हाल में जिन कवियों की कविताओं ने विशेष ध्यान खींचा है उनमें फरीद खां का नाम ज़रूर लिया जान चाहिए. उनकी कविताओं के कुछ रंग यहाँ प्रस्तुत हैं- जानकी पुल.
सोने की खान
एक कलाकार ने बड़ी साधना और लगन से यह गुर सीखा
कि जिस पर हाथ रख दे, वह सोना हो जाये।
उसकी हर कलाकृति सोना बनने लगी,
और हर बार दर्शक ख़ूब तालियाँ बजाते।
और हर बार सोना बनाने की उसकी ताक़त ख़ूब बढ़ती जाती।
उसने अपने आस पास की चीज़ों पर हाथ रखना शुरु कर दिया।
हर चीज़ सोना बनती गई।
उसकी कुर्सी, उसकी मेज़, उसके बर्तन।
उसके घर वालों ने ख़ूब तालियाँ बजाईं।
उसकी दीवारें, दरवाज़ें, खिड़कियाँ सब सोने की बन गई।
हर चीज़ जब बन गई सोना,
उसने माँ बाप को छुआ, बच्चों को छुआ।
उसकी बीवी भाग खड़ी हुई।
उसने अपने सिर पर हाथ रखा,
और उसका घर सोने की खान बन चुका था।
वह पहला कलाकार था,
जिसके घर में इतना सोना था।
9 मई 2011, अप्रकाशित।
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जैसे जैसे सूरज निकलता है,
नीला होता जाता है आसमान।
जैसे ध्यान से जग रहे हों महादेव।
धीरे धीरे राख झाड़, उठ खड़ा होता है एक नील पुरुष।
और नीली देह धूप में चमकने तपने लगती है भरपूर।
शाम होते ही फिर से ध्यान में लीन हो जाते हैं महादेव।
नीला और गहरा …. और गहरा हो जाता है।
हो जाती है रात।
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गंगा मस्जिद
यह बचपन की बात है, पटना की।
गंगा किनारे वाली ‘गंगा मस्जिद’ की मीनार पर,
खड़े होकर घंटों गंगा को देखा करता था।
गंगा छेड़ते हुए मस्जिद को लात मारती,
कहती, “अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी से नहा भी लिया कर”।
और कह कर बहुत तेज़ भागती दूसरी ओर हँसती हँसती।
मस्जिद भी उसे दूसरी छोर तक रगेदती हँसती हँसती।
परिन्दे ख़ूब कलरव करते।
इस हड़बोम में मुअज़्ज़िन की दोपहर की नीन्द टूटती,
और झट से मस्जिद किनारे आ लगती।
गंगा सट से बंगाल की ओर बढ़ जाती।
परिन्दे मुअज़्ज़िन पर मुँह दाब के हँसने लगते।
मीनार से बाल्टी लटका,
मुअज़्ज़िन खींचता रस्सी से गंगा जल।
वुज़ू करता।
आज़ान देता।
लोग भी आते,
खींचते गंगा जल,
वुज़ू करते, नमाज़ पढ़ते,
और चले जाते।
आज अट्ठारह साल बाद,
मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर।
गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते।
सरकार ने अब वुज़ू के लिए
साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है।
मुअज़्ज़िन की दोपहर,
अब करवटों में गुज़रती है।
गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को,
मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है।
गंगा मुझे देखती है,
और मैं गंगा को।
मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है।
……………………………………………06/12/2010
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दादा जी साईकिल वाले
मैं ज्यों ज्यों बड़ा होता गया,
मेरी साईकिल की ऊंचाई भी बढ़ती गई।
और उन सभी साईकिलों को कसा था,
पटना कॉलेज के सामने वाले “दादा जी साईकिल वाले” नाना ने।
अशोक राजपथ पर दौड़ती, चलती, रेंगती ज़्यादातर साईकिलें
उनके हाथों से ही कसी थीं।
पूरा पटना ही जैसे उनके चक्के पर चल रहा था।
हाँफ रहा था।
गंतव्य तक पहुँच रहा था।
वहाँ से गुज़रने वाले सभी, वहाँ एक बार रुकते ज़रूर थे।
सत सिरी अकाल कहने के लिए।
चक्के में हवा भरने के लिए।
नए प्लास्टिक के हत्थे या झालर लगवाने के लिए।
चाय पी कर, साँस भर कर, आगे बढ़ जाने के लिए।
पछिया चले या पूरवईया,
पूरी फ़िज़ा में उनके ही पंप की हवा थी।
हमारे स्कूल की छुट्टी जल्दी हो गई थी।
हम सबने एक साथ दादा जी की दुकान पर ब्रेक लगाई।
पर दादा जी की दुकान ख़ाली हो रही थी।
तक़रीबन ख़ाली हो चुकी थी।
मुझे वहाँ साईकिल में लगाने वाला आईना दिखा,
मुझे वह चाहिए था, मैंने उठा लिया।
इधर उधर देखा तो वहाँ उनके घर का कोई नहीं था।
शाम को छः बजे दूरदर्शन ने पुष्टि कर दी
कि इन्दीरा गाँधी का देहांत हो गया।
चार दिन बाद स्कूल खुले और हमें घर से निकलने की इजाज़त मिली।
शहर, टेढ़े हुए चक्के पर घिसट रहा था। हवा सब में कम कम थी।
स्कूल खुलने पर हम सब फिर से वहाँ रुके, हमेशा की तरह।
मैंने आईने का दाम चुकाना चाहा,
पर दादा जी, गुरु नानक की तरह सिर झुकाए निर्विकार से बैठे थे।
उनके क्लीन शेव बेटे ने मेरे सिर पर हाथ फेर कर कहा, “रहने दो”।
एक दानवीर दान कर रहा था आईना।
उसके बाद लोग अपने अपने चक्के में हवा अलग अलग जगह से भरवाने लगे।
उसके बाद हर गली में पचास पैसे लेकर हवा भरने वाले बैठने लगे।
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एक और बाघ
गीली मिट्टी पर पंजों के निशान देख कर लोग डर गये।
जैसे डरा था कभी अमेरिका ‘चे’ के निशान से।
लोग समझ गये,
यहाँ से बाघ गुज़रा है।
शिकारियों ने जंगल को चारों ओर से घेर लिया।
शिकारी कुत्तों के साथ डिब्बे पीटते लोग घेर रहे थे उसे।
भाग रहा था बाघ हरियाली का स्वप्न लिये।
उसकी साँसे फूल रही थीं,
और भागते भागते
छलक आई उसकी आँखों में उसकी गर्भवती बीवी।
शिकारी और और पास आते गये
और वह शुभकामनाएँ भेज रहा था अपने आने वाले बच्चे को,
कि “उसका जन्म एक हरी भरी दुनिया में हो”।
सामने शिकारी बन्दूक लिये खड़ा था
और बाघ अचानक उसे देख कर रुका।
एकबारगी सकते में धरती भी रुक गई,
सूरज भी एकटक यह देख रहा था कि क्या होने वाला है।
वह पलटा और वह चारों तरफ़ से घिर चुका था।
उसने शिकारी से पलट कर कहा,
“मैं तुम्हारे बच्चों के लिए बहुत ज़रूरी हूँ, मुझे मत मारो”।
चारों ओर से उस पर गोलियाँ बरस पड़ीं।
उसका डर फिर भी बना हुआ था।
शिकारी सहम सहम कर उसके क़रीब आ रहे थे।
उसके पंजे काट लिये गये, जिससे बनते थे उसके निशान।
यह उपर का आदेश था,
कि जो उसे अमर समझते हैं उन्हें सनद रहे कि वह मारा गया।
आने वाली पीढ़ियाँ भी यह जानें।
उसके पंजों को रखा गया है संग्रहालय में।
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खरोंचें और टाँकें
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होंठ सिले,
पलकें सिलीं
दुपट्टा माथे से टाँक,
कटघरे में वह खड़ी थी,
और साध रखा था एक गहरा मौन।
वकील उससे पूछते जा रहे थे सवाल।
जैसे अँधे कुँए में उपर से कोई पूछ रहा हो,
कोई है ? कोई है ?
और कुआँ बस मुँह बाय पड़ा हो।
वह इसलिए नहीं चुप है कि बताना नहीं चाहती कुछ भी।
बल्कि वह समझ चुकी है,
कि खुले आम इतना कुछ होने के बाद भी,
अगर कोई पूछता है कि क्या हुआ,
तो यह नाटक है इंसाफ़ का और कुछ नहीं।
और जो वाक़ई नहीं जानते।
उसके खरोंचों को देखें नज़दीक से।
खोलें उसके टाँकें।
ज़रा संभाल के,
टाँकों ने ही संभाल रखा है उसके टुकड़ों को।
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