब नया ज्ञानोदय में हुए छिनाल प्रसंग पर हिंदी के समाज में ज्यादा वैध और सार्थक प्रतिक्रिया हुई थी। तब तो गौरव सोलंकी के बाजू इस तरह नहीं फड़के थे? क्या इसलिए कि तब उन्हें ज्ञानपीठ खुशी-खुशी प्रकाशित कर रहा था? यह लिखने के बाद भी मैं खुद को गौरव सोलंकी के साथ खड़ा पाता हूँ। मैं ज्ञानपीठ वालों से यह दूर की अपील ही कर सकता हूँ कि वे इस अनावश्यक प्रसंग को और तूल न दें, लेखक और प्रकाशक के जटिल और संवेदनशील रिश्ते को समझते हुए, सारी खटास के बावजूद गौरव सोलंकी का संग्रह प्रकाशित करने का बड़प्पन दिखाएँ। हिंदी के गौरव का सवाल गौरव सोलंकी के सवाल से कहीं ज्यादा बड़ा है।‘
      और प्रियदर्शन यह मानकर चल रहे हैं कि गौरव के बाजू भले ही फड़कना बंद न करें, (क्या फर्क पड़ता है, कल का छोकरा-लेखक है!) भारतीय ज्ञानपीठ उनके इस ‘पंच न्याय’ को अवश्य मान लेंगे। चलिए, इसी बहाने मैं ही आपको कालिया जी से जुड़ा एक किस्सा सुना दूँ।
कालिया जी को उन दिनों ‘धर्मयुग’ के धर्मवीर भारती ने बड़े अपमानजनक तरीके से हटाया था और गुस्से से फुफकारते हुए वह इलाहाबाद में बस चुके थे। भारती के कारनामों पर उन्होंने ‘काला रजिस्टर’ शीर्षक एक कहानी लिखी थी, जिसे कोई भी छापने की हिम्मत नहीं कर रहा था। यह साठ के दशक के आखिरी दिनों की बात है और उस दौर के ‘धर्मयुग’ के आतंक के सामने आज के ‘नया ज्ञानोदय’ या ‘जनसत्ता’ पिद्दी भी नहीं हैं। उन्हीं दिनों शैलेश मटियानी ने उनकी मदद की थी, न सिर्फ वह कहानी ‘विकल्प’ के विशेषांक में प्रकाशित की, अपनी कितनी ही दूसरी टिप्पणियों में कालिया का पक्ष लिया था।
कुछ ही वर्षों के बाद आपात्काल का वह दौर शुरू हुआ, जिसमें हिंदी के अधिकांश लेखकों की असलियत सामने आई। ‘धर्मयुग’ में वह बहुचर्चित चित्र प्रकाशित हुआ जिसमें हिंदी के कुछ लेखक ‘जायसी की समाधि में संजय गांधी की ओर से’ श्रद्धांजलि देने के लिए उपस्थित थे। चित्र में शैलेश मटियानी के अलावा  मार्कंडेय आदि लेखक दिखाई दे रहे थे और फोटो के साथ जो कैप्शन दिया गया था, उसके अनुसार ये लेखक संजय गांधी की ओर से वहां गए थे। वह एक लंबी कहानी है, जब मटियानी ने इसे अपनी मानहानि मानते हुए भारती से क्षमा मांगने के लिए कहा। जब उन्होंने क्षमा नहीं मांगी, मटियानी ने बैनेट कोलमैन  के विरुद्ध पहले उच्च न्यायालय और फिर उच्चतम न्यायालय में मुकदमा दर्ज किया। मटियानी को यह बात समझनी चाहिए थी कि वह किससे टक्कर ले रहे हैं, मगर लेखक के तथाकथित स्वाभिमान ने उन्हें कंगाली के बावजूद भारत के सबसे बड़े प्रकाशन संस्थान के विरुद्ध मोर्चा लेने की ताकत दी और यद्यपि वे जीते नहीं, मगर लेखक को कैसे जीना चाहिए, इसकी मिसाल वह हिंदी लेखकों के सामने पेश कर गए। मजेदार बात देखिए, हिंदी लेखक रवींद्र कालिया… पलक झपकते ही धर्मवीर भारती के बगल में खड़े होकर उनके गवाह बन गए। उन्होंने बाकायदा गर्व से खुद को ‘संजय गांधी का आदमी’ कहना आरंभ कर दिया… उसी का परिणाम है कि आज वह जिस कुर्सी पर बैठे हैं, वह भी उसी गर्वोक्ति का पुरस्कार है। दूसरी ओर, इस तथाकथित हिंदी-समाज ने शैलेश मटियानी की क्या दुर्गति की, यह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में प्रियदर्शन के द्वारा समझौते का सुझाव देना हिंदी वालों का सही चरित्र ही तो उजागर करता है। गौरव सोलंकी, प्रभात रंजन नेकनीयती के बावजूद, हिंदी के सनातन अभावों में रहने वाले लेखक को भला क्या दे सकते हैं!
अगर इतने लंबे संघर्ष के बाद यही सब करना था तो क्यों प्रभात रंजन ने अपनी किताब ज्ञानपीठ से वापस ली, क्यों ‘छिनाल’ प्रकरण में हिंदी के सैकड़ों लेखक बिना किसी दबाव के एक मंच पर आ खड़े हुए? हिंदी लेखकों का गुस्सा क्या अपने अहं की तुष्टि तक ही होता है? क्या हिंदी साहित्य सचमुच ऐसी पंचायत है, जिसमें कोई-न-कोई बीच का रास्ता निकल ही आता है… भले ही वह लेखकीय स्वाभिमान के आड़े ही क्यों न आता हो! क्या हिंदी लेखन संसार की दूसरी भाषाओं के लेखन से कोई अलग चीज है? चलिए इसी बहाने प्रियदर्शन जी को मैं अपनी ही एक आपबीती सुनाता हूं।
बात 1994 की है जब मैं रामगढ़ में महादेवी जी के घर को संग्रहालय का रूप देने में जुटा था। गांव के लोगों की बैठक बुलाकर मैंने जब उनसे कहा कि मैं इस स्थान को एक साहित्यिक तीर्थ के रूप में विकसित करना चाहता हूं, सब लोगों ने अपना पूरा सहयोग देने की बात कही। चंदा एकत्र करके घर के प्रांगण में महादेवी जी की मूर्ति का आदेश दे दिया गया और जर्जर भवन की मरम्मत के लिए सरकार से भी आर्थिक सहयोग मिल गया। मूर्ति बनकर आ गई, उसे स्थापित भी कर दिया गया तो मैंने महसूस किया कि एकाएक ग्राम प्रधान का मेरे प्रति रुख बदल गया था। मुझे लगा, शायद मुझसे कोई गलती हो गई है, इसी सोच-विचार में था कि प्रधान एक दिन मेरे घर पर ही आ गए। मेरी तारीफों का पुल बांधकर वह फौरन मुद्दे पर आ गए: ‘शायद आप भूल गए हैं। मूर्ति गलती से मकान के बाहर लग गई है। उसे तो बैठक में उसी जगह पर लगना था, जहां देवी जी बैठा करती थीं।‘ (महादेवी जी को प्रधान जी ‘देवी जी’ कहा करते थे।)
मैंने उन्हें बताया कि पहले भी मूर्ति के लिए यही जगह सोची गई थी, वे तपाक्-से बोले, ‘डाक्टर साहब, मूर्ति तो मंदिर के अंदर ही स्थापित होती है ना!’
पहली बार मेरा माथा ठनका कि उनके मन में तो कोई और ही खिचड़ी पक रही है! मैं खुद हैरत में था कि जिस आदमी ने उनकी संपत्ति पर कब्जा करने के लिए महादेवी जी को कई बार कचहरी में घसीटा था, एकाएक कैसे इतनी जल्दी पलट गए? अब यह बात समझ में आई कि वे इस घर को महादेवी जी का मंदिर बनाकर इसके सचमुच के पुजारी बनना चाहते थे। हालांकि कई बार पहले भी उन्होंने जिक्र किया था कि ‘दिया-बाती वह रोज समय पर कर दिया करेंगे, मैं कहां रोज नैनीताल से यहां आने की तकलीफ करूंगा।‘ मैं चूंकि प्रतिमा-पूजन के सख्त खिलाफ रहा हूं, इसलिए यह विचार मेरे दिमाग में न कभी आया और न बाद में आ सकता था। मगर उनके दिमाग में तो शुरू से ही एकमात्र यही विकल्प था इसलिए जब उन्होंने देखा कि अब यह जमीन हाथ आने से रही, यह प्रचारित करना शुरू कर दिया कि मैंने महादेवी के घर में कब्जा कर लिया है। हालांकि कई बार जिलाधिकारी ने उनको बुलाकर समझाया कि जिलाधिकारी जिस संस्था का अध्यक्ष हो, कोई कैसे उस पर कब्जा कर सकता है, वे नहीं माने और उन्होंने शासन के विरुद्ध ही याचिका दायर कर दी कि उनके पूर्वजों ने महादेवी जी को इस शर्त पर जमीन बेची थी कि उनकी मृत्यु के बाद उनके बच्चे ही इस संपत्ति का उपयोग करेंगे, बच्चे न होने की दशा में जमीन वापस विक्रयकर्ता की हो जाएगी। मजेदार बात यह कि न्यायालय ने भी इस आधार पर याचिका स्वीकार कर ली। अंततः जिलाधिकारी ने संपत्ति को सरकार में समाहित किया तब भी उन्होंने कमिश्नर के यहां पुनर्विचार याचिका दायर की। वहां भी हार गए तो उन्होंने उच्च न्यायालय में सरकार के खिलाफ मुकदमा ठोक दिया। मजेदार बात यह कि मीडिया द्वारा भी यह प्रचारित किया जाने लगा कि सारा मामला मेरे और ग्राम प्रधान के बीच विवाद का है। अंततः जब मेरे लिए वकील की फीस जुटाना मुश्किल हो गया, मुझे इसे कुमाऊं विश्वविद्यालय को प्रदान करने का अप्रिय निर्णय लेना पड़ा, यह जानते हुए कि इस घर की नियति अंततः हिंदी विभागों की तरह जड़ संस्था बन जाने की होगी। मेरे पास इसके अलावा विकल्प ही क्या था?
सबसे मजेदार बात तो तब उपस्थित हुई, जब नैनीताल के जिलाधिकारी ने एक दिन अपने एस. डी. एम. को मेरे पास भेजा। वह बोले, ‘बटरोही जी, डी. एम. साहब आपकी बहुत इज्जत करते हैं। उन्होंने मुझे खास तौर पर इसलिए भेजा है कि कोई संतोषजनक समाधान निकल सके। जनता के प्रतिनिधि से आप बहुत दिनों तक पंगा नहीं ले सकते। सारा गांव किसी दिन डीएम आफिस घेर लेगा तो आप क्या कर लेंगे। बेहतर है, समय रहते कोई बीच का रास्ता निकाल लीजिए। किसी कोने में उसे मंदिर बनाने दीजिए। आपका क्या जाता है, अपने-आप धूप-बाती जलाता रहेगा।… महादेवी जी किसी-न-किसी बहाने से याद ही तो की जाएंगी!’
आज प्रियदर्शन के लेख को पढ़कर मुझे एस. डी. एम. के सुझाव की याद आ गई।
क्या मुझे एस. डी. एम. की राय मान लेनी चाहिए थी। हालांकि मैं भी तो कितने दिनों तक उस पर पालथी मार कर बैठा रह सकता हूं? मुझे हटाने के लिए सरकार ने दो साल पहले ही निदेशक की योग्यताओं को लेकर नया शासनादेश भेजा था कि निदेशक की उम्र पचास वर्ष से कम और साठ से अधिक नहीं होनी चाहिए। खैर, अभी तो मुझे हटाकर वह अपना पसंदीदा निदेशक ले आएंगे, मगर जो नया आदमी आएगा, उसे क्या ग्रामप्रधान बने रहने देगा? तब प्रियदर्शन की तरह हिंदी का कोई लेखक सरकार को यह सुझाव नहीं दे रहा होगा कि ‘सरकार ही क्यों नहीं ग्राम प्रधान को महादेवी जी का घर सौंप देने का बड़प्पन दिखा देती!’ हालांकि भाई दूधनाथ सिंह महादेवी जी पर लिखी गई अपनी बहुचर्चित किताब में यह सुझाव दो साल पहले दे चुके हैं।
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14 Comments

  1. मनोज रंजन जी, संभव है, आपकी बात सही हो, होगी ही, मगर सवाल है ऐसे में हिंदी का एक संवेदनशील लेखक कैसे अपना रास्ता तलाश करे. एक रास्ता मधु कांकरिया, प्रत्यक्षा, सोनाली सिंह, अरुण देव आदि का भी तो है, जो चुपचाप मुख्यधारा के बीच अपना रास्ता तराश ही रहे हैं. हो सकता है कि वह परफेक्ट रास्ता न हो, यह भी हो सकता है, इन्हे भी एक दिन मैत्रेयी पुष्पा, जया जादवानी, उदय प्रकाश, गौरव सोलंकी आदि बना दिया जाय, पर आज के दिन यह एक रास्ता तो है ही. उन्हे चलने दिया जाय. जिस दिन थक जायेंगे, खुद ही लाइन से बाहर हो जायेंगे.

  2. बटरोही जी,

    प्रियदर्शन का आलेख जनसत्ता ने प्रकाशित किया. यह वही जनसत्ता है जिसने उदयप्रकाश के पक्ष में और मंगलेश डबराल के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी. क्या उदयप्रकाश इतने सरल हैं? मेरा मानना है कि दोनों ही अवसरवादी हैं. बल्कि उदय कहीं अधिक. रही बात गौरव सोलंकी प्रकरण की तो वह साहित्य की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो चर्चा के सभी हथकंडे अपनाना जानती है. यह हथकंडा भी उसमें से एक है. ज्ञानपीठ, कालिया और आलोक जैन के अलावा यदि यह मामला किसी अन्य प्रकाशक से जुड़ा होता तब भी क्या ये इतना ही शोर मचाते और प्रियदर्शन इनके संकटमोचक के रूप में आते. याद रखें— कालिया पहले भी जनसत्ता के निशाने पर थे. प्रियदर्शन का आलेख वहां छपने से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. गौरव सोलंकी के लिए ज्ञानपीठ ही क्यों, राजकमल, वाणी आदि प्रकाशक क्या कमतर हैं. उन्हें वहां अपने को आजमाना चाहिए. उनके इंकार करने पर क्या वह या उनके मित्र इसी प्रकार हायतौबा मचाते?

    मनोजरंजन

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