पृथ्वी के इस छोर पर कदम रख कर,
कसमसा रहे थे निरन्तर मन में
कितने ही अभिनव बसन्त अभी
इस छोर से भी आगे की धरती के,
भरने को कितने ही रंग नए
मेरे भविष्य के सपनों में।
किन्तु अचानक! आह!
प्रकृति का यह कैसा प्रकोप!
लुट गए वह स्वप्न सारे एक ही झटके में,
कितनी भयानक, कितनी उजाड़,
कितनी वीरान हो गई
मेरे आस–पास की दुनिया
बस चंद ही मिनटों में,
मैं तीन बरस का लुटा–पिटा,
अनाथ बालक,
खो चुका हूँ अभी–अभी आई सुनामी में
अपने भरे–पूरे बचपन की सारी निशानियाँ।
जहाँ रोज ठुमक–ठुमक कर चलता रहा मैं
उसी घर की दीवारें नींव सहित हिलती देखी मैंने,
जहाँ रोज उछल–उछल कर खूब खेला किया मैं
उसी मैदान की जमीन को फट कर
धरती में धँसते हुए देखा मैंने,
जिस छत की छाँव में आज तक
सुरक्षित महसूस करता रहा मैं
उसी को भर–भरा कर टूटते–बिखरते देखा मैंने,
जिन माँ–बाप की अँगुलियों को थाम कर
अपने शहर के मनोरम रास्ते नापे थे आज तक
उन्हीं को भूकंप की विनाश–लीला में
निश्चेत हो विलुप्त हो जाते देखा मैंने,
समुद्र की जिन लहरों पर पिता की कमर थामे
साहस की पहली पींगें भरी थी मैंने
उन्हीं स्नेह तरंगों के ज्वार को उफना कर
सृष्टि का तिल–तिल समेट कर बहा ले जाते देखा मैंने।
प्रवाह की नोक पर टाँग कर
बहा ले गईं मुझे भी ऊँची लहरें
बाकी सभी कुछ तहस–नहस कर निगलती हुई,
अति करुण चीत्कार मेरी दबी उनकी गर्जना में
ला मुझे असहाय पटका वेग से
नगर के इस एक ऊँचे टीकरे पर।
देख कर विश्वास कुछ होता नही है
विकल अपने बाल मन में सोचता हूँ,
क्यों हुई यह प्रलय–लीला?
रोज दुलराती प्रकृति निष्ठुर बनी क्यों?
रोज भर कर गोद में लोरी सुनाती,
आज माँ की गोद वह जम कर हिली क्यों?
क्या किसी के पाप का प्रतिशोध है यह?
या किसी के शाप से उपजा हुआ अति–क्रोध है यह?
क्या मुझे जन्मा नियति ने था इसी गति के लिए ही?
क्या इसी दिन के लिए ही प्रसव–पीड़ा सही माँ ने?
क्या जिसे लीला जलधि ने,
क्या जिन्हें छीना प्रलय ने,
वे उसी गन्तव्य के हक़दार थे?
दूसरा मंतव्य कोई था नहीं क्या?
क्या सभी हंतव्य थे वे?
एक मैं ही रक्ष्य था क्या?
निष्कलुष लघु बाल शायद मान कर के
दयावश छोड़ा मुझे हो!
या कि फिर संदेशवाहक मान
भावी विश्व का अवबोध करने!
प्रश्नाकुल हूँ कि
क्या मैं इस परम सुविधा–भोगी विश्व के
आधुनिक देवालयों के उच्छिष्ट सा फेंका गया
प्रगति के परिणामों का एक प्रतीक हूँ?
या कि फिर प्रलय–जल में से मथ कर हवा में उभरा
उस कार्बन डाइ ऑक्साएड का एक बुलबुला हूँ मैं,
जिसे बढ़ाते जा रहे हैं हम वायुमंडल में हर दम
जीवाश्म–ईंधनों को जला–जला कर
और फिर भी हम विश्व के नाश की इस दुरभिसंधि में
शामिल न होने का रचते हैं स्वांग
बढ़ते वैश्विक तापीकरण व जलवायु–परिवर्तन के प्रति
अपनी चिन्ताएं जता–जता कर?
कोई नहीं लेता है जिम्मेदारी
आने वाली विपत्तियों की,
विकसित देश कोसते हैं
चीन व भारत की विशाल आबादी को
लेकिन भूल जाते हैं वे प्रायः कि
चाहे प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत हो
या कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन,
अमेरिका जैसे देश सदा ही रहे हैं
विश्व के औसत से कई गुना आगे,
भारत जैसे देश तो हमेशा
बेकार में ही बदनाम किए जाते हैं बेचारे।
बाल मन अवश्य है मेरा
किन्तु इस इलेक्ट्रानिक युग में
तकनीकी प्रगति वाले एक देश में
जन्मा हुआ बच्चा हूँ मैं,
खुलने लगी हैं अब धीरे–धीरे मेरे सामने
दुनिया के सारे मानव–समूहों की पोल–पट्टी,
समझने लगा हूँ मैं
विश्व पर आसन्न सारे भयानक ख़तरों के बारे में।
क्या होगा अब मेरे इस नगर का भविष्य
जो तहस–नहस हो गया है पूरी तरह
जेट की गति से आई सुनामी की समुद्री लहरों में?
क्या होगा अब धरती के इस छोर का भविष्य
जो खिसक गया है अपनी जगह से
अत्यधिक तीव्रता वाले इस भयानक भूकंप में?
क्या होगा अब इस धरती का भविष्य
जो झेल रही है भूकंप में क्षतिग्रस्त हुए
न्यूक्लियर रिएक्टर के रिसाव से उत्पन्न
विकिरण की भयावहता को?
बरबस याद आ जाती है
हिरोशिमा–नागासाकी और चेर्नोबिल की,
सारे विश्व की सलामी व दुवाओं के पात्र लगते हैं मुझे
इस ‘ग्रैण्ड रेडिएशन बाथ’ में शामिल
वे ज़ांबाज तकनीकी विशेषज्ञ
जो हफ़्तों से जुटे हैं नियंत्रित करने में
इस आणविक ऊर्जा–संयंत्र से फैलने वाले रेडिएशन को
अपनी जान की जरा भी परवाह न करते हुए,
समस्त जीव–जगत के भविष्य को बचाने के प्रयास में।
क्या प्राणाहुति देकर भी ये ज़ांबाज विशेषज्ञ
धो पाएंगे उस डान्घेटा माफिया के पाप,
जिसके हवाले करते रहे हैं अपना आणविक कूड़ा
बेशर्मी से मुँह छिपा कर
दुनिया के तमाम विकसित देश
उसे सोमालिया की बंजर भूमि के गर्भ में दफ़नाने के लिए
अथवा हिन्द महासागर के गर्भ में
जहाज सहित जल–मग्न कर देने के लिए?
इन घृणित कर्मों में संलग्न मानव–जाति का क्या भविष्य होगा?
इस विकिरण से विषाक्त धरती माँ की कोख से
अब कौन सा मनुष्य जन्म लेगा?
इस विकिरण से गरमाए उदधि के मंथन से
इस विश्व–व्यापी गरल से हमें बचाने अब कहाँ से आएंगे शिव?
देख रहा हूँ चारों तरफ मैं
सुनामी की लहरों में तहस–नहस हो गए
वाहनों, जलयानों, हवाई जहाजों आदि के मलबे के ढेरों को,
देख रहा हूँ मैं नदियों, तालाबों, झीलों की सतह पर तैरते
उनके छोटे–छोटे पुरजों, घरेलू सामानों आदि के कचरे को,
देख रहा हूँ मैं जल में आप्लावित धरती के सीने से लेकर
अपने पैर पीछे समेट चुके समुद्री जल की सतह तक पर
विध्वंश में बह कर बिखरे तेल की चमकती परत को,
सोच रहा हूँ कि कैसा होगा अब
इस जल पर निर्भर वनस्पतियों व जीव–जन्तुओं का भविष्य?
याद आ रही है मुझे
बीस बरस पहले छिड़े खाड़ी–युद्ध की विभीषिका में
कुवैत के तेल के कुंओं से हुए रिसाव की,
जिसमें करोड़ों बैरल तेल बहा था फारस की खाड़ी में
समुद्री वनस्पतियों, जीव–जन्तुओं व पक्षियों के जीवन का विनाश करता।