जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

शास्त्रीय /उप शास्त्रीय संगीत के अंगों में जीवन रहस्य तलाशती वंदना शुक्ल की इन कविताओं की प्रकृति काफी अलग है. इनमें संगीत की आत्मा और मनुष्य के जीवन का संगीत साथ-साथ धड़कता सुनाई देता है. तुमुल कोलाहल कलह में- जानकी पुल.   
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अलंकार (गंतव्य की ओर)- 
सांस जीती हैं देह को जैसे
स्वरों में धडकता है संगीत.
एक यात्रा नैरत्य की…
थकना जहां बेसुरा अपराध है
यात्रा…
सासे सांतक
या  
ज़न्म से मृत्यु तक
आरोह से अवरोह तक
स्वर-श्वांस के ऑर्बिट में…
जीवन की सरगम उगती  है
उन रेशेदार जड़ों के सिरों से 
जिनके चेहरे पर
पुते होते हैं अंधेरों के रंग
और गहरी भूरी राख के कुछ संकेत.
रंग…
घूँघट खोलती है सांसों की दुल्हन
उँगलियों की कोरों से,
देखती है सात द्वारों के पार
वो अनंतिम देहरी…
ज्यूँ तलहटी से देखता है कोई बच्चा
आसमान में टंगा शिखर
जैसे जड़ पर दारोमदार है सोचने का
पेड़ की सबसे ऊंची पत्ती
या गीले पंख फडफडाकर तैयार करता है खुद को
उड़ने के लिए पक्षी,
नीलेपन को आँखों में उतार…
जड़झाड देती है कुछ मिट्टी अपने तलवों की
जिनके आसपास बिखरे हैं
शब्दों के कुछ तिनके
घोंसले भविष्य की राहत होते हैं
बारिश,धूप, तूफ़ान, या पेड़ के गिरने के
तिलिस्म के अलावा.
तमाम अंतर्निहितों के लिए अभी
बाकी है शब्दकोष पलटना,
जैसे कांटे और ज़ख्म…
फूल और कालीन
धूप और छाँव…
बिवाइयां और दरारें
क्योंकि यात्रा का
विचारों के बावजूद कोई
विकल्प नहीं होता…
आरोह-अवरोह
पालने में झूलते कुछ सपने
जहां से उडाती है कल्पना
सपनों की रंगीन पतंग जिसकी
मियाद है अंतिम साँस तक…
ज़मीन पर खड़ा आदमी तौलता है हौसलों से
आसमान की दूरी
और डोर सोचती है,
कांपती हुई, हवा का रुख
आसमान से गुफ्तगू करती है एक इच्छा
दूसरे पल ज़मीन देती है ज़र्जर सपनों को दिलासा
झाडता है आदमी अपनी धूल धूसरित उम्मीदें
भरता रहता है ज़िंदगी भर इस तरह
अपनी कटी हुई पतंगों के रिक्त स्थान
स्वर-मालिका
(शब्द-हीन एक ताल-स्वरबद्ध रचना…)
लटपटाते क़दमों से चलता शिशु
धरती को ठेलता,
एक एक कदम साधकर रखता हुआ
गिरने का शब्द है रोना
और चलने का किलकारियां
दो ही दुधमुहीं पत्तियां हैं अभी
शब्दकोश के नाज़ुक तरु पर उसके
पर साध साध कर ही सीखेगा वो
जानता है साधने का मतलब होता है ज़िंदगी
और भय का चूक
द्रुत ख़याल-(शब्द-स्वर बद्ध एक द्रुत बंदिश)-
दो हिस्सों में बंधी उम्मीदें
स्थायी की सपाट ज़मीन और
हौसलों की बुलंदी छूता अंतरा 
यानी कोरे पृष्ठों पर लिखी 
पुख्तेपन की भरोसेमंद इबारत
पर ढेर हो जाती हैं उम्मीदें अमूमन 
गंतव्य से पहले ही  
हो जाता है उनके लिए
तार सप्तक के सा तक पहुँचना
‘’अन्तिलिया”’’ या एफिल टॉवर
पहुँच जाते हैं शुरू हुए थे जहाँ से
क्यूँ कि फिसलने की तासीर होती है 
छूना ज़मीन को 
कितने मनमौजी हो गए हैं स्वर
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3 Comments

  1. धन्यवाद आशुतोष जी ,अशोक जी ,आप दौनों की टिप्पणियां मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं ..साभार

  2. वाह. दो अलग-अलग विधाओं की अद्भुत जुगलबंदी. वंदना जी को सलाम!

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