राकेश श्रीमाल की कविताएँ ‘हिय आँखिन प्रेम की पीर तकी’ के मुहावरे में होती हैं. कोमल शब्द, कोमल भावनाएं, जीवन-प्रसंग- सब मिलकर कविता का एक ऐसा संसार रचते हैं जहाँ ‘एक अकेला ईश्वर’ भी बेबस हो जाता है. उनकी कुछ नई कविताओं को पढते हैं- जानकी पुल.
एक अकेला ईश्वर
एक
तुम ऐसी गुमशुदा हो
जो मिलने से पहले ही
गुम हो गई थी इस समय तक
भूल गया था मैं तुम्हारा चेहरा
और यह भी कि
खारा तुम्हें बहुत पसंद है
वही हुआ
हमारे शब्दों से ही
पहचान लिया हमने एक दूसरे को
शुरु में ठिठकते हुए शब्द
अब मौका ढूंढते हैं
गले लगकर मिलने का
इतनी दूर रहते हुए
सो जाते हैं चुपचाप
परस्पर आलिंगन किए
कौन है
और कहाँ है ईश्वर
जो जान सकेगा
संभव है वह होना भी
जो उसने रचा ही नहीं
दो
जब भी मिलता है मुझे थोडा समय
नीचे जा खडा होता हूं आकाश-बेल के
बंद करके अपनी मन की आंखों को
दूर दूर तक
कोई नहीं होता वहां
ना कोई ध्वनि
ना ही समय के चलने की आवाज
तुम भी जैसे अपलक
इंतजार कर रही होती हो मेरा
मैं मुस्कराता हूँ
तुम आकाश-बेल के बाहर झांकने लगती हो
अनगिनत बस्तियों
और अनंत लोगो की भीड़ देखने
खींच लेता हूं तुम्हारा हाथ पकड़ अपनी तरफ
मुझमें गुम जाती हो तुम
फुरसत ही नहीं मिली
बहुत दिनों से
आकाश-बेल के नीचे जाने की
वहां खड़े-खड़े
अब तक तो
नाराज भी हो गई होगी तुम
आता हूं मैं
तब तक
तुम केवल पढ़ लो इन शब्दों को
पढ़ते ही
मिल जाउंगा किसी पंक्ति में
उसी मुस्काराहट के साथ
ईश्वर को धन्यवाद देता
अदृश्य बनाई उसने आकाश-बेल
अगर वाकई उसने बनाई तो
तीन
कैसा है ईश्वर
जिसका अधिकार ही नहीं
मेरे मन पर
हट जाना चाहिए उसे
तत्काल अपने पद से
कोई दूसरा भी आया अगर
नहीं कर पाएगा नियंत्रण वह भी
हमारे अपने-अपने मन पर
सच तो यह है कि
तुमसे मिलने के बाद
मेरी भी नहीं सुनता
मेरा अपना ही मन
झूठ मत बोलना
क्या सुनता है तुम्हारी भी
तुम्हारा अपना मन
चार
कैसे संचालित करता होगा
इतने बडे ब्रह्मांड को
एक अकेला ईश्वर
क्या कभी देखता होगा वह
मिश्र के पिरामिड की छाया
उसी ने डुबोया होगा शायद
गुस्से के कारण टाइटैनिक
क्या समय मिलता होगा उसे
खजुराहो की प्रस्तर प्रतिमाएं देखने का
उसे तो यह भी नहीं पता
भरतनाट्यम और ध्रुपद से भक्ति की जा रही है उसकी
पर हमें क्या इससे
बताता हूं तुम्हें केवल एक बात
हमारे शब्दों को पढकर
सार्थक हो जाता होगा
उसके बनाए वैभव का सौंदर्य
पांच
हमारे कहे गए शब्दों का
असली अर्थ जानने
सपने में सेंध मारने लगा है ईश्वर
तुम सपने में वैसे भी नहीं बोलती हो
चुप रहा करूंगा मैं भी
देखते हैं
तब क्या जासूसी करता है ईश्वर हमारी
उकता जाएगा वह भी
हमारा सब कुछ अनकहा देखकर
सोचेगा
यहीं मिलना थी पराजय उसको
अभी भी मंडरा रहा है वह
अदृश्य होकर इन शब्दों के इर्द-गिर्द
शायद कोई सिरा मिल जाए उसे
हमारे मन को पढ़ने के लिए
छह
कल तो हद ही कर दी उसने
तमाम मर्यादा और शालीनता छोड
बैठा रहा मेरे पैरों के पास
यह गुहार लगाता हुआ
‘‘बता दो, मन में क्या है तुम्हारे’’
‘‘क्या करोगे जानकर’’
सिटपिटा गया वह यह सुनकर
फिर दयनीय बनकर बोला
‘‘जो सुना है मैंने अपने कानों से
सिर्फ एक बार दिखा दो उसको’’
अगर तुम राजी हो
ऐतराज नहीं मुझे भी
उसे ही बना लेते हैं हम
हमारे अपने मन का गवाह
सात
कितना गुस्सा किया तुमने कल
कितनी छोटी सी बात पर
कितना मनाया मैंने तुम्हें
कितनी बार पकड़वाए
गिन-गिन कर तुमने कान मेरे
मुझे तो पता है
मेरे लिए ही आई थी तुम
अपने जूड़े में फूल लगा कर
तुम्हें पता नहीं पर
उस फूल के पीछे बैठा ईश्वर
हमें देख मुस्करा रहा था
5 Comments
इस श्रृंखला की पहली कविता असाधारण है.
जेबां घाल्या हाथ जणा ही जाणिया, रुठ्योडो भूपाल क टूठ्या बाणियां
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