गुंटर ग्रास की कविता और उसके लेकर उठे विवाद पर प्रसिद्ध पत्रकार-कवि-कथाकार प्रियदर्शन का एक सुविचारित लेख- जानकी पुल.
नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखक गुंटर ग्रास की एक कविता ‘व्हाट मस्ट बी सेड’ ने इन दिनों जर्मनी से लेकर इज़राइल तक तूफ़ान मचा रखा है। इज़राइल ने तो सीधे-सीधे गुंटर ग्रास पर पाबंदी लगा दी है। जबकि दुनिया भर में बहुत सारे लोग आहत हैं कि गुंटर ग्रास जैसे संवेदनशील लेखक ने इज़राइल और ईरान को एक ही तराजू में रखकर देखने की कोशिश कैसे की। बहुत सारे लोगों को उनका वह अतीत याद आ रहा है जो उनकी ही आत्मस्वीकृति से खुला है- कि उन्होंने हिटलर के एक संगठन एसएस में रहकर भी काम किया।
ध्यान से देखें तो अरसे बाद ऐसी कोई रचना आई है जिसने राजनीतिक व्यवस्थाओं के भीतर इतनी बेचैनी पैदा की है। दिलचस्प यह है कि गुंटर ग्रास की यह कविता कोई महान कविता नहीं है। बेशक इसकी शुरुआत अच्छी है- ‘मैं क्यों ख़ामोश रहा / उस पर चुपचाप / जो युद्ध के खेलों में खुलेआम चल रहा है / जिसके अंत में हममें से जो बचे रह जाएंगे / वे ज़्यादा से ज़्यादा फुटनोट्स होंगे।‘ लेकिन इसके तत्काल बाद कविता जैसे एक सपाट राजनीतिक वक्तव्य में बदल जाती है। वह याद दिलाती है कि हर किसी को ईरान के ऐटमी कार्यक्रम की फिक्र सता रही है, जबकि उससे कहीं ज़्यादा आगे बढ़े हुए इज़राइल के ऐटमी कार्यक्रम पर सब ख़ामोश हैं। हंगामा इसी पर बरपा है। गुंटर ग्रास से किसी को इस तुलना की उम्मीद नहीं थी।
लेकिन मेरी दिलचस्पी ईरान और इज़राइल के टकराव या उनकी बराबरी को समझने से ज़्यादा इस तथ्य में है कि आज की दुनिया में भी एक कविता व्यवस्थाओं में इतना विक्षोभ पैदा कर सकती है तो इसकी वजह क्या है। पहली बात तो यह कविता अपने आशयों में बहुत सपाट है- इतनी सपाट कि एक स्तर पर यह ख़राब कविता नज़र आती है। लेकिन शायद ऐसी सपाट और स्थूल कविताएं ही आज की राजनीतिक व्यवस्थाओं को समझ में आ सकती हैं, वे सूक्ष्म और बारीक अभिव्यक्तियां नहीं जो बेहतर कविता की कसौटी मानी जाती हैं। तो एक निष्कर्ष तो हम यह निकाल सकते हैं कि बहुत सूक्ष्म और अभिव्यक्तिसक्षम कविताओं के अलावा हमें ऐसी ठोस राजनीतिक रचनाओं की भी ज़रूरत है जिनसे आंख मिलाते राजनीतिक व्यवस्थाओं को असुविधा हो। गुंटर ग्रास की कविता यह समझने में हमारी मदद करती है।
लेकिन गुंटर ग्रास की कविता का प्रथम पाठ अगर इजराइल और ईरान के बीच चल रही राजनीति के द्वंद्व से बनता है तो दूसरा पाठ राजनीतिक व्यवस्थाओं के यथास्थितिवाद को साहित्य की तरफ से दी जा रही चुनौती से बनता है। हमारे लिए ग्रास की कविता का प्रतीकात्मक महत्व दरअसल इसी दूसरे पाठ में निहित है। इस पाठ को अगर ध्यान से देखें तो यह समझ में आता है कि राजनीतिक व्यवस्थाएं मूलतः अपने स्वार्थों की निर्मिति होती हैं और उनकी कोशिश न्याय के सिद्धांत को अपने पक्ष में मोड़ने की होती है।
यहां इज़राइल के संदर्भ में करीब 3 साल पहले एक और लेखक के दिए गए एक वक्तव्य को याद कर सकते हैं। जापान के प्रसिद्ध लेखक हारुकी मुराकामी को 2009 का जेरूसलम सम्मान देने की घोषणा हुई। ये वे दिन थे जब गाज़ा पट्टी में इजराइली सैनिकों द्वारा चल रहे क़त्लेआम की ख़बरें दुनिया को दहला रही थीं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक वहां 1000 लोग मारे जा चुके थे जिनमें बड़ी तादाद में बच्चे और बूढ़े थे। तब बहुत सारे लोगों ने मुराकामी से कहा कि वे इस हत्याकांड के विरोध में इज़राइल न जाएं। लेकिन मुराकामी वहां गए और अपने बहुत बारीक वक्तव्य में उन्होंने अपने फैसले का बचाव किया। उन्होंने कहा, ‘एक ऊंची मज़बूत दीवार, और उस पर टूटने वाले अंडे के बीच मैं हमेशा अंडे के पक्ष में खड़ा होऊंगा। हां, यह मायने नहीं रखता कि दीवार कितनी सही हो सकती है और अंडा कितना गलत हो सकता है। मैं अंडे के साथ खड़ा होऊंगा। किसी और को तय करना होगा कि क्या सही है और क्या गलत। शायद वक्त या इतिहास तय करेगा। अगर कोई उपन्यासकार, चाहे जिस वजह से भी, दीवार के साथ खड़े होकर लिखेगा, तो ऐसी कृति का क्या मतलब रह जाएगा?’
मुराकामी अपने हिसाब से दीवार के ख़िलाफ़ खड़े थे- या वे यह तय करने को तैयार नहीं थे कि दीवार को दीवार की तरह पहचाना जाए। इज़राइल ने उन्हें पुरस्कृत किया और उनकी सादाबयानी पर दुनिया भर में तालियां बजीं। लेकिन इज़राइल को लेकर जो उदारता मुराकामी ने दिखाई, वही गुंटर ग्रास को लेकर इज़राइल ने नहीं दिखाई। क्या यह मुल्कों का, या राजनीति का चरित्र होता है कि वे साहित्य की संवेदनशीलता के प्रति बेपरवाह होते हैं और सारे फ़ैसले इस बात से करते हैं कि कौन उनके पक्ष में खड़ा है और कौन उनके ख़िलाफ़?
जो भी हो, यह लेख इस बात की वकालत नहीं करता कि मुराकामी को इज़राइल नहीं जाना चाहिए था। मेरा तो यह मानना है कि अगर इज़राइल न्योता दे तो गुंटर ग्रास को भी वहां जाना चाहिए और अपने फ़ैसले का, अपनी कविता का बचाव करते हुए जाना चाहिए। यह अलग बात है कि ज़्यादातर लेखकों के लिए ऐसी यात्राएं- दुर्भाग्य से- उनके लेखकीय विश्वास से कहीं ज्यादा अहमियत रखने लगती हैं और वे ऐसे मौकों पर बदलते दिखाई पड़ते हैं।
बहरहाल, लेखक को ऐसे किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि उसका अपना कोई मुल्क होता है, उसके साथ राजनीतिक व्यवस्थाएं खड़ी होती हैं। रूस की कवयित्री मरीया त्स्वेतायेवा ने आत्महत्या से पहले शायद अन्ना अख्मातोवा को लिखे एक पत्र में लिखा था कि लेखक का कोई मुल्क नहीं होता, वह हमेशा पराया होता है। किसी और लेखक ने यह तज़बीज़ दी थी कि लेखक को चोर और तस्कर की तरह काम करना चाहिए, दबे पांव विचारधाराओं के किले में सेंधमारी करनी चाहिए। अपने टिन ड्रम से मशहूर हुए गुंटर ग्रास ने शायद एक स्तर पर यही काम किया है और ईरान की तरफदारी का जोख़िम मोल लेते हुए इज़राइल का विरोध किया है। अब इतिहास को तय करने दीजिए कि सही कौन है- इजराइल या ईरान। चाहें तो याद कर सकते हैं कि अपने उस भाषण में मुराकामी ने कहा था- ‘हम सब इंसान हैं, मुल्क, नस्ल,और मज़हब के पार खड़े लोग, वे कमज़ोर अंडे जिनके सामने व्यवस्था नाम की मज़बूत दीवार खड़ी है।… हमें व्यवस्था को ये इजाज़त नहीं देनी चाहिए कि वह हमारा शोषण करे। हमें व्यवस्था को उसका अपना जीवन हासिल करने नहीं देना चाहिए। व्यवस्था ने हमें नहीं बनाया। हमने व्यवस्था को बनाया है। ‘
दैनिक भास्कर से साभार
6 Comments
must be highlighted…
लेखक को ऐसे किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि उसका अपना कोई मुल्क होता है, उसके साथ राजनीतिक व्यवस्थाएं खड़ी होती हैं। रूस की कवयित्री मरीया त्स्वेतायेवा ने आत्महत्या से पहले शायद अन्ना अख्मातोवा को लिखे एक पत्र में लिखा था कि लेखक का कोई मुल्क नहीं होता, वह हमेशा पराया होता है। किसी और लेखक ने यह तज़बीज़ दी थी कि लेखक को चोर और तस्कर की तरह काम करना चाहिए, दबे पांव विचारधाराओं के किले में सेंधमारी करनी चाहिए।
Ek bahut umda tippani, jo sirf isliye nahin likhi gayi hai ki bahas ke kisi ek paksh mein apna vote dal diya jaye, balki isliye ki vyavastha ko hone waali asuvidhaon se kuchh saamaanya nishkarsh nikale jaa saken.
Bhaskar mein nahin padh paya tha. Padhwaane ke liye shukriya!
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