जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

दारा शिकोह इतिहास का एक ऐसा अभिशप्त चरित्र रहा है जिसको लेकर हिंदी में काफी लिखा गया है. एक नई किताब आई है ‘दारा शुकोह’ नाम से, प्रकाशक है हार्पर कॉलिंस. लेखक हैं नवीन पन्त. उसी किताब का एक अंश आज आपके लिए- जानकी पुल.
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प्रारम्भिक वर्षों के दौरान इस्लाम में राजशाही की व्यवस्था नहीं थी। उत्तराधिकार का कोई नियम नहीं था। पिता के बाद राज्य का वारिस पुत्र हो, यह ज़रूरी नहीं था। बाद में जब वंशानुगत शासन की व्यवस्था हुई तो बड़े पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने का नियम नहीं माना गया। तैमूर के ख़ानदान का हर राजकुमार ख़ुद को गद्दी का वारिस, मि़र्जा समझता था। मि़र्जा, जिसे शासन करने का जन्मजात अधिकार है। हर राजकुमार इसके लिए हथियार उठाने और निकट सम्बन्धियों की हत्या करने को तैयार रहता था। उनकी महत्वाकांक्षाओं पर कोई नियन्त्रण नहीं था। राजगद्दी के लिए विद्रोह करना, सगे-सम्बन्धियों की हत्या करना, उन्हें अन्धा बनाना, क़ैदख़ाने में डाल देना, ज़हर देनाबुरा नहीं समझा जाता था। मु़गल ख़ानदान का इतिहास सिंहासन के लिए पिता के विरुद्ध विद्रोह करने, भाइयों और निकट सम्बन्धियों की हत्या करने और षड्यन्त्रों की घटनाओं से भरा पड़ा है।
मु़गलों में मंगोलों-तुर्कों, तैमूर-चंगे़ज ख़ाँ और कबीलाई हमलावरों का ख़ून था। यद्यपि फ़ारसी (ईरानी) भाषा और संस्कृति के प्रभाव से मु़गलों में कुछ ऩफासत आ गयी थी तथापि, मंगोलियाई प्रभाव के कारण उनमें अनावश्यक हिंसा, बल प्रयोग एवं निर्दयता के तत्व शामिल थे। भारत पर अधिकार करने के बाद बाबर केवल चार वर्ष तक जीवित रहा। उसके बाद उसका बड़ा बेटा त़ख्त का वारिस बना। हुमायूँ ने अपने पिता की इच्छानुसार अपने भाई अकसरी को सम्भल, हिन्दाल को अलवर और कामरान को कन्धार-काबुल का सूबेदार बना दिया। इन भाइयों ने क़दम-क़दम पर हुमायूँ के लिए काँटे बोए। उसके इलाक़े पर जबरन कब्ज़ा किया, विपत्ति में उसकी सहायता नहीं की और उसके साथ हर अवसर पर शत्रुता का व्यवहार किया। कामरान का आचरण तो इतना निन्दनीय था कि मु़गल सरदारों के ज़बर्दस्त दबाब में हुमायूँ को उसे अन्धा करने का आदेश देना पड़ा।
अकबर को भी निकट सम्बन्धियों के षड्यन्त्रों का सामना करना पडा। उसके ८६ दारा शिकोह स्थान पर कामरान के पुत्र अब्दुल क़ासिम को गद्दी पर बिठाने की चेष्टा की गई। बाद में विद्रोहियों ने अकबर के भाई मुहम्मद हाकिम के साथ मिल कर अकबर को गद्दी से हटाने का प्रयास किया। अकबर के पुत्र सलीम (बाद में जहांगीर) ने उसके विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा किया और उसके प्रिय सहयोगी अब्दुल फ़जल की हत्या करवा दी। यह भी सन्देह है कि उसके इशारे पर अकबर को ज़हर देकर मारा गया। अकबर की मृत्यु के समय गद्दी का कोई और दावेदार नहीं था। राजकुमार मुराद की १५९९ में मृत्यु हो गयी थी। १६०४ में राजकुमार दानियाल भी अत्यधिक शराब पीने से काल का ग्रास बन चुका था। राजा मान सिंह एवं ख़ान-ए-आ़जम अज़ीज़ कोका ने जहांगीर के स्थान पर उसके पुत्र खुसरो को गद्दी पर बिठाने का षड्यन्त्र किया लेकिन अन्य सरदारों के विरोध के कारण उन्हे अपना प्रयास छोड़ देना पड़ा।
जहांगीर के गद्दी पर बैठने के छह महीने बाद खुसरो ने बग़ावत की जो कुचल दी गई लेकिन दो वर्ष बाद उसे गद्दी पर बिठाने के लिए फिर षड्यन्त्र किया गया। जहांगीर ने चार षड्यन्त्रकारियों को मौत की स़जा दी और खुसरो को अन्धा करवा दिया। अभागे खुसरो का शेष जीवन भी कष्ट में ही बीता। १६१६ में नूरजहां के सुझाव पर उसे आसफ़ ख़ाँ के सुपुर्द कर दिया गया, जिसने उसे ख़ुर्रम (बाद में शाहजहां) के सुपुर्द कर दिया। ख़ुर्रम खुसरो को गद्दी के लिए अपना प्रतिद्वन्द्वी समझता था। अत: वह उसे दक्कन अभियान के दौरान अपने साथ ले गया और १६२२ में उसकी हत्या करवा दी। जहांगीर के जीवनकाल में नूरजहां अत्यन्त शक्तिशाली हो गयी थी। जहांगीर ने राजकाज की सभी ज़िम्मेदारियाँ उसे सौंप दी थीं। नूरजहां की कुटिल चालों के विरोध में, और जल्दी गद्दी प्राप्त करने के लिए ख़ुर्रम ने विद्रोह किया। उसे जनता और सरदारों का उतना समर्थन नहीं मिला जितना मिलना चाहिए था। शाही सेना ने हर जगह उसका पीछा किया। शाही सेना से बचने के लिए उसे दक्कन और बंगाल में इधर-उधर भागना पड़ा। अन्त में ख़ुर्रम ने अपने पिता के सामने घुटने टेक दिये।
जहांगीर की मौत के बाद भी उत्तराधिकार का संघर्ष हुआ। खुसरो की हत्या कर दी गयी थी। परवे़ज अत्यधिक शराब पीने से १६२६ में मर चुका था लेकिन शहरयार जिन्दा था। ख़ुर्रम दक्कन में था। शहरयार ने लाहौर पर हमला किया और शाही ख़ज़ाने और शस्त्रागार पर कब़्जा करने के बाद स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया। ख़ुर्रम के ससुर आस़फ ख़ाँ (नूरजहां के भाई) ने अपनी अँगूठी के साथ ख़ुर्रम को हरकारों के ज़रिये ख़बर भेजी। ख़ुर्रम के आने से पहले उसने खुसरो के लड़के दावरबक्श को बादशाह बना दिया। इसके बाद उसने बड़ी फ़ौज़ लेकर लाहौर पर हमला किया। शहरयार को बन्दी बनाकर अन्धा कर दिया गया। इस बीच ख़ुर्रम ते़जी से आगरा लौटा। फ़रवरी १६२८ में आगरा पहुँच कर वह अबुल मु़ज़फ़्फर शिहाबुद्दीन मुहम्मद साहिब-ए-किरण शाहजहां बादशाहगाज़ी की उपाधि के साथ त़ख्त पर बैठा।
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