जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

जम्मू-कश्मीर के कवि कमल जीत चौधरी की आवाज हिंदी कविता में सबसे जुदा है. वे कविताओं में उन कोमल भावनाओं को बचाना चाहते हैं जो वास्तविकता में वायरल होती जा रही है. उनकी कविताएं हिंदी की उपलब्धि की तरह हैं- मॉडरेटर 
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 तिनके 
 तलवार टूट
 तुम्हारे हाथ से छूट
 चुकी है
 रथ के पहिए को तुमने पहले ही
 गँवा दिया है
 इतिहास जब झूठा पड़ेगा
 तुम्हे तिनकों का सहारा लेना पड़ेगा
 जिनको
 तुम तिनका समझ रहे हो
 उनको
 मैं इक्ट्ठा कर रहा हूँ
 तिलीभर की देरी में
 ये आग में बदल जाएँगे
 इस आग को मुट्ठियों में डालो
 नाखुनों में घी डाल दिया बालो  …
 इस बार हमारे शत्रु कोई कौरव नहीं
 घात लगाए बैठे कातिया के चितकबरे हैं
 हम रणक्षेत्र में नहीं जंगल में फँसे हैं –
 मेरी पीठ की आड़ मत लो
 आओ मेरा हाथ बंटाओ
 तिनके इकट्ठे करो ।
    ००००
तुम आती हो 
तुम आती हो
छत पर
टांग जाती हो
रस्सी पर
फूल रंग और समय
गीले कपड़ों के साथ
मैं तितली हो जाता हूँ
एक बच्चा मुझे
सारे पन्नों पर छाप लेना चाहता है …
तुम आती हो
छत पर
उतार ले जाती हो
रस्सी से
फूल रंग और समय
सूखे कपड़ों के साथ
मैं मैं हो जाता हूँ
यह बूढ़ी दुनिया मुझे
सारे कोनों छितरों से  मिटा देना चाहती है …
  ००००
पंक्ति में खड़ा आखिरी आदमी
वह
खड़ा है पीछे
राशन की कतार में
वह खड़ा है पीछे
टिकट खिड़की के सामने
वह खड़ा है पीछे
खम्भे के
सूट बूट वाले बंदे के
भूख से लड़ा
वह पंक्ति में खड़ा
आखिरी आदमी
किसी के पहला होने का
पहला और आखिरी कारण है –
वह बेकार है न कायर है
दुनिया की गति का टायर है
वह पंक्ति में खड़ा आखिरी आदमी .
  ००००
औरत
औरत
एक डायरी होती है
इसमें हर कोई दर्ज होना चाहता है
एक किताब होती है
इसे पूरा पढ़ने के लिए
नदी से पेड़ तक की यात्रा करनी पड़ती है
बच्चे की कलम होती है
छील छील लिखती है
क  ख  ग
ए  बी  सी
1   2    3
औरत के रास्ते को कोई खींचकर
लम्बा कर देता है
सीधे सादे रास्ते का
सिर पकड़
उसे तीखे मोड़ देता है
जिसे वह उँगली थमाती है
वह बाँह थाम लेता है
जिसे वह पूरा सौंपती है
वह उँगली छोड़ देता है
औरत की चप्पल की तनी
अक्सर बीच
रास्ते में टूटती है
मरम्मत के बाद
उसी के पाँव तले
कील छूटती है
वह चप्पल नहीं बदल पाती
पाँव बदल लेती है
अनवरत यात्रा करती
एक युद्ध लड़ती है
इरेजर से डरती
पर ब्लेड से प्रेम करती है
औरत …
  ००००
जा रही हूँ
जा रही हूँ …घर
बुहार रही हूँ …घर
सामान बाँध रही हूँ
सब बाँध फांद कर भी
तुम छूट ही जाओगे थोड़े से
रह जाओगे अटके
पंखे के पेंच में
खिड़की के कांच में
कौंधोगे
बाहर के दृश्य में
धूप में छां में
दर्पण में अर्पण में
ले जा रही हूँ
बुदबुदाती प्रार्थनाएँ सभी
पर तुम
जली हुई अगरबती में
पिघली हुई मोमबती में
चकले बेलने की खुरचन में
बर्तनों की ठनकन में
अजान में
चौपाई में
रह जाओगे बिखरे हुए थोड़ा थोड़ा
चारपाई में
तुम छूट ही जाओगे
नमक में नमक जितना
बुहारूं चाहे कितना
किसी के किस्सों में
टुकड़ा टुकड़ा हिस्सों में
रुत परेशान में
किसी की जबान में
हौंसले की कमान में
रह जाओगे तुम
उठे हुए तूफ़ान में
तुम्हारा छूटना मुझे अच्छा लगेगा
तुम छूटोगे
पाबन्द हुई किताबों में
अंधेर गर्द रातों में
जुगनुओं के खवाबों में
ओस की बातों में
छूट जाओगे थोड़े से
शहर के शोर में
सीढ़ियों में
कोरिडोर में
रात की रेत में
रेत की सेज में
तवी की छवि में
कल्पना की कवि में Share.

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