जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

अभी हाल में ही युवा कवयित्री विपिन चौधरी को डॉ अंजना सहजवाला कविता सम्मान मिला है. जानकी पुल की ओर से उनको बधाई और प्रस्तुत हैं उनकी कुछ नई कविताएँ- जानकी पुल.
खोज अर्थात वास्कोडिगामा  
महज़ काली मिर्च की खुश्बु ही
किसी लम्बी भटकन का कारण नहीं हो सकती
एक टीस के मातहत ही
जोखिम उठाने का सामान बंध सकता है
एक राह दूसरी राह का दामन थामती है
जब कोई दो चार काम की चीज़ें बगल में बाँध कर
अनजानी राह पर अकेला चल निकलता है
बिना किसी नैन- नक्श के
सिरे के बल पर
मिट्टी, जल और ज़मीन पर निशान बनाता हुआ
कच्ची पगडंडीयाँ खोजता-बनाता.
ऐसे सिरफिरे को पुर्तगाल में वास्कोडिगामा और
किसी दूसरे देश में दशरथ मांझी का नाम दिया गया  है 
इधर एक हम रहे
जिन्हे सुई तक खोजना भारी पड़ा
एकांत का आडम्बरहीन सुख हमें कुछ खोजने से रोकता रहा
इन दो पांवो ने हमें अपने से कभी दूर नहीं होने दिया
एक दिन भी ऐसा नहीं गुज़रा जब हम
अपने करीब आये हों और इससे उलट कभी अपने से दूर गए हों
हम कबीर की उस राह के नजदीक थे जो सीधे मन से हो कर राह बनाती थी
उस पर भी एक प्रेम ने जीते-जी कई मुश्किल पैदा कर दी
एक राह छोड़ कर बाकि सभी राह बंद थी यहाँ हमारे लिये
हमारा बागी भी इसी एकलौती राह में धूनी रमाता चला गया
हाल यह है कि हमारा नाता केवल हमीं से रहा
एकला चलोका सटीक ज्ञान भीतर उतारने वाले अकेले तुम्ही निकले जिसने
एक गहरी साँस ले,
दूरियों को पांवो से नापने का प्रण लिया
तब प्रार्थनाओ की कंपकंपाती लौ और
कब्रिस्तानो का नीरव आशीर्वाद तुम्हारे पेटी से सिमट गया होगा      
धुँआधार-नाविक-खिलाड़ी समुद्र के बड़े-बडे पत्थरों से टकरा कर राह भटकते रहे 
पर तुमने व्यापार के नाम पर लगभग लगभग
कई नदी, नाले और टीले पार किये
एक दिन आ पहुंचे मछुआरो, नटों की अजातशत्रु धरती के पश्चिमी तट पर 
तब इस  चौरस  भूखंड ने पहली बार भारत के नाम से गर्भ-धारण किया 
इस नए देश ने अपनी पहचान पर ऊँची
अंगडाई ली
इसी सुगबुगाती गंध की तुम्हे तलाश थी
जो पसीने से हमेशा तर रहती हो
और जिसकी आँखों में हमेशा नमी विराजती हो
जिसका स्मित-विस्तार चारों दिशाओं में फैला हो
तुमने इस देश की खुशबूदार सुबह, मसालेदार शाम और सौंधी रातों से संसार भर मे परिचय करवाया 
यह तुम्हारी मेहरबानी ही थी कि
हम घोर आलसी जीवों को 
बैठे-बिठाये अपने पांवों के नीचे जमीन मिल गयी 
यह जुदा बात है कि इस धरा के आदर में ठीक से नतमस्तक होने का सलीका 
हम आज तक  भी नहीं सीख पाए है.

शहजादी (१६१४-१६८१) का चितकबरा प्रेम 
किस्से- कहानियों  के पिटारे में बंद धूसर वक़्त की एक  कब्र
कब्र में बैचैन रूह 
और शाम का जम्हाई लेता उनींदा मौसम  
इन्ही पलों के दरमियाँ इतिहास का सीना चौड़ा होते- होते रह गया
अचानक ही जब एक शहजादी की बैचेन रूह ने दाईं करवट ली
दौलतमंद, मगर उदासी से लबरेज़ शहजादी
उम्र का महकता हिस्सा अपने बीमार शहंशाह पिता की तीमारदारी में अर्पित करती शहजादी 
महल की बारीक झिर्रीयों से बाहर अपने अरमानो के सलमे-सितारे जडित सेहरे को ताकती शहजादी 
प्रेम में पगी अपनी आत्मा के तारों से किसी के अंधेरे शामियाने को जगमगाती शहजादी  
दुनिया के प्रेम-विज्ञानी भी प्रेम में ज्यादा छूट नहीं दे सके
उदार होने से पहले नक्सली बन हथियार उठाने से वे कभी बाज नहीं आये
प्रेम  की अंतिम गति दुनियादारी के बोझ तले दफ़न होने की रही  है
यही कारण रहा कि शहजादी का प्रेम भी वर्जित फल सा अनचखा ही रह गया  
कुछ मामलो में समय और समाज अलग-थलग पड़ जाते हैं,
पर प्रेम के मामले में समय और समाज दोनों ने एक साथ अपने पाँव जोड़े 
इन दोनों का चलन विज्ञान के हिसाब से चलने का रहा और 
विज्ञान ने  सदा ठोस और तरल चीजों का आदर करना सिखाया 
प्रेम का मामला दूसरा था
न ठोस न तरल
प्रेम की सरंचना वाष्पीकरण की घेरदार प्रक्रिया के नज़दीक ठहरी  
पहले तरल फिर वाष्प फिर तरल फिर वाष्प
आलिशान महल के भीतर बीमार शहंशाह पिता का वायदा था और 
बाहर धड़कती-सांस लेती हुई शहजादी की  चितकबरी दुनिया 
दोनों मे दूरी जरुरत से कुछ जायदा ही थी    
सो किसी साँझा रणनीति की सम्भावना लुप्तप्राय हो चली  
जब कभी महल के इर्द-गिर्द घूमता हुआ प्रेम गुनगुनाता तो
पिता के पलंग के नज़दीक बैठी शहजादी भाग कर कुरान की शरण लेती
कुछ पल सुकून के बाद
प्रेम फिर छोटे-छोटे शब्द बोलता, बंद पंखो की  गौरया की तरह   
हैरानी नहीं कि प्रेम और शहजादी 
दोनों की आँखों में नमी का स्थाई डेरा ताउम्र बसा रहा  
प्रेम का आसरा अटारी पर बैठे कबूतर थे 
जो दो दिलो के आपसी पैगाम बांचा करते  
यूँ तो जहीन बेगम ने साहिबाबाद बाग़ और चांदनी चौक का खूबसूरत नक्शा ईजाद किया था
पर मन को मनाने की चीज़े दूसरी थी 
कविता, चित्रकारी और नन्हें बच्चों ( जिन्हें शहजादी  कविता लिखना सिखाती थी} ने बिखरती शहजादी को संभाले रखा
अक्सर शाम को यादों की चौसर बिछती
और शहजादी अपनी जमा-पूंजी  हारती जाती 
वायदे अक्सर ही कठोर हुआ करते हैं
और इस बार एक पिता का बेटी से वायदा था
महल की चमक पर आंच न आने देने का   
रुखसत होते हुए भी पिता अपना हक जताने से नहीं चुके  
यह बिना हलाल किये बलि दिये जाने का मामला था
होना कुछ भी नहीं था और हुआ कुछ भी नहीं
समय ने शहजादी को बूढ़ा बना दिया और प्रेम को जवान
जब एक बीमार और बूढ़ी शहजादी महल में अकेली रह जाती है
तब उसकी कहानी कविता मेरूपांतरित होने को बाध्य होती है
फिर जब एक दिन कविता का दाना-पानी भी ख़तम हो जाता है तो
वह रूह मे ढल जाती है और
रूहें अक्सर बेचैन ही हुआ करती हैं
इधर भटकते हुये  प्रेम को कहीं ठिकाना नहीं मिला  
तो वह भी बरसों-बरस कब्र की सीली ज़मीन के भीतर 
बैठ अपना हिसाब- किताब  तय करता रहा 
टनों मिट्टी के बोझ और
मौसमों की पुरज़ोर आवाजाही के बावजूद
प्रेम और रूह का तीखापन बरक़रार रहा 
पर मृतआत्माओं की भी  सीमा हुआ करती है
और यह सीमा एक करवट पर ख़त्म हो जाती  है 
तब प्रेम में अटूट आस्था रखने वालों को किसी  रोज़
शहजादी की कब्र पर धूमिल सा लिखा हुआ कुछ संज्ञान में आता है 
“प्यार तब भी गुनाह था
प्यार इस घड़ी  भी गुनाह है
प्यार तब भी स्त्रियों की बपौती थी
प्यार आज भी केवल स्त्रियों की निजी सम्पति है‘.

प्रथम  पुरूष 
तमाम ठोकरे प्रथम  पुरूष के आवृत में रहकर खाने के बावजूद
इससे बाहर निकलने की ज़हमत
हमने कभी नहीं ऊठाई
निपट नौसिखये की तरह  प्रेम मे डूबे
रिश्तों की नुकीले शाखाओं से घायल हुये
सब कुछ दरीचे से देखा, परखा पर इसकी चौहद्दी से एक बार भी  ओझल नहीं हुये
घोर स्वार्थी बन अपने पर ही नज़रे जमायी रखी
अपने आप को मर्यादा पुरूषोतम बनने का उदघोष यहीं से जारी किया
प्रथम पुरूष की इस बानी में कुछ बेवकूफ लोगों को मोहित करने में कामयाब भी हुए 
दोस्त बनकर कैसे पीढ पर वार किया जाता है
बाहर- भीतर, भीतर- बाहर आने जाने में
कितनी मुस्तैदी रखनी होती है
इसी में रह कर जाना
कई खानों मे अपना बंटवारा किस बढ़िया कायदे से  करना है  
कब दुबके रहना
कब मक्मारी दिखानी
कब अपने दाँत और नाखून तेज़ करने हैं
कब साधु का बाना ओढ घर के अँधेरे कोने में शरण लेनी है
एक साथ  डाकूपन की खुजली और ओमशांति के गुरु-मंत्र का जाप 
किस होशियारी से करना है 
घंटा और घडियाल दोनों को कब और किसके कानों के पर्दे पर दस्तक की तरह देना  है
कब बेहद मामूली बन कर सभा में आना है
इतना लम्बा-चौडा गणित प्रथम पुरुष के सांचे में रहकर की अर्जित किया
यहाँ प्रथम पुरुष के आवरण मे कई सुविधायें एक साथ भोगने का कुटिल सुख था इसीलिये
कई नेक आत्माओं के समझाने के बावजूद
अंतत हमने प्रथम पुरूष के घेरे में ही जीना स्वीकार किया. 

एक वक़्त से दूसरे वक़्त
मरुस्थल से दोस्ती के वक़्त से ही
हवा पानी की तरफ से मेरे हाथ तंग हैं
लगता है इस बार बसंत भी मेरी ओर से आँख फेर लेगा
तब मेरे खाते में केवल ढलती शामें ही बची रहेंगी
मैं, मरुस्थल और हमारी बेबस थकान
एक ही पंक्ति मे खडे रहेंगे 
फिर एक लम्बी ऊब से दूसरी उब के बीच
समय सारिणी के अनुशासन को छलनी करते हुए
मै भूमध्य रेखा पर नज़र डालूँगी
सौर मंडल के ताम- झाम को नजदीक से समझने की कोशिश में   <
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18 Comments

  1. अनीता जी …कविता में जो भी बिम्ब लेखक अपनाता है ,वो जाने अनजाने उसके संपूर्ण परिवेश,उसकी मानसिकता को अभिव्यक्त करते है…ज़ाहिर है जीवन की परिधि जितनी विस्तृत होगी,बिम्ब भी उतने ही पृथक और नवीन होंगे….अकविता के दौर में भी कुछ ऐसा ही लेखन हो रहा था,आज सबको मालूम है की उन एक-से-एक प्रतिभाशाली कवियों का क्या हश्र हुआ????

  2. vipin jee ko hamari tarf se bahut bahut badhai……sundar kavitay hai unki……….bhavishaya me unki kavitao ki sundarta me aur hi nikhar aata rahega…….bahut bhut shubhkamnaye……..

  3. DUKH KISSEY KAHTEY WAALEE KAVITA GALTEE SE AADHII HEE UPLOAD HUEE HAI
    PUREE ES PRAKAR HAI

    भीतर सीने में बुलबुले की तरह और

    बाहर आँखों के पानी की तरह

    दुख के डैने इतने मज़बुत थे

    कि अक्सर मैं उसके डैनों पर सवार हो

    दुनिया का तमाशा देखती फिर

    हम दोनों हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते

    और कभी अचानक से चुप्प हो उठते

    कई चमकीली चीज़ो से बहुत दूर ले जाने वाला

    और उनकी पोल पटटी से वाकिफ करवाने वाला दुख ही था

    इस तरह दुख लगातार माँझता रहा और मैं मँझती रही

    नाई के उस्तरे की तरह तेज़ और धारधार

    दुख ने स्वास्थ्य दिनों में भी पोषण और दवा दारू की

    दुख के सौजन्य से मिलता रहा

    आत्म-निरिक्षण का एकान्तिक सुख

    दुख से मेरी खूब पटी

    दुनिया को उदास करना खूब आता था

    और मुझे उदास होना

    तब दुख मेरे कंधे पर हाथ रख मुझसे बातें करता

    और हम दुनिया से दूर एक नयी दुनिया के पायदान पर

    खडे हो, पिछली दुनिया की धूल साफ करते

    दुख चुम्बक की तरह उदास और बिखरी चीज़ों को खींच लेता

    फिर हम बैठ कर उनहें करीनें से सज़ाते

    दुख के लगातार सेवन का सबसे अज़ीज फायदा यह रहा

    कि किसी बैसाखी के सहारे को मैनें सिरे से इंकार कर दिया

    फैज़ का यह कथन

    'दुख और नाखुशी दो अलहदा चीज़ें है'

    मेरे जीवन के आँगन मे बिलकुल सही उतरा

    दुख ने खुशियाँ अपने दोनों मज़बुत हाथों से बाँटी

    हो न हो

    कासिम जान की तंग गलियों से गुजरते हुए,

    मिर्ज़ा ग़ालिब अपना रूख जब

    पुष्ट किले की दीवार पर उभरे हुए काले घेरे की ओर करते होगें

    तो एकबारगी ठहर कर इस अशरीरी दुःख से आत्मालाप किया करते होगे।

  4. फिलवक्त मेरी सारी उर्जा झटपटाहट की कोख भर
    आकाश में विलीन होती जा रही है
    और मै बंधे हाथ- पांवो से इस विलीन होती
    अशरीरी छटपटाहट को बिना पलक झपकाए देर तक देखती हूँ.

    ………….(0)(0)…………..

  5. काफी गहराई है आपकी इन कविताओं में..पिछली कई कवितायेँ पढ़ी है आपकी सबमे कुछ न कुछ खास है जो दिल को छु जाता है…
    बस इसी तरह अपने फंस के समक्ष अपनी सुन्दर सुन्दर कृतिया प्रस्तुत करते रहा करिये..
    🙂

  6. ज़िंदगी के आजायबघर में एक दिलजले गाइड की तरह लगीं मुझे ये कवितायें जो लगभग सारे सन्दर्भ दिखाने के बाद अर्थ के सन्दर्भ को छोड़ कर बगल से गुजर जाती हैं !

  7. कविताएं अनेक पर सबके रूप नेक।
    प्रेम का बहुआयामित संसार,
    प्रेम विज्ञान,
    कील का सिर एक तरफ और सिरा दूसरी तरफ,
    यह क्‍या सिरसिरा है कि उसे सिर-पैर नहीं कहा जाता,
    प्रेम के कई कब्री रंग,
    प्‍यार की खोज से ओत प्रोत कविताएं एक विशिष्‍ट पाठकवर्ग की दरकार रखती हैं।

    कविताएं उतनी सहज, सरल नहीं क्‍योंकि इनमें छिपा गरल भी है, जो समाज ने दिया है, जितनी नजर आती हैं क्‍योंकि इनमें इतिहास भी है पर हास नहीं है। प्रेम से उजली कल्‍पनाएं, विचार और सच्‍ची भावनाएं हैं।

    विप इन को सम्‍मान रूपी चौधराहट के लिए एक बार फिर मन से बधाई।

  8. किस्से- कहानियों के पिटारे में बंद धूसर वक़्त की एक कब्र
    कब्र में बैचैन रूह
    और शाम का जम्हाई लेता उनींदा मौसम
    इन्ही पलों के दरमियाँ इतिहास का सीना चौड़ा होते- होते रह गया
    अचानक ही जब एक शहजादी की बैचेन रूह ने दाईं करवट ली
    sundar! hardik badhai!

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