जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.


ज्ञानपीठ-गौरव विवाद में मुझे यह सकारात्मक लग रहा है कि युवा लेखकों में इस प्रकरण के अनेक पहलुओं को लेकर बहस चल रही है. युवा लेखक श्रीकांत दुबे का यह लेख उसी बहस की अगली कड़ी है. श्रीकांत का कहानी संग्रह ‘पूर्वज’ हाल में ही भारतीय ज्ञानपीठ से आया है. आइये उनके विचार जानते हैं- जानकी पुल.
———————————————————————————————————-

मेरी यह बात जिन सुधी जनों तक पहुँच रही है, संभवतः वे सभी गौरव सोलंकी, भारतीय ज्ञानपीठ और दोनों के बीच उठे हालिया विवाद से सुपरिचित होंगे. अगर नहीं, तो जान लें, कि युवा कथाकार गौरव सोलंकी ने प्रतिष्टित साहित्यिक संस्थान ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ द्वारा घोषित ‘नवलेखन पुरष्कार’ अस्वीकार करने के साथ अपनी दो पुस्तकों के प्रकाशन अधिकार वापस ले लिए हैं. ऐसा करने का कारण उन्होंने संस्था के अन्दर व्याप्त भ्रष्टाचार तथा उनके अपमानपूर्ण और गैरजिम्म्देदाराना रवैये को ठहराया है. साथ ही साथ उन्होंने ‘ज्ञानपीठ विवाद’ की मार्फ़त हिंदी साहित्य में तेजी से फ़ैल रही ‘तानाशाही’ और सामंती व्यवस्था के विरुद्ध मुहिम छेड़ दी है. हिंदी के लेखकीय परिदृश्य में इस बात को अब तक जिस तरह से लिया गया है, उसके अधिकाँश में यह गौरव की व्यक्तिगत लड़ाई करार दी गई है. चौंकाने वाली बात यह है कि ऐसे आरोप लगाने वालों में सबसे अधिक हिस्सेदारी खुद हिन्दी के युवा लेखकों की है. ऐसे में, अपना पक्ष रखने के लिए मैं शुरुआत (वर्चुअल दुनिया के दोस्त) शशि भूषण की उठाई एक बहस के शीर्षक भर से करना चाहूँगा, जो कुछ इस तरह है: ‘असफल साहित्यिक महात्वाकांक्षा की सैद्धांतिक मुनादी’. (लिंक यहाँ)

यह शीर्षक, साफ़ तौर पर गौरव सोलंकी द्वारा लिए फैसले पर प्रतिक्रया के रूप में रखा गया है. जहां से स्वाभाविक तौर पर कुछ सवाल खड़े होते हैं, जिनके स्पष्टीकरण के रूप में पूरे लेख में एक वाक्य तक नहीं है.
१.      गौरव के इस फैसले के पीछे अगर लेखकीय सम्मान की सुरक्षा के अलावा अगर कोई साहित्यिक महात्वाकांक्षा है, तो कौन सी?
२.      वह किसी भी रूप में असफल कैसे हैं?
३.      ‘सैद्धांतिक मुनादी’ से आशय क्या है? ‘पुरस्कार लौटाने’ तथा प्रकाशन अधिकार वापस लेने की लिखित घोषणा व्यावहारिक चीजें है. 
शशि भूषण का समूचा लेख गौरव तथा (मुझ समेत) दूसरे लेखकों की निजी जिंदगियों (जिनसे भी उनकी वास्ता अफवाहों और फेसबुक की ही मार्फ़त है) में सेंध लगाकर अपने ही तरह के निष्कर्ष गढ़ लेने का प्रयास भर है, जो अंततः प्रमुख मुद्दे से कोसों दूर चला गया है. बहुत सतर्क होकर लिखने के बावजूद शशिभूषण ने एक जगह खुद ही क़ुबूल कर लिया है कि, ‘गौरव सोलंकी को ज्ञानपीठ का युवा पुरस्कार मिलेगा इसकी खबर मुझ तक भी पहुँची थी।,’ मैं ‘शशि जी’ जैसों को बताना चाहूंगा कि यह लड़ाई उसी तंत्र के खिलाफ है जिसके तहत ‘पुरष्कार किसे मिलेगा’ की खबर जूरी के फैसले से पहले ही आप तक पहुँच जाती है. आशा है अब यह अधिक स्पष्ट हो गया होगा. जहाँ इसे साहित्यिक संस्थानों और प्रकाशन कार्य से जुड़े सामंतों के खिलाफ एक मुहिम का रूप दिया जा चुका है, वहीं इस तरह के बिना सिर पैर के तर्कों से लैश टिप्पणियों की भरमार भी लग आयी है. तथा बहुत ही कम शब्दों के इस्तेमाल के साथ निष्कर्ष लिख दिया जा रहा है कि यह आत्ममुग्ध लेखक ‘गौरव सोलंकी’ की व्यक्तिगत लड़ाई है (जाहिर है, तार्किक स्पष्टीकरण के कतई अभाव के साथ). यह तब है, जबकि युवा पीढ़ी का हरेक लेखक अपनी किसी न किसी रचना के किसी न किसी पत्रिका के दफ्तर में गुम कर दिए जाने, उसे लंबे समय तक विचाराधीन रखने के बाद भी न छापने, और कितनी भी पूछताछ के बावजूद कोई मुकम्मल जवाब नहीं मिलने का भुक्तभोगी रहा है. बहुतों ने अलग अलग जगहों पर अपने इस दुःख को जाहिर भी किया है. लेकिन जब उन्हीं के बीच का एक लेखक इस अराजकता के विरुद्ध आवाज उठाता है, तो वे अपने कुतर्कों के साथ या तो सीधे विरोध का रास्ता चुन ले रहे हैं अथवा खामोशी का. अगर इसकी वजह की पड़ताल करें, तो मुझे सिर्फ दो ही बातें दिखाई दे रही हैं: पहली यह, कि चूँकि इस मुहिम की शुरुआत अमुक लेखक ने नहीं की है, इसलिए उसके द्वारा इसके समर्थन का कोई सवाल ही नहीं उठता (‘फॉलोवर’’ कहलाये जाने का खतरा). दूसरा, कि ऐसे संपादकों और सत्ताओं से उन्हें ‘अभी भी’ कृपा (प्रकाशन अथवा पुरस्कार) की उम्मीदें हैं, और इस यज्ञ में समिधा के रूप में एक छोटी टिप्पणी कर देने से मामला बिगड जाने का डर है. एक तीसरा वर्ग (जो कि मुझे वास्तविक नहीं लगता) उन लेखकों का माना जा सकता है, जिनके लिए हिंदी की यह दुनिया वाकई परियों के लोक की तरह सुन्दर, आसान और सुव्यवस्थित है.
गौरव के द्वारा अपने हरेक अपडेट और पोस्ट में यह चिल्लाने के बावजूद, कि यह ‘ज्ञानपीठ के भ्रष्टाचार के खिलाफ समूचे देश कि लड़ाई है’ (जिस आशय का एक वेब पेज भी बाकायदा बन चुका है) तथा एकाधिक अखबारों में ठीक इसी आशय की खुलेआम मुनादी देख चुकाने के बाद भी कुछ लोगों को इस लड़ाई का एजेंडा अथवा गौरव का स्टैंड नहीं समझ में आ रहा है. साफ़ है, कि यह उन लोगों की समझ की कमजोरी न होकर मामले को उनकी अनुसार प्रस्तुत न किये जाने से पैदा आपत्ति है. यहाँ ‘उनके अनुसार’ को एक बार ‘उनके द्वारा’ भी पढ़ा जाय.
लगभग पूर्णकालिक रूप से लेखन करने वाले एक और युवा (मित्र) ‘विमल चंद्र पाण्डेय’, जिन्होंने हाल ही में लिखे एक पोस्ट में ‘ज्ञानपीठ’ द्वारा उनकी खुद की रचना पर भी इसी तरह के आरोप लगाये जाने, और उस पर अपने विरोध को बड़े स्तर तक न ले जाने का स्पष्टीकरण दिया है. उनका एक वाक्य, ‘इसमें कोई शक नहीं है कि एक नया लेखक अपनी पहली किताब को लेकर प्रकाशन संस्थान की कुछ बातें मानने को तैयार रहता है जैसे गौरव अपनी कहानी को वापस लेने के लिए थे.’ जिसके बाद उन्होंने लिखा है कि एक वरिष्ट लेखक की सलाह पर वे बात-चीत के माध्यम से ‘किताब वापस लेने’ की नौवत को टाल सके. तथाकथित ‘आपत्तिजनक’ कहानी पर फिर से काम करने के बहाने वे थोडा समय लेते हैं और एकाध शब्दों के हेरफेर के अलावा सब कुछ जस का तस रखकर वे उसे प्रकाशित करा लेने में सफल हो जाते हैं. यहाँ से जो एक बात पानी कि तरफ साफ़ है, वो यह कि प्रकाशन से पहले इस तरह की अडचनें खड़ी करना ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ के लिए प्रक्रिया का हिस्सा मात्र है. वरना वे फिर से उस कहानी के आपत्तिजनक हिस्सों को देखते और उसे छापने से इनकार कर देते. दूसरी बात यह, कि किसी भी तरह के ‘मैनिपुलेशन’ से काम बना लेना कतई समाधान नहीं है. बीच-बचाव के ऐसे रास्ते निकालकर एक समाधान पा लेने से अपना काम भले ही बन जाए, लेकिन इससे इन संस्थानों का मनोबल और बढ़ेगा, परिणामतः हर नए लेखक को भरपूर सताया जाएगा, जैसा कि लगातार हो भी रहा है. विमल, अथवा ऐसे दूसरे मित्रों ने, इसी ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ के ‘सम्पादकीय प्रभाग’ द्वारा मेरी किताब के साथ किये बुरे बर्ताव पर शायद कोई ध्यान नहीं दिया (जो कि गौरव ने अपनी वाल पर लगाया भी था) और उसे भी किसी लेखक का निजी मामला ही करार दिया. विमल की अगली आपत्ति इस लड़ाई के वर्चुअल स्पेस में बढाए जाने से है. तो इसका एक साफ़ मकसद उन लोगों को जवाब देना है, जो किसी प्रकाशन संस्थान में ‘सम्पादकीय अधिकार’ के हथियाए होने के दम पर तानाशाह बने बैठे हैं और इस गफलत में हैं कि साहित्य से जुड़े ‘विरोध’ और ‘समर्थन’ की सभी आवाजें उनके मार्फ़त ही आ सकेंगी.
कहना न होगा कि मैं भी युवाओं कि उसी जमात का हिस्सा हूँ जो जीवन और रोजगार के संघर्षों के साथ कलम घिसने की इस शगल को भी साधे हुए हैं, और अपने निरंतर और शानदार लेखन के साथ गौरव सोलंकी मेरे लिए भी ईर्ष्या के पात्र हैं, लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं कि मैं उनके द्वारे लिए इस गजब के निर्णय तथा एक अनिवार्य लड़ाई में साथ देने से पीछे हट जाऊं. यह हम सब की सम्मिलित लड़ाई होनी चाहिए है और युवा लेखकों को इस बात का एहसास भी कि हमारी संयुक्त कोशिशें ही इसे एक मुकम्मल नतीजे तक पहुंचा सकेंगी.
Share.

Leave A Reply

Exit mobile version