जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक असगर वजाहत का शहरयार से अलीगढ़ विश्वविद्यालय के दिनों से गहरा जुड़ाव रहा है. जब शहरयार को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला तो उन्होंने यह संस्मरण उनके ऊपर लिखा. ‘प्रगतिशील वसुधा’ पत्रिका में प्रकाशित यह संस्मरण इतना रोचक लगा कि सोचा शहरयार के चाहनेवालों से उसे साझा किया जाए- जानकी पुल.



वह ज़माना था जब मुज़फ्फर अली की फिल्म ‘गमन’ नई-नई रिलीज हुई थी.
मुंबई के पुराने और तंग इलाके की किसी ढहती हुई इमारत के चौथे माले पर किसी ‘ऐड-एजेंसी’ के ऑफिस में सीलन भरी सीढ़ियों और राहदारियों से गुजरते हम ऊपर पहुंचे थे. सामने एक दड़बेनुमा जगह में एक ग्राफिक आर्टिस्ट बैठा कुछ काम कर रहा था. उसकी पीठ हम लोगों की तरफ थी इसलिए उसे पता नहीं चल पाया कि हम वहां आकार बैठ गए हैं. आर्टिस्ट ने काम करते-करते थक कर अपना सिर मेज़ पर झुका लिया और गुनगुनाने लगा- ‘सीने में जलन आँख में तूफान सा क्यों है…’ मैं बाकी सब कुछ भूल गया और सोचने लगा यह आर्टिस्ट शायद शहरयार को जानता भी न होगा. इसने पता नहीं फिल्म में या कहीं बाहर शहरयार की गज़ल सीने में जलन… सुनी होगी. हो सकता है आर्टिस्ट यह भी न जानता हो कि गज़ल ‘गमन’ फिल्म की है. लेकिन इस सबके बावजूद वह गज़ल गुनगुना रहा है तो क्यों? वजह साफ़ है. उसकी भावनाओं, उसके जज़्बात गज़ल के माध्यम से व्यक्त हो रहे हैं. उसे अपने दिल की बात करने के लिए शहरयार शब्द दे रहे हैं. यह तो बहुत बड़ा और नाज़ुक रिश्ता है. मुश्किल रिश्ता भी है. कौन किसकी भावना को शब्द दे सकता है? मिसाल के तौर पर मैं रोना चाहता हूँ लेकिन आँख से आंसू नहीं निकल रहे. आंसू न निकले तो मेरा दम निकल जायेगा. ऐसे में शहरयार एक शेर देते हैं और आंसू बह निकलते हैं.
भावना को शब्द मिलते हैं तो उसका विस्तार होता है. जैसा पानी मिलने के बाद बीज का होता है. बीज से अंकुर फूटता है. उसके बाद दो हरी पोंगले निकलती हैं. फिर एक पौधा किसी मेमने की तरह चौकड़ी भरता दिखाई देता है. और फिर दरख़्त बन जाता है जो छाया से लेकर फल और बीज तक देता है… नए बीज और पानी और नया जीवन…
शहरयार को पहली बार १९६३-६४ के आसपास अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में देखा था. उस ज़माने में मैं और मुज़फ्फर अली(उमरावजान फेम) विश्वविद्यालय से बी.एस. सी. कर रहे थे और साइंस पढ़ने के अलावा दुनिया भर की साहित्यिक, सांस्कृतिक खुराफात किया करते थे. इक धड़ा प्रगतिशील कहलाता था और दूसरा धड़ा ‘जदीदिये’(आधुनिकतावादी) कहा जाता था. यह माना जाता था कि प्रगतिशील आंदोलन को तोड़ने के लिए सीआईए ने ‘जदीदिये’ पैदा किये हैं जो ‘कला कला के लिए’ जैसे प्रतिक्रियावादी सिद्धांतों को स्थापित करते हैं. उस ज़माने में किसी बात पर पक्का विश्वास कर लेना मेरे लिए आसान था और मैंने इस बात पर विश्वास कर लिया था.
शहरयार को उस ज़माने में उनके गुरु और प्रसिद्ध उर्दू कवि डॉ. खलीलुर्रहमान आज़मी के कारण आधुनिकतावादी माना जाता था क्योंकि कट्टर प्रगतिशील रहने तथा प्रगतिशील आंदोलन पर पुस्तक लिखने के बाद वे ‘जदीदिये’ हो गए थे.
मैं और मुज़फ्फर साहित्य के छात्र नहीं थे. लेकिन कलाएं और साहित्य हमारा ओढना-बिछौना हुआ हुआ करता था. साहित्यिक गतिविधियों में आगे-आगे रहना और आयोजन की तैयारी करना हमारा काम हुआ करता था. यही वजह है कि जब शहरयार का पहला संग्रह ‘इस्मे आज़म’ सन १९६५ में छपकर आया तो हम पहले पाठकों में थे. ‘इस्मे आज़म से ध्यान उर्दू के महान तिलिस्मी उपन्यास ‘तिलिस्मे होशरुबा’ की तरफ जाता है जिसका नायक खलनायकों के जादू को तोड़ने के लिए ‘इस्मे आज़म’ मंत्र को पढता है. वैसे ‘इस्मे आज़म’ अल्लाह का इक गुप्त नाम भी है. संग्रह के छपने से पहले शहरयार युनिवर्सिटी के अदबी महफ़िलों में पढ़ा करते थे और दाद पाते थे, लेकिन ‘इस्मे आज़म’ के प्रकाशन ने उन्हें इक नया आधार दिया था. अब उनकी गिनती उर्दू के उन शायरों में होने लगी थी जिन्होंने गज़ल के माध्यम से नई ज़मीन तोड़ी है और संवेदनात्मक संज्ञान में योगदान दिया है. शहरयार उस नई, जटिल, बहुआयामी और आधुनिक भाव-भूमि के कवि माने जाने लगे थे जिसकी शुरुआत नासिर काज़मी कर चुके थे. नासिर काज़मी की शायरी में विभाजन की त्रासदी, जड़ों से उखड़ने का दर्द, तबाही-बर्बादी, इंसानियत पर जुल्मो-सितम, रुदन, घुटन, अँधेरा, दुःख और अवसाद, मीर तकी मीर की याद ताजा करा देती है. मीर ने नादिरशाह का हमला और कत्लेआम देखा था, वे अहमद शाह अब्दाली द्वारा दिल्ली का लूटना देख चुके थे, उन्होंने रूहेला सरदार कादिर खां का जुल्मो-सितम भी देखा था जिसने मुग़ल सम्राट शाह आलम द्वितीय को अंधा कर दिया था. १९४७ में यह सब दोहराया जा रहा था और उर्दू कविता में ‘मीरियत’ दाखिल हो चुकी थी. शहरयार इसी मीरियत के विस्तार के कवि हैं. उनकी शायरी में पूरी नस्ल को अंधा कर दिए जाने का दर्द है और उससे जन्मी कई छबियाँ हैं.
होस्टल के कमरे में मैं ‘इस्मे आज़म’ पढकर मुज़फ्फर को सुनाया करता था. उस ज़माने में मुज़फ्फर उर्दू नहीं पढ़ पाते थे. आजकल तो माशा अल्लाह वे फ़ारसी पढते हैं. उस ज़माने में मैं थोड़ी-बहुत उर्दू पढ़ लेता था, चूँकि हिंदी स्कूल का पढ़ा हुआ था. हम दोनों शहरयार की गज़लें गुनगुनाया और दूसरों को सुनाया करते थे. मुज़फ्फर उन गज़लों पर मुझसे ज्यादा सिर धुरता था. यही वजह रही कि जब उसने अपनी पहली फिल्म ‘गमन’(पहले जिसका नाम ‘अपना गांव कितनी दूर’ था) बनाई तो शहरयार की गज़लें यादा गई.
‘गमन’ फिल्म का विषय एक टैक्सी ड्राइवर का गांव से मुंबई आना और कहानी का खुलना था. इसका शहरयार की गज़लों से कोई संबंध मेरी समझ में नहीं आया. मैंने मुज़फ्फर से कहा भी कि यार, थोड़ा देखभाल लो. लेकिन मुज़फ्फर को यकीन था कि शहरयार की ग़ज़लें फिल्म की संवेदना के साथ ‘मैच’ करेंगी. फिल्म रिलीज हुई तो ग़ज़लें ‘सुपरहिट’ हो गईं. मेरे ख्याल से ग़ज़लें दर्शकों की संवेदना को अभिव्यक्त करने में बहुत सफल सिद्ध हुईं. बहरहाल शहरयार पहली बार इतने व्यापक पैमाने पर सुने और पढ़े गए.
मुज़फ्फर ने ‘गमन’ के बाद ‘आगमन’ बनाने का फैसला किया. इसकी पटकथा मैं लिख रहा था. गाने शहरयार को लिखने थे. मैं और शहरयार साहब मुज़फ्फर के मेहमान थे. उनके जुहू वाले बंगले में हम दोनों ऊपर के एक कमरे में सोते थे. एक रात करीब दो-तीन बजे आँख खुली तो देखा शहरयार साहब अपने लिए ‘ड्रिंक’ बना रहे हैं. मैंने पूछा- अरे शहरयार साहब रात में…? बोले- हाँ आँख खुल गई थी, सोचा क्या करूँ? तो ख्याल आया कि एक ड्रिंक बना लूं.
उन दिनों और जिंदगी के बेश्तर सालों में शहरयार से शराब को कोई शिकायत नहीं रही. दोनों ने एक-दूसरे का खूब साथ निभाया है. हाँ, अभी कुछ साल पहले की बात है, पता चला कि उन्होंने छोड़ दी है. मिलने पर पूछा तो बोले- ‘हाँ… वो एक पैर छोटा हुआ जा रहा था… डॉक्टर ने कहा कि अगर शराब पीता रहा तो पैर कटवाना पड़ेगा. इसलिए…’ लेकिन फिर भी कभी पता चलता था कि फिर शुरु कर दी है, कभी लोग कहते थे कि नहीं, कम कर दी है.
शहरयार में एक बड़ी खूबी यह है कि वे अपने से जूनियर लोगों से जैसे मैं या मेरे जैसे दूसरे लोग जो न सिर्फ ‘कद’ में बल्कि उम्र में भी उनसे छोटे हैं, बड़ी मोहब्बत से पेश आते हैं. मैं अपने को शहरयार का दोस्त नहीं कह सकता. सिर्फ प्रशंसक भी नहीं कह सकता क्योंकि हमारे संबंध उस सीमा से आगे बढे हुए हैं. मेरे जैसे लोग जो शहरयार से छोटे हैं, लेकिन दोस्ती की हदों को छूते हैं, दुनिया के हर शहर में काफी हैं.
लिखे-पढ़े लोग दुनिया भर में हैं और अगर उन्हें साहित्य और कलाओं में दिलचस्पी है तो शहरयार से उनके संबंध न हों यह नहीं हो सकता. अलीगढ़ में हमारे समकालीन या हमसे बाद में पढ़ने वाले लोगों का एक बड़ा सर्किल है जो शहरयार को चाहनेवालों का हल्का कहा जा सकता है. इसी हलके से प्रोफ़ेसर उबैद सिद्दीकी का ताल्लुक है. उबैद साहब आजकल जामिया मास कम्युनिकेशन सेंटर के डायरेक्टर हैं. पढ़ाई अलीगढ़ से की है और शहरयार से बहुत अच्छे और गहरे मरासिम हैं. उबैद साहब उम्र में शहरयार से काफी छोटे हैं लेकिन उम्र शहरयार के लिए प्रायः बाधा नहीं बनती. शहरयार को दिल्ली से कहीं आना-जाना होता है तो उबैद साहब अपने ट्रैवेल एजेंट से कहकर उनकी बुकिंग कराते हैं. मैंने अक्सर उन्हें इस सिलसिले में कहते पाया है- ‘अब देखिये साहब… कल शहरयार साहब की फ्लाईट है… आज कह रहे हैं कि नहीं जाऊंगा या एयरपोर्ट से तो अक्सर वापस आ जाते हैं.’ अब होता यह है कि शहरयार कहाँ जाने वाले हैं यह उस वक्त तक पक्का नहीं होता जब तक वहां पहुँच न जाएँ.
शहरयार दम्पति जीवन के पूरे कलह से गुज़र चुके हैं और अब अकेले रहते हैं. बहुत साल पहले की बात है जब कलह के दौर में थे तो एक दिन कहने लगे- ‘भाई बीवी कहती हैं आप शराब छोड़ दीजिए…क्लब जाना तो बेकार है…ताश-वाश खेलना छोड़ दीजिए… मैंने कहा, सुनो…इन सबकी जो जड़ है…शायरी…वही छोड़ दूँ?’
कुछ लोग कहते हैं शायरों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों वगैरा को शादी नहीं करनी चाहिए. मैं कहता हूँ किसी भी समझदार को शादी नहीं करनी चाहिए, लेकिन क्या करें इस दुष्चक्र में जो फंसे हुए हैं, वे न निकल पाते हैं और न उसे स्वीकार पाते हैं. शहरयार इस कलह से बाहर आकर स्वतंत्र जीवन जी रहे हैं. एक दिन अलीगढ़ में उनके फ़्लैट पर गया तो दोपहर का वक्त था, बोले- ‘ये कोरमा मैंने पकाया है… खाइए…’ मतलब शहरयार साहब को खाना पकाने और खिलाने का भी शौक है. और वे तरह-तरह के प्रयोग करते रहते हैं.
मैंने एक दिन उनसे पूछा था और काफी बचते-बचाते इशारों और संकेतों में पूछा था कि शहरयार… आप जैसा हैंडसम आदमी, मशहूर आदमी, संवेदनशील शायर… और आपका यह एकाकी जीवन…क्या कोई ऐसा…मतलब…’इस शहर में एक आहुए खुश्चाश्म से हमको, कम से कम ही सही निस्बते पैमाना रही है’ वाला रिश्ता होता तो कितना अच्छा होता तो कितना अच्छा होता. शहरयार कहने लगे, कोई कभी नहीं रही… मैं ही मामले को तूल नहीं देना चाहता था.
‘आगमन’ फिल्म के बाद मुज़फ्फर अली ने ‘उमराव जान फिल्म बनाई. इस फिल्म में शहरयार की गज़लें इस्तेमाल की गईं और शहरयार लोकप्रियता की सीढ़ियों पर ऊपर चढ़ते चले गए. ‘उमराव जान’ दरअसल शहरयार और उनके प्रशंसकों के बीच एक ऐसा पुल है जो लगातार बढ़ता चला जाता है. … अलीगढ़ में दूधपुर के चौराहे वाली पान की दुकान में जब शहरयार के साथ पहुंचा तो पान वाले ने शहरयार के प्रति श्रद्धा और आस्था दर्शाने के लिए उमराव जान का ऑडियो कैसेट लगा दिया… राजधानी में शहरयार यात्रा कर रहे हैं… यह खबर लगते ही उमराव जान के गाने बजने लगे… उन दुकानों की अलग पहचान होने लगी जहाँ शहरयार जाते थे… इस टेलर के यहाँ शहरयार कपड़े सिलाते हैं… यहाँ बाल कटाते हैं… अलीगढ़ क्लब एक तरह से शहरयार के लिए आँखे बिछाए रहता था और लोगों की तमन्ना रहती थी कि शहरयार के साथ दो घड़ी बैठ लें.
अब सवाल यह है कि शहरयार ने ‘उमराव जान’ की अद्वितीय सफलता के बाद फ़िल्मी दुनिया का रुख क्यों नहीं किया? क्या शहरयार को पैसा, ख्याति, सम्मान, उपाधि, ‘स्टार इमेज’ पसंद नहीं है? सवाल बहुत टेढा है. कौन नहीं चाहता कि पैसा, प्रतिष्ठा, सम्मान, रुतबा, दबदबा, प्रभामंडल लगातार बढ़ता रहे. अखबारों के पन्ने उनकी तस्वीरों से रंगे रहें. उपाधियों और अलंकरणों से उसका कद लगातार ऊंचा होता रहे. लोकसभाएं और राज्यसभायें उसे आलोकित करें और वह जीते-जी दूसरे के लिए देवता बन जाए. शहरयार ने यह सब नहीं चाहा, यह सब नहीं किया, इस रास्ते पर नहीं चले क्योंकि वे इससे बड़े, जटिल और जोखिम भरे रास्ते पर चलना चाहते थे. यह रास्ता संतों और सूफियों का बनाया रास्ता है. यह रास्ता निश्छल प्रेम और त्याग का रास्ता है, यह रास्ता इंसानी दोस्ती का रास्ता है, यह रास्ता बूँद को समुन्दर में और समुन्दर को बूँद में मिला देने का रास्ता है. यह मीर तकी मीर का रास्ता है. ग़ालिब का रास्ता है जो गली कासिम जान की तंग और अँधेरी कोठरी में इंसान की अजमत, उसकी महत्ता का स्वप्न देखते थे.
शहरयार को अपने शायर होने पर कभी गर्व नहीं रहा. वे तो हैरत करते हैं कि मैं… मूलतः राजपूत और शताब्दियों पहले इस्लाम स्वीकार कर लेनेवाले उस परिवार में जन्मा हूँ जहां लड़के हॉकी और फुटबॉल के प्लेयर हुआ करते थे और पढ़ाई के बाद पुलिस की नौकरी में निकल जाते थे. मैं शायर कैसे बन गया यह मेरी समझ में नहीं आया.
शहरयार को मैंने कभी शायरों के ‘ड्रेसकोड’ में नहीं देखा. जैसे कढे हुए चपचपाते कुर्ते, रंगीन डिजायनर कुर्ते, गले में लंबे-लंबे रेशमी स्कार्फ, पैरों में सलीमशाही जूते, वगैरा वगैरा… शहरयार सीधे-सादे लोगों जैसा लिबास पहनते हैं. अगर आप उन्हें न जानते हों और राह चलते देख लें तो यह नहीं कह सकते कि वे शायर हैं. शहरयार पेंट और कमीज़ पहनते हैं जबकि मिडिया से सम्बंधित शायर और कलाकार हर चौथे साल नए फैशन के अनुसार बदल जाते हैं. कपड़ों से लेकर व्यवहार तक में टोने-टोटके करते हैं. मंगलवार को पीला कपड़ा पहनते हैं तो शुक्रवार को काला पहनते हैं. लंबे-लंबे बाल और दाढ़ियाँ बढाते हैं. काले कपड़े पहनकर कभी कलंदर बन जाते हैं तो कभी सफ़ेद कपड़े पहनकर बगला भगत.
कुछ साल पहले मैंने शहरयार पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई थी. इस सिलसिले में उनसे लंबे इंटरव्यू किये थे. कई दिन तक शूटिंग चली थी. शहरयार से उनकी ग़ज़लें सुनी और रिकॉर्ड की थी. इस दौरान उन्होंने न सिर्फ पूरी तरह ‘को-ऑपरेट’ किया बल्कि टीम के साथ उनके अच्छे संबंध बन गए थे.
शहरयार को सम्मान ज्यादा मिला ‘अवार्ड’ कम मिले. फिर भी ‘अवार्ड’ की तादाद कम नहीं रही. शहरयार पर आरोप भी खूब लगे. कहा गया कि अलीगढ़ में शहरयार जनवादी हैं और दिल्ली में प्रतिक्रियावादी हैं. अलीगढ़ के जनवादी लेखक संघ से शहरयार का लंबा रिश्ता रहा है. दूसरी तरफ दिल्ली में ऐसे साहित्यिक खेमे से उनका जुड़ाव जगजाहिर है जिसे कम से कम जनवादी तो नहीं ही कहा जा सकता.
दरअसल शहरयार संबंधों के आदमी हैं, विचारधारा के आदमी नहीं हैं. उसी तरह जैसे हिंदी में शमशेर थे. लेकिन दोनों में बड़ा अंतर है. शमशेर की चाय में शकर घोलने वाले इतने सक्षम और तजुर्बेकार नहीं थे जितने शहरयार की चाय में शकर घोलने वाले हैं. शहरयार ने अपनी पूरी मासूमियत, ईमानदारी और निष्ठा को बनाये रखते हुए अपनी ‘कागज़ की नाव’ में उत्तर-आधुनिक पतवार लगा रखे हैं. कहीं-कहीं नाव की रफ़्तार बढ़ जाती है और वह उनकी मर्ज़ी के खिलाफ चलने लगती है.
पर कौन जाने उनकी मर्ज़ी क्या है?
        
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