शंभु यादव एक कुलवक़्ती कवि हैं, यह बात दुनिया में कितने लोग जानते होंगे? मुझे तो इस पर भी शक़ है कि वे खुद इस बात को जानते होंगे। इस बात को जानने के लिए भी कविता से बाहर आना और अपनी उस मसरूफि़यत को थोड़ी दूरी से देखना ज़रूरी है, पर शंभु लगातार कविता में ही रहते हैं। इसी के चलते साहित्यिक दुनिया में घूम-घूम कर खुद को कवि मनवाने की न तो फ़ुर्सत निकाल पाये, न ही कौशल विकसित कर पाये। कुछ लघुपत्रिकाओं में इक्का-दुक्का कविताएं आयी हैं। पहली बार जानकीपुल पर ही उनकी इक्का-दुक्का से ज़्यादा कविताएं देते हुए हमें खुशी है- संजीव कुमार
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१.
मंडेला
(अहा! याद हो आए कवि मोलाइस)
यह तेरह फरवरी दो हज़ार बारह की खब़र है-
‘दक्षिणी अफ्रीका में बैंक नोटों पर अब मंडेला दिखेंगे’
आगे मैं कहता हूँ-
जैसे हमारे यहाँ गाँधी दिखते हैं
अब दक्षिणी अफ्रीका में भी
कुछ इस तरह से होगा
पाँच सौ वाला मंडेला देना भाई
सौ का मंडेला तोड़ दे
जिस घर में जितने ज्यादा मंडेला
उसकी उतनी बड़ी औकात
यह मंडेला फटेला है यार, दूसरा दे ना
चेपी लगा इस मंडेला पर
तभी चलेगा।
२.
कपड़े की पुरानी मिल
सब चीजों को समतल किया जा चुका है
केवल अब चिमनी ही रह गई है बाकी
बगैर धुएँ की, अकेली, निर्जन
जमीन के बीचों-बीच लम्बी खिंची याद
आसमान को छूती-सी
अपने भरे-पूरे सौष्ठव में एक सुघड़ आख्यान
फैला था व्यापक कभी वहाँ
विभिन्न व्यंजनाओं में
धड़कती मशीनें
मचलते कलपुर्जे
कपड़ों के सुथरे थान
खिलते रंगों की बहार
आवाज़ाही में व्यस्त मज़दूर की साँसें
परेशानियों भरी आहों के बीच
रह-रह थकान को हरती
मासूम सी ठिठोलियाँ
बीडि़यों के कश, पान की पीकें
सुरती का छौंक और मुँह के अन्दर चरमराती खाल
चलो चाय हो जाय, यार
सब कुछ लुट गया उस कपड़ा मिल का
सन्नाटे का छंद रचती बस ख़ाली ज़मीन है
लोग कहते हैं उसे, मरा हाथी सवा लाख का
नए अमीरों के लिए लक्जरी अपार्टमेंट्स बनेंगी
मिट्टी से बनी लाल चिमनी को
मिल की यादगारी, उसका स्मारक बनाकर रख छोड़ा जाएगा।
३.
इधरवाला दिन
इस दिन में रात है
और घुप्प अंधेरे में खोया है सबकुछ
एक लम्बी गाड़ी अपनी चौंधयाती लाईट में
भाग रही है लगातार
चमकती काली सड़क के घुमावदार मोड़ों पर
और जितनी ज्यादा रफ्तार होती है उसकी
नेनो सैंकड की तेजी से
बढ़ता जाता है स्कोर स्क्रीन के दाएं
कार टकराती है इधर-उधर
दूसरों को नष्ट करना
इस करामाती खेल के साफ्टवेयर का
सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है
खुद पर खरोंच भी न आए
और अधिक से अधिक प्वाइंट अर्जित हों
प्ले स्टेशन के गेम पैड पर अपने हाथ चलाता
खुशी से बल्ले-बल्ले है वह आदमी
और इसी बीच एक नया खूबसूरत पक्षी
जिसे उसने कभी देखा तक नहीं
उसके दिल की खिड़की पर बैठा रहा है भर दिन
४.
अधिनायकवादी चरित्र
जरूरी नहीं कि वह
‘हेल हिटलर’ रूपी सलाम बजवाता ही दिखे
दिखे किसी सिनिकल मुद्रा में
उसकी मूँछों की उद्दंड घुंडी
या उसके जूतों की कर्कश ताल और आपका काँपता शरीर दिखे
उसके साम्राज्य में प्रत्यक्ष कोड़े बरस रहे हों
लहूलुहान शरीरों से रक्त की धारा
किसी कान्सन्टेªशन कैम्प में नरसंहार
चाउसेस्कू या इदी अमीन का रूप धारण करने की जोर आजमाइश
अधिनायकवादी चरित्र में सिर्फ ऐसा ही कुछ होता दिखे, क्या जरूरी है
हो सकता है
किसी फिल्म में सीधे-सीधे अधिनायक वाले रूप में दिखने की बजाय
उसका गुरूडम भाव कथ्य के फिल्मांकन में रचा-बसा हो
आपके शरीर को अनजाने ही रोमांचित कर
अपनी मूँछ की उद्दंड घुंडी को संतों की वाणी में छुपा ले
किसी भाषण में वाचन करता दिखे-
अपनी ही सत्ता के खिलाफ लिखी कविता का पाठ
आपको आश्चर्य तो होगा लेकिन यह भी हो सकता है
वह बंद बोतलों में किसी ब्रांडिड उत्पाद का लिक्विड बना
लुभाने की सुपरलेटिव डिग्री में आपकी चिरौरी कर रहा हो-
‘देखिए साहब! मैं आपके हलक में उतर जाने के लिए मरा जा रहा हूँ।‘
और जब आप अपने किसी स्वप्न में
उस लिक्विड की तरावट महसूस करना चाह रहे हों
वह वहाँ आपका हलक ही अपने हाथ में लिए आ बैठे
५.
मेरा विलोम
अपने पैरों में नाइकी के जूते पहन
एल.जी. के शोरूम में विभिन्न आइटमों की वैरायटियों पर
ललचायी छलांग लगाता वह
मुगलई रेस्तरां में बैठा है
उसे मसालेदार मटन खाने का चस्का
वह दारू के आठ पैग पी जाने के बाद भी आउट नहीं होता
ऐसिडिटी व वमन की तो मजाल ही क्या जो उसके पास भी फटक जाए
उसके पास नामलेवा कोई कारोबार नहीं
फिर भी उसकी जेब आजकल
रुपयों से लबालब
उसे अधिकतर पसंद है वे लोग जो
ठेकेदार हैं, सट्टेबाज हैं, बिल्डर हैं
माफियाओं से भी यारी गाँठना चाहता है
इन्हीं में से उभरे किसी नेता का साथ
उसे नफरत है इलाके में पटरी लगाने वालों से
बीच सड़क रिक्शा चलाने वालों से
उसका बस चले तो भिखमंगों के हाथ काट दे
उसे साहित्य पढ़ना या किसी को साहित्य पढ़ते देखना
दोनों से खीझ है
और अगर आप उसका सीना फाड़कर भी
ग्लानि भरा कुछ रसायन या
अदना सी एक कोशिका ही देखना चाहें भलाई की
और वह मिल जाए, तो जनाब!
उसका सीना फाड़ने के इल्ज़ाम में, आपकी जगह
मैं फाँसी चढ़ने को तैयार हूँ।
६.
नौदौलतिया
मोबाइल टावर के अंतिम सिरे पर पहुँच आसमान को मुखातिब बंदर
आनन्दित था कि बस अब तो फलक को छू लिया
पृथ्वी के तमाम जीव-जंतुओं में अपने को सबसे ऊपर पाकर
अभिभूत, चकरी लगाता था झूम-झूम
समझ लिया, यही जीवन का परम फल है
बौराया, अपनी चेतना भूल गया और देख न सका
तेज हवाओं में मंडराता गिद्ध
दिखाने को है कमाल
तेज चोंच का घात पड़ा झूमते बंदर के मुंड पर, ठक्
बदहवास बंदर के हाथ-पैर फूल गए
छूट गया सबसे ऊपर वाला किनारा, सहारा
लौह स्तम्भों में अटकटा-पटकटा
धरती पर आ गिरा धम्म नौदौलतिया
खूनम-खून।
७.
उत्तर-ग्लोबल
काठ का दिल और
जमाने की रफ्तार के उजाले पर
काले सोने की डस्ट चढ़ गई है
मोहल्लों में कहे जानेवाले किस्सों में
होते थे कई नामी-गिरामी
अपने भरे-पूरे आस्वाद के साथ
आजकल तो कुछ एक बिलियनेयर्स के नाम हैं
उँची दीवारों में बसे विलाओं में
रहनेवाले इन बिलियनेयर्स की शक्ल भी
देख ली जाए, मुश्किल है।
यदाकदा जब वह बिलिनेयर टीवी पर नजर आता है
उसका पड़ोसी उसी से उसकी शक्ल की पहचान बनाता है
मैंने भी पहचाना उसको
जब वह मेरे एक दुःस्वप्न में
मेरे अदना से शरीर को
अपने क्रिकेट मैच के लिए पिच बनाता
मेरे फेफ़ड़ों पर किल्लियाँ गाड़ता
अपने बैट से लगा कूटने मेरे पेट को
मैं दर्द से कराह उठा
मैंने मिमियायी आवाज़ में विनती की-
‘क्या कर रहे हो स…अर! मैं मर जाऊँगा
कई दिनों से रोटी का एक टुकड़ा भी
मेरे पेट के हिस्से नहीं लगा है
मुझे छोड़ दो, सर! किसी और को अपने खेल की पिच बना लो’
‘मूर्ख रोटी क्यों चाहते हो, केक खाओ’
उसने उसी फ्रैंच महारानी का डायलाग मारा,
जिसके दुर्दिन इसी डायलाग के बाद
शुरू हो गए थे लगभग
वह आगे बोला-
‘मैंने तो कल गोल्ड-फि़श रोस्ट करवाकर खाई थी
मेरे ट्रालर अलास्का से बहुत सारे क्रेब़ पकड़कर लाए हैं
इसी खुशी में मैंने कल ‘क्रेब़ फेस्ट’ का आयोजन
पूरे ग्लोबल स्तर पर सनसिटी में किया है
तुम चाहो तो चलो मेरे साथ
और साथ में अपने भुक्खड़-हिन्दुस्तान को भी ले लो’
दर्द जब हद से बढ़ने लगा
मैं जोर से चिल्लाया-
‘सुअर के बच्चे! कुत्ते की औलाद!’
(सुअर व कुत्ता प्रजातियां कृपया मुझे माफ़ करें)
‘क्या वहाँ हमारे भी माँस को भुनवाकर बॅफ़े में डिस्पले करोगे
या किसी नए तरह का गिरमिटिया बना
अपने अलास्का के ट्रालर पर मछलियाँ पकड़ने भेजोगे’।
८.
मेरा कवि
वह नीचे-नीचे रस्तों से
ऊपर-ऊपर जाता है
जाता है रुक
टूटी डोर-सी साँस को बाँधता है, तानता है
बिछा देता है, सुखा देता है अपने गीलेपन को
कान में बजती मशीनी टक-टक को सुनता
अपने रक्तचाप को लगता है नापने
बढ़ता है आगे फिर
रुक-रुककर
ऊँचे-ऊँचे मिट्टी के टीलों के बीच
भरी पड़ी भूरी रेत की झील में
बनाता है चेहरा स्वयं का
खंगालता है
बनाता है स्वयं के चेहरे में
‘ज़माने का चेहरा’
पुनः खंगालता है‐‐‐‐‐‐
पुनः‐‐‐‐‐‐‐‐‐‐‐
ख़्वाब में उठकर जागा मैं
कीकर की कील चुभी है मेरे तलवे में
‘जरा सुई तो देना भाई
इसे निकाल लूँ’
‘पैर मेरी तरफ बढ़ा, ला मैं ही निकाल दूँ
वह कहता है
वह नीचे-नीचे रस्तों स