जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज तुषार धवल की कविताएँ. तुषार की कविताओं में न विचारधारा का दबाव है, न ही विचार का आतंक. उनमें सहजता का रेटौरिक है. अपने आसपास के जीवन से, स्थितियों से कविता बुनना- वह भी इतनी सूक्ष्मता से, कोई उनसे सीखे. यहाँ उनकी कुछ नई कविताएँ हैं- जानकी पुल.



1.
विदुर सा खड़ा हूँ 
विदुर सा खड़ा हूँ 
हस्तक्षेप में 
हाशिये पर मेरी आवाज़ घुट रही है.
निजी  प्रतिबद्धताओं से सम्मोहित 
बेमतलब हैं
सभी योद्धा 
सत्य बेचारा लाचार खड़ा है
आज भी 
हस्तिनापुर में
यह रण है नीतियों से अलग 
बस पा लेने के
इस युद्ध में
बलि किसकी 
यह निरर्थक  
स्वार्थ का अपना ही युगधर्म है.
तुम्हारे मगध में भी
एक कलिंग  होता है
चन्द्रगुप्त !
**************************************************************
2.
अब लिखता हूँ पराजय !
अब लिखता हूँ पराजय !
कठिन था सफ़र
ये पत्थर बिखरे ही रह गए
इनसे बहुत कुछ गढ़ना था  
सब छूट गया
बाकी बिछड़ गए
बस एक कोलाहल है जो
मेरे पीछे चला आता है
यह काल यात्रा हजारों मील की
यह हजारों कान में उतरती आवाजें
तलवों में सिमटती परछाईं यह धूप में
देखता हूँ
शैतान की राह आकर्षक और सरल  होती है
पिछली मृत्युओं से निकल कर 
अगली मृत्युओं का वरण 
इस काल खंड पर दस्तक भर है
जीवन —-
एक कल्पित देश काल की खोज सिर्फ
सब सापेक्ष दीखा इस जगत में  
अपनी अपनी गतियों और धुरियों के 
अंतर्जाल में
अपनी गत्यमंथर लय में पाया विश्व 
सत्त्व किन्हीं दुर्गम शिलाओं के पार था
जहाँ फिर कोई नहीं आया 
ईसा तुम्हारी संतानें वैसी ही हैं अभी भी 
अपनी भेड़ बकरियां गिनती 
और रौशनी बीत जाती है 
बुद्ध तुमने क्या कहा था ?
तुम्हारी प्रतिमाओं में हमने मार डाला तुम्हें
मुमकिन है फिर आओ संसार में
पर तब तुम्हारे संधान अलग होंगे 
तुम्हारी यात्राओं पर मेरी भी धूल होगी
धरता हूँ
धूल सनी इस देह को
किसी अँधेरे कोने में
रखी रहने दो लालटेन
मेरे पन्नों पर
उन पर कुछ नक़्शे हैं
अगली कई यात्राओं के .
3.
आधी रात बाद  कमोड पर
आधी रात बाद
बाथरूम में कमोड पर बैठा हूँ
एक चाइनीज़ बल्ब दूधिया प्रकाश दे रहा है  
टाइल्स पर नमी बढ़ गयी है
काई के चित्ते भी उभर आये हैं
पत्नी सो रही है और सोच रहा हूँ 
यही सबसे महफूज़ जगह है
होने की
इसी वक़्त मैं पूरा का पूरा होता हूँ
सोपकेस में रखा साबुन गीलागीला 
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14 Comments

  1. मुझे कभी कभी लगता है हमारे देश में साहित्य जीव इतना बिचारो से भर गया है क़ि उसका दिमाग कुन्दा हो गया है और उसको दिल बेजान है लड़ने क़ि छमता पूरी तरह से खो दी है अब सिर्फ बाते और विमर्श रह गया है ! ये एक ऐशी बंज़र जमीन है जहा अब कोई उम्मीद पैदा नहीं होती है ………ये कविता के लिए मुस्किल दौर है वहा एक गहरा सन्नाटा है …….bhavpud aur prtidodh ki kavita sundar

  2. अशोक भाई,
    आपको बधाई !
    आपने चुप रहने का विकल्प नहीं चुना, मुझे अच्छा लगा 1
    विचारधारा है या नहीं, या परे कर दी गयी है, इस पर आप या प्रभात जी या कोई भी स्वतंत्र सोच रख सकते हैं और यह ज़रूरी भी है क्योंकि रचना रचनाकार से स्वतंत्र हो जाती है
    फिलवक्त तुषार धवल की ही एक पंक्ति से इतना ही कहूँगा :

    "शब्द सिर्फ द्वीप-से मिले मुझे
    नदी इनके बीच से बहती थी"

    जी करे तो सुनियेगा नदी क्या कहती थी
    फिर दूसरा प्रश्न जो अक्सर मन में आता है वह यह है कि, विचारधारा की कविता हो, या कविता की विचारधारा ?
    एक विचार जो अब प्रचलित किसी वाद के फ्रेम में नहीं बैठता है, वह है इंसान को उसके समग्र रूप में विकसित कर पाने की, उसे पूरा का पूरा पा लेने की ललक, उसकी ज़द्दोजहद, ऊहापोह, आशा निराशा और उस प्रयास का संघर्ष 1 और यह हमारा भीतरी संघर्ष भी हो सकता है 1 ज़रूरी नहीं है कि हर कविता चौक पर खड़ी हो कर शंखनाद ही करे

  3. चीज़ें एक दूसरे
    को भोग रही हैं —
    और यही महत्त्व है उनके होने का
    भोग !

    हम भी तो चीज़ हुए जाते हैं
    है न दोस्त !

  4. कुछ न करने…कुछ न करना चाहने … कुछ न कर पाने के बीच एक उदास और ईमानदार मन की कविताई. तुषार ने 'काला राक्षस' जैसी कविता लिखी है और अब यह कमोड, हस्तमैथुन,शिश्न….मुझे हमेशा लगता है कि जब 'विचारधारा का दबाव'अनुपस्थिति हो जाता है…या जानबूझकर परे कर दिया जाता है तो सारे गुस्से, सारी आग को अंतत कमोड में ही फ्लश होना होता है.

    माफ करना तुषार भाई…चुप रहने का विकल्प नहीं चुना मैंने.

  5. विदुर सा खड़ा हूँ
    हस्तक्षेप में
    हाशिये पर मेरी आवाज़ घुट रही है.

  6. बेचारगी के कितने शेड्स जिन्हें हम जानकर भी नज़रांदाज़ करते हैं…अपनी अबूझ पहेलियों का हमेशा जान-पहचाना जवाब हमें अक्सर परेशान करता है…जूझते हैं इनसे पर फिर वही सवाल कि बदलाव की जिजीविषा में जाने कितने युग बीते और जाने कितने ऐसे ही बिताने हैं……

    स्वार्थ का अपना ही युगधर्म है.

    धरता हूँ
    धूल सनी इस देह को
    किसी अँधेरे कोने में
    रखी रहने दो लालटेन
    मेरे पन्नों पर
    उन पर कुछ नक़्शे हैं
    अगली कई यात्राओं के

    हम भी तो चीज़ हुए जाते हैं
    है न दोस्त !

    कुछ नहीं होगा
    कुछ नहीं थमेगा —
    न यह सत्ता
    न यह हवा का रोर
    न यूटोपिया
    न मेरा मैं होना
    हाँ इस बीच
    इन्हीं बेमतलब की बातों में
    कई निर्बोध प्रश्न होंगे
    कई कवितायेँ होंगी
    जो हमारी नज़र से चूक जाएँगी.
    हमारी नज़रों में फिर
    ओछा रह जायेगा इंसान

    खुद से सवाल करती, जवाब ढूंढ़ती कवितायें अच्छी लगी…
    आप दोनों को बधाई !!!!!!

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