जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

सीएनएन-आईबीएन की पत्रकार रूपाश्री नंदा से बातचीत करते हुए लेखिका अरुंधती राय ने कहा कि उनको इस बात की कभी उम्मीद नहीं थी कि विनायक सेन के मामले में फैसला न्यायपूर्ण होगा. लेकिन वह इस कदर अन्यायपूर्ण होगा ऐसा भी उन्होंने नहीं सोचा था. बातचीत में उन्होंने आतंक और हिंसा को लेकर सरकार की नीतियों पर भी सवाल उठाये हैं. इस तरह की नीतियों पर जिसमें जनता के बीच काम करने वाला राष्ट्रद्रोही ठहराया जाता है और भ्रष्टाचारियों का बाल भी बांका नहीं होता. पढ़िए पूरी बातचीत हिंदी में- जानकी पुल.
  
रूपाश्री नंदा– उस समय आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी जब आपने यह सुना कि विनायक सेन एवं दो अन्य लोगों को राजद्रोह के मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई गई है?
अरुंधती राय– मैं इस बात की उम्मीद तो नहीं ही कर रही थी कि फैसला न्यायपूर्ण होगा, लेकिन ऐसा लगा कि अदालत में जो साक्ष्य प्रस्तुत किये गए और जो फैसला आया उनका आपस में कोई संबंध नहीं जुड़ता. मेरी प्रतिक्रिया यह थी कि यह एक प्रकार से घोषणा थी… यह कोई फैसला नहीं था यह एक प्रकार से उनके आशय की घोषणा थी, यह एक सन्देश था, दूसरों के लिए चेतावनी थी. इसलिए यह दो प्रकार से काम करता है. चेतावनी पर ध्यान दिया जायेगा. मुझे लगता है कि जिन लोगों ने फैसला सुनाया है उनको इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि लोगों की प्रतिक्रिया इतनी एकजुट और प्रचंड होगी जैसी कि यह अभी है.
रूपाश्री नंदा– आपको न्यायपूर्ण फैसले की उम्मीद क्यों नहीं थी?
अरुंधती राय– इस केस पर हमारी नज़र पिछले कुछ सालों से थी. जिस तरह से इसका ट्रायल चल रहा था उसको लेकर ख़बरें आती रहती थीं. साक्ष्य यह है कि कुछ तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया. जो साक्ष्य थे भी, वे इतने कमज़ोर थे… यहाँ तक कि नारायण सेन, जिसको केंद्र में रखकर राजद्रोह का सारा मामला तैयार किया गया, भी उस समय तक राजद्रोह के मामले में अभियुक्त नहीं थे जब विनायक सेन को गिरफ्तार किया गया था. इसलिए यह लगता है कि इसके पीछे पूर्वाग्रह की भावना काम कर रही है जो प्रजातंत्र के लिए चिंताजनक है. अदालतों को, मीडिया को भीडतंत्र के हवाले कर दिया गया है.
रूपाश्री नन्दा– क्या आपको लगता है कि राज्य कभी जनतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा एवं आतंकवाद से रक्षा के बीच की झीनी सी रेखा पर कभी चल सकता है? क्या इसकी उम्मीद की जा सकती है?
अरुंधती राय– आतंक की परिभाषा में भी झोल है. हम इसको लेकर बहस कर सकते हैं, लेकिन इस तरह के क़ानून हमेशा से मौजूद रहे हैं, चाहे वह टाडा रहा हो या पोटा रहा हो. अगर हम इतिहास को देखें तो जितने लोगों को सजा सुनाई गई उनमें कितने अभियुक्त थे… शायद १ प्रतिशत या ०.१ प्रतिशत. क्योंकि जो लोग सचमुच गैर-कानूनी हैं, चाहे वे विद्रोही हों या आतंकवादी, उनकी क़ानून में कोई खास रूचि नहीं होती है.    
इसलिए इन कानूनों का हमेशा उन लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता रहा है जो आतंकवादी नहीं होते तथा किसी न किसी रूप में गैरकानूनी भी नहीं होते हैं. यही बात विनायक सेन के सन्दर्भ में भी है. असल मुद्दा यह है, अगर आप माओवादियों की बात करते हैं जो कि एक प्रतिबंधित संगठन है…तो उनको क्यों प्रतिबंधित किया गया है? क्योंकि वे हिंसा में विश्वास करते हैं- लेकिन आज के समाचारपत्र में यह लिखा हुआ है कि समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाके के पीछे हिन्दुत्ववादी ताकतें काम कर रही थीं. यहाँ तक कि मुख्यधारा के दल भी जघन्य किस्म की हिंसा से जुड़े रहे हैं., यहाँ तक कि नरसंहार तक के, लेकिन उनको कभी प्रतिबंधित नहीं किया गया. इसलिए किसको आप प्रतिबंधित करने के लिए चुनते हैं किसको प्रतिबंधित नहीं करने के लिए चुनते हैं- ये सभी राजनीतिक फैसले होते हैं. लेकिन आज हालात यह है कि सरकार एवं आर्थिक नीतियां खुलकर असंवैधानिक रूप से काम कर रही हैं. वे हैं जो pesa(panchayat extension schedule area act), के खिलाफ काम कर रही हैं, उनकी आर्थिक नीतियों के कारण विस्थापन बढ़ रहा है, ८० करोड़ लोग २० रुपये से भी कम में गुज़ारा कर रहे हैं, साल में १७००० किसान आत्महत्या कर रहे हैं…
रूपाश्री नंदा– लेकिन यह हिंसा को जस्टिफाई नहीं करता है. सीएनएन-आईबीएन के सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि बहुसंख्यक लोग माओवादियों के मुद्दों से सहानुभूति तो रखते हैं लेकिन लेकिन वे उनके तौर-तरीकों से इत्तेफाक नहीं रखते हैं. हाँ यह बात सच है कि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी हिंसा करती हैं, लेकिन वे यह नहीं कहती कि यह उनका घोषणापत्र है. दोनों में यह फर्क है?
अरुंधती राय– हाँ, मैं मानती हूँ कि यह एक महत्वपूर्ण अंतर है. माओवादियों की पद्धतियों पर निश्चित तौर पर कोई प्रश्न उठा सकता है. लेकिन मैं कहना यह चाह रही हूँ कि ये क़ानून इस तरह के हैं कि किसी भी व्यक्ति को अपराधी बनाया जा सकता है. यह केवल माओवादियों के लिए ही नहीं है, उनके लिए भी है जो माओवादी नहीं हैं. यह जनतांत्रिक गतिविधियों को आपराधिक ठहराता है और अधिक से अधिक लोगों को क़ानून के दायरे से बाहर लाता है. इसलिए अंततः यह प्रति-उत्पादक है. अगर आप हिंसात्मक गतिविधियों में शामिल होते हैं तो आपको कई सामान्य प्रकार के कानूनों का सामना करना पड़ता है. इसलिए इस तरह के क़ानून का होना जिसमें राज्य के प्रति प्रतिरोध को अपराध माना जाए तो इस तरह से तो हम सब अपराधी हुए.
रूपाश्री नन्दा– तो सुरक्षा का उपयुक्त उपाय क्या होना चाहिए?
अरुंधती राय– देखिये. आपको यह समझना होगा कि यह सब इस बात से उपजता है कि राज्य की संस्थाओं में लोगों का विश्वास कम होता जाता है, लोग यह मानने लगे हैं कि प्रजातान्त्रिक संस्थाओं में उनके लिए न्याय की कोई उम्मीद नहीं है. इसलिए इसका कोई समाधान तुरत-फुरत में नहीं किया जा सकता है. आपको लोगों में यह विश्वास जगाना होगा कि आप उनके प्रतिरोध को समझते हैं और उसको दूर करने के लिए उपाय करना चाहते हैं. नहीं तो ऐसी स्थिति आती जायेगी जिसमें माहौल हिंसात्मक होता जायेगा…पुलिस या सेना के राज्य से किसी का भला नहीं होने वाला है. क्योंकि ८० करोड़ लोगों को कंगाल बनाकर आप सुरक्षित रहने की उम्मीद नहीं कर सकते. ऐसा नहीं होनेवाला.
अधिक से अधिक लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगाया जा रहा है, उनको सजा दी जा रही है.
आप एक ऐसी अवस्था का निर्माण कर रहे हैं जिसमें राष्ट्रविरोधी की परिभाषा यह हो जाती है कि जो अधिक से अधिक लोगों की भलाई के लिए काम कर रहा है, यह अपने आप में विरोधाभासी और भ्रष्ट है. विनायक सेन जैसा आदमी जो सबसे गरीब लोगों के बीच काम करता है अपराधी हो जाता है, लेकिन न्यायपालिका, मीडिया तथा अन्यों की मदद से जनता के १७५००० करोड़ रुपये का घोटाला करने वालों का कुछ नहीं होता, वे अपने फार्म हाउसों में, अपने बीएमडब्ल्यू के साथ जी रहे हैं. इसलिए राष्ट्रविरोधी की परिभाषा ही अपने आप में भ्रष्ट हो चुकी है…जो कोई भी न्याय की बात कर रहा है उसको माओवादी घोषित कर दिया जाता है. यह कौन तय करता है कि राष्ट्र के लिए क्या अच्छा है.
रूपाश्री नंदा– दिल्ली में आपके खिलाफ भी एफआईआर दर्ज हुआ है…क्या आपको यह लगता है कि आपके ऊपर भी राजद्रोह का मुकदमा बनाया जा सकता है?
अरुंधती राय– अभी तो यह सब कुछ कुछ लोगों द्वारा निजी तौर पर किया जा रहा है. जिस व्यक्ति ने मुकदमा दायर किया है वह अनाधिकारिक तौर पर भाजपा का प्रचार मैनेजर है. राज्य द्वारा यह नहीं किया जा रहा है और मैं इस पर कोई अति-प्रतिक्रिया व्यक्त कर अपने आपको शहीद नहीं घोषित करना चाहती. विनायक और सैकड़ों अन्य लोग जो जेल में हैं, सजा की प्रक्रिया में हैं…उनकी जिंदगियां तबाह कर दी गईं. अगर वे जमानत पर छूट भी जाएँ तो भी वे अदालत की फीस चुकाने में कंगाल हो जायेंगे. उनको अपनी प्रैक्टिस छोडनी पड़ी, जो बहुत बड़ा काम वे कर रहे थे उसे छोडना पड़ा. यह एक तरह से आपको चुप कराने की प्रक्रिया है, जो चिंताजनक है.
रूपाश्री नंदा– क्या आपने इतने बुरे हालात कभी देखे हैं… लोग इस बात को लेकर डरे रहते हैं कि वे किससे बातें कर रहे हैं, किससे मिल रहे हैं?
अरुंधती राय– देखिये कश्मीर और मणिपुर जैसे राज्यों में यह सब बरसों से चल रहा है… लेकिन अब वह राजधानी की फिजाओं में घुसता जा रहा है, आपके ड्राइंग रूम में घुस रहा है, जो चिंता का कारण है- लेकिन बस्तर में तो यह बरसों से हो रहा है.
रूपाश्री नंदा– आज हम जिस तरह के वातावरण में रह रहे हैं, एक लेखक के तौर पर उसे आप किस तरह देखती हैं?
अरुंधती राय– मेरा कहना यह है कि इस तरह की नीतियां हम खुद को बिना पुलिस या सैनिक राज्य में बदले लागू नहीं कर सकते. हमने सुना कि राडिया टेप या २जी घोटाला उजागर हुआ. लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के निजीकरण का मामला भी उतना ही बड़ा है, उतना ही मानवीय पहलू है. यह मनमाने ढंग से हो रहा है. एक राष्ट्र के रूप में हम संकट में हैं. हम उन लोगों की जुबान बंद करना चाह रहे हैं जो इनके प्रति चिंता व्यक्त कर रहे हैं, इनके खतरों से आगाह कर रहे हैं, वे ऐसे लोग नहीं हैं जो अपने देश से नफरत करते हों. अगर आप पीछे जाकर उनके लिखे को पढ़ें, उनके कहे को सुनें तो पाएंगे कि उन्होंने इस अवस्था की भविष्यवाणी बहुत पहले कर दी थी. ये वे लोग हैं जिनको सुने जाने की ज़रूरत है, न कि उनको जेल भेजा जाए, आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाए या मार दिया जाए.
Ibnlive.in.com से साभार
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4 Comments

  1. सच है ,की इस देश में ‘’कानून कमज़ोर लोगों के लिए ’ और फैसले ‘’, राजनैतिक समीकरणों के अंतर्गत लिए जाते हैं जहां ‘’आतंक और प्रतिबन्ध ’’की परिभाषाएं भी उन्ही के मानदंडों पर तय होती है!पर इन्ही सबके बीच विनायक सेन के फैसले पर ज़ोरदार प्रतिक्रियाएं और एकजुटता कहीं न कहीं संकेत है की वक़्त धीरे ही सही ,पर बदल रहा है !

  2. विनायक सेन की सजा उनके नेक काम को रोक चुकी है …ये दुखद और सोचनीय है …साजिशे कितनी गहरी हैं …और हम सब कितने लाचार !

  3. अब हम लोकतांत्रिक देश होने का अभिनय भी नहीं कर पा रहे हैं 🙁

  4. Pingback: Fernald Belcampo

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