जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

प्रतिष्ठित पत्रिका ‘कथन’ के नए अंक में परिचर्चा प्रकाशित हुई है नए कहानी आंदोलन की आवश्यकता को लेकर. इसके साथ प्रसिद्ध लेखक रमेश उपाध्याय जी का साक्षात्कार भी प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होंने एक प्रतिष्ठित पत्रिका के सम्पादकीय के हवाले से कहा है कि आज का युवा लेखक मुँह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुआ है. क्या सचमुच ऐसा है? दूसरे, यह कि क्या केवल कहानी को नए आंदोलन की आवश्यकता है? ऐसे ही कुछ सवालों से जूझता हुआ यह लेख- जानकी पुल.

मैं शुरुआत में रमेश उपाध्याय जी की कहानी ‘प्राइवेट पब्लिक’ के एक वाक्य से करना चाहूँगा. कहानी में बुद्धिप्रकाश कहता है, ‘जनता लुट रही है, फिर भी कोई विरोध या प्रतिरोध नहीं हो रहा है.’ जब समाज में ही प्रतिरोध कम होता जा रहा है तो क्या आंदोलन की ज़रूरत केवल कहानी को ही है? जब समाज में ही भ्रष्टाचार, राजनीति के अपराधीकरण, सरकारी क्षेत्र में कम होते रोज़गार के अवसरों को लेकर किसी तरह का मुखर प्रतिरोध नहीं दिखाई देता है तो केवल साहित्य से इसकी उम्मीद करना मुझे कुछ हद तक ज्यादती लगती है या साहित्य से कुछ अधिक उम्मीद रखना लगता है. मुझे लगता है कि अगर आंदोलन की बात करनी है तो उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए न कि केवल साहित्य या उसमें भी केवल कहानी के सन्दर्भ में सीमित कर दिया जाना चाहिए. अगर समय बदला है, समाज बदला है तो उसका यथार्थ भी बदला है, इस बात को नहीं भूलना चाहिए. अगर हम सचमुच इसको लेकर गंभीर हैं कि कहानी के क्षेत्र में किसी आंदोलन की आवश्यकता है.
परिकथा के सितम्बर-अक्टूबर अंक में रमेशजी से कवि-कथाकार अशोक पाण्डेय जी द्वारा लिया गया साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है. उसमें रमेशजी ने यह कहा है कि एक भविष्योन्मुखी कहानी-आंदोलन को चलाये जाने की आवश्यकता है. लेकिन मेरा उनसे यह विनम्र सवाल यह है कि क्या इस समय जो कहानियाँ लिखी जा रही हैं, क्या वे अतीतमुखी कहानियां हैं? कहानियां तो होती ही भविष्योन्मुखी हैं. वर्तमान की जटिलताएं, विडंबनाएं उस भविष्य को दिशा देती हैं. इस पर बहस तो हो सकती है की उस भविष्य की प्रकृति यूटोपियाई है या डिस्टोपियाई, लेकिन वे भविष्योन्मुखी नहीं हैं, यह कहना मुझे ज्यादती लगता है. मेरा मानना है कि युवा कथाकार किसी पलायनवादी भविष्य में नहीं जीते, वे वर्तमान के गड्ड-मड्ड यथार्थ से भविष्य की तस्वीर खींचना तो चाहते हैं लेकिन वह अगर खुशफहम नहीं बन पाती है इसके लिए आज के लेखकों को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए.
परिकथा के साक्षात्कार में रमेशजी ने विस्तार से युवा कहानी को लेकर बातें की हैं. उनकी बातों से सहमति-असहमति व्यक्त करने से पहले मैं मैं इस बात की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि १९९५ या उसके बाद लेखन शुरू करनेवाले लेखकों को सबसे अधिक बदलाव देखने पड़े हैं, समाज-राजनीति में इस दौर में जितने प्रयोग हुए हैं शायद ही किसी दौर में हुए हैं. बड़ी-बड़ी संभावनाओं के सिमटने, बड़े-बड़े विचारों के छलावों के इस दौर को भी समझना होगा. युवा लेखक प्रियदर्शन ने कहीं लिखा है कि हम मोहभंग की पीढ़ी के लेखक हैं. यह कहना कि आज का युवा लेखक मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुआ है मुझे हजम नहीं हो रहा है. अगर युवा-कहानी के अंक बड़े पैमाने पर निकल रहे हैं तो यह केवल बाज़ार की आवश्यकता नहीं है. बाज़ार की आवश्यकता कहने से पहले बात इस पर होनी चाहिए कि साहित्य का बाज़ार है भी क्या? क्या आज लेखक चाहे भी तो अपने लेखन के सहारे जी सकता है क्या? जबकि नई कहानी या उसके बाद के दौर में लेखक स्वतंत्र लेखन के सहारे जीता था. अनेक लेखक हुए जिन्होंने किसी सत्ता के आगे सर नहीं झुकाया, नौकरी के नाम पर किसी तरह की गुलामी स्वीकार नहीं की. अपने लेखन के सहारे जीते रहे. मुझे लगता है कि हिंदी साहित्य का बाज़ार पहले था, अब तो वह लगातार सिमटता जा रहा है. ऐसे में मेरा तो यह मानना है कि कहानी लेखन से जुड़ना या साहित्य से जुड़ना अपने आप में आंदोलन से जुड़ना है. क्योंकि आज जो युवा कहानी लेखन की दिशा में अग्रसर होता है वह इस बात को अच्छी तरह जानता है कि उसके श्रम के बदले कुछ खास मिलने वाला नहीं है. वह अपनी सामजिक ज़िम्मेदारी को महसूस करते हुए लेखन की दिशा में अग्रसर होता है, अपनी प्रतिबद्धता को समझते हुए इस दिशा में अग्रसर होता है. वह प्रतिबद्धता किसी खास विचार के प्रति हो इससे ज्यादा ज़रूरी लगता कि उस समाज के प्रति हो जो जो लगातार प्रयोगों के दौर से गुज़र रहा है. बड़ी-बड़ी आशाएं जिसे निराश करती जा रही हैं. मैंने पहले ही अर्ज किया है कि हम मोहभंग की पीढ़ी के लेखक हैं. आज लेखक कुछ पाने के लिए नहीं कुछ खोने के लिए लेखन से जुड़ता है. रही बात लोकप्रियता और प्रसिद्धि कि तो यह एक कटु सत्य है कि अंग्रेजी का चेतन भगत जैसा साधारण लेखक भी हमारी भाषा के तमाम असाधारण लेखकों से अधिक लोकप्रिय है. उसे एक साल में जितनी रॉयल्टी मिलती है उतनी हिंदी के सारे लेखकों को मिलकर भी नहीं मिलती है. ऐसे में हिंदी लेखन के बाज़ार की बात करना मुझे हास्यास्पद भी लगता है.
यहाँ पर कुछ बातें मैं साहस के साथ बाज़ार के सबन्ध में भी कहना चाहता हूँ. अगर लेखक अपने लेखन के बदले बाजार से कुछ प्राप्त करना चाहता है तो इसमें क्या बुराई है? हिंदी का लेखक आज भी कलम का मजदूर बना हुआ है लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि उसे न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिल पाती है. बाजार ने अगर बहुत कुछ भ्रष्ट किया है तो बहुत संभावनाएं भी जगाई हैं. अगर लेखक अपने लेखन के बल पर गुजार करने लायक हो जाए तो इसमें मुझे कुछ बुराई नहीं दिखती है. दुच्चित्तापन मुझे इसमें दिखाई देता है कि हम सरकार या किसी सेठ की नौकरी करते हुए व्यवस्था-विरोध की बात करें. बाज़ार हमें गुलाम नहीं बनाता वह हमें स्वतंत्र बनाता है. इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए.
अगर आंदोलन की आवश्यकता है तो वह केवल कहानी में ही नहीं. हिंदी-लेखकों को इसके लिए आंदोलन चलाना चाहिए कि क्यों प्रकाशक लेखकों को उसकी किताब की रॉयलटी ठीक से नहीं देता है? लेखकों को प्रकाशकों से पूछना चाहिए कि अगर हिंदी की किताबें नहीं बिकती हैं तो आप पुस्तक व्यवसाय के बल पर किस तरह समृद्ध होते जाते हैं? आंदोलन इसके लिए होना चाहिए कि क्यों हिंदी पुस्तकों को पाठकों तक पहुँचाने का कोई नेटवर्क आज तक नहीं बन पाया है? क्यों हिंदी की किताबें हिंदी-पट्टी में दुर्लभ होती जा रही हैं? अगर हिंदी क्षेत्र में अखबार के पाठक लगातार बढते जा रहे हैं तो इसके पीछे बहुत बड़ा कारण उनकी उपलब्धता भी है. हिंदी की अच्छी से अच्छी पुस्तक भी छोटे कस्बों में नहीं मिलती. देश के बड़े-बड़े बुकस्टोर्स में हिंदी की किताबें नहीं मिलती हैं. आज सचमुच इसके लिए आंदोलन चलाने की ज़रूरत है कि हिंदी का यह परिदृश्य बदले ताकि हिंदी का लेखक आत्मनिर्भर हो सके. सरकार और सत्ता पर उसकी निर्भरता दूर हो सके. केवल कहानी के नए आंदोलन से मुझे नहीं लगता कि परिदृश्य में कुछ खास बदलाव होने वाला है.
अंत में फिर मैं रमेशजी की कहानी प्राइवेट पब्लिक के उस वाक्य की ओर लौटा हूँ जिसका मैंने लेख के आरम्भ में उल्लेख किया था. समाज में बढते भ्रष्टाचार, बढती महंगाई, बढते अपराध, घटती सुविधाओं के खिलाफ कोई आंदोलन नहीं हो रहा है. जनता सब कुछ चुपचाप सहती जा रही है. भारतीय लोकतंत्र के इस नए पहलू को समझने से ही नए आंदोलन की कोई राह निकल सकती है. जब समाज ही जाग्रत नहीं है तो केवल लेखकों से ही इसकी उम्मीद क्यों की जाए!
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