जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

अपर्णा मनोज ने कम कहानियां लिखकर कथा-जगत में अपना एक अलग भूगोल रचा है. अछूते कथा-प्रसंग, भाषा की काव्यात्मकता, शिल्प के निरंतर प्रयोग उनकी कहानियों को विशिष्ट बनाते हैं. जीवन के अमूर्तन को स्वर देने की एक कोशिश करती उनकी एक नई कहानी- जानकी पुल. 
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सारंगा तेरी याद में::
अँधेरे-बंद कमरे :

जीवन संध्या”वृद्धाश्रम  के एक ही कतार में खड़े नीले-नीले कमरे
चारों तरफ से बोगेनविलिया  से घिरे हैं.लाल, बैंजनी ,सफ़ेद फूलों से लदे,लेकिन फिर भी शजर-शजर अँधेरे का बसर और उजाला विस्थापित दिखाई देता है यहाँ.बूढ़े युगल जैसे थके हुए परिंदे हैं ..सैदकुन मौत की आहट से बेचैन दिखाई देते..लेकिन जीवन है कि चल रहा है.कभी कोई फिकरमंद इस उजाड़ बस्ती की तरफ चला आता है,डोनेशन देने या कभी-कबार कोई स्कूल अपनी ट्रिप लेकर आता है कि बच्चे बूढों से मिलें;देखें कि दुनिया में यह सब भी जीवन का हिस्सा है.बच्चे यहाँ के बूढों से मिलते हैं,कुछ देर उनके साथ गाते-बजाते हैं.रंगीन कार्ड्स गिफ्ट करते हैं.. बुज़ुर्ग इन्हें आशीषें देते हैं और चुपके से अपना दुःख रुमाल से पोंछ लेते हैं.इनके अपने बच्चे या तो एन.आर.आई. हैं या फिर इनके बोझ को उठाने में असमर्थ.
यहाँ कमरे खांसते हैं .करहाते हैं .गठिया से जोड़-जोड़ में उठता दर्द .इन्सुलिन की गंध में अंकुआए कमरे.बवासीर में उबकाइयां लेते -और छन्न से टूटे सन्नाटे का एहज़ान..
यही वो जगह है -जहाँ  ये दो भी रहते हैं.
मैंने इनका नाम दिया है.
सारंगा
सदाबक्श 
एक ठीक से देख नहीं पाती
दूसरा ऊंची से ऊंची आवाज़ पर भी चौंक नहीं पाता ..
फिर भी पट संगीत दोनों के बीच बजता रहता है. दोनों हँसेंगे तो हँसते ही चले जायेंगे,इतना कि  आँखें छलक आयें.
छोटा सा कमरा है-पर सभी कुछ व्यवस्थित.दरवाज़े और खिड़की पर हलके बादामी रंग के सूती परदे पड़े हैं.सांझ सारंगा पीली बत्ती जल देती है और सदा बक्श घंटों उसके कभी हाथ दबाता है तो कभी पैर.वह रोज़ शर्मा कर अपने पैर सिकोड़ लेती है और वह उसकी इस अदा पर बेसुरी आवाज़ में सहगल के गीत गाता है..फिर फरमाइशों का सिलसिला चलता है. सारंगा उसे अपने पसंद के गीत बताती जाती है और वह सुनाता जाता है, फिर बीच में ही दोनों न जाने किस बात पर झगड़ पड़ते हैं .ऐसे में इन दोनों के बीच मैं आती-जाती रहती हूँ ..
कभी उनकी अनार सी हंसी बटोरते.
कभी बबूल के फूलों-से दुःख समेटते.
उनकी स्मृतियों के कुनबे की एकमात्र साक्षी.
यादों की कठपुतलियां नाच रही हैं -पी पी पि पिप पिप पीईई  पीईई ..
दुनिया के सूफी आँगन में हर कोई नाच रहा है.
सारंगा तेरी याद में:
वह सामने का जो नीले थोथे जैसा नीला कमरा है -दो नंबर का, उसी में वे दो रहते हैं.थोड़े पागल,पूरे सठियाये.अभी उसकी गोरी कलाई की चूड़ियों को वह अपनी उँगलियों से घुमा रहा है ..रंगीन कांच की परिधियाँ ..छनक -छनक कर रही हैं. बड़ी मीठी पारदर्शी आवाज़ है इन चूड़ियों की.
दोनों की परछाई सामने की दीवार पर गिर कर इतनी लम्बी हो गई है कि एक कोण पर एकाकार होती दिखाई देती है.
 वह कुछ बोल रहा है.
 वह ठोड़ी पर अपनी झक हथेली धरे कुछ सुन रही है…
बीच में एक सुनहरी कवर की डायरी है.
पन्नों की तरल करतल .यादों की बारिश और टिप-टिप आंसू ..
इन चूड़ियों से मेरी कहानी निकली है.कुछ इस तरह..
सूफी आँगन:
देखो ,वह जा चुकी है. महत्वाकांक्षाओं के कलाइडोस्कोप तोड़, जा चुकी है.वह जा चुकी है. आकाश को घर में छोड़नेपथ्य के टुकड़ों में हमें रहने के लिए मजबूर करती -अपने बनाये सितारों को पंखों में भर,जा चुकी है. उसने सूरज यहीं रहने दिया-इतना करीब कि हमारी आत्मा भी जलकर कोयला हो गई. उसने चाँद का हर टुकड़ा यहीं रहने दिया हमारे आँगन में कि उसकी दूधिया रौशनी हमारे अंधेरों में लिपटकर ओस के मानिंद आँखों में भर गई. मन्दाकिनी की तरह हम दो बहते रहे …टप -टप-टप-क्षिप्र.
मैंने अपना चश्मा ठीक किया. नाक से जरा नीचे को सरक आया था. ऐनक की कमानी पर झूलती मोतियों की चेन मेरे गालों को छू रही थी. कुछ ऐसा हुआ कि मैंने उसे देखा और उसने मुझे और हमारे बीच पोपली मुस्कान तैर गई. उसने अपनी उँगलियों पर मेरे आंसू उठा लिए और कहा -“बस, अब और नहीं.” मैं क्या बोलती? चश्मा तो उसका भी तर था. अपने पल्लू से ऐनक पोंछ दी. उसने मेरे हाथ पकड़ लिए.
मैं बोली -उहूँ ..गिजगिजे हो गए न.
वह बोला -नहीं जी ..वैसे ही कुरकुरे हैं …
कमरे के रोशनदान पर  लाल आँखों वाली सारिका का जोड़ा ऊंची आवाज़ में गाने लगा. हमारी हलकी हंसी उसीमें कहीं उलझकर रह गई.हँसते-हँसते हम दोनों खांसने लगे..
वे फुर्र हुईं और दमे से हाँफते हम दो कमरे में खमीद:सर ज़मीन को इस तरह घूरते रहे,जैसे यह हमारी मज़ार हो.
फिर मैंने कहा –
क्या पढ़ रहे थे?कहो आगे ..वही सब फिर दोहराओ, जो वह मेरे बारे में लिख छोड़ गई.”
सारंगा”,नहीं, यह पेज रहने दो.आगे की कहता हूँ.
नहीं, नहीं ..सुनाओ.”
अच्छा,सुनो..छुनकी ने यहाँ एक चित्र बनाया है,
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16 Comments

  1. कहानी का शीर्षक ही कहानी पढ़ने को आमंत्रित करता है ऊपर से एक अच्छी कहानी पढ़ने की लालसा. बहुत दिनों से टल रहा था पढ़ना, आज संभव हो पाया. कहानी के शीर्षक से दो चीज़ें बरबस ही याद आ जाती हैं. एक तो वह गाना 'सारंगा तेरी याद में / नैन हुए बेचैन" और दूसरा बचपन में दादी और घर में काम करने आने वाली (एक तरह से हमारी आया पर एक घर के सदस्य जैसी)से सुनी गयी रानी सारंगा की कहानियाँ. बाद में उसे अपनी एक खालाज़ाद बहन से भी सुना. तीनों कहानियों में बहुत फरक था. आज वे कहानियाँ याद भी नहीं हैं पर इतना याद है कि बहुत करुण कहानियाँ थीं वें. अपर्णा मनोज की यह कहानी उसी करुणा को आगे बढ़ाती है. अपर्णा जी को थोड़ा करीब से जानता हूँ. अहमदाबाद में उनके घर भी जाने का अवसर मिला है. इसलिए इस कहानी को ठीक से समझ सकता हूँ. जिस तरह से उन्होंने कहानी को बुना है, मुझे पूरी आशंका है कि कहानी लिखते समय वे कई बार रोयी होंगी. जहाँ तक अपर्णा जी की भाषा और शिल्प की बात है, वह चाहे काव्य हो या कथा, बहुत ही मंझी हुई, सुलझी हुई, अपनेपन के अहसास कराती पर थोड़ी सी अलग भाषा और शिल्प है. उनकी दूसरी कहानियों पर चर्चा करते हुए मैं पहले भी लिख चुका हूँ इस बारे में. अपर्णा मनोज हिंदी कथा संसार का उभरता हुआ वह सितारा है जिसने अपने को इस आकाश में स्थापित कर लिया है. भले ही उनकी अभी कुछ ही कहानियाँ सामने आयी हैं, उनके अंदर छिपी असीम संभावनाओं को देखते हुए, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता. शुक्रिया जानकीपुल इस शानदार कहानी के लिए. शुक्रिया अपर्णा जी इस शानदार, जानदार कहानी के लिए.

    ….सईद अय्यूब

  2. अच्छी कथा, काफी दिनों के बाद कुछ अच्छा पढने को मिला ,
    आराम नही करने देती , रिश्तों की बारीक न्युएन्सिज़ और आसपास की डिटेल, बार बार गले को
    जकड़ती है ,
    पुराना गाना ज़ेहन में कई फन उठाता है, "सारंगा तेरी याद में / नैन हुए बेचैन "
    सच सारंगा दुनिया ठीक से देख न पायी थी ,
    सदाबक्ष जिसे ठीक से सुन न पाया !
    और वो बार्बी जैसे किसी कन्फेशनल में सोया पादरी !
    नरेटर भाग भाग जाना चाहता है इस कथा से !
    स्ट्रीम आफ कन्शियेस्नेस बीच बीच में आती फ्लैशबैक्स को "अभी और यहाँ को" आंसू आंसू करती है !
    अल्बैट्रोस का किस्सा कहानी को बुलंदी देता है ……

    पुराना कोई अभिशाप "जीवन संध्या " के भीतर आ बैठा है !
    सारंगा और सदाबक्ष के बीच भी !
    और भी कितना कुछ, कितना सारा कुछ ,
    शुक्रिया अपर्णा मनोज इस

  3. बहुत मार्मिक कहानी दी, पूरी जीवनयात्रा चलचित्र की तरह चलती रही, जिंदगी सफे दर सफे आगे बढती रही, कारुणिक अंत हिला देने वाला है, आपके भीतर की कवयित्री एक नृत्य-नाटिका के जैसे दृश्यों को एक एक कर सामने रखती है, तो कभी यह एक लम्बी कविता जैसा भी लगता है, जिसका अंत होने पर नींद से जागना होता है, बहुत सुंदर, बधाई , ये मैंने शायद तीसरी कहानी पढ़ी है, उम्मीद है कुछ और कहानियां इस तरह सामने आकर सोच के द्वार पर धीमे धीमे दस्तक देंगी, मेरी तर्जनी थामकर हौले से एक दूसरी दुनिया में ले जाएँगी …..शुभकामनायें

  4. रात के इस पहर मैं भी एक पन्ने पर लिख रही हूँ…कहानी में कथन की शैली कुछ नयी है .. डायरी के माध्यम से … एक जीवन पूरा सामने कैसे वृद्ध हो रहा है..माँ की प्रकृति प्रवृति .. बेटी का आक्रोश उन परिस्थितियों पर… लेकिन कहानी कुछ रहस्यमयी सी हो गयी.. और इस रहस्य में एक जादू है .. आभार इस सुन्दर कहानी को उपलब्ध करवाने के लिए ..

  5. अधखुली आँखों से देखे गए सपने सी चलती,ठिठकती,कुछ सोंचती,बुदबुदाती और फिर चल पड़ती कहानी अपनी काव्यात्मक भाषाऔर शिल्प्में इस अजनबी दुनियाँ में अजनबी बन कर रह गई एक स्त्री की दास्तान बड़ी खूबसूरती से कहती है ! प्रभात जी को आभार के साथ अपर्णा जी को बधाई !

  6. मार्मिक भाव की कहानी है ….भाषा के स्तर पर कुछ शब्द प्रयोग से प्रवाहमयता बुरी तरह से बाधित हुई है …शिल्प के स्तर पर नयेपन का आग्रह कहानी को आक्रांत कर्ती है जबकि संवेदना का शिल्प के नयेपन के लिए कोई अतिरिक्त आग्रह नहीं है ….

  7. अपर्णा की कहानियाँ उम्मीद से पढ़ता हूँ- कथ्य का नयापन और भाषा की काव्यमयता. साथ ही साथ बेहत संवेदनशील परिदृश्य.
    आज कहानी के क्षेत्र में अपर्णा ने अपनी जगह बना ली है. यह कहानी भी तरह तरह के दारुण आघातों को सहती उस स्त्री की कहानी है जिसे उसके अपने भी नहीं समझते.या गलत समझते हैं. इस बेहतरीन कहानी को उपलब्ध कराने के लिए यशस्वी संपादक प्रभात रंजन का आभार.

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