कल सआदत हसन मंटो की सौवीं जयंती है. उर्दू के एक ऐसे कथाकार की जिसने कहानियों का मिजाज बदलकर रख दिया. उनकी कहानियों पर बहुत गंभीर विश्लेषणपरक लेख लिखा है प्रसिद्ध कवि-अनुवादक नीलाभ ने. आपसे साझा कर रहा हूं- जानकी पुल.
———————————————————————–
‘एक ख़त’ से ले कर ‘दो गड्ढे’ तक — मण्टो की ये तीस कहानियाँ, उसकी कहानी कला में लगभग सभी रंगों का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ, मण्टो की सोच और ज़िन्दगी के बारे में उसके नज़रिये की भी, बहुत हद तक, हमारे सामने पेश करती है।
मण्टो की यह विशेषता है कि वह अपनी कहानियाँ में, अपने निजी, दृष्टिकोण और विचार-धारा के साथ, दख़लन्दाज़ी की हद तक, पूरे-का-पूरा मौजूद रहता है। अपने पात्रों की ख़ुशियों के साथ, वह उनकी तकलीफ़ें और दुख भी सहता है। यही वजह है कि उसकी कहानियों में संस्मरण का हल्का-सा रंग हमेशा झलकता है — किस्सागोई का वह स्पर्श, जो किसी बयान को यादगार बनाने के लिए बहुत ज़रूरी है।
लेकिन यह किस्सागोई, महज़ दिलचस्पी पैदा करने के लिए, सिर्फ़ चन्द गाँठ के पूरे और दिमाग़ से कोरे ‘साहित्य प्रेमियों’ का मनोरंजन करने के लिए नहीं है। किस्सागोई का यह अन्दाज़ एक ओर तो आम आदमी को इस बात का एहसास कराता है कि मण्टो उसके साथ है, उसके बीच है, वे सारे दुख-सुख महसूस कर रहा है, जो आम आदमी की नियति हैं, दूसरी और यह भी बताता है — ये कहानियाँ मण्टो ने इसलिए लिखी है कि पाठक यह जानें — उनकी नियति क्यों ऐसी है ताकि वे अपनी नियति को बदलने के लिए मुनासिब कार्रवाई कर सकें।
मण्टो की अधिकांश कहानियों की प्रेरणा या उत्स, उसका यह एहसास है — अत्यन्त प्रामाणिक और सच्चा एहसास — कि इस सारे निज़ाम में कहीं कुछ बहुत ग़लत है — आधारभूत रूप से ग़लत और नाकाबिले-बरदाश्त। वह अपनी सारी शक्ति के साथ दर्द और दुख और तकलीफ़ के सही मुकाम पर उंगली रखता है — कि यही उसके निकट, लेखन का उद्देश्य है। मण्टो की यह भावना एक गहरे नैतिक उत्तरदायित्व के एहसास से उपजती है। एक ऐसी व्यवस्था में रहते हुए, जो लगातार मानवीयता को कुचलती है, मण्टो निजी तौर पर, अपने समाज और अपने साथियों के प्रति ख़ुद को उत्तरदायी समझता है और तकलीफ़ के सही मुकाम पर उंगली रखना, उसके नज़दीक, उसके मानवीय फ़र्ज़ की आदयगी है। इसीलिए वह बार-बार उन आधार-भूत मसलों की तरफ़ मुड़ता है, जो सहज ज़िन्दगी के रास्ते में रुकावट बन कर खड़े हैं— राजनीति, साम्प्रदायिकता, झूठ, फ़रेब, स्वार्थ, भ्रष्टाचार, सरमायेदारी, शोषण।
अपने इसी नैतिक उत्तरदायित्व को महसूसकरके, मण्टो हर तरह की साम्प्रदायिकता और फ़िरकेवाराना प्रवृत्ति से ऊपर उठ कर उस ‘गलती’ पर पूरे ज़ोर से आघात करता है, इसीलिए वह तथाकथित ‘प्रगतिशील’ लेखकों की जमात से कहीं ज़्यादा प्रगतिशील है। चूँकि वह किसी राजनीतिक दल या धार्मिक सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ नहीं है इसीलिए वह चीज़ों को किसी पर्दें की आड़ नहीं देखता और अपने अनुभवों तथा अपनी अनुभूतियों को सच के तीखेपन से खुली अभिव्यक्ति देता है। उसे यह डर नहीं है कि कल अगर मौजूदा समीकरण में कोई फेर-बदल हो तो उसे अपना बडान बदलने की ज़रूरत पड़ सकती है।
वह अपने अनुभवों और उनकी अभिव्यक्ति के सिलसिले में किसी तरह का दबाव कबूल करने के लिए तैयार नहीं है। वह ‘पार्टी लाइन’ के नुक्ते-नज़र से नहीं, वरन सहज मानवीय दृष्टि से हालात को परखता है और इसीलिए वह पूरी आज़ादी के साथ ‘अपना बयान’ लिपिबद्ध कर सकता है। उसे पार्टी लाइन की कोई फ़िक्र नहीं है क्यों कि वह जानता है कि आम आदमी के दुख-दर्द को ‘पार्टी लाइनें’ कई बार नज़र अन्दाज़ कर देती है, पार्टी की राह न तोज़िन्दगी की राह है, न आम आदमी के एहसासात की। उसे मालूम है कि पार्टी को राजनैतिक स्तर पर बहुत-से समझौते भी करने पड़ते हैं और अक्सर पार्टी का नज़रिया डाग्मैटिक हो जाता है। इसीलिए मण्टो आश्वस्त है कि जब तक वह आम आदमी की तकलीफ़¨ का सहभागी बन कर उनका सच्चा और खरा चित्रण कर रहा है, और जनता को दुश्मनों की ओर इशारा कर रहा है। तब तक उसे प्रगतिशील कहलाने के लिए किसी बिल्ले या तमग़े की ज़रूरत नहीं है।
यही वजह है कि मण्टो, अपने चारों और फैले झूठ, फ़रेब और भ्रष्टाचार पर से पर्दा उठा कर, समाज के उस हिस्से को पेश करता है, जिसे लोग या तो स्वीकार करने से कतराते हैं या फिर ऐसा-तो–होता-ही-है के-से अन्दाज़ से नज़रन्दाज़ कर देते हैं। लेकिन मण्टो न तो उसे अस्वीकार कर सकता है न उसे नज़रन्दाज़ ही कर सकता है। वह इस सारे भ्रष्टाचार के रू-ब-रू हो कर, उसकी भर्त्सना करता है। लेकिन वह कोरा सुधारक नहीं है, वरन एक अत्यन्त भावप्रवण सम्वेदनशील व्यक्ति है, इसीलिए वह समाज के इस ‘गर्हित’ पक्ष — रंडियों, भड़वों, दलालों, शराबियों — मैं दबी-छिपी मानवीयता की तलाश करता है। वह समाज के निचले तबके के लोगों की ओर मुड़ता है और ‘आहत अनस्तित्व’ को छूने के लिए अपने ‘प्राणदायी हाथ’ बढ़ाता है।
चूँकि वह ‘सर्द पक्षधरता’ का कायल नहीं है, इसीलिए उसकी कहानियाँ, समान रूप से, सम्वेदनशील पाठकों को बड़ी तीव्रता और गहराई के साथ विचलित करती है। वह सारी बेचैनी जिसे मौजूदा निज़ाम में मण्टोमहसूस करता है, उसे वह बड़ी खूबी के साथ अपने पाठकों तक पहुँचा देता है। वह तिलमिलाहट, जिसने मण्टोको ये कहानियों लिखने के लिए उकसाया है, पाठक भी महसूस करते हैं और उस आक्रोश के तहत, जो मण्टोमें शिद्दत से उभरता है, वे भी ‘स्वराज्य के लिए’ के गुलाम अली की चीख़ में अपना स्वर मिलाना चाहते है :
“इन्सान जैसा है, उसे वैसा ही रहना चाहिए। नेक काम करने के लिए क्या यह ज़रूरी है कि इन्सान अपना सिर मुँडाये, गेरूए कपड़े पहने और बदन पर राख मले?… दुनिया में इतने सुधारक पैदा हुए हैं — उनको तालिम को तो लोग भूल चूके हैं, लेकिन सलीबे, धागे, दाढि़याँ, कड़े और बग़लों के बाल रह गये हैं…जी मैं कई बार आता है, बुलन्द आवाज़ में चिल्लाना शुरू कर दूँ — ख़ुदा के लिए, इन्सान की इन्सान रहने दो, उसकी सूरत को तुम बिगाड़ चुके हों — ठीक है — अब उसके हाल पर रहम करो, तुम उसको खुदा बनाने की कोशिश करते हो, लेकिन वह ग़रीब अपनी इन्सानियत भी खो रहा है।“
मण्टो की तलाश, दरअस्ल, इस लुप्त होती इन्सानियत की तलाश है। यही वजह कि ‘फ़ितरत के ख़िलाफ़’ जो कुछ होता है, उसे मण्टो एक लानत समझता है। जोभी चीज़इन्सान की स्वाभाविक और प्राकृतिक अच्छाई पर आघात करती है, वह उसके ख़िलाफ़ अपनी आवाज़बुलन्द करता है। इसीलिए उसकी बहुत-सी कहानियाँ, कहानीपन को लाँघ कर, मानव नियति के दस्तावेज़ बन गयी हैं।
मण्टो की कहानियों के सम्बन्ध में एक और बात, जो बार-बार उभर कर सामने आती है, वह है समाज और व्यक्ति के आपसी रिश्तों, उनके परस्पर टकराव का सूक्ष्म चित्रण। अपनी सारी समाजपरकता और सोद्देश्यता के बावजूद मण्टो ‘व्यक्ति’ का सबसे बड़ा हिमायती है। जहाँ वह व्यक्ति के रूप में आदमी द्वारा समाज पर किये गये हस्तक्षेपों के प्रति ग़ाफ़िल नहीं है, वहीं वह उन असहज दबावों के भी ख़िलाफ़ है, जो समाज की और से व्यक्ति को सहने पड़ते हैं। समाज द्वारा व्यक्ति की आज़ादी के मूल अधिकारों के हनन को मण्टो एक जुर्म समझता है, उसी तरह जैसे व्यक्ति द्वारा जनता के शोषण को। मिसाल के तौर पर हम मण्टो की प्रसिद्ध कहानी — नंगी आवाज़ों को लें, जिसमें मण्टोने पाकिस्तान में शरणार्थियों की एक छोटी सी कालोनी का चित्र खींचा है। कैसे मजबूरी में आदमी पशुओं के स्तर पर जीने लगता है और स्थितियों को कबूल कर लेता है और जो नहीं कबूल कर पाता, वह भला की तरह अन्ततः पागल हो जाता है। यहाँ समस्या समूह की नहीं है — समूह तोउन हालात में सन्तुष्ट है ही — समस्या यहाँ व्यक्ति की है जो उन हालात को कबूल करने पर तैयार नहीं होता और तकलीफ़ पाता है। इस स्थिति में मण्टो की नज़र उस इन्सान पर है जो सामूहिक जीवन मैं अपनी निजता खो रहा है और इसीलिए मण्टो उन ‘टाट के पर्दो’ के ख़िलाफ़ ज़हर उगलता है जो इस निजता का गला घोंट रहे हैं।
लेकिन ‘नंगी आवाज़ें’ में अगर मण्टो की दृष्टि उन दबावों पर जाती है जो समाज व्यक्ति पर डालता है तो ‘स्वराज्य के लिए’ मैं उस हस्तक्षेप पर जो व्यक्ति समाज के प्रति करता है जब आदर्शों के कंटीले परिधान में व्यक्ति की यह निजता आहत होती है।
‘नंगी आवाज़ें’ की अपेक्षा ‘स्वराज्य के लिए’ कहीं अधिक गहरी और आक्रोश-भरी कहानी है जिसमें मण्टो ने अपनी बहुत-सी मान्यताओं को एकाग्र रूप में अभिव्यक्त किया है। कहानी, जैसा कि स्पष्ट हैं, महात्मा गान्धी और उनके आन्दोलन को पृष्ठभूमि में ले कर चलती है और उन आदर्शों की व्यर्थता सिद्ध करती है जो यथार्थ पर आधारित नहीं होते। मण्टोने इस कहानी में प्रकारान्तर से यह स्वीकार तो किया है कि आदर्श जहाँ तक कि वे मानव की प्राकृतिक अच्छाई का बढ़ाने में योग दों — प्रशंसनीय हैं लेकिन वह उनका अन्धानुकरण करने के सख़्त ख़िलाफ़ है। इस सिलसिले में मण्टो की धारणाएँ कितनी सही थीं यह आज़ादी के इन पच्चीस वर्षों में गान्धीवाद पर बस नहीं करती, वरन उसे प्रतीक रूप में ले कर वह उन सारे मतों, मान्यताओं और वादों पर भी चोट करती है जोआदमी कोनेक काम करने को लिए मदारी का चोला पहना देना चाहते हैं। किसी भी महत उद्देश्य को हासिल करने के लिए यह ज़रूरी नहीं कि आदमी अपनी इन्सानियत तज़
8 Comments
मन्टो पर बहुत अच्छा आलेख
मंटो पर अच्छा लेख . टोबा टेक सिंह निश्चित रूप से विभाजन पर श्रेष्ठ कहानी है . प्रभात का आभार !
Manto kaa koee saanee nahin . Laajwaab lekh ke liye Janaab Neelabh ko
slaam kartaa hun .
Manto kaa koee saanee nahin . Laajwaab lekh ke liye Janaab Neelabh ko
slaam kartaa hun .
Very apt analyses n beautifully expressed.
morning jazz
Pingback: propane outboards,
Pingback: company website