मेरा तड़प कर चौंक जाना,
उबल कर फट पड़ना
या दर्द से छटपटाना
कमज़ोरी नहीं है
मैं जिंदा हूं
इसका घोषणापत्र है
लक्षण है इस अक्षय सत्य का
कि आदमी के अंदर बंद है एक शाश्वत ज्वालामुखी
ये चिंगारियां हैं उसी की
जो यदा कदा बाहर आती हैं
और
जिंदगी अपनी पूरे ज़ोर से अंदर
धड़क रही है-
यह सारे संसार को बताती हैं।
तो मैं शरमाता नहीं, खुलकर रोता हूं
भरपूर चिल्लाता हूं
और इस तरह निष्पंदता की मौत से बच कर निकल जाता हूं
वरना
देर क्या लगती है
पत्थर होकर ईश्वर बन जाने में
दुनिया बड़ी माहिर है
आदमी को पत्थर बनाने में
अजब अजब तरकीबें हैं उसके पास
जो चारणी प्रशस्ति गान से
आराधना तक जाती हैं
उसे पत्थर बना कर पूजती हैं
और पत्थर की तरह सदियों जीने का
सिलसिला बनाकर छोड़ जाती हैं।
पत्थर बनकर
सदियों तक जीने का दर्द सहना
बेहिस,
संवेदनहीन,
निष्पंद……
बड़े से बड़े हादसे पर
समरस बने रहना
सिर्फ देखना और कुछ न कहना
ओह कितनी बड़ी सज़ा है
ऐसा ईश्वर बनकर रहना!
नहीं,मुझे ईश्वरत्व की असंवेद्यता का इतना बड़ा दर्द
कदापि नहीं सहना।
और भीड़ के सैलाब में
चुपचाप बहूं।
मेमने की तरह घिघियाते देख
अधपके फोड़े की तपक-सा मचलता हूं
क्रोध में सूरज की जलता हूं
यह जो ऐंठने लग जाते हैं धुएं की तरह
मेरे सारे अक्षांश और देशांतर
रक्तिम हो जाते हैं मेरी आंखों के ताने-बाने
फडकने लग जाते हैं मेरे अधरों के पंख
मेरी समूची लंबाई
मेरे ही अंदर कद से लंबी होकर
छिटकने लग जाती है
….और मेरी आवाज में
कोई बिजली समाकर चिटकने लग जाती है
यह सब कुछ न पागलपन है, न उन्माद
यह है सिर्फ मेरे जिंदा होने की निशानी
यह कोई बुखार नहीं है
जो सुखाकर चला आयेगा
मेरे अंदर का पानी!
कि कोई मुझे मेरे गंतव्य तक पहुंचने से रोक दे
और मैं कुछ न बोलूं?
कोई मुझे अनिश्चय के अधर में
दिशाहीन लटका कर छोड़ दे
और मैं अपना लटकना
चुपचाप देखता रहूं
मुंह तक न खोलूं!
क्योंकि मैं जानता हूं
मेरे अंदर बंद है ब्रह्मांड का आदिपिंड
आदमी का आदमीपन,
इसीलिए जब भी किसी निरीह को कहीं बेवजह सताया जायेगा
जब भी किसी अबोध शिशु की किलकारियों पर
अंकुश लगाया जायेगा
जब भी किसी ममता की आंखों में आंसू छलछलायेगा
तो मैं उसी निस्पंद ईश्वर की कसम खाकर कहता हूं
मेरे अंदर बंद वह जिंदा आदमी
इसी तरह फूट कर बाहर आयेगा।
जरूरी नहीं है,
कतई जरूरी नहीं है
इसका सही ढंग से पढ़ा जाना,
जितना ज़रूरी है
किसी नागवार गुजरती चीज़ पर
मेरा तड़प कर चौंक जाना
उबलकर फट पड़ना
या दर्द से छटपटाना
आदमी हूं और जिंदा हूं,
यह सारे संसार को बताना!
२.
बोगनबेलिया
ओ पिया
आग लगाए बोगनबेलिया!
पूनम के आसमान में
बादल छाया,
मन का जैसे
सारा दर्द छितराया,
सिहर-सिहर उठता है
जिया मेरा,
ओ पिया!
लहरों के दीपों में
काँप रही यादें
मन करता है
कि
तुम्हें
सब कुछ
बतला दें –
आकुल
हर क्षण को
कैसे जिया,
ओ पिया!
पछुआ की साँसों में
गंध के झकोरे
वर्जित मन लौट गए
कोरे के कोरे
आशा का
थरथरा उठा दिया!
ओ पिया!
३.
नर्म धूप सोयी।
मौसम ने
नस-नस में
नागफनी बोयी!
दोषों के खाते में कैसे लिख डालें
गर अंगारे
याचक बन पाँखुरियाँ माँग गए
कच्चे रंगों से
तसवीर बना डाली,
हल्की बौछार पड़ी
रंग हुए खाली।
कितनी है दूरी,
पर, जाने क्या मजबूरी
कि
टीस के सफ़र की
कई सीढ़ियाँ,
फलाँग गए।
खंड-खंड अपनापन
टुकड़ों में
जीना।
फटे हुए कुर्ते-सा
रोज़-रोज़ सीना।
संबंधों के सूनेपन की अरगनियों में
जगह-जगह
अपना ही बौनापन
टाँग गए!
(एक)
रूप की जब उजास लगती है
ज़िन्दगी
आसपास लगती है
तुमसे मिलने की चाह
कुछ ऐसे
जैसे ख़ुशबू को
प्यास लगती है।
(दो)
न कुछ कहना
न सुनना
मुस्कराना
और आँखों में ठहर जाना
कि जैसे
रौशनी की
एक अपनी धमक होती है
वो इस अंदाज़ से
मन की तहों में
घुस गए
उन्हें मन की तहों ने
इस तरह अंबर पिरोया है
सुबह की धूप जैसे
हार में
शबनम पिरोती है।
(तीन)
जैसे तारों के नर्म बिस्तर पर
खुशनुमा चाँदनी
उतरती है
इस तरह ख्वाब के बगीचे में
ज़िन्दगी
अपने पाँव धरती है
और फिर क़रीने से
ताउम्र
सिर्फ़
सपनों के
पर कुतरती है।
(चार)
ज़िन्दगी की ये ज़िद है
ख़्वाब बन के
उतरेगी।
नींद अपनी ज़िद पर है
– इस जनम में न आएगी
दो ज़िदों के साहिल पर
मेरा आशियाना है
वो भी ज़िद पे आमादा
–ज़िन्दगी को
कैसे भी
अपने घर
बुलाना है।
५.
और कुछ
मेरा अपना पागलपन
जो तस्वीर बनाई
उसने
तोड़ दिया दर्पण।
जो मैं कभी नहीं था
वह भी
दुनिया ने पढ़ डाला
जिस सूरज को अर्घ्य चढ़ाए
वह भी निकला काला
हाथ लगीं- टूटी तस्वीरें
बिखरे हुए सपन!
तन हो गया
तपोवन जैसा
मन
गंगा की धारा
डूब गए सब काबा-काशी
किसका करूँ सहारा
किस तीरथ
अब तरने जाऊँ?
किसका करूँ भजन?
जो तस्वीर…
कविताकोश से साभार