जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

अरुण प्रकाश एक सशक्त कथाकार ही नहीं थे बल्कि एक संवेदनशील कवि भी थे. आज उनकी दो गजलें और एक कविता प्रस्तुत है. जिन्हें उपलब्ध करवाने के लिए हम युवा कवि-संपादक सत्यानन्द निरुपम के आभारी हैं- जानकी पुल. 
===========
1. 
सिले होंठों से वही बात कही जाती है 
ख़ामोशी चुपचाप कोई जाल बुने जाती है 
वे सो गए पाबंदियां दिलों पे लगाकर 
कि देखें दीवारों से रूह कैसे निकल आती है 
गुमां है उनको कि जीत लिया हमने वतन 
उनकी नादानी पे मीरों को हंसी आती है 
वक्त लंबा भी खींचे, मायूस न हो मेरे दोस्त 
एक दन साँपों पे मोरों की भी बन आती है 
२.
सारी हकीकतें आपके जब सामने हैं 
मुंह चुराने के भी हाँ कुछ मायने हैं 
जब चली ठंढी हवा तो बिस्तरों में घुस गए
आग में औरों के गरमाने के भी कुछ मायने हैं 
आपको जब जब लगा कि मौत सिरहाने है बैठी 
पायताने भाग जाने के भी हाँ कुछ मायने हैं 
मुंह चुरा कर आग से अब आप जाएंगे कहाँ 
आपके चारों तरफ बस आईने ही आईने हैं 
३.
शर्मिन्दगी
मैं जीता हूँ
मेरे गिर्द सब कुछ है
बेईमानी, धोखा, भूख 
सार्वजनिक हत्या और लूट
फिर भी निश्चल सा जीता हूँ
मेरी जीभ साबुत है
बत्तीस दांतों के बीच 
बस हिलती है, डुलती है 
बेसुरी आवाज पैदा करती है
फंटे बांस सी 
पर उससे क्या, गूंगा हूँ
हाथ भी हैं दोनों 
सही सलामत 
एक सरदर्द सहलाने के लिए 
दूसरा दफ्तर में कलम घिसने के लिए
ये हाथ उन पर नहीं उठते 
क्योंकि लूला हूँ 
मेरी देह मरुस्थल में है
चारों ओर बालू ही बालू 
रेट गर्म है, पानी भाप बनकर उड़ चुका है 
पाँव भी हैं, पर उससे क्या 
लंगड़ा हूँ 
एक मैं हूँ जो रेत से घिरा हूँ
एक वो हैं 
जो अपने इर्दगिर्द मकड़े सा जाल बुने हैं 
कोई हमला भी करे 
तो भागने के सैकड़ों रास्ते हैं 
वो जिन्दा हैं और मैं?
शर्मिंदा हूँ…
Share.

4 Comments

  1. Pingback: 뉴토끼

  2. Pingback: 늑대닷컴

  3. Pingback: unicc shop

Leave A Reply

Exit mobile version