जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

कल मेरे प्रिय कवि बोधिसत्व का जन्मदिन है. बोधिसत्व की कविताओं में वह दिखाई देता है, सुनाई देता है जो अक्सर दृश्य से ओझल लगता है. गहरी राजनीतिक समझ वाले इस कवि की कविताओं वह कविताई भी भरपूर है जिसे रघुवीर सहाय सांसों की लय कहते थे. उनकी नई कविताएँ तो मिली नहीं फिलहाल आपके साथ उनकी कुछ पुरानी कविताओं का ही वाचन कर लेता हूँ, उनको शुभकामनाएं सहित- जानकी पुल.


तमाशा
तमाशा हो रहा है
और हम ताली बजा रहे हैं
मदारी
पैसे से पैसा बना रहा है
हम ताली बजा रहे हैं
मदारी साँप को
दूध पिला रहा हैं
हम ताली बजा रहे हैं
मदारी हमारा लिंग बदल रहा है
हम ताली बजा रहे हैं
अपने जमूरे का गला काट कर
मदारी कह रहा है-
ताली बजाओ जोर से
और हम ताली बजा रहे हैं।

घुमंता-फिरंता
बाबा नागार्जुन !
तुम पटने, बनारस, दिल्ली में
खोजते हो क्या
दाढ़ी-सिर खुजाते
कब तक होगा हमारा गुजर-बसर
टुटही मँड़ई में लाई-नून चबाके।
तुम्हारी यह चीलम सी नाक
चौड़ा चेहरा-माथा
सिझी हुई चमड़ी के नीचे
घुमड़े खूब तरौनी गाथा।
तुम हो हमारे हितू, बुजुरुक
सच्चे मेंठ
घुमंता-फिरंता उजबक्चतुर
मानुष ठेंठ।
मिलना इसी जेठ-बैसाख
या अगले अगहन,
देना हमें हड्डियों में
चिर-संचित धातु गहन।

एक आदमी मुझे मिला
एक आदमी मुझे मिला भदोही में,
वह टायर की चप्पल पहने था। 
वह ढाका से आया था छिपता-छिपाता,
कुछ दिनों रहा वह हावड़ा में 
एक चटकल में जूट पहचानने का काम करता रहा 
वहाँ से छटनी के बाद वह
गया सूरत
वहाँ फेरी लगा कर बेचता रहा साड़ियाँ 
वहाँ भी ठिकाना नहीं लगा
तब आया वह भदोही
टायर की चप्पल पहनकर 
इस बीच उसे बुलाने के लिए
आयी चिट्ठियाँ, कितनी
बार आये ताराशंकर बनर्जी, नन्दलाल बोस
रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नज़रूल इस्लाम और 
मुज़ीबुर्रहमान।
सबने उसे मनाया, 
कहा, लौट चलो ढाका
लौट चलो मुर्शिदाबाद, बोलपुर
वीरभूम कहीं भी।
उसके पास एक चश्मा था, 
जिसे उसने ढाका की सड़क से 
किसी ईरानी महिला से ख़रीदा था, 
उसके पास एक लालटेन थी
जिसका रंग पता नहीं चलता था
उसका प्रकाश काफ़ी मटमैला होता था, 
उसका शीशा टूटा था, 
वहाँ काग़ज़ लगाता था वह
जलाते समय।
वह आदमी भदोही में, 
खिलाता रहा कालीनों में फूल 
दिन और रात की परवाह किये बिना।
जब बूढ़ी हुई आँखें
छूट गयी गुल-तराशी,
तब भी,
आती रहीं चिट्ठियाँ, उसे बुलाने
तब भी आये
शक्ति चट्टोपाध्याय, सत्यजित राय 
आये दुबारा
लकवाग्रस्त नज़रूल उसे मनाने
लौट चलो वहीं….
वहाँ तुम्हारी ज़रूरत है अभी भी…।
उसने हाल पूछा नज़रूल का 
उन्हें दिये पैसे, 
आने-जाने का भाड़ा,
एक दरी, थोड़ा-सा ऊन,
विदा कर नज़रूल को 
भदोही के पुराने बाज़ार में
बैठ कर हिलाता रहा सिर।
फिर आनी बन्दी हो गयीं चिट्ठियाँ जैसे 
जो आती थीं उन्हें पढ़ने वाला 
भदोही में न था कोई।
भदोही में 
मिली वह ईरानी महिला
अपने चश्मों का बक्सा लिये
भदोही में 
उसे मिलने आये 
जिन्ना, गाँधी की पीठ पर चढ़ कर 
साथ में थे मुज़ीबुर्रहमान,
जूट का बोरा पहने।
सब जल्दी में थे
जिन्ना को जाना था कहीं
मुज़ीबुर्रहमान सोने के लिए 
कोई छाया खोज रहे थे।
वे सोये उसकी मड़ई में…रातभर,
सुबह उनकी मइयत में
वह रो तक नहीं पाया।
गाँधी जा रहे थे नोआखाली 
रात में, 
उसने अपनी लालटेन और 
चश्मा उन्हें दे दिया,
चलने के पहले वह जल्दी में 
पोंछ नहीं पाया 
लालटेन का शीशा 
ठीक नहीं कर पाया बत्ती, 
इसका भी ध्यान नहीं रहा कि
उसमें तेल है कि नहीं।
वह पूछना भूल गया गाँधी से कि
उन्हें चश्मा लगाने के बाद 
दिख रहा है कि नहीं ।
वह परेशान होकर खोजता रहा
ईरानी महिला को 
गाँधी को दिलाने के लिए चश्मा 
ठीक नम्बर का
वह गाँधी के पीछे-पीछे गया कुछ दूर 
रात के उस अन्धकार में 
उसे दिख नहीं रहा था कुछ गाँधी के सिवा।
उसकी लालटेन लेकर 
गाँधी गये बहुत तेज़ चाल से 
वह हाँफता हुआ दौड़ता रहा
कुछ दूर तक 
गाँधी के पीछे,
पर गाँधी निकल गये आगे 
वह लौट आया भदोही 
अपनी मड़ई तक…
जो जल चुकी थी 
गाँधी के जाने के बाद ही।
वही जली हुई मड़ई के पूरब खड़ा था
टायर की चप्पल पहनकर 
भदोही में 
गाँधी की राह देखता।
गाँधी पता नहीं किस रास्ते 
निकल गये नोआखाली से दिल्ली
उसने गाँधी की फ़ोटो देखी 
उसने गाँधी का रोना सुना, 
गाँधी का इन्तजार करते मर गयी 
वह ईरानी महिला 
भदोही के बुनकरों के साथ ही।
उसके चश्मों का बक्सा भदोही के बड़े तालाब के किनारे 
मिला, बिखरा उसे, 
जिसमें गाँधी की फ़ोटो थी जली हुई…।
फिर उसने सुना 
बीमार नज़रूल भीख माँग कर मरे 
ढाका के आस-पास कहीं,
उसने सुना रवीन्द्र बाउल गा कर अपना 
पेट जिला रहे हैं वीरभूमि-में 
उसने सुना, लाखों लोग मरे 
बंगाल में अकाल, 
उसने पूरब की एक-एक झनक सुनी।
एक आदमी मुझे मिला 
भदोही में 
वह टायर की चप्पल पहने था
उसे कुछ दिख नहीं रहा था
उसे चोट लगी थी बहुत
वह चल नहीं पा रहा था। 
उसके घाँवों पर ऊन के रेशे चिपके थे
जबकि गुल-तराशी छोड़े बीत गये थे
बहुत दिन !
बहुत दिन !
स्त्री को देखना
दूर से दिखता है पेड़
पत्तियाँ नहीं, फल नहीं

पास से दिखती हैं डालें
धूल से नहाई, सँवरी ।

एक स्त्री नहीं दिखती कहीं से
न दूर से, न पास से ।

उसे चिता में
जलाकर देखो
दिखेगी तब भी नहीं ।

स्त्री को देखना उतना आसान नहीं
जितना तारे देखना या
पिंजरा देखना ।
चित्र: आभा बोधिसत्व के फेसबुक वाल से साभार   
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10 Comments

  1. बेहरीन कविताएं। साझा करने के लिए धन्यवाद। बोधिसत्व जी को जन्म-दिन पर ढेरों शुभकामनाएं।

  2. स्त्री को देखना उतना आसान नहीं
    जितना तारे देखना या
    पिंजरा देखना…

  3. कविताएँ किसी काम की नहीं हैं। हाँ जन्म दिन की बधाई दी जा सकती है। मदन मुरारी, दिल्ली.

  4. 'ek aadmi mujhe mila' itihas ka wah tukda hai, jise main jane kab se talash raha tha. aapne mujhe itne jeewant tareeke se thamaya ki main itihas-chetna se sarabor ho gaya. dhanyavad.
    – batrohi

  5. सभी कविताएँ बहुत अच्छी हैं . साझा करने के लिए शुक्रिया और बोधिसत्त्व जी को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएँ !

  6. सभी कवितायेँ बहुत अच्छी लगीं ………..पहले की पढी हैं ,फिर भी ताजगी वही ! धन्यवाद प्रभात जी !

  7. 'वह गांधी के पीछे-पीछे गया कुछ दूर तक' ग़ज़ब की फंतासी है. मदारी का खेल और नागार्जुन पर लिखी कविता सब में एक विरल आत्मीयता है. आभार. बोधि को बधाई तो कल ही दूंगा.

  8. ऐसी पंक्तियां व्यवहारिकता के बरामदे से बाहर आती है। सभी चार कविताएं पढ़ी। अच्छी लगी

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