जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

विजय मोहन सिंह नहीं रहे. यह सुनते ही सबसे पहले मन हिन्दू कॉलेज होस्टल के दिनों में वापस चला गया. मेरा दोस्त आनंद विजय उनका नाम लेता था, कहता था बड़े लेखक हैं. उसके पिता के साथ उन्होंने कभी महाराजा कॉलेज, आरा में अध्यापन किया था.

विजय मोहन जी को मैंने बहुत बाद में पढ़ा. उनसे पहला परिचय संपादक के रूप में हुआ था. 90 के दशक में वे हिंदी अकादेमी, दिल्ली के सचिव बने थे. मेरे जानते वह हिंदी अकादेमी का स्वर्ण काल था. उसकी पत्रिका ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’ अचानक से उस दौर में प्रासंगिक हो गई थी. मुझे याद है मेरे प्राध्यापक स्वर्गीय दीपक सिन्हा, अग्रज लेखक संजीव कुमार के पास उस पत्रिका के अंक मिल जाया करते थे. आज भी उस पत्रिका के कई अंक दिमाग में चित्रित हैं. वह अंक जिसमें मार्केज के इंटरव्यू का अनुवाद छपा था. याद रखिये, वह गूगल बाबा का ज़माना नहीं था. तब पत्र-पत्रिकाएं ही सूचना और ज्ञान का स्रोत हुआ करती थी. पहली बार मैंने मार्केज, उसकी बातचीत की पुस्तक ‘फ्रेगरेंस ऑफ़ ग्वावा’ का जिक्र ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’ के पन्नों पर ही देखा था. यही नहीं, रोलां बार्थ के लेख ‘लेखक की मृत्यु’ का अनुवाद. एक तरह से उत्तर आधुनिकता से हमारा पहला परिचय हिंदी अकादेमी की पत्रिका ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’ ने ही करवाया था, जिसके संपादक विजय मोहन सिंह थे. मुझे बहुत आश्चर्य हुआ जब उनको श्रद्धांजलि देते हुए किसी ने इस पहलू को याद नहीं किया. असल में, हम बहुत अधिक वर्तमान में जीने लगे हैं. स्मृतिहीन होते जा रहे हैं. लगे हाथ यह भी बता देना चाहता हूँ कि ‘कविता दशक’, कहानी दशक’, ‘आलोचना दशक’ जैसे यादगार संचयन भी उनके रहते ही हिंदी अकादेमी से आया था, जिक्रे मीर का अनुवाद भी, और हाली की लिखी ग़ालिब की पहली जीवनी का अनुवाद भी.

उनकी एक गुरु गंभीर छवि मन में अंकित रह गई. बहुत बाद में जब मिलना हुआ तो उनकी आत्मीयता का कायल हो गया. मैं उन दिनों बहुवचन का संपादन करता था और व्यवस्थित रूप से लेखक नहीं बना था. उनके वसुंधरा एन्क्लेव स्थित घर मैं अक्सर जाता था. हेमिंग्वे की कहानियों के वे जबरदस्त अध्येता थे, और उन्होंने ही मुझे यह सिखाया था कि कहानी लिखते हुए सब कुछ कह नहीं देना चाहिए, कुछ पाठकों के लिए भी रहने देना चाहिए. यही तो कहानी का कहानीपन होता है, और किसी कहानी को रिपोर्ताज होने से बचाता भी है. उन्होंने मुझे सिखाया कि हेमिंग्वे की कहानियों की यही ब्यूटी है, जिसे बाद में आलोचकों ने ‘हिडेन फैक्ट’ के नाम से पहचाना. प्रसंगवश, मेरे पहले कहानी संग्रह ‘जानकी पुल’ में एक कहानी ‘हिडेन फैक्ट’ है, जिसका आधार उनका यही ज्ञान है. मुझे याद है और इस बात पर मुझे गर्व भी है कि जब कई किताबों के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मेरे पहले कहानी संग्रह ‘जानकी पुल’ का लोकार्पण हुआ था तो उस दिन वे वक्ता के रूप में मौजूद थे. वहां वे काफी देर तक हिडेन फैक्ट पर बोलते रहे थे.

यह मैं नहीं कह सकता कि मैंने उनके जैसा पढ़ाकू लेखक नहीं देखा लेकिन यह जरूर कहना चाहता हूँ कि हर तरह के विषय में न सिर्फ उनकी गहरी रूचि थी बल्कि अच्छा दखल भी रखते थे. हेमिंग्वे के अलावा जिस दूसरे अमेरिकी लेखक में उनकी गहरी आस्था थी वे नार्मन मेलर थे. मनोहर श्याम जोशी के अलावा हिंदी के वे दूसरे लेखक थे जो अमेरिकी लेखकों को पसंद करते थे. वरना वे जिस पीढ़ी के थे उस पीढ़ी के लिए रुसी लेखकों के अलावा और कोई लेखक माना ही नहीं जाता था. उन्होंने एक बहुत अच्छी किताब सार्त्र पर भी लिखी थी, जो संवाद प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी.

मैं उनको पढता था और अक्सर सहमति-असहमति दर्ज करने उनके घर पहुँच जाता था. वे खुद जितना स्नेह करने वाले थे, उनकी पत्नी उनसे भी अधिक. एक बार मुझे याद है उन्होंने मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘हमजाद’ की समीक्षा इण्डिया टुडे में लिखी थी, जिसमें उन्होंने उसे घोर अश्लील उपन्यास ठहराया था और उसे ख़ारिज कर दिया था. मैं गुस्से में उनके घर गया और सख्ती से अपनी असहमति दर्ज करते हुए बोला कि आपने यह समीक्षा जोशी के उपन्यास पर नहीं उनके व्यक्तित्व पर लिखी है और यह आपकी बेईमानी है. वे हँसने लगे, बोले, अपने गुरु से यह क्यों नहीं कहते हो कि कभी कुछ अपनी शैली में भी लिख लें. लिखना चाहते हैं हेमिंग्वे की तरह लिख जाते हैं फिलिप रोथ की तरह. फिलिप रोथ भी अमेरिकी लेखक हैं और उनके लेखन में भी अश्लील प्रसंग बेधड़क आते हैं. मुझे याद है उन्होंने कहा कि मनोहर श्याम जोशी ने इतना अधिक पढ़ रखा है कि वह जब लिखते हैं तो वे सारे लेखक उनके उपन्यासों में उतरने लगते हैं. उनमें मौलिकता एकदम नहीं है.

उस दिन उनके घर मालपुए खाने को मिले.

मैं पढ़ रहा था कि लोगों ने लिखा है कि वे फिल्म संगीत के बड़े अच्छे ज्ञाता थे. जहा तक मुझे याद आता है उन्होंने बीएचयू से संगीत की बाकायदा पढ़ाई की थी. एक प्रसंग और याद आता है. जिन दिनों पंकज राग की किताब ‘धुनों की यात्रा’ के हम दीवाने होते थे उन्हीं दिनों उन्होंने उसकी समीक्षा इण्डिया टुडे में लिखी थी, जिसमें उन्होंने लिखा था कि लेखक ने पुस्तक में शुद्ध रागों पर आधारित फ़िल्मी गीतों की सूची दी है, जबकि ज्यादातर फ़िल्मी गीत शुद्ध रागों पर नहीं मिश्र रागों पर आधारित होते हैं.

वे कहानियों के गहरे आलोचक और खुद भी बड़े अच्छे कथाकार थे. हिंदी में डीकेइंग बुर्जुआ क्लास को लेकर लिखने वाले वे अकेले लेखक थे. अगर मैं गलत नहीं हूँ तो उनकी कहानी ‘शेरपुर 15 मील’ कहानी है, जो बिखरती जमींदारी के ऊपर है. हम हिंदी वालों ने सामंती संस्कृति को बिना समझे ख़ारिज किया, कभी उसको समझने का प्रयास नहीं किया.

मेरे पहले कहानी संग्रह ‘जानकी पुल’ का ब्लर्ब उन्होंने लिखा था जो उनका दिया एक अमूल्य तोहफा है, जो आजीवन मेरे साथ रहेगा. वे जेंटलमैन थे. उखाड़-पछाड़ से दूर रहने वाले. अपनी तरह के अकेले. वह जो रिक्त स्थान छोड़ गए हैं उसकी पूर्ति कभी नहीं हो पायेगी.

विजय मोहन जी नार्मन मेलर की लिखी मर्लिन मुनरो की जीवनी के बड़े कायल थे. उनकी स्मृति में मैं उस किताब को दुबारा पढूंगा. जो उन्होंने मुझे अपने निजी संग्रह से दी थी.

विजय मोहन जी को अंतिम प्रणाम! 
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