बीते ९ अगस्त को मनोहर श्याम जोशीजी का जन्मदिन था इसलिए उनकी ही एक बात हाल की घटनाओं के सन्दर्भ में विशेष तौर पर याद आ रही है. अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था हम ऐसे बेशर्म समय में रह रहे हैं कि हमें किसी बात पर शर्म नहीं आती.
राष्ट्रपिता के नाम पर संस्थापित और देश के एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति हिंदी की लेखिकाओं के बारे में अपशब्द का प्रयोग करते हैं; टीवी चैनलों पर उसे सही ठहराने का प्रयास करते हैं, फिर दबाव में आकर माफ़ी ऐसे मांगते हैं जैसे उन्होंने माफ़ी मांगकर लेखक समुदाय पर कोई अहसान किया हो. कुछ दिनों बाद ज्ञानपीठ जैसे संस्थान के निदेशक और साक्षात्कार प्रकाशित करनेवाली पत्रिका के संपादक उस साक्षात्कार के प्रकाशन का सारा जिम्मा अपने गोवा प्रवास पर थोप देते हैं लेकिन इस बात का कोई जवाब नहीं देते कि जब वे पत्रिका के प्रकाशन की प्रक्रिया के दौरान गोवा में ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह में व्यस्त थे तो उनके सम्पादकीय में यह कैसे छप गया कि पत्रिका में “सबसे बेबाक है” श्री राय का साक्षात्कार. क्या वह सम्पादकीय किसी और ने लिखा था? जिस तरह श्री राय ने बाद में अपशब्द के प्रकाशन का सारा जिम्मा साक्षात्कारकर्ता पर थोप दिया उसी तरह कहीं ऐसा तो नहीं कि संपादक महोदय भी बाद में कहें कि सम्पादकीय वे ठीक से देख नहीं पाए थे. क्या संपादक की ज़िम्मेदारी इसमें कुछ नहीं बनती है? क्या पत्रिका में प्रकाशित सामग्री की ज़िम्मेदारी केवल लेखक की होती है और संपादक का काम उसे जस का तस छापना भर होता है? ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो इस माफ़ीनामे के बाद से मन में गूँज रहे हैं.
निदेशक-संपादक की ओर से यह कहा गया है कि पत्रिका की प्रतियाँ बाजार से वापस मंगवा ली गई हैं. लेकिन जिस पत्रिका की प्रति मैंने ३० जुलाई को बाजार से ख़रीदी थी ८-१० दिन की इतनी विवादपूर्ण चर्चा के बाद क्या बाजार में उसकी प्रतियाँ बची रही होंगी? फिर, जिन पाठकों ने उस अंक को खरीद लिया होगा उसके घर से पत्रिका को कैसे वापस मंगवाया जा सकता है? सुनने में आया है कि बम्पर बिक्री की उम्मीद में पत्रिका की पहले से ज्यादा प्रतियाँ छापी गई थीं. असल में इस तरह के साक्षात्कार के प्रकाशन से संपादक महोदय ने जिस तरह की सनसनी की उम्मीद की होगी उस उद्देश्य में तो वे सफल ही रहे. हो सकता है कुछ दिनों बाद यह कहा जाए कि बेवफाई सुपर विशेषांक ने बिक्री के पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए.
इस सारे प्रकरण में असल बात यह है कि माफ़ीनामे के बहाने सारे प्रकरण पर लीपापोती करने का प्रयास अधिक दिखाई दे रहा है. इसके पीछे शर्म का भाव कहीं नहीं दिखाई देता जो होना चाहिए था. बचाव की मुद्रा अधिक दिखाई देती है. साक्षात्कार देने वाला एक शिक्षा संस्थान का प्रमुख है. आम तौर पर ऐसे लोगों को छात्र रोल मॉडल की तरह देखने लगते हैं. प्रकाशित करनेवाली पत्रिका उस संस्थान से निकलती है जिसके ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रतिष्ठा संसार भर में रही है. यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में वह साहित्य का सबसे बड़ा पुरस्कार है.
माफीनामे के इस सारे तमाशे के बीच बार-बार जोशीजी का यह वाक्य मेरे मन में गूँज रहा है- हम एक बेशर्म समय में रहते हैं. बार-बार गूँज रहा है और अपनी अनुगूंज से कुछ-कुछ कह रहा है.