पिछले दिनों राजेश जोशी, कुमार अम्बुज और नीलेश रघुवंशी का एक पत्र छपा था भारत भवन भोपाल के सन्दर्भ में. उसको लेकर आलोचक विजय बहादुर सिंह ने लिखा है- जानकी पुल.
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19 अगस्त 2012 के रविवार्ता का जो अहम अग्रलेख आपने छापा है, उसका शीर्षक है ‘सांस्कृतिक विकृतीकरण फासीवाद का ही पूर्व रंग है।’ इसके लेखकों में तीनों भोपाल के हैं। एकाध बेहद करीबी भी। पहला प्रश्न अगर सांस्कृतिक विकृतीकरण का उठाया जाय तो इसके पीछे की सारी लंबी बहसें याद आती हैं। ये बहसें 1935-36 के पहले की भी हैं, बाद की भी। सबसे पहले जो शंका कवि श्री निराला ने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के समय रखी है, उसका कुछ अंश जरा देखें-”यहाँ एक ऐसा दल है, जो उच्च शिक्षित है। शायद सोश्यलिस्ट भी। इसके कुछ लोग योरप भी हो आए हैं…इन्होंने प्रोग्रेसिव राइटर्स मीटिंग या ऐसोसियेशन नाम की एक संस्था कायम की है। ये उच्च शिक्षित जन कुछ लिखते भी हैं, इसमें मुझे संशय है। शायद इसीलिए लिखने का एक नया आविष्कार इन्होंने किया है, और वह इनमें जोर पकड़ता जा रहा है। कुछ पं. जवाहरलाल जी से काफी मिलते-जुलते हैं और देश के उद्धार के लिए कटिबद्ध हैं। इनमें सज्जाद जहीर साहब विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।’’ यह 20.11.1936 का पत्र है रामविलास शर्मा को लिखा हुआ।
अब जरा आजादी के बाद के एक चर्चित साहित्यिक चिंतक और हिन्दी के महान आलोचकों में से एक की जरा यह चिन्ता पढ़िए-‘राजनीति का लक्ष्य जन समाज के बाहरी जीवन के हितों का देखना, उनकी रक्षा करना और उनका संबर्द्धन करना है, जबकि साहित्यिक का लक्ष्य समाज को ऐसी प्रेरणा देना है कि वे स्वयं अपने हितों और अधिकारों को समझ सकें और अपने दायित्वों के प्रति सजग हो सकें। हम कह सकते हैं कि राजनीति का क्षेत्र संघटित जन-आंदोलन का क्षेत्र है जबकि साहित्य और कलाओं का क्षेत्र समाज और व्यक्ति की भावनाओं के परिष्कार और उन्नयन का है।’ किन्तु स्वराज मिल जाने के बाद ‘राजनीतिक शक्ति का इतना प्राधान्य हो गया है कि उसने सामाजिक जीवन के अन्य उदीयमान पक्षों को स्वतन्त्र रीति से बढ़ने नहीं दिया। सामाजिक जीवन की विविध दिशाओं में जो कुछ कार्य हो, वह राजनीति का ‘स्टाम्प’ लगकर ही हो, और उसका श्रेय राजनीतिज्ञों को ही मिले। इस सर्वग्रासिनी वृत्ति ने राष्ट्रीय जीवन को एकांगी बना दिया है।’ इसी चिन्तक ने यह भी लिखा ”साहित्य केवल मतवाद के प्रचार का साधन ही नहीं बना करता और न प्रत्यक्ष और प्रतिदिन बदलने वाले किसी ‘राष्ट्रीय कार्यक्रम’ का संगी ही बन सकता है। यह ‘बालेंटियरी वृत्ति’ उसे शोभा नहीं देती। उसका लक्ष्य और स्वरूप आज की इन सब ‘यथार्थवादी’ सीमाओं को पार करने पर ही दिखाई देगा। समाज और जीवन के रचनात्मक पक्षों और अनुभूतियों को लेकर ही श्रेष्ठ साहित्य की सृष्टि हो सकती है-और वह भी ऐसे व्यक्तियों द्बारा जो स्वत: रचनात्मक लक्ष्य रखते हों और साथ ही जिन्हें विज्ञान की नहीं, जीवन की जानकारी हो…साहित्य केवल वैज्ञानिक जानकारी नहीं है…कोरा वैज्ञानिक बहुत कुछ जानता है, पर उस जानकारी को क्या वह जीवन में बरत पाता है, जीवन का अंग बना पाता है? स्पष्ट हो यह विज्ञान या वैज्ञानिक जानकारी का अधूरापन और असमर्थता है जिसकी पूर्ति साहित्य द्बारा होती है।’’ पर जो लोग किसी मत या वाद के दायरे में खुद बरसों से कैद हो चुके हैं और एक खास प्रकार की विचारधारा और उससे जुड़ी सत्ता-राजनीति के कथित सांस्कृतिक ऐक्टिविस्ट के रूप में काम कर रहे हैं, वे उस साहित्यिक संस्कृति का कितना नुकसान करते चले आ रहे हैं, इसका लेखा-जोखा कौन करे? तब इसी चिन्तक ने बेहद दुख के साथ लिखा ‘जो साहित्यिक राजनीति के समीप हैं वे सच्चे अर्थों में साहित्यिक रह ही नहीं गए हैं।’
इसीलिए बुनियादी साहित्यिक प्रश्न यह है कि लेखक का अपने समय की राजनीति से क्या रिश्ता होना चाहिए पर जो लोग इस या उस सत्ता-राजनीति द्बारा प्रवर्तित संगठनों के सक्रिय सदस्य हैं, वे जब किन्हीं विरोधी या प्रतिपक्षी सरकारों के रंग-ढंग पर कुछ कहते हैं तब पहला सन्देह यही होता है कि इनके कहने के पीछे की राजनीति क्या है? क्या इनको सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण या साहित्य से उनके निर्वासन पर बहुत चिन्ता है? अगर है तो भरोसा कौन करे क्योंकि ये तो खुद एक खास प्रकार की सत्ता राजनीति के सांस्कृतिक सिपाही हैं। और सत्ता क्या होती है, क्या करती है इसका अनुभव हम अपने इसी देश में आजादी के बाद से देखते आए हैं। आजादी के बाद सबसे पहले जो राजनीतिक दल सत्ता में बरसों काबिज रहा, उसी ने निराला जैसे कवियों की उपेक्षा की। नागार्जुन जैसे कवि-कथाकारों और रेणु जैसे विरल कथाकारों को जेल में डाला। हमारे ये मित्र लोग यह भी भूल चुके हैं कि सफदर हाशमी के हत्यारे किस पार्टी और विचारधारा के थे और उनमें फासीवाद था या नहीं? दिल्ली में सिक्खों का नरसंहार किन लोगों ने किया, बाबरी मस्जिद के गिरने देने में किसने मदद की? तब इन लोगों ने कभी भी आते हुए और जड़ पकड़ते फासीवाद को महसूस नहीं किया, क्यों? क्या कभी आप इन साथियों से यह पूछ सकेंगे कि आपातकाल में ये लोग कहाँ किस जगह खड़े थे और क्या कर रहे थे? इनके विरोध के शब्द कहाँ किस किताब में हैं? और जिसने ‘चार कौए उर्फ चार हौए’ जैसी कविता लिखी या फिर ‘मुनादी’ जैसी उनका इन कवियों के साथ क्या रवैया रहा? इसी कविता में ये पंक्तियाँ हैं-
कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया-भर के गुण दिखते है औगुनिया में
कौओं की ऐसी बन आई पाँचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आए उनके जी में
उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ रह गए बैठे ठाले।
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है।
आपातकाल में जिस एक कवि ने जबरदस्त बेचैनियाँ प्रकट कीं, आवाजें लगाईं, ऐसी ग़ज़लें और कविताएँ लिखीं कि पूरा देश और उसका बौद्धिक समाज आज भी उसे अपना कवि और सांस्कृतिक रहनुमा मानता है। इन साथी लेखकों का रवैया उसके प्रतिबिंब तक क्या रहा, इनके संगठनों की समझ और नीति क्या रही, किसी से छिपी नहीं।
भोपाल में बिल्कुल अगल-बगल रहते हुए हम सब एक-दूसरे के कारनामों से बाकायदा परिचित हैं। लगभग एक साथ रहते हुए हमारे आचरण क्या हैं, कब चुप रहते हैं, कब बोलना मुनासिब समझते है, इसकी एक भरी-पूरी सूची है। ये ही लोग यह भी तय करते हैं कि प्रतिभा क्या है? इतिहास-देवता और समाज की समझ पर इन्हें कभी भरोसा नहीं। ये वे ही लोग हैं जिन्होंने कभी भवभूति, कबीर या घनानंद को प्रतिभाशाली नहीं माना होगा। वंशवाद के इस जमाने में इनका अपना वंशवाद भी काम तो कर ही रहा है न? अपने, अपने माँ-बाप, भाई-बहन के लिए इनके मूल्य दूसरे और असहमति या प्रतिपक्ष में खड़े लोगों के लिए दूसरे। कल का आलोचक इन्हें चारणों, दरबारियों, विद्रोहियों, वैचारिक गुलामों या पार्टी के कैडर्स मंे से कहाँ डालेगा, इसे भी ये बेचारे समझ नहीं पा रहे हैं। सच तो यह है कि ये अपनी राजनीतिक उपेक्षा को ये बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। और उस राजनीति के इन्तज़ार में हैं जो हर बार सौ चूहे खाकर चुनावों के हज की तरफ निकल पड़ती है। इनसे कौन पूछे कि सिंगुर, नंदीग्राम के नृशंस हादसों पर इनका क्या रुख और कैसी भूमिका रही? क्या तब जन-जीवन पर संकट नहीं आया हुआ था? क्या बंगाल के लोगों ने इसका मुँहतोड़ जबाब नहीं दिया? पूछिए, ये सब चुप क्यों रहे? क्यों सिर्फ अयोध्या और गुजरात में इन्हें फासीवाद दिखा, बाकी घटनाओं और जगहों पर क्यों नहीं? क्या यही इनकी प्रतिभा है?
आज प्रत्येक लेखक से यह पूछा जाना जरूरी हो उठा है कि विकास आधुनिकता, वैश्वीकरण, और इस तरह के वोटतन्त्र पर उसकी राय क्या है? क्यों हमारी जो जनता इतने बरसों तक कांग्रेस को चुनती आई, वही उसे उतारने और सत्ता से खदेड़ने का मन बना सकी? ये वे सवाल हैं, जो लेखक के लिए सांस्कृतिक संकट से जुड़े सवाल हैं। क्यों वही जनता जिसने 1857 में मिलकर लड़ाई की शुरुआत की थी, अब जाति, धर्म और संप्रदाय में बँट चुकी है? क्यों ऐसे लोगों को सत्ता में बिठाने पर आमादा है जो इनकी निगाह में फासीवादी हैं? तो फिर ये अपने-अपने दड़बों से निकल कर उस जनता तक क्यों नहीं जाते जिसे नेताओं और राजनीति के भाग्य का फैसला करना आता है? क्या इन या उनमें कोई ऐसा है, जो जनता से उसकी भाषा, लय, छंद और शैली में संवाद कर सके? अगर नहीं तो फिर क्या ये आपसी कुकुर झौ-झौं और स्यापे के लिए बैठे हैं? लेकिन क्यों?
‘प्रभात वार्ता’ से साभार
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विजय जी को जीवन भर जलेस में रहने के बाद बुढापे में अपने शिष्य आदरनीय शिवराज सिंह चौहान का शासन आते ही विचारधारा आश्रित (असल में वाम आश्रित) लेखन और लेखक संगठनों के बारे में यह महान विचार जाग्रत हुआ है. सच में भाजपा के बौद्धिक प्रकोष्ठ को ऐसे विद्वानों की बड़ी ज़रुरत है…
विजय बहादुर जी, यहाँ साहित्यिकों की सोच के कट्टर जातिवादी(वैचारिक तौर पर) दायरों में सिमटते चले जाने पर सवाल खड़े कर रहे हैं… सवाल यह नहीं है कि कौन सही है कौन गलत, जैसे बाजारवाद के मसले पर भाजपा और कांग्रेस एक निति पर चलती है, वैसे ही साम्प्रदायिकता का मसले पर दोनों के कृत्य एक जैसे हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि एक जाहिर डकैत है तो दूसरा चुप्पा चोर… अगर लोग यह उम्मीद करते हैं कि चुप्पा चोर हमें जाहिर डकैत से छुटकारा दिला कर धर्मनिरपेक्ष राज्य स्थापित कर देगा तो वे भुलावे में हैं, असम का उदहारण गौर तलब है…
इससे भी बड़ी बात वे कहते हैं की लेखक सत्ता और विचारधारा की गुलामी करने के बजाय सत्य को सुन्दर बनाने की कोशिश करे …
विजय बहादुर सिंह जी हिन्दी के वरिष्ठ लेखक हैं, प्रगतिशील-जनवादी आन्दोलन से भी करीबी रिश्ता रहा है, इसके बावजूद जब उन्होंने राजेश जोशी-कुमार अंबुज के उस पत्र पर अपने इस लेख में कुछ शंकाएं दर्ज कीं, जिसमें उन लेखकों ने भारत भवन के रवैये पर कुछ सवाल उठाये थे, तो पढ़कर आश्चर्य हुआ। मैं विजयबहादुर जी का सदा आदर करता रहा हूं, लेकिन पहली बार उनके सोच में कुछ अनावश्यक-सी तल्खी देखकर हैरत में हूं। उन्होंने प्रगतिशील आन्दोलन के शुरुआती दिनों से उस संगठन से जुड़े कतिपय लेखकों के लेखकीय कर्म पर बड़े रचनाकारों के हवाले से शंका उठाई है, यह भी याद दिलाया कि सफदर हाशमी की शहादत के पीछे या 1984 के सिख विरोधी दंगों के पीछे कौन लोग रहे? जिन्होंने बाबरी मस्जिद को गिरने दिया और कोई ठोस कार्यवाही नहीं की या बंगाल में नंदीग्राम विवाद के समय चुप रहे, उन लोगों को अब भारत भवन के रवैये के बारे में बात करने का क्या हक है? मजे की बात कि विजयबहादुरजी को बाबरी मस्जिद गिराने वालों या गुजरात में हुई शर्मनाक हिंसा के पीछे की मानसिकता से यहां तो कोई बड़ा ऐतराज नहीं दिखाया, शायद राजनीति में उन्हें यह सब जायज लगता हो, लेकिन कोई लेखक अगर किसी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थान के रवैये पर कुछ ऐतराज उठाता है,तो उसमें उन्हें वे सब असंगतियां एक सिरे से दीखने लगी हैं। ये बात कुछ जमी तो नहीं।
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