हाल में ही पत्रकार-लेखक विकास कुमार झा के उपन्यास ‘मैकलुस्कीगंज’ को लंदन का इंदु शर्मा कथा सम्मान दिया गया है. उसी उपन्यास पर प्रस्तुत है विजय शर्मा जी का विचारोत्तेजक लेख- जानकी पुल.
तत्कालीन हिन्दी साहित्य के परिदृश्य पर नजर डालने पर हम पाते हैं कि उसमें ग्रामीण जीवन करीब-करीब गायब हो गया है जबकि जमीनी सच्चाई यह है कि भारत अभी भी गाँवों में बसता है. आज भी गाँव भारत का यथार्थ है. प्रेमचंद और रेणु दोनों ने अपने साहित्य के केंद्र में गाँव को रखा हालाँकि दोनों के ग्रामीण चित्रण में जमीन-आसमान का अंतर है. गाँव शिवमूर्ति के यहाँ भी है मगर वह प्रेमचंद और रेणु के गाँव से भिन्न है. भौगोलिक स्थिति में उतना भिन्न नहीं है जितना सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति में भिन्न है. गाँव को केन्द्र में रखकर एक और उपन्यास हिन्दी साहित्य में आया है. यह गाँव प्रेमचंद, रेणु और शिवमूर्ति तीनों के गाँव से भिन्न है. विकास कुमार झा का गाँव ‘मैकलुस्कीगंज’ एक विशिष्ट गाँव है. विशिष्ट इस अर्थ में कि यह भारत का गाँव होते हुए उससे काफ़ी हद तक भिन्न है. जब यह गाँव बसाया गया तब न सूचना क्रांति का संजाल था, न ही आवागमन की बहुत सुविधाएँ, न ही बिजली की समुचित व्यवस्था थी. मगर यह गाँव इनके बिना भी आबाद-बरबाद होता रहा.
शहर बसाए जाते हैं. किसी कल कारखाने, व्यापार बाजार के चलते शहर अस्तित्व में आता है. गाँवों का अस्तित्व प्रकृति और मनुष्य से जुड़ा है. जबसे मनुष्य ने एक स्थान पर रहने का विचार किया गाँवों की बसावट हो गई. गाँव योजनाबद्ध तरीके से सोची-समझी नीति के तहत नहीं बसाए जाते हैं. गाँव में अधिकतर लोग पैदा होते हैं बाहर से आकर नहीं बसते हैं. हाँ, गाँव से बाहर जाना, गाँव से पलायन एक सामान्य बात है. शहर से आकर बाहर के लोगों का गाँव बसना नहीं सुना जाता है. अगर ऐसा होता है तो यह अनोखी रीत होगी और इसी अर्थ में मैकलुस्कीगंज एक अनोखा गाँव है. मैकलुस्कीगंज को बाहरी लोगों के लिए योजनाबद्ध तरीके से सोची समझी नीति के तहत बसाया गया. पिछली सदी के तीसरे दशक में मिस्टर अर्नेस्ट टिमोथी मैकलुस्की ने इस गाँव को बसाने का बीड़ा उठाया. ऐसा उन्होंने क्यों किया इसका इतिहास जानना बहुत जरूरी है. यह उपन्यास इतिहास और कल्पना का सुन्दर मिश्रण है. एंग्लो इंडियन समुदाय के भविष्य की चिंता से परेशान अपनी कल्पना को साकार करने के लिए मि. मैकलुस्की पहले बंगलोर गए उन्होंने वहाँ करीब तीस एकड़ का एक बाग देखा मगर वहाँ बात बनी नहीं वे वापस कलकत्ता लौटने लगे कि “उनकी नजर बिहार के राँची-पलामू क्षेत्र के बीच इस वन-क्षेत्र पर पड़ी. चारों तरफ़ पहाड़ियाँ और जंगल. हाजार-बाजार से दूर. तब इस इलाके में कंका, लपड़ा और हेसालंग नामक छोटे-छोटे आदिवासी गाँव थे. मि. मैकलुस्की ने ठान लिया कि इन्हीं गाँवों को मिलाकर वे अपने सपनों का गाँव आबाद करेंगे.” सन १९३४ का यह साल भारत के इतिहास में बहुत सारे परिवर्तनों को एक साथ लेकर आया. इसी साल मैकलुस्कीगंज कल्पना को मूर्त रूप मिलना आरंभ हुआ. रातू महाराज से दस हजार एकड़ जमीन लीज पर लेकर काम प्रारंभ हो गया.
मि. मैकलुस्की अपने एंग्लो इण्डियन समुदाय को लेकर चिन्तित थे क्योंकि यह कौम पुर्तगाली, डच, फ़्रांसीसी की तरह अंग्रेजों ने पैदा तो की थी मगर इसका दायित्व लेने को वे तैयार न थे. इस कौम का दायित्व लेने को कोई राजी न था तभी तो ये लोग ‘दोगले’ और ’हरामी’ कहलाते हैं. अंग्रेजों ने भी इन्हें दुत्कारा. लॉर्ड कर्जन ने कहा, “ईश्वर ने हम ब्रिटिशों को बनाया, ईश्वर ने इंडियंस को बनाया और हमने एंग्लो इंडियंस को बनाया.” डेनिस का कहना है, “यही विडम्बना एंग्लो इंडियंस की रही, बेटे. इट इज द टच ऑफ़ द कलर…जिसने हमेशा तड़पाया. हम न अंग्रेज थे, न ही इंडियन… हमारी चमड़ी में अंग्रेजों सी गोराई थी…हमारे बाल ब्रिटिश साहबों की तरह सुनहले थे…हमारी जुबान अंग्रेजी थी…पर रॉबिन खून हमारा हिन्दुस्तानी था…भारत की मिट्टी का खून…इंडियन ब्लड…हम अंग्रेजी डिशेज खाते थे…और इंडियन मिठाइयाँ लड्डू-पेड़े भी पसंद करते थे….” ”१९३० के उन शुरुआती दिनों में १७ वाल्यूम्स में ‘साइमन कमीशन’ की लम्बी-चौड़ी रिपोर्ट आई. सात सदस्यों वाले इस कमीशन के चेयरमैन सर जॉन साइमन ने भारत में संवैधानिक-प्रशानिक सुधार से संबंधित अपनी रिपोर्ट में साफ़ कर दिया था कि यूरेशियंस यानी एंग्लो इंडियन समुदाय के वास्ते अंग्रेजों की कोई जिम्मेदारी नहीं है और इंग्लैंड में भी एंग्लो इंडियनों के वास्ते कोई जगह नहीं होगी.” उन्हें उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता था.
बाजार की चकाचौंध से दूर (उस समय आज की तरह बाजार का चक्रव्यूह न था) था यह गाँव. एक-एक करके बहुत सारे एंग्लो इंडियंस आते गए और जमीन खरीद कर बंगले घर बनाते गए. आज इसकी चमक -दमक समाप्त हो चुकी है फ़िर भी ये पुर्तगीज शैली के बंगलों के ध्वस्त-अभिशप्त स्थापत्य, मुँह के बल गिरी लाल….हरी…नीली…टीन की टूटी-जंग लगी छतें, बंगलों के बीच उग आए घने जंगल देखे जा सकते हैं. उस समय तक फ़्लैट बनाने का चलन नहीं हुआ था न ही मैकलुस्की साहब रीयल इस्टेट के व्यापारी थे वरना फ़्लैट बना कर बेचते और लाखों-करोड़ों कमाते. उन दिनों तो हर आदमी जिसके पास जरा भी पैसा था अपनी जमीन खरीदता था. मनमाफ़िक घर, बंगला, कोठी बनवाता था. हाँ एक बात का ध्यान अवश्य रखता था घर के चारों ओर खूब सारी खुली जगह हो पेड़ पौधों के लिए, साग सब्जी उगाने के लिए. आज की तरह आसमान में लटके माचिस के डिब्बों में रहने की बात लोग सोच भी नहीं सकते थे. सो मैकलुस्की गंज का हर घर अपने स्थापत्य में विशिष्ट था. हाँ, हर घर का अपना बाग-बागीचा जरूर था.
मैकलुस्की साहब ने गाँव बसा दिया मगर नई पीढ़ी के लिए उन्नति की कोई योजना न थी यहाँ. आजादी के कुछ वर्षों में लोगों का आजादी से स्वप्न भंग होने लगा. दूसरे देश उन्हें लुभाने लगे. एंग्लो इंडीयन समुदाय की युवा पीढ़ी को अपना भविष्य ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, हाँगकाँग जैसी जगहों पर नजर आया सो वे अपनी बूढ़े माता-पिता को गंज में छोड़ कर पलायन करने लगे. पिछली पीढ़ी जिसने गंज में अपने सपने बोए थे वे इसे छोड़ कर जाने को राजी न थी. डेनिस मैगावन भी अपने पिता को छोड़ कर अपनी पत्नी लीजा और बेटे रॉबिन को लेकर हाँगकाँग जा बसे और वहाँ सफ़लता हासिल की. डेनिस तन से विदेश में रह रहे थे मगर उनके मन से गंज कभी नहीं निकला. वे अपने बेटे रॉबिन को गंज की मजेदार बातें तकरीबन रोज सुनाते. रॉबिन इन रस भरी कथाओं को सुन कर बड़ा हो रहा था. उसके मन में गंज को देखने की उत्कंठा थी औअर एक दिन वह गंज पर किताब लिखने के लिए वहाँ आ पहुँचता है. आया था वह मात्र कुछ महीने रह कर अपनी किताब की सामग्री जुटाने पर गंज के जादू में कुछ ऐसा बँधा कि यहीं का होकर रह गया. गंज के अस्तित्व के संघर्ष में पूरी तरह से डूब गया.
अपने जनम के बीस पच्चीस सालों के बाद ही गंज युवा पीढ़ी के पलायन के कारण ‘घोस्ट टाउन’ में परिवर्तित होने लगा था. इसी विलुप्त होते गाँव को रॉबिन पुन: बसाने का, इसे एक आदर्श गाँव में परिवर्तित करने का संकल्प करता है और इस महायज्ञ में उसका साथ देती है बहादुर उराँव की साहसी बेटी नीलमणि. डेनिस के बचपन का दोस्त बहादुर किसी प्रकार का अन्याय सहन नहीं करता था. उसने गाँव के दलालों, दुती भगत जैसे लोगों के विरुद्ध सदा आवाज उठाई. मैकलुस्कीगंज भी भारत के अन्य हिस्सों की तरह सत्ता के दलाल, राजनीतिज्ञों, ठेकेदारों के गठबंधन का शिकार था. इन कुटिल लोगों ने बहादुर उराँव को डकैती और खून के इल्जाम में गिरफ़्तार करा दिया. गाँव चकित देखता रह गया. गाँव में इस बात को लेकर विप्लव हो जाता मगर बहादुर ने अपने लोगों को ऐसा करने से रोका. “पुलिस की गिरफ़्त में जकड़े बहादुर उराँव ने सबको त्योरियाँ चढ़ाते हुए कहा, “पागल हो गए हो क्या तुम लोग? कानून हाथ में लोगे. कुछ नहीं होगा. मुझे जाने दो. देखते हैं क्या करते हैं ये लोग. तुम लोग जाओ तो, ये सब तीर-धनुष घर में रखो.” थोड़ी सी पूछताछ के नाम पर ले जाकर उसे जेल में ठूँस दिया पुलिस ने. दुष्टों को बहादुर को जेल भेज कर संतुष्टि नहीं हुई उसे पागल घोषित करके काँके आरोग्यशाला में भेज दिया गया.
समाजशास्त्र का नियम है कि जब कोई बाहर से आकर बसता है तो प्रारंभ में स्थानीय (पहले से रह रहे लोग) उनके प्रति सशंकित रहते हैं, उनसे दूर रहते हैं. उनकी हर बात की आलोचना करते हैं. इसका सबसे अच्छा उदाहरण रेल का डिब्बा है जब भी किसी स्टेशन पर नए यात्री का प्रवेश होता है पहले से बैठे यात्री उसे अपना दुश्मन मानते हैं उन्हें लगता है कि यह उनकी सम्पत्ति में हिस्सा बँटाने आ गया है. उनके अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण करने वाला है फ़िर थोड़ी देर में सब सामान्य हो जाता है. लोग घुलमिल कर बातें करने लगते हैं. खाने पीने की चीजों का आदान-प्रदान होने लगता है. गंज में जब एंग्लो इण्डियन आने लगे तो आदिवासी उनसे शुरु में दूर-दूर रहे. एक तो ये लोग सच में बाहरी थे और देखने-सुनने में आदिवासियों के लिए बिल्कुल अजनबी थे. रूप-रंग, भाषा-बोली, रीति-रिवाज, धर्म-संस्कार सब भिन्न. “पर्वतारण्य में जब पन्ने की तरह चमकती…नई हरी दूब की तरह उन पुराने आदिवासी गाँवों के भीतर एक अद्भुत किस्म का नया गाँव आहिस्ता-आहिस्ता जड़ें जमा रहा था…तब लपड़ा, हेसालंग और कंका पहाड़ी की तलहटी में कई पुश्तों से बसे आदिवासी – गंझू लोगों को एकदम से ठगमूरी लग गई थी, “क्या होगा भाई…ये गोरी-गोरी चमड़ीवाले हर-हाकिम…साहब लोग सबको खाकर…कहीं गाँव से चिड़ई-चुनमुन तक को खदेड़-मारकर…गाँव पर पूरी तरह कब्जा तो नहीं कर लेंगे…? यह तो नहीं कह देंगे कि गाँव ‘लिलाम’ हो गया. कुछ भी कर सकते हैं ये…देश में इन्हीं फ़िरंगियों का राज है.” कुछ लोगों ने खुला विरोध भी किया. आदिवासी इसमें गहरी साहबी चाल देख रहे थे, क्योंकि उन्हें “इन लोगों की तो बोली भी समझ में नहीं आती न…इनकी तो दाँत के नीचे ही अंगरेजी रहती है.”
मगर यह अलगाव कब तक रहता जब एक ही स्थान पर रहना था. शहरों की बनिस्बत गाँवों के क्रियाकलाप ज्यादा सहजीवन से चलते हैं. शहरों में बहुत सारे कार्य मशीनों से होते हैं, प्रकृति से कटे हुए. गाँव में प्रकृति और सहजीवन का सिद्धांत जाने-अनजाने जुड़ा हुआ है. मैकलुस्कीगंज में आदिवासी पहले से रह रहे थे. एंग्लो इण्डियन समुदाय के यहाँ बसने से दोनों का एक दूसरे से काम आने लगे. संस्कृतियों का डिफ़्यूजन होने लगा. रीति-रिवाजों-विश्वासों का आदान-प्रदान होने लगा. फ़िर तो ये दूध-बताशे की तरह घुलमिल गए. एंग्लो इंडियन इनके रीति रिवाज मानने लगे. तीज-त्योहार में जमीन पर बैठ कर खाना खाने लगे, अपने घर का गृहप्रवेश स्थानीय रीति से कराने लगे. मेरी के प्रेम में पड़कर धर्म परिवर्तन कर रामसेवक डेविड बन गए. जीवन के अंतिम बरसों में मि. रेफ़ेल लतीफ़ के घर में घर के बुजुर्ग की तरह रहने लगे और गाँव वालों ने उन्हें प्यार से ‘मोहम्मद रुबिन रेफ़ेल’ का खिताब अता किया. मि. गिब्बन बाबू का मुंडन वैसे ही धूमधाम से कराते हैं जैसा कि उसका बाबा या नाना करवाता. कारनी आँटी की कैंटीन मजीद चलाने लगा और उनके बाद वही उसका वारिस बना. किट्टी को मुसीबत के समय रमेश मुंडा ने सहायता दी और अनाथ होने पर उससे शादी कर बच्चे पैदा किए. यह बात दीगर है कि उनकी निभ न सकी और किट्टी को जीविका और बच्चों के लालन पालन के लिए तरह-तरह के छोटे से छोटे काम करने पड़े. दोनों समुदाय एक-दूसरे के दु:ख-सुख में भागीदारी करने लगे. रॉबिन की गिरफ़्तारी पर जिस तरह पूरा गाँव एकजुट होकर साठ सत्तर किलोमीटर की यात्रा करके धरना देने राँची पहुँचता है, वह देखने योग्य है.
इस एकजुटता का श्रेय जाता है रॉबिन और नीलमणि की लगन, परिश्रम और प्रतिबद्धता को. उन्होंने एक ‘घोस्ट टाउन’ को आदर्श ग्राम के रूप में बसाने के लिए कमर कस ली. गाँव का जीवन मेहनत मांगता है. उन्होंने खुद मेहनत करके नमूना पेश किया और पूरे मैकलुस्कीगंज में सहकारिता, सहभागिता, सामूहिक प्रयास, सामूहिक विकास की हवा बहने लगी. यह सब हुआ लोगों के एकजुट होने से, सेल्फ़ हेल्प से. संगठन में बल होता है. गंज में सहकारी खेती, पशु पालन, मधुमक्खी पालन, मुर्गी पालन, मछली पालन के साथ-साथ स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रबंध भी किए गए. जब रॉबिन और नीलमणि गाँव की कायापलट में जुटे थे तब दलालों-राजनैतिज्ञों-ठेकेदारों की दाल गलनी मुश्किल हो गई. इसी बीच बिहार से अलग होकर नया राज्य झारखंड बना. राजनीतिक खेमेबाजी में बदमाशों की बन आई. इसी बीच भारत में एक नई पौध उगी, कांट्रेक्ट किलर. इसी का सहारा लेकर रॉबिन और नीलमणि को रास्ते से हटाया गया. मगर अलख जग चुकी थी. बदमाशों का रास्ता साफ़ न हो सका. रॉबिन और नीलमणि का बेटा बिरसा जन्म ले चुका था. उपन्यास एक नई क्रांति, एक नए परिवर्तन की ओर संकेत करते हुए समाप्त होता है.
उपन्यास इतिहास दर्ज करता है पर कल्पना की चासनी में डुबो कर. इसके चप्पे चप्पे से लेखक विकास कुमार झा का गहरा परिचय है. पेशे से पत्रकार झा कई वर्षों तक इस क्षेत्र में रह चुके हैं. इसीलिए वे यहाँ की भाषा, बोली-बानी, रीति रिवाज, पर्व त्योहार और लोगों के स्वभाव का इतना सटीक चित्रण कर पाते हैं. उपन्यास अतीत-वर्तमान में सहज गति से आवाजाही करता रहता है. मि. डेनिस के माध्यम से हाँगकाँग की हलचलों से भी पाठक परिचित होता है और झाड़खंड के निर्माण के साथ ही आया राम, गया राम की राजनीति में हाथ धोते छूटभैय्यों की कथा भी सांकेतिक रूप से जानता है. झारखंड की बन्दरबाँट की राजनीति ने इसे कहीं का नहीं छोड़ा है. एमसीसी जिसका निर्माण खास उद्देश्य से हुआ था आज अपने मकसद से भटक गया है. आज लूटपाट-डकैती इनका धंधा बन गया है. जरूरत पड़ने पर राजनैतिक पार्टियाँ और उनके सुप्रीमों अपने स्वार्थ की खातिर किसी भी हद तक गिर सकते हैं. सो कॉल्ड प्रतिष्ठित नेता भी मुख्य मंत्री पद पर न बैठ पाएँ तो सरकारी भवनों और वाहनों में आग लगाने का आदेश अपने कार्यकर्ताओं को दे सकते हैं. और जब कार्यकर्ताओं की भीड़ आग लगाने जाएगी तो क्या सरकारी और गैर-सरकारी में भेद करने की योग्य बुद्धि उसके पास होगी? भूमाफ़िया, दलाल कॉन्ट्रैक्ट किलर का उपयोग करते हैं. मगर उपन्यास यह भी सुझाता है कि यदि लोगों को अपना जीवन सुधारना है तो सेल्फ़ हेल्प, संगठन, सहकारिता ही एकमात्र उपाय है. जनता यदि कमर कस ले तो उसका विकास, उसकी उन्नति कोई नहीं रोक सकता है. हाँ इसके लिए उसे बलिदान करना होगा. स्वार्थ त्याग कर समुदाय का भला सोचना- करना होगा. जनता के एकजुट होने से होने वाले कमाल को हम आजकल देख रहे हैं. और जब लोग अपनी मेहनत, लगन से कुछ प्राप्त करते हैं तो गर्व से कह सकते हैं, “वी डिड इट…हमने किया है यह.” उपन्यास दिखाता है कि स्थानीय स्वशासन के बिना गाँव की गति नहीं है.
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पुस्तक का नाम: मैकलुस्कीगंज (उपन्यास)
लेखक: विकास कुमार झा
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य: सजिल्द रु. ६००.०० पेपरबैक रु. २५०.००