जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

श्वेत क्रांति के जनक वर्गीज कुरियन को लेकर श्रद्धांजलियों का दौर थम चुका है. उनके योगदान का मूल्यांकन करते हुए उनके महत्व को रेखांकित कर रहे हैं प्रेमपाल शर्मा– जानकी पुल.
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अमूल के अमूल्य जनक वर्गीज कुरियन नहीं रहे । रेलवे कॉलिज बड़ौदा के दिनों में उनका कई बार अधिकारियों को संबोधित करने और अनुभवों को सुननेए साझा करने का मौका मिला । कई बिंब एक साथ कौंध रहे हैं जिनमें सबसे सुखद है खचाखच भरे सभागार में उनका पूरी विनम्रता से भेंट स्व रूप दी गयी टाई को वापस करना । ‘मैं  किसानों के बीच काम करता हूँ । इसे कब लगाऊंगा ।‘

अपनी जरूरत और सादगी के बीच अद्भुत संतुलन।

कुछ वर्ष पहले उनकी आत्मबकथा छपी थी । ‘सपना जो पूरा हुआ’ । अंग्रेजी में ‘आई टू हैव ऐ ड्रीम’ । इसमें उन्होंनने विस्तार से केरल से चलकर गुजरात को कार्यक्षेत्र बनाने और अमूल संस्था की पूरी कहानी बयान की है । इसकी प्रासंगिकता ऐसे वक्त में सबसे ज्यादा है क्योंकि यह पुस्तक उन सारे विकल्पों से रूबरू कराती है जिनको अपनाकर भारत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जाल और मौजूदा संकटों से बच सकता है या उन्हें परास्त कर सकता है।

शायद  ही कोई प्रधानमंत्री होगा जिसने गुजरात में अमूल के इस प्रयोग को खुद जाकर न देखा हो और वर्गीज कुरियन और सहकारिता आंदोलन की तारीफ न की हो । नेहरू जी ने प्लांट का उद्घाटन कियाए फिर शास्त्री  जी गये। इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई से लेकर अब तक तमाम प्रधानमंत्रीए कृषि मंत्री। ऐसा नहीं कि राजनीतिज्ञों ने अपनी नाक घुसेड़ने की कोशिश न की हो लेकिन वर्गीज की निष्ठा, लगन और गुजरात के किसानों की एकजुटता ने किसी भी राजनीतिज्ञ के मंसूबे पूरे होने नहीं दिए। चापलूसी और पोस्टिंग की जोड़-तोड़ में लगी मौजूदा नौकरशाही कुरियन के अनुभव से सीखकर अपनी पहचान वापस ला सकती है। जब हर नौकरशाह दिल्ली की जुगाड़ में रहता है, कुरियन ने खुद शर्त रखी कि ‘मैं दिल्ली किसी भी कीमत पर नहीं आऊंगा। मैं किसानों के संगठन का नौकर हूँ और उनके नजदीक आनंद में ही रहूंगा।‘

जाति व्यनवस्था और छूआछूत से जूझते समाज में अमूल की सफलता एक आर्थिक सफलता ही नहींए एक सामाजिक क्रांति का भी संकेत देती है । सहकारिता आंदोलन में सभी किसान शामिल थे । ब्राह्मण, बनिया, दलित, मुसलमान सभी। समितियां गांव-गांव स्थापित की गईं थीं और मोटा-मोटी नियम कि जो पहले आए उसका दूध पहले लिया जाएगा। सुबह-सुबह लंबी लाइनों में यदि दलित पहले आया है तो वह ब्राह्मण के आगे खड़ा होता था। यह बात समाज के उन वर्गों ने भी स्वीकार कर ली जो इससे पहले इस बराबरी को नहीं मानते थे। कभी-कभी वे अपने उपयोग के लिए भी दूध इन्हीं डेरियों से लेते थे । दूध लेते वक्त वह अहसास गायब होता है कि यह दूध किसी ब्राह्मण का है या किसी निम्ने जाति का। मनुष्यों  को बराबर समझने के लिए ऐसे आर्थिक संबंध कितनी प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं वह चकित करता है।

सहकारिता के इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी भी विलक्षण रही। जब उन्हें यह अहसास हुआ कि दूध की बिक्री से उनका घर चल सकता है और उसका मुनाफा भी उनके परिवार की बेहतरी के काम आएगा तो और स्त्रियों में भी एक अलग किस्मा का स्वावलंबन पैदा हुआ। वे खुद बढ़-चढ़कर आगे आईं। उनको उन आधुनिक डेयरी फार्मों में ले जाया जाता जहां मवेशी रहते थे। उनकी देखभाल करने का प्रशिक्षण दिया जाता तो इससे उनकी समझ में भी स्वास्थ्य, प्रजनन संबंधी जानकारी पैदा हुई। वे स्वयं इस बात को समझने लगी कि भैंस, गायों को क्यों गर्भावस्था में पौष्टिक भोजन देना चाहिए। यहां तक कि कृत्रिम गर्भाधान केन्द्रों पर उन्हें ले जाने से जनसंख्या नियंत्रण की समझ भी उनमें पैदा हुई। शिक्षा का अर्थ सिर्फ डिग्रियां नहीं, ऐसे सामाजिक अनुभव भी आपको समझदार नागरिक बनाते हैं।

अमूल का यह मॉडल विकेंद्रीकरण का सबसे अच्छा  उदाहरण है। गांवों की अर्थव्यवस्था  ठीक होगी तो गांव बेहतर होंगे। तब ये लोग न दिल्ली की तरफ भागेंगे, न मुंबई की तरफ जहां राजनीतिक पार्टियां अपना वोट बैंक ढूंढें । स्कूल भी उनके वहीं खोले गए। यहां तक कि पशुओं की देखभाल के लिए पशु चिकित्स्क गांव-गांव आ गए। पशु चिकित्संक जब आ गए तो किसानों को लगा कि मनुष्यों  के लिए भी तो डॉक्टर चाहिए । इससे सरकारी अस्पबताल बढ़े, या‍नी कि एक के बाद एक सुविधाए समृद्धि के द्वार खुलते गए । उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों में विकेन्द्रीदकृत, पंचायती राज पर सेमीनार तो 60 वर्ष से हो रहे हैं, जमीनी स्तर पर एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता जो अमूल की छाया के आसपास भी हो।

बिहार, उत्तर प्रदेश की जनता नेता और बुद्धिजीवियों के लिये कई सबक इसमें छिपे हैं।

सफलता के शीर्ष पर पहुंचे हुए कुरियन पाकिस्तातन के बुलावे पर और विश्व बैंक के अनुरोध पर पाकिस्तान गए। पाकिस्तान भी चाहता था कि कुरियन अमूल जैसे संस्था के निर्माण में उन्हें  भी सहयोग दे। कुरियन ने यथासंभव कोशिश भी की। लेकिन मजेदार प्रसंग दूसरा था। पाकिस्तान के एक अधिकारी ने पूछा कि आप एक ईसाई हो और वह भी गुजराती नहीं, हिंदुओं के गुजरात ने कैसे जगह दे दी? कुरियन का जवाब था, 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया था, गुजरात में पुलिस महानिदेशक मुस्लिम थे, गृह सचिव ईसाई और गुजरात के राज्यपाल एक मुसलमान। भारत धर्म संप्रदायों से परे एक लोकतांत्रिक देश है इसलिए ऐसा प्रश्न मेरे लिए अप्रासंगिक है ।
2002 में मोदी के कारनामों से खार खाये तुरंत भाला-बरछी लेकर सामने आयेंगे लेकिन सत्ता के चरित्र से आम आदमी पर खत्म नहीं किया जाना चाहिये । क्यों  औरंगजेब के कारनामों के आधार पर पूरी मुस्लिम बिरादरी को शक के घेरे में लेना उतना ही घृणास्पाद नहीं है। वर्गीज कुरियन ने अपने अनुभवों को समेटते हुए बड़ौदा के उसी भाषण में यह भी कहा था कि गांधी केवल गुजरात में ही पैदा हो सकता है जहॉं लोग अच्छे काम के पीछे बिना हील हुज्जत के हो जाते हैं ।

सन् सत्तर के बाद पैदा हुई पीढ़ी मुश्किल से ही यह समझ पायेगी कि सन् सत्तर में विशेषकर गर्मियों में मावा या खोये की मिठाईयों पर शादियों तक में प्रतिबंध लग जाता था। उन दिनों दूध की बेहद कमी रहती थी और यदि दूध की मिठाईयों की छूट दी जाती तो बच्चों को दूध नहीं मिल पाता था। कुरियन के प्रयासों का ही प्रताप है कि देश के किसी भी हिस्सें से आज दूध की कमी की शिकायत नहीं मिलती। शुद्ध पानी जरूर मुश्किल से मिलता है।

पिछले एक वर्ष से मेरा दिमाग कुरियन पर लिखने को कसमसा रहा था । हुआ यह है कि कुरियन की किताब पिढ़ने के कुछ दिनों बाद ही मुझे अनसूया ट्रस्ट से जुड़ी ज्योत्सना मिलन ने सेवा की संस्थापक इलाबेन की वाग्देवी प्रकाशन से छपी किताब ‘लड़ेंगे भी रचेंगी भी’ भिजवायी। बेहद प्रेरणादायक। अमूल ने गुजरात समेत देश के लाखों किसानों का जीवन बदल दिया तो इलाबेन ने सेवा संस्था के जरिये समाज में और भी दबायी आधी आबादी यानी कि स्त्रियों की जिंदगी को। सेवा की सहायक संस्थाओं में आज दस लाख से ज्यादा कामगार मजदूर महिलाएं पैरा बैंकिंग, सिलाई, हस्तशिल्प, स्वास्थ्य, सभी क्षेत्रों में सक्रिय है ।

क्या गुजरात के सामाजिक समृ‍द्धि में वर्गीज कुरियन और इला भट्ट के योगदान को नकारा जा सकता है?

दिल्ली में मेरे घर के आसपास अमूल की न चॉकलेट मिलती, न आईसक्रीम। मयूर विहार के दर्जनों दुकानदारों से आग्रह किया कि अमूल की चॉकलेट रखो तो खूब बिकेगी। उनकी चुप्पी का अर्थ था केडबरी और दूसरी ब्रांडों में मुनाफा ज्यादा है। कहॉं गयी तुम्हारी देशभक्ति, देशी योग, स्वदेश, स्वराज। ललकारने पर भी कुछ असर नहीं हुआ है।

ग्लोहबलाइजेशन के खिलाफ वर्षों से बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं। देशी उत्पाद अमूल को टिकने के रास्ते में भी आस्ट्रेबलिया, न्यूजीलैंड ने कौन से रोड़े नहीं अटकाये। उनके उत्पाकद पोल्स नए नेस्ले का आयात बंद हो गया था। सरकार पर दवाब बनाया, कुप्रचार किया कि भैंस के दूध से मिल्‍क पाउडर नहीं बनाया जा सकता। लेकिन सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को धता बताते हुए अमूल ने साबित कर दिया कि रास्ता संभव है। श्या‍म बेनेगल ने इस पूरे प्रयोग पर ‘मंथन’ जैसी फिल्मा भी बनायी। लेकिन देश के अधिकांश हिस्सों में अभी भी इस प्रयोगए इसकी आत्माम, इसकी दृष्टि को समझकर पूरे देश में फैलाने की जरूरत है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ हम 20 साल से तो हवाई नारे, सेमीनार सुन ही रहे हैं, यदि एक भी काम हम ऐसा कर पाएं तो देश की तस्वीर बदल सकती है।

वैसे तो ऐसी सामाजिक हस्तियॉं किसी पुरस्कार की मुहताज नहीं होती फिर भी भारतरत्न का अगला कोई हकदार है तो वर्गीज कुरियन ।
प्रेमपाल शर्मा
फोन नं.011-22744596 (घर)
011-23383315 (कार्यालय)
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9 Comments

  1. सही कहा अनीता जी आपने …
    वर्गीज कुरियन को भारत रत्न मिलना चाहिए।
    Pooja Rao, Raipur

  2. शर्मा जी , कुरियन जी के बारे में लेख अच्छा लगा ..आपने सही लिखा भारत रत्न के हकदार है … साईं बाबा के न रहने पर सचिन का आंसू बहाना , अमिताभ कब कौन से मंदिर गए , ऐश्वर्य ने शादी में क्या पहना ,करीना सैफ की शादी …. ऐसी बकवास बातों को लेकर मीडिया काफी चिंतित दीखता है …लेकिन कुरियन को ऐसी श्रदांजलि नहीं दी गई जिसके सही मायने में वो हकदार है…
    aneeta

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