जाने-माने ब्लॉगर विनीत कुमार इन दिनों कवियाये हुए हैं, उनके विद्रोही लैपटॉप से इन दिनों कोमल-कोमल कविताएँ प्रकट हो रही हैं. जानकी पुल गर्व के साथ उनकी पहली दो कविताओं को प्रस्तुत कर रहा है, इस उम्मीद के साथ कि आगे भी उनकी काव्यात्मकता बनी रहेगी.
गंभीरता के विरुद्ध..
तुम जब भी कहती हो
कल से हम सीरियस बातें किया करेंगे
नहीं करेंगे वो सारी बातें जिसमें दुनिया
अपने सुख के क्षणों की तलाश करती,भटकती, खोजती
और कुछ टुकड़ा ही सही मिल जाने पर
खुश होकर,दूसरे कामों में व्यस्त हो जाती है.
सच कहूं तो तब मैं भीतर से कांप जानता हूं तब
मुझे लगता है एक फिर कोई
एक जिंदा शख्स के भीतर मुर्दा हो जाने की
काबिलियत की मांग कर रहा है
या फिर फड़फड़ती एक आत्मा को
अजायबघर में अपनी आत्मा गंवा चुकी विभूतियों की कतार में
लाकर खड़ी कर देना चाहता है.
जबकि हमारा विरोध तो हमेशा से
इसी बात को लेकर है न कि हम
कभी भी मुर्दे की फेहरिस्त में
अपने को दर्ज होने नहीं देगें,
मर गए तो भी जिंदा रहने के दौरान
हरकतों की कशिश और धार इतनी सख्त होगी कि
नाम लिखनेवाले की उंगलियां लहूलूहान हो जाए
और वो लिखने से तौबा कर ले या फिर
लिखने की बात सोचकर आतंक से सिहर उठे..
अगंभीर बने रहने की स्थिति में
संभव है हमारे उपर उथला,छिछला,गैरजरुरी होने के
लेबल लग जाएं लेकिन
हमारी सारी कोशिशें तो इतिहास
और कालजयी कहलाने के विरोध में है न
जो सामयिकता की चुप्पी को अतीत में चलकर
अपनी उपलब्धि घोषित करना चाहता है..
हम तो रोज की हरकतों में,कोशिशों में विश्वास करनेवाले लोग हैं
रौ में बहती हर चीज,जुबान,शब्द और संकेतों पर
कट्टरता की हद तक भरोसा रहता है
तभी तो मेरे ठहाकों के बीच
जब तुम्हारी हंसी घुलती है तो
लगता है प्रतिरोध का एक नया छन्द जन्म ले रहा है
जो तमाम तरह की वर्जनाओं को ध्वस्त करते हुए
अपने को इतिहास के विरुद्ध खड़ा करना चाहता है.
कल कोई इस छंद का इतिहास खोजने चले तो
निराशा ही होगी लेकिन
ऐसे में हम कामयाब ही होंगे कि हमने
अपनी हरकतों का कोई इतिहास न बनने दिया.
सच कहूं तो मैं इस गंभीरता में ही
जमाने के ऐब देखता हूं
सामंतवाद,पितृसत्ता,शोषण,अन्याय,गैरबराबरी और
भी जितने दमन के अड्डे हैं,सबों को शामिल कर लो
तो मुझे ये सब अकेले गंभीरता के भीतर
मौजूद लगते हैं क्योंकि
अक्सर ये गंभीरता उन्हें एक सुरक्षा कवच देने का काम करती है
एक उघड़े हुए सच से हमें रोकती है,
हमारे भीतर के नंगेपन को ढंककर,अवधारणओं में लपेटकर
शिष्ट होने का रौब पैदा करती है
हमारा विरोध तो इसी रौब से है न, उसी सुरक्षा कवच से है न
जिसके भीतर अवधारणाओं के जिंदा रहने के बावजूद
अहसासों की धमनियां रुक जाती है
और विचारों की हत्या हो चुकी होती है.
सच कहूं तो मुझे अहसासों के खत्म हो जाने और
विचारों की हत्या हो जाने के स्थिति में
अवधारणाओं को देखकर घिन आती है
मैं इसे जितनी जल्दी हो सके,निर्वासित करना चाहता हूं
और चाहता हूं ठहाकों और हंसी के बीच से
प्रतिरोध में पैदा हुए छन्द, इन ठिकानों पर
कब्जा कर ले जिसका
कल कोई इतिहास भले न हो लेकिन
आनेवाले लोगों के बीच एक सवाल जरुर हो कि
जब यहां गंभीरता नहीं थी,अवधारणा और इतिहास नहीं है तो
आखिर ऐसा क्या था जिससे गुजरते हुए
अभी-अभी तक जीवंत होने का एहसास होता है..
2.
सेव्ड एज वर्जिनिया
होली की उस आवारा दुपहरी में
जब चारों तरफ सिर्फ नशे के दम पर बोली गयी जुबान
मेरे कानों से टकराने लगी थी और
इसके पहले कि विमर्श के तर्क मुझे खुद को प्रस्तावित करने का मौका देते
हर नाम और संबंधों के बीच बहनेवाली संवेदना की धार को
महसूस कर पाते
उसके भीतर की निश्छलता,हल्की ही सही उन्हें छू जाती
कि सबके उपर मर्दवाद हावी हो चुका था
जिसकी परिणति भीतर की कुंठा और भाषा की आवारगी से
एक स्त्री-देह गढ़ लेने भर से था.
स्त्रियों के नाम खोज-खोजकर उसे हाड-मांस का एक लोथड़ा तैयार करना भर था
जिसमें उनकी सारी कुंठाएं,हवस और मर्दवाद की तुष्टि
गर्म लोहे के पानी में जाते ही जैसी ठंडी हो जानी थी..
उनके उन शब्दों से जन्मा वो हवस
सचमुच कितना खतरनाक था
जिसका होड़ सीधे स्त्री देह की मौजूदगी और उसके चिथड़े कर देने की बदनियत से था
तब वो सचमुच कितने बदहवाश थे कि
उस देह की कल्पना के पहले नामों को याद करने के लिए
सोचने के बजाय मेरे मोबाईल में सेव नंबरों से गुजरना पड़ा था
कांप गया था,उनके हाथ जैसे की कीपैड पर पड़े थे
हम उन नामों के साथ बने अपने आत्मीय संबंधों,भावुक क्षणों
और कुछ तो सालों से अर्जित की गई अनुभूतियों के बारे में
सोचते हुए ठिठक गए थे
हम उन नामों के भीतर की सुंदरता
17 Comments
हैरानी है कि कैसे एक पीठ थपथपाने वाला समूह अपने किसी भी सदस्य द्वारा लिखे गए कैसे भी शब्द समूहों को किसी भी सूरत में एक बेहतरीन कृति घोषित करने के लिए किसी भी हद तक चला जाता है…
जो इकलौती टिप्पणी मुझे इस पूरी पोस्ट को पढ़ने के बाद सच के करीब लगी वह स्मृति की थी, जिसे इस वाह-वाह के भयानक शोर में लगभग एक साजिश के तहत दबा दिया गया….
स्मृति कोई लाभ नहीं है इस नक्कारखाने में अपनी बात रखने की कोशिश करने का, क्योंकि तुम्हें पता होना चाहिए कि आखिरकार यह 'मोहल्ले' का मालिकाना हक रखने वाले वैचारिक-साहित्यिक 'कालोनाइजरों' का एक नया 'लिटरेरी कॉफी हाउस' है जिसके समस्त प्रवेशाधिकार सुरक्षित हैं… यहां आने वालों को सिर्फ इतनी इजाज़त है कि वे इसके मालिकान की कलाकृतियों और रचनाओं का भरपूर आस्वादन करें और उस हद तक करते चले जाएं कि इन रचनाओं की गहरी नसों में कहीं बसे रस को ज़बर्दस्ती निचोड़ कर उसकी एक-एक बूंद को किसी जन्मों के प्यासे की तरह शिद्दत से पी जाएं…. फिर अपनी आंखें बंद करें और उस रस के नशे में ऐसा डूबें कि खुमारी वाह-वाह बनकर दिल से फूटे और दिल से निकलकर सीधे हाथ की अंगुलियों से होती हुई बरास्ता की-बोर्ड ऐसी कविताओं के नीचे चिपक कर रह जाए….
अगर अब भी तुम ऐसा करने को तैयार नहीं हो स्मृति तो तुम सीधी एस्कार्ट्स अस्पताल जाओ… आखिर ऐसे अद्भुत कॉफी हाउस में बैठकर ऐसी भावभीनी कविताएं पढ़कर भी जिसके हृदय में रस के बजाय आक्रोश पैदा हो उस व्यक्ति के दिल की जांच होनी चाहिए, है न???
गंभीरता को अगम्भीरता से उधेड़ती कवितायेँ , किसी को भी अपनी गंभीरता पर गंभीरता से सोंचने पर विवश करती हैं !
बधाई विनीत जी ,शुक्रिया प्रभात जी !
वीनित भाई ने बारीकी से मन को पढ़ा है. मैं तो इसे पढ़कर बस यही कहूंगा – मन आभासी कविता परिभाषी। और सबसे टची है- और तुम उतनी ही खूबसूरती से फिर वापस, अपने नाम के साथ लौट आओगी…
हमारे भीतर के नंगेपन को ढंककर,अवधारणओं में लपेटकर
शिष्ट होने का रौब पैदा करती है
हमारा विरोध तो इसी रौब से है न, उसी सुरक्षा कवच से है न
जिसके भीतर अवधारणाओं के जिंदा रहने के बावजूद
अहसासों की धमनियां रुक जाती है
और विचारों की हत्या हो चुकी होती है.
सच कहूं तो मुझे अहसासों के खत्म हो जाने और
विचारों की हत्या हो जाने के स्थिति में
अवधारणाओं को देखकर घिन आती है
बहुत ही गहरी संवेदना और कटु अनुभूति है
कविता को समझने की जद्दोजहद में कविता को महसूस करने की ताकत खो गयी. दूबारा पढने पर शायद ज्यादा सकारात्मक मुल्यांकन हो पाये. वैसे, ये हैं तो कवितायेँ हीं. इस लगातार उलझती जा रही दुनिया में सहज-सुन्दर कविताएँ बहुत सारी उलझनों को व्यक्त नही कर पातीं. लेकिन, इतना कहा जा सकता है कि कवि की कोशिश हमेशा शब्दों और भावों के बीच की मुश्किलों में भी कविता की नाजुकी और खूबसूरती को बचाये रखने की होती है.
सच कहूं तो मुझे अहसासों के खत्म हो जाने और
विचारों की हत्या हो जाने के स्थिति में
अवधारणाओं को देखकर घिन आती है
मैं इसे जितनी जल्दी हो सके,निर्वासित करना चाहता हूं
….bahut badiya…
क्या बात है , विनीत! गजब !बधाई.
क्या ये कविया इसलिये महत्त्वपूर्ण है कि क्योंकि विनीत कुमार की है! या ये सचमूच कविता है?
कृपया अपने निजी संबंधो को एक दूसरे क्प प्रोजेक्ट करने में ना लगाइये…जो बहुधा हो रहा है…
अंत में कविता की बात में एक छोटा सा प्रसंग..मलार्मे से किसी ने कहा कि मेरे पास विचार है और मैं कविता करना चाहता हूं..मलार्मे ने कहा मित्र कविता विचारों से नहीं शब्दों से होती है…
इन कविताओं में शब्दों का अराजक खर्च देखिये…
vinit ke laptop ki kunji ek chintanshil manushya ke hath me hai.amen!
बाप रे !!! कविता है या रेलगाड़ी ?
कविताएं बहुत अच्छी हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में देखा गया हैं कि बड़ा आलोचक बेसिकली एक कवि रहा है यानि गंभीर बनने की जद्दोजहद में वह कुछ भावुक जरुर रहा है। शुक्ल जी,रामविलास शर्मा,नामवर सिंह, मलयज ऐसे बहुत सारे नाम हैं। पर विनीत आप तो एक बेहतर समीक्षक होने के साथ साथ एक अच्छे कवि होने की राह पर है। कविता ही की
अपेक्षा कविता भी लिखने पर ज़ोर दीजिए सरजी।
अब लगता है कि विनीत को कविता ही लिखना चाहिए। क्या शानदार कविताएं हैं…
sochatee huyee bechain kavitaayen.
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