जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

पिछले दिनों विष्णु खरे का एक पत्र ‘जनसत्ता’ में छपा था. उस पत्र का यह प्रतिवाद लिखा है हमारे दौर के प्रसिद्ध पेंटर मनीष पुष्कले ने. मनीष गंभीर साहित्य-प्रेमी हैं, उनकी इस पत्रनुमा टिप्पणी को एक गंभीर साहित्यानुरागी की टिप्पणी के बतौर लिया जाना चाहिए. मैंने लिया है तभी तो आपके पढ़ने के लिए प्रस्तुत कर रहा हूं. हाल के वर्षों में विष्णु जी के संवाद की जो भाषा हो गई है उसके प्रति गहरा असंतोष है इस पत्र में- जानकी पुल.
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आदरणीय संपादक जी ,
यह पत्र आपको एक पाठक की हैसियत से!

 

परम आदरणीय, २५,१६५ महाभारतकालीन अज्ञात सैनिकों के ज्ञाता,  श्री विष-नु खरे  की इस उम्र की बचकानी प्रतिक्रियाओं (जनसत्ता-२० मई ) को पढ़ कर उन पर तरस  आया!  उनका यह सोचना-कहना-लिखना  भी अद्भुत है कि अधिकाँश  बड़े लेखकों  के मरणोपरांत वे लिखते रहे हैं, जैसे इनका लिखना ही उन लेखकों को किवदंती बनाता हो! वे लेखक महान हैं जिनके अंत के साक्षी  विष्णु जी हैं! अगर  वे  विष्णु-काल  के पहले  या  बाद  में होते  तो  क्या  होता ?
विष्णु खरे का आपको प्रेषित और  राजकुमार के  रस्ते, सस्ते और घटिया “बो‘ अंदाज़ में ख़त्म किये हुए खोटे पत्र का शीर्षक  मैंने जो किया के कई मायने हो सकते हैं, जिसमें उनके विषैले उद्गारों को उनके प्रायश्चित और प्रतिक्रमण के रूप में कुछ इस तरह भी पढ़ा जा सकता है !
मैंने जो किया‘  वह व्यभिचारी का व्यर्थ है !
 मैंने जो किया‘ उस पर शर्मिंदा हूँ!
मैंने जो किया‘ वह बदबू भरी बकवास है!
मैंने जो किया‘ वह शाब्दिक-विष है!
मैंने जो किया‘ वह मरा मजाक है!
मैंने जो किया‘ वह सनक का सार है!
मैंने जो किया  वह कसक की डुबकी  है!
मैंने जो किया‘ वह डींग की तान  है!
 मैंने जो किया‘ वह विवेक का सन्नाटा है!
मैंने जो किया‘ वह काली मानसिकता का प्रसार  है!
इस पत्र के छपते ही विष्णु खरे के अंधे-उधमी-उद्गारों की अत्यधिक सनकभरी अ-पठनीय फेहरिस्त अब सबके सामने है! निश्चित ही, उनके इस पत्र से उनकी आतंरिक असंगतियों, असहाय अहम् और फटी मानसिकता का परिचय तो मिलता ही है, लेकिन आप ने इस घटिया पत्र को भी जनसत्ता की खटिया देकर संपादक की लुटिया को बचाये  रखा है! इसके लिए आपको बधाई और विष-खरे जी को धाएँ (यह शब्द साभार श्री विनोद कुमार शुक्लजी से) !  विष्णु खरे का यह पत्र खरा कम खोटा ज्यादा है! वे बेखबर, बेकार, बैचैन, बेरहम, बेडौलबेबस, बेतुके, बेहोश,बेसुध, बुझे बुज़ुर्ग हैं! जैनेन्द्रविजयदेव नारायण साही और मनोहर श्याम जोशी के प्रति उनके उद्गारों और रेणु व कुंवर नारायण (जिन पर उन्होंने कुछ नहीं कहा)  को छोड़ दें तो बाकी सभी लेखकों पर उनकी सडांध-कृपा है! निश्चित ही मैं यह मानता हूँ कि विष्णु खरे का कहना-लिखना कोई मायने नहीं रखता (न उनके लिखे को पड़ने में मेरी कोई  दिलचस्पी 
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4 Comments

  1. विष्‍णु खरे जी के व्‍यक्तिव का बहुत शानदार चित्रण……इनके जैसा अति अहंवादी कवि हिन्‍दी साहित्‍य में मिलना मुश्किल है. मनीष पुष्‍कले और जानकीपुल को धन्‍यवाद.

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