आज कुछ कविताएँ रामजी तिवारी की. समय-समाज की कुछ सच्चाइयों के रूबरू उनकी कविताएँ हमें हमारा बदलता चेहरा दिखाती हैं- जानकी पुल.
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1….
मुखौटे
मुखौटे तब मेले में बिकते,
राक्षसों और जानवरों के अधिकतर
होते जो भारी, उबड़ खाबड़
और बहुत कम देर टिकते|
पहनते हम शर्माते हुए,
तुम फलां हो न ?
कोई भी पहचान लेता
तब गड़ जाते लजाते हुए |
मुखौटा और भारी हो जाता,
हम उतार फेंकते
शर्म जब तारी हो जाता |
मुखौटे
अब बाजार में बिकते हैं,
जब चाहें खरीद लें
जैसे चाहें पहन लें
और बहुत देर टिकते हैं|
इतने सुगढ़ , इतने वास्तविक, इतने हलके
कोई जान न पाए,
औरों की क्या कहें ?
आदमी तो कभी-कभी
अपने को भी पहचान न पाए|
मुखौटे
अब हर चीज के होते हैं,
दुनिया चौंधिया जाए
ऐसा मंजर बोते हैं |
कल दुकानवाला कह रहा था
यह हुनर तो देखते जाईये ,
हम भेडिए को भी गाँधी बना सकते हैं
अपनी पसंद तो बताईये |
अब
आँखों की चुकती हुयी रोशनी
दिनों-दिन बढ़ता यह प्रदूषण
और इतनी उन्नत किस्में मुखौटों की
सोचकर ही रूह कांपती है ,
यह चारा है या मुखौटा ओढ़े कोई बंशी
जो मुझे भी नाथ देना चाहती है |
2…
नालायक
मैं नालायक हूँ
और यह मेरा अपना चुनाव है ,
अब लायक होने की शर्तें इतनी नालायक हैं
कि नालायक बनने में ही आदमी का बचाव है|
नहीं जानता
कि नालायक कब से हूँ ,
डाक्टर बनने के बाद
आदिवासी इलाके को
कार्यक्षेत्र के रूप में चुनने पर
पिता ने नवाजा था
शायद तब से हूँ |
‘पिता समझदार हैं’
माँ ने इस पर आजीवन संदेह रखा ,
लेकिन इस चला-चली की बेला में
पहली बार उनकी नवाजिश पर नेह रखा |
जब गाँव की रामरती चाची
माँ से लिए गए कर्जे को
तीन साल में तीन गुना लौटाने आयीं थीं ,
और मैंने सिर्फ मूलधन लेने वाली बात सुझाई थी |
घर में घोषित नालायकी को
मेरे गाँव ने उस समय रुई जैसा धुना था ,
जब उस बीहड़ इलाके की
इकलौती आदिवासी शिक्षिका को
मैंने अपना जीवन साथी चुना था |
मेरी नालायकी से परिवार कभी सुखी नहीं हुआ,
यह और बात है जिस पर मैं कभी दुखी नहीं हुआ |
उस समय भी नहीं
जब मेरे बेटे की डाक्टर वाली ईच्छा अधूरी रही ,
मैं वह डोनेशन नहीं जुटा सका , मेरी मजबूरी रही |
तब मेरे बेटे ने अपने दोस्तों से कहा था ,
‘मेरे दादा-दादी ठीक ही कहा करते थे
सचमुच उन्होंने एक नालायक को सहा था |’
मित्रों
चाहा तो मुझे भी गया था लायक ही बनाना ,
कि बीच रास्ते यह ‘समझ’ आ गयी
जिसने लिख दिया इस माथे पर
नालायकी का यह तराना |
3….
‘ईश्वर के घर में सेंध’
पैदा होती है विरक्ति मन में
टूट जाता है दुनियावी आकर्षण,
तब सूरज से छिटककर पृथ्वी सा
निकल जाना चाहता है आदमी
उठता है जब विकर्षण |
अपने अन्तरिक्ष में , अपनी कंदराओं में ,
भटकते तलाश करते अंतर्मन की गुफाओं में |
आता है वह पल भी जब कुछ लोग
अपने ही भीतर बिछा देते हैं चटाई ,
यह समझ में आने के बाद
कि असम्भव है छिटककर निकल पाना
दुनिया से मनुष्य का
यह सूरज और पृथ्वी जैसी ही सगाई |
परन्तु कुछ की भटकन तलाश होती है
कमजोर दीवार वाले भव्य प्रासाद के लिए ,
कि जिसके मिलते ही वह गिर पड़ता है
सीढ़ियों पर तत्क्षण आशीर्वाद के लिए |
वह धन वह पद वह प्रतिष्ठा
वह जीवन और उसके बाद की अमरता
आह ! देखकर टपकती है लार ,
सम्भालकर गटकता है जिसे
कहीं बह न जाए सबके सामने वह विचार ,
करनी है जिससे जुगाली
पचाने के लिए इस दुनिया का आकर्षण
दिखता है इसलिए बिलकुल निर्विकार |
टटोल ही लेता है एक दिन
मन ही मन पढते हुए भावों को चालों को ,
जहाँ से मारी जा सकती है सेंध
ठीक-ठीक गर्भगृह में उन दीवालों को |
सदियों से पत्थरों के बीचramji tiwari
50 Comments
अत्यंत सार्थक तथा सटीक प्रेषण विचारों का ….आभार जन्किपुल का ….!
बहुत अच्छी कवितायेँ …रामजी को इस नालायकी की बधाई ,इस उम्मीद के साथ कि वह यूं ही जारी रहेगी ।
Bahut umda kavitayein, mukhaute ke peeche chipne ki baat, talashne aur dhoondhne ke bimb bahut sundar
मुखौटे
अब बाजार में बिकते हैं,
जब चाहें खरीद लें
जैसे चाहें पहन लें
और बहुत देर टिकते हैं|
इतने सुगढ़ , इतने वास्तविक, इतने हलके
कोई जान न पाए,
औरों की क्या कहें ?
आदमी तो कभी-कभी
अपने को भी पहचान न पाए…..क्या सटीक बात कही है
सशक्त कवितायें हैं . सभी कवितायेँ सहज व गंभीर हैं…
bahut badhiya ….
दिल में एक खरोंच पैदा कर गयीं ये
संयोग से रात में ही जे एन यू में श्री तिवारी जी से "नालायक" कविता सुनने का अद्भुत अवसर मिला, आज यहाँ उनकी कवितायेँ देखकर बहुत अच्छा लगा ! मुखौटा बहुत अच्छी कविता है !
आप और आप के जज़्बे को हमारी तमाम दुआएं
सादर
ab laayak hone ki sharten itni nalaayak hain….hum bhediye ko bhi bana sakte hain gandhi….aur tab suraj se chhitakkar alag ho jaati hai prithvi jab paida hota hai vikarshan…..samaj ki vidrupta aur jeevan ke katu satyon ko sahaj abhivayakti sahaj saral bhasha men jo sahaj hi sampreshit ho man ko udvelit karti hai….bahut sunder rachnayen…ram ji badhai….aap apne isi tevar ke liye jaane jaate hain…..aur ise banaye rakhiyega
नालायकी अंतर को एकदम स्पर्श करती है ,मुखौटे, ईश्वर के घर सेध भी बहुत अच्छी लगी शुक्रिया आभार आपका ।
' हम भेड़ए को भी गाँधी बना सकते हैं …'.अब के इस कडवे सच्च को , एकदम साफ़ समझ के साथ व्यक्त करती तीनो कवितायेँ .व्यंग्य की धार के साथ .. समाज के प्रति पूरा कमिटमेंट लिए …. तथाकथित नालायक होना भी मंजूर है ….
is nalayaki ko salam.kalawanti
अच्छी कवितायेँ …….बधाई.
मुखौटे और नालायक कविता तो बेहद अच्छी लगी… ईश्वर के घर में सेंध भी एक प्रभावी कविता… सबसे अच्छी बात जो मुझे लगी इन कविताओं की प्रेषनीयता … तुकों का सार्थक प्रयोग इसके आकर्षण को बढ़ा देता है… मैं नालायक हूँ/ यह मेरा अपना चुनाव है// अब लायक होने की शर्तें इतनी नालायक हैं/ कि नालायक बन्ने में ही आदमी का बचाव है… वाह भाई वाह!!
तीनों कविताएं बहुत अच्छी हैं, लेकिन नालायकी वाली कविता तो लगा जैसे अपना ही बयान है। मुखौटे भी तकनीक और बुद्धि के विकास के साथ बदल गये हैं और बेहद आम होकर आत्मीय होते जा रहे हैं। इन बेहतरीन कविताओं के लिए बधाई रामजी को…आभार जानकीपुल का।
कविता बहुत उम्दा है. बहुत कम लोग नालायक लोगों की बात करते हैं.मैं भी नालायक हूँ इसलिए समझता हूँ…
ram ji sir…mukhouta aisa ki bhediye ko bhi inshan bna d e…kitana hunar aa gya ab ke logon me…wahi acce the na jb hm ubd khabd mukhauto ko laga puchh liyya karte the..ki kaun hu main…chehla tabiyat hunar ki kamaal tasvir banaai aapk i kavita ne ..badhaiii..aur han nalayak..sahi hai apna beta hi bol de ek din ki dada dadi ne kaise saha…sach hai layak hone ki sharte badi nalayak hai..nalayak bne rahne ki badhii swekaaren……
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