जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

जब से कैलाश वाजपेयी के निधन के बारे में सुना तब से उनके बारे में लिखने की सोच रहा था. लेकिन क्या लिखूं? यह बड़ा सवाल था. हिंदी का विद्यार्थी रहा हूँ. यही पढता आया हूँ कि ‘प्रतिबद्ध’ और ‘कलाबद्ध’ ये दो बड़े कैनन हैं हिंदी कविता के विकास को समझने के लिए. कैलाश जी की कविताओं को, उनके लेखन को किस सांचे में डालूँ? यह बड़ा सवाल था. तभी लगा कि असल में हिंदी में जो लेखक बने बनाए सांचों के अनुरूप खुद को नहीं ढाल पाता है, उनको दरकाने की कोशिश करता है वह ‘आउट ऑफ़ कोर्स’ हो जाता है. कैलाश वाजपेयी अपनी मजबूत उपस्थिति के बावजूद आउट ऑफ़ कोर्स लेखक ही बने रहे. अकारण नहीं है कि हिंदी कविता इस समय ‘एकसापन’ से सबसे अधिक आक्रान्त है! 

मुझे याद है कि 80 के दशक में हिंदी की पत्र पत्रिकाओं में वे अपने विशेष बाने के कारण हमारा ध्यान खींचते थे. चोगे जैसा वस्त्र, माथे पर अजीब सी टोपी. निर्मल वर्मा कॉर्ड की पेंट के कारण हमारा ध्यान खींचते थे तो कैलाश वाजपेयी अपनी अजीब सी वेशभूषा के कारण. उन दिनों उनके कविता संग्रह ‘सूफीनामा’ के बारे में पढता था और सच बताऊँ अपनी अल्प बुद्धि के कारण उनको सूफी संत समझने लगा था. वह तो बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढने आया तो यह पता चला कि वे मोतीलाल कॉलेज में हिंदी पढ़ाते थे. 

1964 में उनका पहला कविता ‘संक्रांत’ संग्रह प्रकाशित हुआ था और साठोत्तरी कवियों की तरह उनके कविताओं का मुख्य स्वर भी वही गुस्सा, आक्रोश था जो धूमिल, राजकमल चौधरी जैसे कवियों में था. वे भी एक ‘डेटेड’ कवि थे लेकिन निर्मल वर्मा की तरह उनकी भारत आकुलता बाद में बढती गई थी. मुझे याद है कि विष्णु खरे ने ‘आलोचना की पहली किताब’ नामक पुस्तक में उनके ऊपर, उनकी कविताओं के ऊपर लिखते हुए यह सवाल उठाया था कि उनकी कविताएं सामाजिक सन्दर्भों से कट रही हैं, कि उनमें किसी तरह की प्रतिबद्धता नहीं है. असल में, विष्णु जी ने वह लेख उनके दूसरे कविता संग्रह ‘देहांत से हटकर’ के ऊपर लिखा था. लेकिन एक बात है विष्णु खरे ने अपने उस लेख में भी इस बात को रेखांकित किया है कि वे एक ऐसे कवि हैं जिनका स्वर विशिष्ट है.

मुझे याद है कि जब 2009 में कैलाश वाजपेयी को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला था तो उन्होंने कहा था कि जब उन्होंने कविता लिखना शुरू किया था तब वे कविता को बदलाव का औजार समझते थे लेकिन बाद में उनकी समझ यह बनी कि कविता समय-समाज में कोई हस्तक्षेप नहीं करता, वह तो हवा में हस्ताक्षर की तरह है. ‘हवा में हस्ताक्षर’ कविता संग्रह के लिए ही उनको साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला था.

असल में, उनकी कविताओं में आध्यात्मिकता बढती गई. हम हिंदी वाले आध्यात्मिकता को धर्म के खाते में डाल देते हैं, फिर दक्षिणपंथी करार देने लगते हैं. हम परम्परा-परम्परा तो बहुत करते हैं, लेकिन अगर कोई लेखक-कवि भारतीय परम्परा की बात करने लगता है तो जैसे उसे हम जात-बाहर करने में लग जाते हैं. मुझे लगता है कि कैलाश जी की कविताओं का, उनकी आध्यात्मिकता का भारत जैसे बहु-धार्मिक देश में अपना विशिष्ट सन्दर्भ है. वे आध्यात्मिकता के माध्यम से कविता के उस सामान्य भूमि की तलाश कर रहे थे जो सभी धर्मों में मेलजोल के बिंदु बनाता है. इस रूप में वे मध्यकालीन निर्गुण संतों या सूफियों की आध्यात्मिकता से जुड़ते दिखाई देते हैं, जिनके यहाँ जीवन-संसार की निस्सारता वह आध्यात्मिक सामान्य भूमि है. यही आध्यात्मिकता बाद में अमृता प्रीतम में भी मुखर हो गई थी. कैलाश जी भी बाद में कविताओं के माध्यम से अर्थ नहीं अर्थहीनता को समझने की कोशिश करते रहे.

असल में,  मुझे लगता है बने बनाए सांचों के आधार पर कैलाश वाजपेयी की रचनाओं को खारिज करने की बजाय जरूरत यह कि उन्होंने जो सांचे बनाए उनको समझा जाए. वे हिंदी के संकुचन के नहीं विस्तार के लेखक थे. हमारी दृष्टि संकुचित है कि हम उनकी रचनाओं के मर्म तक नहीं पहुँच पाए. उनकी बहुलतावादी रचना दृष्टि के मर्म तक पहुँच पाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.  
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