जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

हाल के दिनों में आभासी दुनिया और प्रिंट मीडिया में जो सबसे गंभीर साहित्यिक बहस चली है वह कवि कमलेश के ‘समास’ में प्रकाशित साक्षात्कार तथा उसमें आये एक तथाकथित विवादास्पद बयान को लेकर चली. यह कुछ ऐसी बहसों में से है जिसने हिंदी साहित्य के दो ध्रुवान्तों को स्पष्ट कर दिया. अर्चना वर्मा, वीरेन्द्र यादव, ओम थानवी, गिरिराज किराडू जैसे विद्वानों ने इसमें बहुत गंभीरता से हिस्सा लिया और बड़े बौद्धिक तरीके से अपने तर्क-वितर्क रखे. हाल के दिनों में यह सबसे लम्बे समय तक चलने वाली बहस भी है. इस प्रसंग में बहस के लिए अर्चना वर्मा का यह ताजा लेख जो हम ‘कथादेश’ से साभार ले रहे हैं- मॉडरेटर.
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विवाद और विवादग्रस्त
विजयदेवनारायण साही की परमगुरू से प्रार्थना की इन पंक्तियोँ को मैँ अक्सर दोहराती हूँ
दो तो ऐसी निरीहता दो / कि इस दहाड़ते आतंक के बीच / फटकार कर सच बोल सकूँ / और इसकी चिन्ता न हो कि इस बहुमुखी युद्ध मेँ / मेरे सच का इस्तेमाल / कौन अपने पक्ष में करेगा।

इस बार का प्रसंगवश जून के प्रसंगवश की वाया वीरेन्द्र यादव अगली कड़ी है।

वीरेन्द्र जी के अध्ययन और विद्वत्ता से मैँ यूँ भी आतंक की हद तक प्रभावित रहा करती हूँ। फिर सूचनाओं का ऐसा घटाटोप तो दूर से ही औसान ख़ता कर देता है। बेशक उनका प्रतिवाद मेरी जानकारियों मेँ बहुत सा इजाफ़ा करता है। बहुत सी ग़लतफ़हमियों का निराकरण भी। सच है कि मेरी वे जानकारियाँ किसी गहन शोध पर नहीं, अपने कुछ वरिष्ठ मित्रों के साथ स्मृति के गलियारों की सैरनुमा चीज़ थी, अपने छात्रजीवन के उन वक्तों के लिये एक नॉस्टैल्जियाके साथ जब इतनी सारी महत्त्वपूर्ण किताबें इतनी सहजसुलभ हुआ करती थीं। तब उनका स्रोत जानने लायक उत्सुकता या छानबीन की उम्र नहीं थी। वे थीं। बस। इस बार की बातचीत में उनकी स्मृति की कुरेद से वे अतिरिक्त जानकारियाँ जुटीं थीं।

एकध्रुवीय विश्‍व में शक्ति के असन्तुलन ने किलिंग मशीन सीआइए को किस कदर ख़तरनाक बना दिया है, वह स्वयं अमरीकी व्यवस्था के लिये भी ख़तरनाक और एक समानान्तर, शायद अधिक ताकतवर शक्ति का केन्द्र बन चुकी है इस महत रहस्य के आंशिक उद्‍घाटन के लिये वीरेन्द्र जी का आभार। इस रॉकेट साइंस से मैं अब तक अपरिचित थी। लेकिन जिस तरह के एक प्रमाण से कोई एक बात सिद्ध होती है उसी तरह के दस प्रमाणों से भी वही एक बात सिद्ध होती है। इतने भर का फ़र्क माना जा सकता है कि एक प्रमाण का मतलब अपवाद हो सकता है, दस प्रमाणों को मतलब नियम। लेकिन उसे असिद्ध करने के लिये अलग ही कोटि का कोई प्रमाण चाहिये।
लेकिन वीरेन्द्र जी और उनके साथी सिद्ध करना क्या चाहते हैं? क्या केवल इतना कि अर्चना वर्मा और कमलेश भारत मेँ सी.आई. के एजेण्ट हैं? कि उन्होंने जो कहा है उसके पीछे का उद्देश्‍य भारत में सीआइए की गतिविधियों के प्रचारप्रसार का षड्यंत्र है? अगर ऐसा ही है तो वे शौक से अपने शगल मेँ व्यस्त रहकर अपने ज्ञानभण्डार की मदद से प्रमाणों का आविष्कार और तर्कजाल का विस्तार करते रह सकते हैं। वे कन्विन्स न होने का फ़ैसला कर चुके हैं। उस बहस में शामिल होने या उन्हें कन्विन्स करने मेँ मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। वैसे भी किस कम्बख्त को यह साबित
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