जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.


कान्हा में प्रकृति के ‘सान्निध्य’ में कवियों के मिलन की चर्चा ने कुछ दूसरा ही रंग पकड़ लिया है. लेकिन वहां केवल दक्षिण-वाम का मिलन ही नहीं हो रहा था, कविता को लेकर कुछ गंभीर चर्चाएँ भी हुईं. कवि गिरिराज किराड़ू का यह लेख पढ़ लीजिए, जो कवियों के ‘सान्निध्य’ पर ही है- जानकी पुल. 
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(कान्हा नेशनल पार्क के पास, जबलपुर से कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर एक रिसॉर्ट में ‘शिल्पायन’ ने मुख्यतः कवितापाठ का एक अनूठा आयोजन किया जो लगा था सुखद ढंग से याद रहेगा, लेकिन अंततः उसका एक अप्रिय पहलू निकल आया. और वह इतना महत्वपूर्ण पहलू — धुर-दक्षिणपंथी संगठन के एक पदाधिकारी की कार्यक्रम में हिस्सेदारी — है कि उसे किसी भी स्तर पर कवर-अप करना ठीक नहीं लगता. शिल्पायन के ललित शर्मा ने स्वयं साफगोई से अपनी बात रख दी है और कहा है कि बाकी आमंत्रित कवियों का कोई दोष नहीं थाउन्हें जानकारी नहीं थी. 

आज से दो-तीन बरस पहले समकालीन हिंदी कविता को ‘मृत’ मानने में मानो किसी को कोई नैतिक संकोच नहीं था लेकिन इधर कविता-आयोजनों की बहुलता ने फिर से कविता को जेरे-बहस किया है. इन आयोजनों में सभी तरह के आयोजन हैं. लेकिन मुझे लगता है कोई बड़ा ‘रहस्य’ इसके पीछे नहीं है, समय की अर्थव्यवस्था है – जितनी देर में औसतन एक कहानी पढ़ी जाती है उतने में औसतन तीन कवि ‘निपट जाते हैं’ या ‘निपटाए जा सकते हैं’.

बहस कान्हा में आयोजकों के लिए मुख्य नहीं थी पर होनी तो थी ही. औपचारिक रूप से सत्र एक था चर्चा का जिसमें सबसे युवा प्रतिभागी बद्रीनारायण थे और वही संचालक भी. सत्र का विषय बहुत उत्साह जगाने वाला नहीं था : समकालीन कविता की चुनौतियाँ. लेकिन उस पर इतने आप्तवचनी ढंग से बात हुई कि लगभग जैविक प्रतिक्रिया हुई इस पर अपनी बात रखनी चाहिए. बोलने का अपना एक मैनरिज्म होता है और कई बार बोला हुआ ज्यादा तीखा हो जाता है . कुछ मित्रों के फीडबैक के आधार पर लगा ऐसा ही शायद १९ अगस्त को हुआ जब मैंने कुछ नोट्स के आधार पर हस्तक्षेप किया. बाद में अशोक कुमार पांडे, अरुण कमल, नरेश सक्सेना, विजय कुमार, बद्रीनारायण, आशीष त्रिपाठी ने उस हस्तक्षेप पर प्रतिक्रिया दी. अरुण कमल ने घोषणा करके कहा कि अगर इन मुद्दों को एक व्यवस्थित लेख की  शक्ल में उन्हें दे दूं तो वह उसे अग्रलेख के रूप में प्रकाशित करते हुए ‘आलोचना’  का एक अंक इस पर प्लान कर सकते हैं. यहाँ प्रकाशित पाठ उस हस्तक्षेप का लिखित, ज़रा-सा परिवर्धित रूप है, अंतिम रूप नहीं.

आशुतोष कुमार के लिए जिन्होंने इधर अपनी सक्रियता से यह सिद्ध किया है कि यह समय निरंतर शोक-भाव में डूबे रहने और केवल अपने को सही मानने की आत्म-मुग्धता का ही नहीं है; यह भी सोचते हुए हुए कि इस पर्चे में भी हो सकता है ‘आशा के विपरीत’ कोई काम की बात कह दी गयी हो )
पिछले कई वर्षों से हिंदी कविता के बारे में बहस ‘अस्सी के दशक’ की कविता, ‘नब्बे के बाद की पीढ़ी’ जैसे ‘पीढ़ीवाचक’ या ‘दशकवाचक’ पदों में होती रही है और यहाँ भी ऐसे कवि मौजूद हैं जिन्हें अस्सी या नब्बे के कवि जैसे पदों में व्यक्त किया जाता रहा है. बल्कि यहाँ विजय कुमार हैं जिन्हें ‘अस्सी के दशक’ की कविता का लगभग ऑफिसियल आलोचक माना जाता है और बद्रीनारायण भी जिन्होंने नब्बे को लेकर एक थियरी बनाने की कोशिश की है. 

हमारा यह मानना है यह दशक के सन्दर्भ से या जेनरेशन के सन्दर्भ से देखना समस्यामूलक भी है सत्तामूलक भी. हर पीढ़ी या दशक अपने से पहले के कई दशकों, पीढ़ियों के साथ कई निरंतरताओं और कई विचलनों और विस्थापनों से बनता है इसलिए ‘अस्सी’ या ‘नब्बे’ जैसे कालवाचक विभाजन सदैव अपर्याप्त तो रहेंगे ही लेकिन ज्यादा बड़ी समस्या यह है कि  ‘अस्सी के दशक की कविता’ अपने को उस आखिरी कविता की तरह प्रस्तुत करती है जो ‘स्थापित’ है और उसके बाद जो है या तो उसका कोई चेहरा नहीं या है तो बहुत स्पष्ट और ठोस नहीं. यह एक सत्तामूलक रणनीति है जो ‘अस्सी के दशक की कविता’ को एक इस्टैब्लिशमेंट में, एक प्रतिमान में, एक अनिवार्य रेफरेंस में बदलने का काम करती रही है.

लेकिन ‘टर्निंग प्वाइंट’ १९९० की बजाय १९८४८५-८६ क्यूँ नहीं? तब सिख जनसंहार है, गोर्बाचौफ की ग्लासनोस्त-पेरेस्त्रोइका वाली रेज़ीम है, रामजन्मभूमि विवाद में ताले खुल रहे हैं, मुक्त बाजार व्यवस्था आने को है, भारतीय समाज और राजनीति में अस्मिता एक प्रमुख कारक बनने को है – चीज़ें जिनकी एक चरम अभिव्यक्ति १९८९ से १९९२ के बीच दिखाई देगी. लेकिन ८४-८५-८६  के बजाय ९० यह ‘टर्निंग प्वाइंट’ इसलिए तो नहीं कि अस्सी के दशक की कविता इस ८४-८५-८६ फिनोमेना के बारे में सघनता से रेस्पौंड नहीं करती. क्या बहुत सारी चीज़ों के बारे में वह ऐसा करना बाद की नब्बे की कविता के साथ ही शुरू नहीं करती है? 

विरासत
·     ‘अस्सी के दशक की कविता’ (और उससे पहले की भी) से हमें विरासत में यह मिला है कि हिंदी कविता की, हिंदी साहित्य की समूची अर्थव्यवस्था थोड़े-से निजी प्रकाशन गृहों  के पास है. वे हिंदी साहित्य के टाटा बिरला अम्बानी हैं. विरासत यह है कि हम अधिरचना – विचार/विचारधारा – पर ही बात करते रहे, आधार – साहित्यिक उत्पादन की प्रक्रियाएं, वितरण और मुनाफ़े में लेखक की हिस्सेदारी – को हिंदी साहित्य के टाटा बिरला अम्बानी के हवाले कर दिया. बाकी सब के प्राइवेटाईजेशन से समस्या है, हिंदी साहित्य के प्राइवेटाईजेशन से हमें कोई समस्या नहीं –  यह हमें विरासत में मिला है.
·      ‘अस्सी के दशक की कविता’ (और उससे पहले की भी) से हमें विरासत में यह मिला है कि हिंदी कविता एक ‘संयुक्त परिवार’ है जिसमें ‘भाई, ‘भाईसाहब’, ‘दादा’, ‘दीदी’ जैसे संबंधों और संबोधनों की भरमार है. उत्तर भारतीय परिवारों में जो सर्वाइवल की लड़ाईयाँ, ज़मीन-जायदाद की रंजिशें, पितृहन्ता-भ्रातृहंता आवेश और शक्तिहीन के दमन की तरकीबें और साजिशें पायी जाती हैं उनका असर हिंदी साहित्यिक स्फेयर की सरंचना पर गहरा रहा है. इस सरंचना में ‘अस्सी के दशक की कविता’ और बाद की कविता के बीच जो संभव होता है वह एक नेगोसिएशन है – शक्ति का, ‘मान्यता’ का, ‘प्रति-मान्यता’ का. उसे कोई और ‘भला’ नाम जैसे कि ‘परम्परा’ देना अब बंद कर देना चाहिए.
·         ‘अस्सी के दशक की कविता’ से हमें विरासत में यह मिला है कि वाम और दलित पोजिशन के बीच एक गतिरोध है. अन्याय को अस्मिता के रेफरेंस से संबोधित करते हुए किसी ‘सार्वभौमिक’ वृतांत या विचारधारा को कैसे संभव किया जाए? विरासत में अपराधबोध भी मिला है और प्रति-अस्मितावादी ‘गोलबंदी’ भी.  अस्सी के दशक की कविता के अधिकांश को ‘सवर्ण प्रगतिशील पुरुष कविता’ कहलाना कैसा लगेगा? कविगण जिस ‘प्रेमिका’ का आविष्कार करते थे अपने कल्पना-पुरुषार्थ से, वह उनकी नौकरी के लिए प्रतिद्वंदी भी होती तो?
·         ‘अस्सी के दशक की कविता’ से हमें विरासत मिला है ‘कल्ट ऑफ पर्सनल्टी’. और उसके साथ साथ (i) यह विचार कि यदि व्यक्तित्व ‘समृद्ध’ हो या किसी के भीतर से ‘संश्लिष्ट’ होने का कोई अनुमान-प्रमाण हो तो उसे मानो कोई नैतिक छूट दी जानी चाहिए. (ii) यह अवधारणा कि अगर कवि ‘बड़ा’ हो तो उसे मानो कोई नैतिक छूट दी जानी चाहिए. यानी ‘मेरिट’ को एक निर्णायक मूल्य माना जाए. भारतीय समाज में ‘मेरिट’ उससे कहीं ज्यादा जटिल एक कंस्ट्रक्ट है जैसा अमेरिकी और योरोपीय समाजों में रहा है. हिंदी का साहित्य समाज अपनी तमाम यूटोपियन सद्कामना के बावजूद मेरिटोक्रेटिक समाज रहता आया है, इसका सवर्ण अवाँ-गार्द सामूहिकता के वाग्जाल के बीच ‘अति विशिष्ट’, ‘भीड़ से अलग’ स्वरों की बाट जोहता रहा है. खुद ‘अस्सी के दशक की कविता’ के हेजेमनिक आत्म-निरूपणके भीतर व्यक्तित्व का कल्ट बनाने की, ‘वैयक्तिक विशिष्टता’ को सबसे प्रभावी मानने की जो कोशिश है उसे देखते हुए उसका अपने आप को ‘अस्सी के दशक की कविता’ जैसी ‘सामूहिकता’ से इंगित करना ‘विडंबना’ नहीं; बल्कि एक सुचिंतित कवर-अप है, एक पॉवर-स्ट्रेटेजी है, एक छद्म सामूहिकता है जो उन् हस्ताक्षरों से बनी है जो सदैव ‘अपनी आवाज़’ को ‘भीड़’ से अलग मानते रहे हैं और इस विलगाव को मूल्यवान मानते रहे हैं.
विरासत में ‘मेरिटोक्रेसी’ मिली है, विलगाव भी और उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की बेहिसाब नैतिकता भी.

विलगाव
·         ‘अस्सी के दशक की कविता’ को ‘प्रॉमिस’ का, ‘उम्मीद’ का, इतिहास के अपने साथ होने (the history is on our side) के विश्वास का सहारा था – अब ज़ाहिर है  इतिहास ‘हमारी’ तरफ नहीं है, वह एकदम उल्टी दिशा में ही गया है. जिस यूटोपिया का प्रॉमिस था जिसे एक दिन आना था अब वह आएगा यह उसी विश्वास से कह पाना संभव नहीं, जिस हुंडी पर पहले बहुत बाद की कोई लेकिन एक संभाव्य तारीख पड़ी थी, अब वह बिना तारीख की हुंडी तो नहीं हो गयी है?
·         ‘जनता’ को ‘सिखाने जगाने’ वाले औपनिवेशिक एजेंट या एंजेल होने या ‘दूसरों’ का प्रति-निधि होने के बीच कौनसा रास्ता है?  क्या अब भी किसी अन्य के दुख से प्रतिकृत होना कविकर्म के सबसे प्राथमिक कामों में नहीं है?

·     हम लगातार शोक-भाव में क्यूँ हैं? ९० में जो हुआ उसके आगे संघर्ष करने की, आत्मालोचन की, वैचारिकी को नित-नया करने की कोशिशें हो रही हैं. हम नब्बे के साथ फिक्स क्यूँ हो गये हैं? हम फुकुयामा को, उनके नियो-लिबरल यूटोपिया को (= ‘इतिहास का अंत’) अब तक कोस रहे हैं – लेकिन उसके बाद तीन ऐसी बड़ी घटनाएँ हो चुकी हैं जिन्होंने फुकुयामा को तीन बार गलत साबित किया है – ९/११ यानी राजनैतिक मोर्चे पर फुकुयामा-यूटोपिया का अंत और २००८ की आर्थिक मंदी  यानी आर्थिक मोर्चे पर फुकुयामा-यूटोपिया का अंत और चीन में ‘मार्किट-सोशलिज्म’ यानि ‘आर्थिक प्रगति’ अब उदारवादी लोकतान्त्रिक राज्य व्यवस्था के बाहर नहीं हो सकती इस दावे का अंत.
तो क्या अब सबसे बड़े ‘फुकुयामावादी’ हम ही नहीं बच गये हैं?

आज जो कवि लिख रहे हैं उन्हें अपने लिए एवरीडे बेसिस पे विचार या जुगत लगानी होगी, लगा रहे हैं – वे अपने को एक जेनरेशन की तरह नहीं देख पाते ना अपने से पहले के कवियों को. वे हर तरह के इस्टैब्लिशमेंट से – जैसे कि ‘अस्सी के दशक की कविता’ से – अपने लिए जगह ले लेंगे, छीन लेंगे. क्यूंकि वह लड़का/लड़की जो आपका बैग उठा रहा है, आपके लिए शाम का इंतजाम कर रहा है, चार ऐसे ‘फैन’ साथ जुटा रहा है जो आपको इतनी बार सर सर करेंगे कि आप थोडा और स्थापित हो जायेंगे, जो आपको स्टेशन तक छोड़ के आएगा और आपके सब तरह के संस्मरणों  पर भी खूब प्रभावित हो रहा है ऐसा दिखायेगा वह यकीन मानिए आपका उतना सम्मान नहीं करता जितना वह दिखा रहा है — आप उससे बच के रहिये वह आपकी जगह ही खा जायेगा.

प्रार्थना के शिल्प की तो कोई बात ही नहीं हुई हुज़ूर!  
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9 Comments

  1. @अरुण: आमीन!
    @ओमजी: कूट कहाँ है? सीधी सीधी बातें हैं. हाँ मुझे नहीं लगता कोई अविच्‍छिन्‍न परंपरा है. कई परम्पराएँ हैं और उनमें से भी अविच्‍छिन्‍न कोई कहाँ?
    @नंदजी: यह लेख वहाँ हुई एक चर्चा में हस्तक्षेप की तरह जो बोला गया उसका लिखित रूप है — जो आप कह रहे हैं वह इसके स्कोप में नहीं था हो सकता प्रस्तावित लंबे लेख में वह सब आये. बस इतना कि इसमें कोई अमूर्तन कहाँ है? यह इस दौरान हुए परिवर्तनों से एक परिप्रेक्ष्य बनाने की कोशिश है.

  2. गिरिराज जी प्रतिभाशाली हैं निस्‍संदेह, पर उन्‍हें पढ़ने के लिए भी एक स्‍तर चाहिए। समझने के लिए भी। अधिकतर तो वे कूट शब्‍दों में बात करते हैं जिसका एक अलग भाष्‍य चाहिए। सबके बूते का नहीं। आठवें दशक की कविता को यहॉं कटघरे में रखा गया है, उसकी विरासत जैसे एक अपराधबोध की तरह नवे और दशवें दशक के कवियों के लिए है ऐसा दिखाया गया है। पर कविता की कोई परंपरा,यह सच है कि दशकवादी समझ से विकसित और व्‍यवहृत नही की जा सकती, पर अपनी पूर्ववर्ती कविता परंपरा से विलग होकर भी उसका विकास नहीं समझा जा सकता। क्‍या यह ऐसा जटिल विषय या समस्‍या है जिस पर इससे अधिक सरलता और मुखरता तथा साफगोई से बात नही की जा सकती। आज लिखने वाले कवियों की तुलना हम आठवें दशक से क्‍यों करें। नए परिप्रेक्ष्‍य में उन्‍हें क्‍यों न देखें। हम अपने पूर्वजों से आक्रांत क्‍यों दिखे और आक्रामक भी।

    जाहिर है कि हमारी कविता एक अविच्‍छिन्‍न परंपरा का विकास है। उसे अपनी सुदीर्घ यात्रा का सदैव भान होना चाहिए।

    पर गिरिराज ने यत्‍नपूर्वक एक सैद्धांतिकी प्रस्‍तुत की है तो वह जरूर जेरेबहस होनी चाहिए।

  3. नहीं….यहां कोई बात नहीं बनती…परि‍घटनाओं का उल्‍लेख ठीक है पर सांदर्भि‍क पल्‍लवन ….यहां केवल बीज पड़े है….(कोठार में रखे बीजों को भूमि पर बि‍खेर दि‍या….) सन् 1980 से अद्यतन कवि‍ता को दहाई में लपेटकर उठा-पटक कि‍या जा रहा है।
    सही-सही पड़ताल की दरकार है….

  4. हिंदी कविता पर अलग से सोचती 'जैविक' संरचना. यह प्रर्थना के शिल्प में कहाँ संभव है. अरुण कमल की तरह यह अरुण भी इस पर एक बड़े लेख की उम्मीद करता है.

  5. गिरिराज का 'पाठ' पूरी दिलचस्‍पी से पढ़ा, बल्कि यह उम्‍मीद लेकर पढ़ा कि इस बार गिरि कविता को लेकर अपनी सोच का खुलासा करेंगे,सिर्फ अमूर्तन में सवाल टांग कर नहीं निकल जाएंगे। दिक्‍कत यह है कि हमारे समय के अधिकांश युवा कवि और आलोचक पिछले तीस साल की कविता के आस-पास चक्‍कर तो काटते हैं, लेकिन उसके 'पाठ' के भीतर उतरकर बात करने का जोखिम उठाने से बचते नजर आते हैं। मैं गिरि की इस बात से तो सहमत हूं कि इस दौर की कविता को किसी दशकीय सीमा में बांधकर नहीं समझा जा सकता, उसे उसकी निरन्‍तरता और बाह्य यथार्थ के साथ मिलान करके ही समझना चाहिए, उन्‍होंने देश-विदेश के बड़े घटनाक्रम की ओर कुछ अच्‍छे संकेत किये भी, लेकिन फिर उससे चुपचाप किनारा करके साइड से निकल गये। ऐसा क्‍यों? इक्‍कीसवीं सदी के ये शुरूआती बारह बरस भी तो कुछ अलग कहते हैं, उसे तो अलगाकर देखना जरूरी ही है न? आस अधूरी छूट गई। फिर भी गिरिराज को इस बर्फ को गरमाने के लिए बधाई। कृपया मेरी इस टिप्‍पणी को कान्‍हा के 'सान्निध्‍य' से अलग रखकर ही देखें।

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