जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

 
अज्ञेय विविधवर्णी लेखक और विराट व्यक्तित्व वाले थे. यही कारण है कि कुछ विद्वानों का यह मानना रहा है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद वे सबसे बड़े भारतीय लेखक थे. अभी हाल में ही कोलकाता में बोलते हुए उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने भी यही कहा. पहले हिंदी-लेखक राजेंद्र यादव भी ऐसा लिख चुके हैं और वरिष्ठ कथा-आलोचक विजयमोहन सिंह ने एक बार लिखा था कि टैगोर के बाद अज्ञेय भारत के सबसे बड़े साहित्यिक-व्यक्तित्व हैं.  बहरहाल, यहाँ एक लेख प्रगतिशील कवि शमशेर बहादुर सिंह का, जो उन्होंने अपने ‘फेवरेट’ कवि अज्ञेय पर लिखा है- जानकी पुल.
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अज्ञेय

अज्ञेय को मैं चुपचाप अपना एक फेवरिट कवि मानता हूं- और मैं अपने फेवरिट कवि के प्रति अत्यधिक कड़ी आलोचनात्मक दृष्टि भी रखता हूं- मगर अपनी समझ के लिए: सार्वजनिक व्याख्या के लिए नहीं। ऐसे अपने कवियों के साथ नागार्जुन और त्रिलोचन आते हैं, बल्कि somehow पहले आते हैं। अज्ञेय से निश्चय ही कुछ ज्यादा ये मेरे इतने अपने कवि हैं कि उनकी हर कमजोरी पर गुस्सा आए और मैं उसे सरेआम भी व्यक्त कर दूं: मगर इन तीनों की सफलताएं मुझे विभोर कर देती हैं, और मैं अत्यधिक अपने को उनका ऋणी पाता हूं। मैं अज्ञेय की कविता को प्यार करने के साथ-साथ उसको विशेष आदर से पढ़ता हूं, उससे सीखने की कोशिश करता हूं। गुनाह यही करता हूं कि उसको ज्यादा नहीं पढ़ता। (मैं अपने किस प्रिय कवि को ज्यादा पढ़ता हूं? और फिर मेरी प्रतियां मेरे पास रह ही कहां जाती हैं!) हां इधर अरी ओ करुणा प्रभामयको जरूर जब-तब उलटता रहा हूं।
अज्ञेय में सबसे अधिक चीज जो मुझे मोहती है, वह है उनकी व्यापक और गहरी सुरुचि, –जिस पर भरोसा किया जा सकता है; और भावों की सच्ची गंभीरता; और अभिव्यक्ति में कुछ वह सादगी-सी, जो एक उस्ताद शिल्पी के यहां ही मिलती है।
उनके वातावरण में एक क्लासिकल उदासी- मैं और किस तरह उनको व्यक्त करूं!- वास्तविक शांति की खोज में… बल्कि मूल्यों, ईस्थेटिक मूल्यों के उत्स की… बल्कि उत्स से अधिक मूल्यों की मौन तटस्थ मोहकता (मोहकतालफ्ज से आकर्षणका रूप लेती है; वह वास्तव में कलाकार की आत्मा का समर्पण… मगर समर्पण जो स्वयं प्राप्तिहै- इसी प्राप्तिकी खोज…
कुछ यही मुझे अज्ञेय के कलाकार और कवि में प्रिय। अपने लिए। (मैं कोई आलोचक नहीं हूं। एक पाठक, एक एकांत कवि-पाठक हूं।)
इनका गद्य, स्पष्ट कहूं, मुझे अच्छा नहीं लगता (अपने प्रिय लेखकके अर्थ में कह रहा हूं) यद्यपि मैं उसका बहुत आदर करता और उसे बहुत मूल्यवान समझता हूं। उन्होंने शब्दों को साहित्य में उनके वैज्ञानिक अर्थों में स्थिर किया। शायद वह हिंदी गद्यकारों में ऐसा करने वालों में पहले हैं: बहरहाल, मुझे उनका कवि का शालीन गंभीर व्यक्तित्व पसंद है।
सन्’ 43 तक मुझे उनकी कविता बिल्कुल पसंद नहीं आई थी। जब तार सप्तकमेरे हाथों में पड़ा पहले-पहल, तो- मैं कभी न भूलूंगा वह क्षण: मेरे कवि की आत्मा जैसे नाच उठी। इसका दूसरा कारण था।- यद्यपि यहां उसका सीधा प्रसंग नहीं, फिर भी बता दूं, बात पूरी तौर पर स्पष्ट हो जाएगी :- एक साथ उसी दिन दो अभूतपूर्व संग्रह मेरे हाथ में पड़े: यह एक हिंदी का, और दूसरा उर्दू का संग्रह था मख्दूम मुहीउद्दीन का सुर्ख सवेरा। जिन्होंने मख्दूम को नहीं पढ़ा है, वह नहीं समझ सकते उसकी रचना का क्लैसिक फोर्स, अनुभूति और अभिव्यक्ति की अद्भुत एकता। बहरहाल मुझे ये दोनों संग्रह- मैं हिंदी का जैसा-तैसा कवि था- एक ही सिक्के के दो रुख अपने लिए, लगे। बात को अपनी सृजनात्मक आवश्यकता की दृष्टि से कह रहा हूं; मात्र… हां तो वह प्रभाव पूरे सप्तकका था। मैं, सब कुछ जो उसमें था, समझ सका था — नहीं कह सकता। जब दो-तीन साल बाद उस पर आलोचनात्मक निबंध लिखने के लिए बहुत ध्यान से नोट ले-लेकर उसे पढ़ा, तो मैंने पथ के सात अलग-अलग खोजियोंकी सहायता से अपने लिए स्वयं दो-तीन खोजें कीं। सबसे महत्त्वपूर्ण खोज मेरे लिए- गजानन माधव मुक्तिबोध। इस संकलन का गहरा विश्लेषण करने से पूर्व मेरी निश्चित धारणा थी कि अज्ञेय ही इसके सबसे महत्त्वपूर्णकवि हैं, यानी- हर दृष्टि से। मगर हर दृष्टि सेमहत्त्वपूर्ण कवि मेरे लिए उस समय निकले (कैसी अजब बात थी)- डॉ. रामविलास शर्मा! और इसके बाद (अब भी मेरा दिल कहता है, कि शायद मैं सही हूं) गजानन माधव मुक्तिबोध। मेरी अपने लिए यह खोज (दूसरों के लिए इसका महत्त्व नगण्य ही होगा) स्वयं अज्ञेय के महत्त्व को मेरे लिए पहले से बहुत बढ़ा देती है। सच्ची नयी प्रतिभाओं को उनके सिवा और कौन परख सकता, उजागर कर सकता था- और उस समय सन् 40-42 में। गहरी आलोचनात्मक दृष्टि (साहित्य और कला के क्षेत्र में) और सुरुचि रखने वाले शिल्पी की लगभग वैज्ञानिक तटस्थता द्वारा ही यह संभव था। (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की दृष्टि से यह अवैज्ञानिकठहरेगी; क्योंकि वहां तटस्थता परिहार्य ही नहीं, असंभव है। सही ही। इसलिए नयी प्रतिभाएं कैंप विशेष में ही खोजी और बनाई जा सकती हैं। सिद्धांततो गलत नहीं है।) खैर, मैंने दिल में कहा कि अगर किसी को नई अंग्रेजी कविता का स्वाद हिंदी में लाना हो तो वह अज्ञेय को, नए अज्ञेय को पढ़े — इत्यलम्के दो अंतिम भागों के अज्ञेय को।
अज्ञेय में जो चीज मुझे खटकती और साथ ही आकर्षित करती रही, वह है उनका सदैव अपनी भावनाओं के प्रति सचेत रहना। कभी वह अपने को भूल नहीं सकते, खो नहीं सकते। (मैं कविता की ही बात जानता हूं।) वह बड़ी बात भी है। ऐसा आर्टिस्ट निरंतर ऊपर उठता जाएगा- अगर प्रज्ञावान है और विनम्रता और क्षमा उसका आंतरिक स्वभाव है।
मगर मैं पाठकों को पहले याद दिला दूं कि मैं अपने प्रिय कवियों और इस समय उनमें अज्ञेय, की प्रतिभा को, subjective angle से अपने सामने देख रहा हूं: यानी मात्र एक पाठक के लिए जैसे-कुछ वह होते हैं। सामाजिक जीवन में तो प्रस्तुत लेखक का उनसे बहुत ही कम संपर्क रहा या सामान्य होना संभव भी था या हो सकता है। कवि या कलाकार और संपर्क में आने वाला सामाजिक व्यक्ति मेरे लिए   हमेशा दो इकाइयां रही हैं। सदैव इन दोनों के लिए मेरी निजी प्रतिक्रियाएं अपने आप अलग-अलग तरह की बनी हैं। अस्तु, अज्ञेय मेरे लिए एक बहुत बड़े शिल्पी, शब्द और कला अभिव्यक्ति के पारखी, शालीन, सुरुचि-संपन्न, तटस्थ आत्मलीन और अंदर से मैं समझता हूं एक अच्छे इंसान रहे हैं। यहां इस बात की बहस नितांत प्रासंगिक है कि उनके राजनैतिक दृष्टिकोण (जहां तक मैं उन्हें जानता या समझ सकता हूं) और कला और सौंदर्य-संबंधी मूल्यमानों के दार्शनिक आधार मुझे अपने देखने और सोचने के ढंग से (वह कोई बहुत वैज्ञानिक न हो चाहे) अंततोगत्वा कुछ विरोध में ही लगे हैं। मैं यह नहीं मानूंगा कि इसका कारण बहुत कुछ मेरा बहुत सी बातों का न जाननाही है। मगर बहरहाल मैं बड़े शिल्पी कलाकारों के शिल्प को समझने के लिए इस तरह की बहस को बेकार ही समझता हूं। या बहुत कम काम की।
क्योंकि मेरी दिलचस्पी अज्ञेय की सृजनात्मक कृतियों में है, उनकी जीवन अनुभूतियों में, और इसमें कि वह कला के माध्यम में किस तरह व्यक्त हुई या की जा सकी है, और अगर ऐसा है तो इसका क्या कारण होगा। यह कला के अर्थ-संदर्भ में पवित्र भूमि है। बेशक आधुनिक काव्य और कला के मर्म में व्यंग्य और विद्रूप भी कहीं आकर पैठ गया है। मगर वह यथार्थ का प्रतिबिंब ही हो सकता है, और अपने कलात्मक प्रकार में गंभीर अर्थ रखता है। अज्ञेय के यहां भी यह गहरी विश्लेषणात्मक चेतना का पता देता है।
पहले मैं समझता था और शायद उस समय के लिए गलत नहीं समझता था कि अज्ञेय के यहां, आरंभ में अर्से तक, लिरिक भावना का अभाव मिलता है। मगर यह भावना अपने मुक्त छंदमें उन्होंने जिस तरह पल्लवित की है, उसकी एक बहुत अच्छी मिसाल ओ पिया पानी बरसा!है; और खास बात यह है कि यह कुछ लिरिक रचाव बिल्कुल उनकी अपनी परसनालिटी को पूरा-पूरा व्यक्त करता है। अज्ञेय में जो एक गुण मेरा और हिंदी के प्राय: सभी पाठकों का सहज ही आदर प्राप्त कर लेता है- और जिसकी वजह से मैं आज हिंदी की साहित्यिक दुनिया में उन्हें एक आदर्श के स्थान पर रखता हूं- वह है: अपने आपको बड़े धैर्य और परिश्रम से निरंतर उस काम को अधिकाधिक योग्यता और सफलता से पूरा करने के लिए शिक्षित-दीक्षित करते जाना, जो एक कलाकार का, एक कवि का, उसकी दृष्टि में मुख्य धर्म है- भावनाओं के परिष्कार द्वारा अनुभूतियों को गहरा और इस तरह अर्थपूर्ण करके, कि घोर-से-घोर एकाकी परिस्थिति में भी शांति मिले, व्यक्ति को, स्वयं कवि को, और उसके माध्यम से उसके पाठक को, पाठक-समुदाय को।
मौन का अर्थ शून्य नहीं; न शांति का अर्थ मौन है। उत्सर्ग में शांति है; मगर और भी कुछ है। प्रेम… उत्सर्ग ही नहीं है।… होनाका अर्थ समझना, जीवन को समझना है; मगर जीवन उसके आगे और उसके अलावा भी और कुछ है। …कला में इन बातों का प्रतिबिंब चतुराई के बल पर, गूढ़ और सूक्ष्म की योजनाओं के माध्यम मात्र से ही संभव नहीं। एक सरलता अपेक्षित है, जो इन चतुराइयों और माध्यमों को पार करने पर उपलब्ध होती है। महान् है उनका जन्म जिनके संस्कार में यह सहज ही विद्यमान हो। ऐसे जन कलाकारों और शिल्पियों की प्रतीक्षा करता है, जो अपनी महान् और गहन अनुभूतियों की अभिव्यक्तियों में सरल से सरल हों। अज्ञेय के प्रसंग में मैं ये बातें इसलिए लिखता चला गया हूं और अपने आपको रोका नहीं; कि ऐसा मेरा कुछ भरम-सा है कि हो न हो कवि ऐसे ही एक पथ का एकाकी पथिक है,…दूसरा, एक खिन्न पथिक- न जाने क्यों और किससे खिन्न! पथिक (मगर इस बात से संभवत: अनजान, संभवत: नहीं!) मेरी दृष्टि में… त्रिलोचन है: चूंकि मैं उससे और उसकी कृतियों से काफी-कुछ परिचित हूं (और हिंदी के मनीषियों में वह प्राय: एक अंत में! अज्ञातकवि ही तो रहा है, वस्तुत:!), इसलिए ऐसा कहने का साहस करता हूं।
पथ सबका, अंत में! अंत में, एक है। सांस्कृतिक क्षेत्रों में तो प्रत्यक्ष ही। अपने प्रिय कवियों का ही मैं तीव्र और कटु आलोचक भी हो सकता हूं (अन्यों का क्यों होऊं?)। उनके दोष मुझे कांटे की तरह खटकते हैं जिनके लिए मैं उन्हें क्षमा नहीं कर सकता। मेरी इस कट्टर परिधि में मुख्य रूप से नागार्जुन और त्रिलोचन ही आते हैं; कुछ हद तक नरेश मेहता और केदारनाथ अग्रवाल। …और मैं अपने किसी फेवरिट कवि को आतंक अपने लिए नहीं बनने देता। वह आतंक बना, और मैंने उसे छोड़ा। निरालामात्र एक अपवाद हैं। इनके अलावा अगर किसी मेरे फेवरिट कवि का कुछ आतंक मुझ पर है, तो वह ईश्वर जानता है, गजानन माधव मुक्तिबोध का है! इसका कारण यथास्थान बताऊंगा अगर याद रहा!…

(उदभावना से साभार)

अज्ञेय का चित्र दीपचंद सांखला के सौजन्य से 
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