जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

ओम थानवी (बाएं) द्वारा संपादित ‘अपने अपने अज्ञेय’ के परिवर्धित संस्करण (दो भाग) का लोकार्पण करते हुए डॉ नामवर सिंह. साथ में हैं कुंवर नारायण और अशोक वाजपेयी 

हमारी भाषा के मूर्धन्य आलोचक नामवर सिंह ने कहा है कि अज्ञेय अपने दौर के सबसे बड़े कवि थे, कि ‘शेखर: एक जीवनी’ से बड़ा उपन्यास हिंदी में लिखा नहीं गया. अवसर था ओम थानवी सम्पादित पुस्तक ‘अपने-अपने अज्ञेय’ के लोकार्पण का. पुस्तक अज्ञेय पर लिखे सौ लेखकों के संस्मरणों का संचयन है. बहरहाल, एक बड़ा आलोचक वह नहीं होता जो अपनी लकीर खींचकर उसी को पीटता चला जाता है, बल्कि वह होता है जो समय के साथ अपने विचारों का परिष्कार भी करता जाता है. नामवर जी इसीलिए मुझे बहुत बड़े आलोचक लगते हैं क्योंकि उन्होंने समय-समय पर अपनी भूल-गलती को स्वीकारा भी और उनमें सुधार करने की कोशिश भी की है. पहले उन्होंने रेणु को लेकर अपनी भूल-गलती को स्वीकारा था अब अज्ञेय को लेकर उनका यह स्वीकार. आइये पढते हैं उनके उस भाषण का यह लिप्यंतरित पाठ- प्रभात रंजन
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जहां तक इस पुस्तक का सवाल है, इसमें लगभग स्वयं ओम जी के लिखे हुए पचासेक पृष्ठों के दो खंड हैं. शुरु में भूमिका है और बाद में एक लेख है. और उसमें जो कुछ कहा है ओम जी ने, जितना जानते हैं, एक नई बात मुझे दिखी वह यह कि स्वयं अज्ञेय को अज्ञेय नाम पसंद नहीं था. और इसकी पुष्टि होती है… और अगर ओम जी ने नहीं लिखा तो चाहे तो लिख दें १९४४ की लिखी हुई एक कविता उनकी है जो लगभग obituary जिसे कहते हैं उस तरह की लिखी हुई कविता है- ‘समाधि लेख’ नाम से. उसमें दो पंक्तियाँ आती हैं- रहा अज्ञ/ निज को कहा अज्ञेय/ हुआ विज्ञ/ सो यह रहा अज्ञेय’. यह १९४४ की कविता है और ‘इत्यलम’ में छपी हुई कविता है. पहला बड़ा प्रसिद्ध संग्रह जो सरस्वती प्रेस से निकला था वह ‘इत्यलम’ था. इससे पुष्टि होती है जो ओम जी ने कहा है. अज्ञेय पर जो व्यंग्य है, जो दिखाई पड़ रहा है कि जब रहा अज्ञ तब अपने को अज्ञेय कहा था और जब विज्ञ हुआ तो सो यह रहा अज्ञेय. तो हलका-सा जो व्यंग्य है वह इससे प्रकट होता है और ओम जी के इस कथन से इस बात की पुष्टि होती है. मेरे मन में भी संदेह था इस कविता को लेकर कि क्यों लिखा है व्यंग्य वाली कविता उन्होंने समाधि-लेख के रूप में. १९४४ में ही वे अपना समाधि लेख लिख गए थे.
दूसरी बात, पुस्तक से जो अंश पढ़े गए उससे पता चलेगा कि कितना परिश्रम किया है. सौ लेखकों ने जो लिखा है कुल मिलाकर, मैं नहीं जानता कि हिंदी साहित्य में किसी लेखक के बाद उसकी शताब्दी के ऊपर, १०० तो इसी में है, मुझे उम्मीद है कि और इकठ्ठा किया जायेगा तब पता चलेगा कि अज्ञेय हिंदी जगत में क्या स्थान रखते थे, क्या महत्व रखते थे. यही नहीं बल्कि विंदा करंदीकर का जो पढ़ा गया संस्मरण, उससे मालूम होता है कि समूचे भारतीय साहित्य में अज्ञेय का क्या स्थान था. और ये काम ओम जी ने करके बहुत महत्वपूर्ण काम किया है. शताब्दी-वर्ष पर आप देखें तो अन्य कवियों के बारे में जो कुछ किया गया है उसको देखें और अकेले अज्ञेय के बारे में जो किया गया है वह ठोस, महत्वपूर्ण और उस कवि को ठीक-ठीक समझने के लिए महत्वपूर्ण काम किया है.
मुझे उम्मीद है कि, और मैं कह रहा था ओम जी से आपने अभी जीवनी खंड लिखा है इसमें उसकी पूर्ति हुई उनकी रचनाओं के पाठ से. और मैं उनकी दो कविताओं के बारे में पहले भी कह चुका हूं- ‘नाच’ और ‘असाध्य वीणा’. और असाध्य वीणा में जो अंत में जो मौन का दर्शन है, एक लेख इसमें मौन के बारे में लिखा है, अवाक होना और मौन होना दोनों में क्या अंतर है. उस कविता के अंत में तो मौन होता है लेकिन बहुत बड़ा अंश ऐसा है जहां वह अवाक होता है. इसलिए अवाक का रूप और मौन का दोनों का संबंध असाध्य वीणा में दिखाई पड़ता है. जहां तक स्वयं अज्ञेय की एक आजकल के जमाने में नए लिखने वाले कवियों के लिए एक शिक्षा भी हो सकती है अज्ञेय की समस्त कविताओं में आपको मुक्त से मुक्त छंद में भी ले का निर्वाह बराबर हुआ है, और इससे भिन्न लिखी जाने वाली कविताओं को वे लद्धड़ गद्य कहा करते थे. संभव है कि आज के लिखने वाले कवियों के लिए इशारा हो कि और यह अलग बात है कि इशारा अक्लमंद के लिए ही होता है, तो यह इशारा हो कि लद्धड़ गद्य के नाम पर बहुत सारी कविताएँ लिखी जा रही हैं. अज्ञेय से और नहीं तो एक सबक सीखें कि कविता में लय नाम की चीज़ होती है. और हर भाषा की अपनी अन्तर्निहित लय हुआ करती है, इस लय को ही नहीं जानता है जो आदमी वह जीवन और समाज के लय को क्या समझेगा? इसलिए अज्ञेय से और नहीं तो एक सबक तो सीख ही सकते हैं, भले ही उनकी और आलोचना की जाय.
आम तौर पर और लोगों को बुरा भी लगा है कि मैंने नेशनल बुक ट्रस्ट के अनुरोध पर मैंने अज्ञेय की कविताओं का एक चयन किया है. कई प्रगतिशील मित्र हमारे कुपित हुए कि यह पाप कर्म तू कर रहा है. जिंदगी भर जिसका हम विरोध करते रहे, तुम उसकी कविताओं का संचयन कर रहे हो, भूमिका भी उसकी लिख रहे हो, कह रहे हो कि वे उस दौर के सबसे बड़े कवि थे. और धीरे-धीरे यह मेरा ख़याल है कि पुरानी बहस क्योंकि बहस कभी खत्म नहीं होती उनके बारे में.
कबीर, सूर, तुलसी को लेकर विवाद बहुत चला है. बहुत से लोग तुलसी को सबसे बड़ा कवि नहीं मानते. कुछ सूर को ही मानते हैं, कुछ कबीर को मानते हैं. कहना चाहिए कि यह बहस जो है यह तो हर भाषा में चलती रहती है हिंदी में भी चले तो कोई हर्ज नहीं है. लेकिन धीरे-धीरे जब लोगों को पता चलेगा कुल मिला करके कि और चीज़ों के अलावा परिमाण नाम की भी एक चीज़ होती है. मैं समझता हूं कि अकेले अपने दौर के कवियों में जितनी कविताएँ अज्ञेय ने लिखी हैं उतनी कविता किसी कवि ने नहीं लिखी है. यह भी मात्रा बोध भी जैसे कि आप सूर सागर कहें, होगा सागर, और रामचरितमानस भले ही मानस हो लेकिन रामचरितमानस ही लोक मानस में बसा हुआ है, सूर सागर उसकी जगह ले नहीं सकता है. और कबीर चाहे जितने क्रांतिकारी हों लेकिन सब कुछ लिखने के बावजूद उस स्थान को ग्रहण कर नहीं सकते हैं.
धीरे-धीरे जो विवेक है, साहित्यिक विवेक और आलोचनात्मक विवेक इन चीज़ों को कवि रास्ता दिखाते हैं. और मुझे उम्मीद है कि जन्म-शताब्दी के बाद अज्ञेय का समूचा साहित्य जब आएगा तब पता चलेगा कि कुछ भी छोड़ा नहीं है. कहानियां भी बेजोड़ लिखी हैं, उपन्यास भी उन्होंने लिखा है. शेखर एक जीवनी. नदी के द्वीप को लेकर बहस हो सकती है, अपने-अपने अजनबी को लेकर बहस हो सकती है, लेकिन शेखर तो अपनी जगह टिका हुआ है. वैसा उपन्यास हिंदी में दूसरा तो लिखा नहीं गया. और जो आलोचनाएं, टिप्पणियां, स्मृति लेखा, काफी चीज़ें लिखी हैं. और सबसे बड़ी बात है कि क्रमशः अज्ञेय का सबसे ज्यादा शब्द-विवेक, और मैं समझता हूं हिंदी को जितने शब्द आधुनिक काल में अज्ञेय ने दिए हैं किसी कवि ने नहीं दिए हैं. बनाये हैं, गढे हैं, संस्कार दिया है उन्होंने. शब्द-सम्पदा एक कवि कितनी बढाता है. जब तुलसीदास की महिमा कहते हैं तो तुलसीदास का शब्दकोश पढ़िए तो लगेगा कि अकेले तुलसीदास ने हिंदी को कितने शब्द दिए. अज्ञेय ने हिंदी का शब्द भण्डार बढ़ाया है. और उनके साहित्य को पढ़ने से धीरे धीरे हम समझते चले गए और साथ ही विवेक दिया है. ओम जी ने अपनी किताब में उदाहरण दिया है कि मसलन पूर्वग्रह शब्द उनका दिया हुआ है, लोग हिंदी में पूर्वाग्रह लिखा करते थे. लोकार्पण शब्द उनका दिया हुआ है. शब्दों की सूची भी ओम जी ने दे दी है. कौन कवि अपनी भाषा बोलने वालों को कितने शब्द देता है यह भी उसका अवदान गिना जाना चाहिए. मैंने बहुत ज्यादा समय लिया क्योंकि अज्ञेय को सुनना ही, उनकी भाषा को, वाणी को हम लोगों ने सुना है यही बहुत बड़ी उपलब्धि है, इसको तो आप परिशिष्ट समझिए.
शिष्टजनों के लिए इतना ही बोझ काफी है.      
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