जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

यह अंग्रेजी के आरंभिक हिन्दुस्तानी लेखकों में एक अहमद अली की जन्मशताब्दी का साल है. वे हिंदुस्तान-पाकिस्तान के आला हुक्काम रहे लेकिन उनको याद किया जाता है अंग्रेजी में लिखे उपन्यास ट्विलाइट इन देल्ही के लिए. इस उपन्यास में दिल्ली की संस्कृति का धुंधलका है- मुग़ल संस्कृति की ढलान का धुंधलका, फिरंगी संस्कृति के आमद की धुंध.  कहते हैं १८५७ के बाद दिल्ली की बदलती संस्कृति का जैसा चित्रण इस उपन्यास में मिलता है वैसा उस दौर की किताबों में कम ही मिलता हो. शहर आगरा की बर्बादी का मंज़र नजीर अकबराबादी के शहरे-आशोब में दिखता है. वैसे दिल्ली की बर्बादी के कुछ मंज़र ग़ालिब के दस्तम्बू में आए थे. लेकिन इतने विस्तार से संस्कृति की तबाही की कहानी ट्विलाइट इन देल्ही से पहले शायद नहीं लिखी गई थी. यही कारण है कि १९४० में प्रकाशित उपन्यास की महक पुराने चावल की तरह समय के साथ बढती गई. जैसे-जैसे अंग्रेजी आधुनिकता से ऐन पहले के भारत में लोगों की दिलचस्पी बढती गई इस उपन्यास की प्रासंगिकता बढती गई.
मुल्कराज आनंद के उपन्यास अनटचेबल्स के प्रकाशन के बाद किसी भारतीय का अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाला यह पहला महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है. अहमद अली को इसी कारण भारतीय अंग्रेजी लेखन के पुरोधाओं में माना जाता है- अन्य लेखक हैं मुल्कराज आनंद और आर.के. नारायण, राजा राव. प्रसंगवश, राजा राव उनके सहपाठी भी रह चुके थे. लेकिन अहमद अली के इस उपन्यास के महत्त्व का महज यही कारण नहीं है. न ही इस कारण है कि वे प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सदस्यों में थे. कहा जाता है कि यह अंग्रेजी में लिखा गया भारत का पहला राजनीतिक उपन्यास है. ऊपर जिन अन्य अंग्रेजी लेखकों की चर्चा की गई वे भारत के सामाजिक यथार्थ की औपन्यासिक छवि प्रस्तुत कर रहे थे क्योंकि पराधीन देश में ऐसा साहित्य लिखना जिसके राजनीतिक सन्दर्भ हों, अपने को खतरे में डालना होता था. लेकिन अहमद अली ने अभिव्यक्ति का यह खतरा उठाया. ट्विलाइट इन देल्ही पहला अंग्रेजी उपन्यास है जिसमें अंग्रेजों को दिल्ली की बर्बादी का ज़िम्मेदार ठहराया गया है और उनके देश छोड़ने की बात की गई है. आजादी की बात की गई है. दिल्ली में मुसलमानों की तबाही के लिए अंग्रेजों को ज़िम्मेदार ठहराया गया है.  
इसके कारण इस उपन्यास को छापने वाले नहीं मिल रहे थे. कारण बड़ा साफ़ था. उपन्यास में १८५७ की क्रांति को स्वतंत्रता संग्राम कहा गया है जबकि अँगरेज़ उसको विद्रोह कहते थे. बाद में इसको मशहूर लेखिका वर्जीनिया वुल्फ के होगार्थ प्रेस ने प्रकाशित किया. कहते हैं कि उर्दू में लेखन की शुरुआत करनेवाले इस लेखक ने अंग्रेजी में लिखने का फैसला इसलिए किया ताकि अंग्रेजी राज के बारे में दिल्लीवालों की राय को फिरंगियों तक उनकी ही भाषा में पहुंचाया जा सके. कहते हैं इंग्लैंड में उपन्यास को पसंद भी किया गया. उसके बाद उर्दू का यह अफसानानिगार हमेशा के लिए अंग्रेजी भाषा का लेखक बनकर रह गया. उन्होंने उर्दू में लिखना तो नहीं छोड़ा लेकिन सज्जाद ज़हीर से मतभेदों के कारण प्रगतिशील लेखक संघ से भी दूरी बना ली. 
१९११ में दिल्ली भारत की राजधानी बनी और यहाँ भारतीय-फ़ारसी परम्परा पर धीरे-धीरे अंग्रेजियत का रंग चढ़ने लगा. उपन्यास की कहानी पुरानी दिल्ली में रहने वाले एक पुराने बाशिंदे मीर निहाल के खानदान की है और इसकी कहानी १९१० के आसपास शुरू होती है. उपन्यास में पुरानी दिल्ली की गलियां हैं, उनके पेचोखम है और ढलती हुई वह मुस्लिम संस्कृति है, १९१० से लेकर १९१९ के दौर को लेखक एक तरह जिसका दिल्ली में सीमान्त मानते हैं. जिसके बाद दिल्ली की तहजीब पुरानी कही जाने लगी और वह बंद दीवारों के पीछे सिमटती गई और तथाकथित नई दिल्ली की संस्कृति विकसित होती गई. तांगों और बग्घियों की संस्कृति धूल उड़ाती मोटरगाड़ियों की संस्कृति में बदलने लगी. १९११ में जार्ज पंचम का दरबार हुआ था उसका भी बड़ा मानीखेज़ सन्दर्भ उपन्यास में आता है. बेगम निहाल कहती हैं कि जब मुग़ल बादशाह गुजरते थे तो रूपए-मुहर बरसते थे, जब ये फिरंग गुजरते हैं तो धूल और पत्थर. एकाएक सैकड़ों साल से इस शहर में रहनेवाले अपने ही गलियों-मोहल्लों में अपने आपको बेगाने समझने लगे. ट्विलाइट इन देल्ही में इसका दर्द साफ़ सुनाई देता है. अपनी एक उर्दू कहानी हमारी गली को ही इस उपन्यास में उन्होंने एक तरह से विस्तार दिया है. उपन्यास में आता है कि दिल्ली अंग्रेजों के हाथों क्यों चली गई इसके उस दौर में अनेक किस्से थे. एक किस्से के अनुसार यह सब इस वजह से हुआ क्योंकि मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह की कब्र हज़रत निजामुद्दीन औलिया और आमिर खुसरो की कब्रों के बीच में बना दी गई थी. इससे दो प्रेमियों के बीच दीवार पैदा हो गई यह सब उसी का अभिशाप था. इसमें शाहजहानाबाद के किस्से हैं और उसके दिल्ली में रूपांतरित होने की कहानी है.  
 पुरानी दिल्ली की कई संस्कृतियों के लिहाज़ से उपन्यास एक तरह से दस्तावेज की तरह से है. ऐसी ही एक संस्कृति तवायफ संस्कृति थी. लेखक ने उपन्यास में दिखाया है कि किस तरह पुरानी दिल्ली के समाज में उसे उतना बुरा नहीं समझा जाता था, तवायफों के यहाँ लोग तहजीब सीखने जाया करते थे. इस संस्कृति के कारण मुसलामानों में भी, कम से कम उच्च वर्ग में बहुविवाह का वैसा प्रचलन नहीं था जैसा कि मुस्लिम संस्कृति के बारे में आम तौर पर मान लिया जाता है. इसी तरह पतंगबाजी, शेरो-शायरी की संस्कृति है. उपन्यास में आम लोगों का जीवन भी चित्रित किया गया है, मटिया महल, ज़ामा मस्जिद के आसपास रहनेवाले आमजन का जैसा जीवन इस उपन्यास में दिखाया गया है उससे नहीं लगता है कि उनके हालात में कुछ खास बदलाव आए हैं.
ट्विलाइट इन देल्ही से एक और बात की ओर ध्यान जाता है. आज भारतीय अंग्रेजी उपन्यासों से सबसे बड़ी शिकायत यही की जाती है कि उसमें भारत का दिल नहीं धडकता बल्कि यह आकांक्षा धडकती है कि किस तरह की कहानी किस ढंग से पेश की जाए जिससे विश्व बाजार पर कब्ज़ा जमाया जा सके. हालाँकि हाल के वर्षों में जिन दो भारतीय मूल एक लेखकों की कृतियों को बुकर मिले हैं उनकी कथाओं में यहाँ के समकालीन जीवन के सन्दर्भ आते है. किरण देसाई के उपन्यास इन्हेरिटेंस ऑफ लॉस और अरविन्द अडिग के उपन्यास व्हाइट टाइगर दोनों आईडिया के स्तर पर तो भारतीय उपन्यास कहे जा सकते हैं लेकिन इनमें वह वर्णनात्मकता नहीं है जो उपन्यास के परिवेश को विश्वसनीय बनाते हैं. अहमद अली के इस उपन्यास को इसी विश्वसनीय परिवेश के वर्णन के लिए जाना जाता है. बल्कि उस समय के अन्य उपन्यासकार मुल्कराज आनंद, राजा राव आदि भी समाज के आम लोगों की कथा कह रहे थे. शायद उस समय अंग्रेजों द्वारा जो संस्कृति लादी जा रही थी वे इस तरह के उपन्यासों के माध्यम से एक तरह से उसका विरोध कर रहे थे. 
अहमद अली केवल लेखक नहीं थे. अविभाजित भारत और विभाजित पाकिस्तान में उनकी अहद के कई अहवाल और हैं. अलीगढ और लखनऊ युनिवर्सिटी, उस ज़माने के दो आधुनिक संस्थानों से शिक्षा प्राप्त करके उन्होंने अंग्रेजी आधुनिकता का पाठ सीखा. उन्होंने अंग्रेजी में उच्च शिक्षा पाई थी लेकिन लेखन की शुरुआ़त उर्दू में कहानियां लिखने से की. १९३१ में उनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई. उन्होंने १९३२ में कुछ सहयोगी लेखकों के साथ मिलकर अंगारे नाम से कहानियों का एक संकलन निकाला जिसे एक तरह से उर्दू में बोल्डनेस का पहला पाठ कहा जा सकता है. अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे, बीबीसी के लिए काम किया और जब भारत का विभाजन हुआ उस वक्त वे चीन में विजिटिंग प्रोफ़ेसर थे. कहते हैं कि वे लौटना तो अपने अज़ीज़ शहर दिल्ली थे लेकिन हिन्दुस्तान की सरकार ने उनको पाकिस्तान जाने की सलाह दी और वहाँ उन्होंने कराची को अपना ठिकाना बनाया.
पाकिस्तान में भी उन्होंने अनेक हैसियतों में सरकार में आला ओहदों पर काम किया. दो बार अमेरिका में भी रहे. उनकी सेवाओं के लिए पाकिस्तान सरकार ने उनको सितारा  ए इम्तियाज से नवाजा. उर्दू-हिंदी में कहानियाँ, उपन्यास, कविताएँ भी लिखते रहे. ग़ालिब की कविताओं का एक अनुवाद उन्होंने भी किया है. लेकिन वे याद किए जाते रहे ट्विलाइट इन देल्ही के दिल्लीवाले के रूप में ही. यह अलग बात है कि फिर कभी इस शहर में उनको आने का मौका नहीं मिल पाया, एक दौर में जिसके कई दौर से वे वाकिफ रह चुके थे. वहीं करांची में उन्होंने आखिरी साँसें ली. ट्विलाइट इन देल्ही का उर्दू अनुवाद तो उनके जीते जी ही आ गया था. इसका हिंदी अनुवाद भी आना चाहिए. यह केवल उपन्यास नहीं है एक खत्म होती संस्कृति का दस्तावेज़ भी है.     
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